संपादकीय

>> गुरुवार, 12 नवंबर 2009

''कथा पंजाब'' के प्रकाशन पर देश-विदेश के अनेक परिचित, अपरिचित मित्रों ने अपनी न केवल शुभकामनाएं प्रेषित कीं वरन मेरे इस प्रयास को सराहा और उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा भी की। मैं उन सबका हृदय से आभारी हूँ। दरअसल, यह हौसला अफ़जाई नि:संदेह किसी भी व्यक्ति को और बेहतर करने की ऊर्जा और शक्ति प्रदान करती है। यहाँ मैं पुन: दोहरा रहा हूँ कि मुझे कंप्यूटर और अंतर्जाल (नेट) की बहुत अधिक समझ और जानकारी नहीं है, परन्तु जितनी भी है, उसमें मैं अपना श्रेष्ठ और लीक से हटकर काम देने की सदैव कोशिश करता रहा हूँ। कंप्यूटर और नेट की दुनिया बहुत विशाल दुनिया है जिसमें ईमानदारी से अच्छा काम करने वालों की भी गिनती कम नहीं है। वे परस्पर एक दूसरे को सिखाने, इस तकनीक की नई से नई चीज़ें बताने और राह में आने वाली अड़चनों, कठिनाइयों को दूर करने की नि:स्वार्थ कोशिश करते रहते हैं। यहाँ मैं भाई आशीष खंडेलवाल जी जो ''हिन्दी टिप्स ब्लॉग'' (http://tips-hindi.blogspot.com) नामक अपने ब्लॉग के जरिये इस क्षेत्र की नई से नई जानकारियों को बहुत सरल ढंग से कंप्यूटर और नेट प्रेमियों को मुहैया कराते ही रहते हैं, का विशेष उल्लेख करना चाहता हूँ जिन्होंने ''कथा पंजाब'' की पोस्टिंग में आने वाली एक बड़ी तकनीकी त्रुटि को मेरे एक ही अनुरोध पर आगे बढ़कर तुरन्त दूर कर दिया। जैसा कि पिछले यानी कथा पंजाब के प्रथम अंक के संपादकीय में भी मैंने उल्लेख किया था, एक बार फिर भाई सुशील कुमार जी का मैं आभारी हूँ जो ''कथा पंजाब'' को लेकर बहुत उत्साहित रहे हैं और मेरी हर छोटी-बड़ी कठिनाई को अपनी कठिनाई समझ कर पूरी तत्परता से दूर करने में जुट जाते हैं।

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इस बार ''पंजाबी कहानी : आज तक'' के अन्तर्गत पंजाबी की पहली कथा पीढ़ी के प्रख्यात कथाकार (स्व0) गुरमुखसिंह ‘मुसाफिर’ की कहानी ''खसमांखाणे'' जा रही है। ''पंजाबी लघुकथा : आज तक'' के तहत पंजाबी लघुकथा की प्रथम पीढ़ी के बेहद सशक्त और चर्चित लेखक हमदर्दवीर नौशहरवी की पाँच चुनिंदा लघुकथाएँ आपके समक्ष हैं। ''स्त्री कथालेखन : चुनिंदा कहानियाँ'' स्तम्भ के अन्तर्गत पंजाबी की प्रख्यात लेखिका अमृता प्रीतम की एक मशहूर कहानी ''एक ज़ब्तशुदा किताब'' प्रस्तुत है जो नि:संदेह हिन्दी पाठकों के दिलों पर दस्तक देगी, ऐसा मेरा विश्वास है।

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''कथा पंजाब'' के अन्य स्तम्भों के अन्तर्गत भी समय-समय पर उत्कृष्ठ और श्रेष्ठ सामग्री देने का मैं भरसक प्रयास करता रहूँगा। आशा है, आप अपनी प्रतिक्रिया से मुझे अवगत कराते रहेंगे।

सुभाष नीरव
संपादक : कथा पंजाब

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पंजाबी कहानी : आज तक







पंजाबी कहानी : आज तक(2)

ज्ञानी गुरमुख सिंह 'मुसाफिर' (15 जनवरी 1889 - 18 जनवरी 1976)


ज्ञानी गुरमुख सिंह मुसाफिर एक कर्मठ राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ पंजाबी के बड़े साहित्याकार भी थे। उनके नौ कविता संग्रह और आठ कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ज्ञानी जी की कहानियों का क्षेत्र बहुत व्यापक था। उनकी कहानियों में आज़ादी की जंग, समाज की समस्याएं, हिन्दु-मुसलमान भाईचारा, विभाजन का दर्द, शरणार्थियों की दुख-तकलीफों से जुड़े विषय हमें देखने को मिलते हैं जिन्हें वह बेहद मनोवैज्ञानिक ढंग से कहानियों में उठाते हैं। ज्ञानी जी की प्रारंभिक कहानियाँ ''सभ हच्छा'', ''बागी दी धी'', ''रेशमी लीड़ा'' बहुत कामयाब कहानियाँ हैं। ''इक नवां पैसा'',''बल्हड़वाल'', ''अजायब'', और ''दुचित्त नंद'' उनकी अधिक चर्चित कहानियाँ रही हैं। 'पंजाबी कहानी : आज तक' में यहाँ प्रस्तुत है, शरणार्थी समस्या पर लिखी उनकी एक मनोवैज्ञानिक कहानी - ''खसमां खाणे'' ।
संपादक -कथा पंजाब


खसमां खाणे
गुरमुख सिंह मुसाफ़िर
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

अर्द्ध-जाग्रत अवस्था में ध्रोपदी ने कहा, नहीं उसके मुँह से बरबस ही निकल गया-''खसमां खाणे !'' हॉर्न की कर्कश आवाज़ से उसके कान जो फटने को आए थे। आज तक हॉर्न की जितनी भी आवाज़ें उसके कानों में पड़ी थीं, यह सबसे अधिक कर्कश थी।
''गणेसा टैक्सी वाला नहीं, चानन शाह आए होंगे।''
अपने पति भगत राम के मुँह से चानन शाह का नाम सुनकर ध्रोपदी कुछ शरमा-सी गई, ''हाय, कहीं शाह जी ने सुन ही न लिया हो।''
तीन-चार रोज़ पहले मुँह अंधेरे गणेसी की टैक्सी का हॉर्न सुनकर ध्रोपदी के मुँह से निकला था, ''खसमां खाणों को लगता है, रात में नींद ही नहीं पड़ती।'' उस वक्त जब भगत राम ने समझाया था कि इस टैक्सी वाले गरीब का चालान हो गया है, बेचारा शरणार्थी है, सिफारिश के लिए कह रहा है, तब ध्रोपदी ने और भी ऊँचे स्वर में कहा था, ''खाए खसमां नूं।'' गणेसा ने यह बात सुन ली थी, पर गरजमंद था, क्या कहता ? आज चानन शाह का लिहाज भगत राम को ध्रोपदी की झिझक से बचा गया था। कार दरवाजे के आगे खड़ी कर चानन शाह सीधा भगत राम के शयन-कक्ष में ही आ घुसा। ध्रोपदी ने स्वागत में 'आओ जी' कह कर कुर्सी आगे कर दी।
चुटकी बजाते हुए खड़े-खड़े ही चानन शाह ने पूछा, ''लाला जी, तैयार हो ?''
''जी हाँ, बस दवा की शीशी ले लूँ, लौटते हुए शायद देर हो जाए और...'' भगत राम की बात बीच में ही काट कर चानन शाह ने कहा, ''नहीं जी, अभी लौटते हैं, नई कार है। ढाई घंटे में अम्बाला, घंटा भर वहाँ और ढाई घंटे में ही वापस दिल्ली। कुल छह घंटों की ही तो बात है। अब छह बजे हैं, अगर हम दस-पन्द्रह मिनट में चल पड़े तो दोपहर सवा बारह बजे तक लौट आएंगे।''
''नहीं शाह जी, शरणार्थी कैम्प में मेरे दो सवा दो घंटे कम से कम ज़रूर लग जाएंगे।''
''चलो, ज्यादा से ज्यादा तीन बजे तक सही, शाम होने से पहले लौट ही आएंगे। उठो, जल्दी करो, जितना जल्दी निकलेंगे, उतना जल्दी लौटेंगे।''
ध्रोपदी बोली, ''अगर देर हो जाने का डर हो या रात में वहीं रुकना पड़ सकता हो तो कोई भारी कपड़ा या बिस्तर साथ...।''
चानन शाह ने ध्रोपदी को भी अपनी बात पूरी न करने दी और भगत राम को उसका हाथ पकड़ कर बिस्तर पर से उठा लिया, ''चलो, किसी चीज को साथ ले जाने की ज़रूरत नहीं, अभी तो लौट आना है। अगर सर्दी महसूस कर रहे हो तो कार में कम्बल रखा है, लपेट लो। तीन बजे तक तुम्हें हर हालत में घर पहुँचा देंगे।''
बड़ी तसल्ली के साथ नई कार के नरम गद्दों पर आराम से पीठ टिका कर बैठते हुए भगत राम ने पत्नी से कहा, ''कोई भी आए, तीन बजे का समय दे देना।''
चानन शाह ने भगत राम के घुटनों पर कम्बल फेंकते हुए कहा, ''बस, तुमने डिप्टी-कमिश्नर को शक्ल भर दिखानी है और हमारा काम हो जाएगा। फिर, तुम जहाँ चाहो, चले जाना बड़ी खुशी से... पेट्रोल बहुत है।''
लाला भगत राम शरणार्थी नेता थे। सवेर से शाम तक इनके पास ज़रूरतमंद आते रहते थे। ये सबकी बातें सहानुभूति से सुनते और उनका काम करवाने का यत्न करते। ध्रोपदी का भी स्वभाव वैसे तो बड़ा मीठा और दिल बड़ा हमदर्द था, पर तड़के जागने से पहले और रात को सोने के बाद अगर कोई उनका द्वार खटखटाता तो उन्हें उन पर कभी-कभी बड़ा गुस्सा आता।
अभी कार दरवाजे पर से हटी ही थी कि एक शरणार्थी ने लाला भगत राम के विषय में पूछा। ध्रोपदी ने जब बताया कि वह चानन शाह के साथ अम्बाला गए हैं, वह बड़बड़ाता हुआ चला गया, ''सरमायेदारों के साथ तो तुरन्त चल पड़ते हैं। अगर आज मेरे साथ कस्टोडियन के पास न गए तो शाम को मेरा सामान सड़क पर होगा।''
वह अभी गया ही था कि एक अन्य आ धमका, ''मुझे कर्ज़ तो मंजूर करवा दिया, पर लेने के लिए जमानत कौन दे ?''
''मेरे तबादले के कागजों पर आज दस्तख़त हो जाएंगे। मकान शरणार्थियों से भरा पड़ा है। माता-पिता बूढ़े हैं, घरवाली पूरे दिनों पर है। जहाँ तबादला हो रहा है, वहाँ रहने के लिए टैंट का भी प्रबंध नहीं।''
''मैं पेशावर में ए.डी.एम. था, यहाँ क्लर्की मिली है। उस पर से भी हटाने की बातें हो रही हैं।''
''बहन जी, एक सौ साठ बंगलों के मालिक को यहाँ किसी कोठी के बरामदे में भी टिकाना न मिले तो बताओ कहाँ सिर छिपाएँ।''
ध्रोपदी सभी आने वालों के काम सुनती रही और तीन बजे का समय देती रही।

नरम और नाजुक जल की बूँदें लगातार टपक टपक कर पत्थर की सख्त चट्टानों पर भी अपना स्थान बना लेती हैं। ध्रोपदी के हृदय में तो एक माँ का दिल है। ''पति गया, बेटा गया, अब इज्ज़त भी जाने वाली है।'' एक प्रौढ़-सी महिला शरणार्थी के मुख से ये शब्द सुनकर ध्रोपदी तीन बजे आने के लिए कहने ही लगी थी कि उसने अपनी व्यथा-कथा आरंभ कर दी। आँखें जुबान नहीं, पर बेजुबान भी नहीं। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे शरणार्थी महिला की दर्द कहानी उसकी जुबान और ध्रोपदी की आँखों से एक साथ ही सुनाई जा रही हो। इस बेसुधी में ध्रोपदी अन्य आने वाले लोगों को तीन बजे का समय देना भी एकबारगी तो भूल बैठी। एक अन्य स्त्री जिसने अपने बेहद गोरे बदन को तार तार हो चुके मैले-कुचैले दुप्पटे से बड़ी मुश्किल से जैसे तैसे ढंका हुआ था, ध्रोपदी की ओर आती दिखाई दी। शरीर के अग्रभाग को ढकने के लिए उसका सिर इतना झुका हुआ था कि वह सामने से आ-जा रहे व्यक्ति को भी नहीं देख सकती थी। धरती में नज़रें गड़ाये वह दरवाजे पर पहुँची ही थी कि वहाँ उसके पेट के दायें हिस्से से अपने विचारों में गुम खड़े एक शरणार्थी का सिर अचानक टकराया और वह स्त्री वहीं धड़ाम से गिर पड़ी। गिरने की आवाज़ से ही ध्रोपदी को उस स्त्री के बारे में पता चला। एक अन्य शरणार्थी महिला की मदद से ध्रोपदी ने उस स्त्री को उठाया और बाहर के कमरे में बिछी गंदी-सी दरी पर लिटा दिया जो लोगों की जूतियों-चप्पलों के कारण धूल से भरी हुई थी। कमरे में बैठे दूसरे सभी लोगों को ध्रोपदी ने तीन बजे आना कह कर उठा दिया था। गिरने वाली स्त्री की बेहोशी को देखकर ध्रोपदी के होश गुम हो गए। पसीना पसीना हुई वह अत्यन्त घबरा उठी। पहले से बैठी दूसरी शरणार्थी महिला ने उठकर दरवाजा अन्दर से बन्द कर दिया था। घबराई हुई ध्रोपदी ने दरवाजे की फांक से बाहर झांका ही था कि हॉर्न की आवाज़ उसके कानों में पड़ी। अरे ! तीन बज गए ?... ओह ! यह तो गणेसा है, खसमांखाणा ! पिछले शब्द ध्रोपदी के मुख से अनायास ही निकल गए थे। वह मन ही मन सोच में पड़ गई। तभी, उसने गणेसा को इशारा करके बुलाया। उसे कोई काम बताने में ध्रोपदी को संकोच हो रहा था किन्तु विवशता थी।
''करोलबाग गुरुद्वारा रोड पर लेडी डॉक्टर करतार कौर का नाम पूछ लेना।''
गणेसा सारी दिल्ली से परिचित हो चुका था, ध्रोपदी के मुख से निकले शब्द सुनते ही वह टैक्सी लेकर चल दिया। कुछ ही देर बाद वापस लौट कर दरवाजे के सामने उसने ज़ोर से हॉर्न बजाया लेकिन ध्रोपदी के कान इस समय केवल शरणार्थी महिला की दर्द भरी 'हाय-हाय' और नए आए जीव के रोने की आवाज़ सुनने में ही व्यस्त हुए पड़े थे। लेडी डॉक्टर को देखकर ध्रोपदी ने चैन की साँस ली। जननी की हालत देखने के बाद डॉक्टर ने ध्रोपदी की तारीफ की।
''टैक्सीवाले के चले जाने के बाद मुझे ख्याल आया, नहीं तो टेलीफोन ही करवा देती। आपने एक बार नोट करवाया था।''
ध्रोपदी की बात सुनकर लेडी डॉक्टर ने कहा, ''हाँ, वो घुमंडा सिंह का नंबर है। पर अब तो वह संदेशा नहीं पहुँचाते। पैसे वाले आदमी हैं। हाँ, अगर अपने किसी संबंधी या मिलने-जुलने वालों का हो तो तुरन्त आदमी भेज देते हैं।''
''खसमां खाणे ! पैसों का इतना घमण्ड !'' ध्रोपदी की हमदर्दी देखकर लेडी डॉक्टर ने जननी का नाम-पता पूछा।
''इसका नाम-पता तो अभी हमने पूछा ही नहीं, थोड़ा ठीक हो ले पहले।''
''यह भी अच्छा ही हुआ। कहीं सड़क पर ही बेचारी...।''
''अच्छा बहन ध्रोपदी, मैंने तो अपना रोना तुम्हारे आगे रोने को आना था। लाला जी कहाँ हैं ?''
''क्यों ? क्या बात है ? वह अम्बाला तक गए हैं, बस अब लौटने ही वाले हैं।''
''बात क्या बताऊँ बहन जी, जिस गैरज में मैं काम करती हूँ, आपको तो मालूम ही है, दो हजार खर्च करके मैंने पार्टीशन करवाया। दिन में काम करती हूँ, रात में वहीं काऊच पर सो जाती हूँ। मुझे पता चला है कि मेरे वाला गैरज बख्शी खुशहाल चन्द एडवोकेट ने अपने आम अलॉट करवा लिया है।''
ध्रोपदी ने आश्चर्य प्रकट किया और उन्हें कोसा, ''खसमां खाणे !''
''हाँ बहन ध्रोपदी, मुझे तो मारे चिंता के रात में नींद भी नहीं आती।''

तीन बज गए, साढ़े तीन, चार, फिर पाँच। लाला भगत राम के मकान के सामने शरणार्थियों की भीड़ लगी हुई थी पर वह अभी तक अम्बाला से नहीं लौटे थे।
''चानन शाह के घर फोन करके ही मालूम करो,'' ध्रोपदी के कहने पर उसके छोटे बेटे ने टेलीफोन की किताब देखकर कहा, ''उनके घर में तो टेलीफोन है ही नहीं।''
''नहीं, है। लाला जी ने अभी कुछ रोज़ पहले ही कोशिश करके लगवा कर दिया है।''
ध्रोपदी की बात सुन कर एक शरणार्थी बोला, ''लाला जी भी दौड़ कर पैसों वालों का ही काम करते हैं।''
''खसमां खाणे, दोष निकालने आ जाते हैं। पैसे के बिना कोई काम चलता है। अब, चानन शाह लाला जी को अपनी कार में बैठा कर अम्बाला ले गए हैं। काम बेशक उनका अपना भी था पर लाला जी ने शरणार्थियों की ख़बर लेने भी जाना था। कार में आरम से चले गए हैं, आराम से आ जाएंगे।'' बात करते करते ही ध्रोपदी ने अपने बेटे को फिर आवाज़ दी, ''टेलीफोन पर दफ्तर से पूछ कर लाला चानन शाह का नंबर मालूम कर लो।''
''कहाँ से बोलते हो जी ?''
''लाला चानन शाह की कोठी से।''
''शाह जी अम्बाला गए थे।''
''आ गए हैं।''
''उन्हें ज़रा टेलीफोन दो।''
''आप थोड़ी देर बाद टेलीफोन करना, इस वक्त वह बाहर बगीचे में बैठे हैं, कुछ मेहमान आए हुए हैं, पार्टी चल रही है।''
''अच्छा, उनसे पता कर दो, लाला भगत राम जी उनके साथ गए थे, वह कहाँ हैं?''
''आप कौन बोल रहे हैं ?''
''ध्रोपदी, लाला जी के घर से।''
''अच्छा, एक दो मिनट इंतज़ार करो या फिर अपना नंबर बता दो।''
ध्रोपदी ने अपना नंबर बता दिया। वह अभी लेडी डॉक्टर करतार कौर से बात करने ही जा रही थी कि टेलीफोन की घंटी बज उठी।
''हैलो...''
''हाँ, जी...''
''शाह जी कह रहे हैं कि लाला जी डिप्टी कमिश्नर की कोठी से ही टांगा लेकर शरणार्थी कैम्प चले गए थे। कार में पेट्रोल कम था और शाह जी ने अपने एक-दो काम और करने थे। शाह जी ने लाला जी को शरणार्थी कैम्प से साथ लेना था पर दूसरे ज़रूरी कामों में उन्हें देर हो गई। यहाँ घर पर कुछ लोग चाय पर बुलाए हुए थे। अगर कैम्प में लाला जी को ढूँढ़ने चले जाते तो देर हो सकती थी इसलिए वह वापस आ...।'' 'गए' शब्द अभी बोलने वाले के मुख में ही था कि ध्रोपदी ने 'खसमां खाणे !' कह कर ज़ोर से रिसीवर पटक दिया। बात सबको मालूम हो गई तो सब लोग अपने-अपने घर को लौट गए।

रात का सन्नाटा ज्यूँ-ज्यूँ गहरा होता जाता, ध्रोपदी की बेचैनी बढ़ती जाती थी। सड़क से गुजरने वाली किसी भी मोटर की आवाज़ उसे अपने आँगन में सुनाई देती, वह तुरन्त उठ कर दरवाजा खोलती लेकिन मोटर आगे बढ़कर लुप्त हो जाती। जच्चा शरणार्थी और बच्चे की सेवा-सुश्रुषा ध्रोपदी के जागने का अच्छा बहाना थी लेकिन वैसे भी आज उसकी आँखों में नींद नहीं थी।
''पौह माह की रात, कोई बिस्तर, भारी कपड़ा भी नहीं लेकर गए, दवा के बिना तो उन्हें नींद भी नहीं आती।'' उठते, बैठते जच्चा का कपड़ा-लत्ता ठीक करते-कराते, मोटर की आवाज़ों के भुलावे में बार-बार बाहर झांकते-ताकते, अंगीठी की आग को ऊपर-नीचे करते ध्रोपदी को सवेर हो गई। आख़िर कल की तरह, मुँह-अँधेरे एक मोटर उसके दरवाजे के आगे आ खड़ी हुई। इसका हॉर्न भी बेहद कर्कश था पर ध्रोपदी के कानों को यह सवेर के 'आशा राग' की भाँति मीठा लगा।
गणेसा ने टैक्सी का दरवाजा बाहर से खोला, पतले से चीकट कम्बल को ओढ़े लाला भगत राम जी बाहर निकले। ध्रोपदी दायें हाथ की उंगुलियों से कम्बल की मोटाई नाप रही थी और लाला जी कह रहे थे - ''शरणार्थी बेचारा रात में सर्दी में मर गया होगा। एक ही तो कम्बल था उसके पास जिसे उसने मुझे रेल में बिठाते समय जबरदस्ती ओढ़ा दिया।'' ध्रोपदी ने बायां हाथ कमीज की जेब में डाला, 'सतिश्री अकाल' की आवाज़ उसके कानों में पड़ी। गणेसा की दूर भागती टैक्सी को देखते देखते उसके मुख से निकला, ''एक इस गरीब को देखो, और एक वो खसमां खाणे !''

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पंजाबी लघुकथा : आज तक

पंजाबी लघुकथा : आज तक(2)


''कथा पंजाब'' के पहले अंक में 'पंजाबी लघुकथा : आज तक' सीरिज के अन्तर्गत पंजाबी लघुकथा की अग्रज पीढ़ी के कथाकार भूपिंदर सिंह की पाँच चुनिंदा लघुकथाएं प्रस्तुत की गई थीं जिन्हें पाठकों ने पसन्द किया और सराहा भी। इसी कड़ी में प्रस्तुत हैं- पंजाबी लघुकथा की अग्रज पीढ़ी के ही एक और सशक्त और बहुचर्चित लेखक हमदर्दवीर नौशहरवी की पाँच चुनिंदा लघुकथाएं... इन पर पाठकों की प्रतिक्रिया की हमें प्रतीक्षा रहेगी।
सुभाष नीरव
संपादक : कथा पंजाब



हमदर्दवीर नौशहरवी की पाँच लघुकथाएं
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

(1) सलीब पर टंगा आदमी

सन् 1965...
शहर की जी.टी. रोड पर चौक के सामने पुराने फौजी सामान के कबाड़ की एक दुकान है। दुकानवाले ने पुराने फौजी सामान की बिक्री और प्रचार हेतु दुकान के आगे बांसों से बना एक नौ फुटे आदमी का पुतला खड़ा किया हुआ है। इस पुतले को नयी फौजी कमीज़ और नयी पैंट पहनायी गई है। कमीज़ के एक कंधे पर चमक रही लांस-नायक की एक फीती दूर से ही नज़र आ रही है।

चौके के बीच बिजली का एक खम्भा है। खम्भे पर खतरे की एक प्लेट पर एक नंगी खोपड़ी का चिह्न है। इस इंसानी खोपड़ी के निकले हुए दांत दूर से ही दीख रहे हैं। यह खोपड़ी लगातार सड़क पर से गुजरते लोगों को कोई चेतावनी देती प्रतीत होती है।

खम्भे के नीचे रोज एक हाड़ मांस का आदमी बैठता है। हर आते-जाते को वह बैठे-बैठे ही फौजी सलूट मारता है और अपने कटे हुए हाथों के टुंड से कासे की ओर इशारा करता है। उसने पुरानी फौजी कमीज़ पहन रखी है। उसकी कमीज़ पर सफेद फीती नहीं दिखती।

सन् 1971...
कबाड़ी ने बांसों के बने आदमी के पुतले की फौजी कमीज़ बदल दी है। अब नई वर्दी में नौ फुट का यह मनुष्य रूपी ढांचा और भी आकर्षक लग रहा है। चौक में बिजली के खम्भे के नीचे अब एक और भिखारी आकर बैठता है। वह मिली-जुली फौजी भाषा में स्वयं ही कुछ न कुछ बोलता जा रहा है। जब कभी वह इधर-उधर लुढ़कता है तो घुटनों से कटी हुई उसकी दोनों टांगें बड़ा ही डरावना दृश्य उपस्थित करती हैं। कभी-कभी वह सामने बिछाये हुए फटे फौजी तौलिये पर बिखरे आज़ाद देश के सिक्के गिनता है।

अब कभी-कभी यहाँ एक बूढ़ी औरत भी आकर बैठती है। उसके साथ एक सात साल का स्कूल जानेवाली उम्र का बच्चा भी बैठता है। उसके सामने सिलाई की मशीन का लोहे का कवर खुला हुआ पड़ा है। वह उस ढक्कन को कासे के रूप में इस्तेमाल करती है। जब वह ढक्कन बन्द करती है तो उस पर लिखे हुए मैले-से शब्द स्पष्ट पढ़े जाते हैं - ''देश रक्षा की खातिर सम्मान के तौर पर...''

जी.टी. रोड पर से कारें और स्कूटर बिना ध्यान दिए आ-जा रहे हैं। कोई-कोई पैदल चेहरा चौक की तरफ कोई सिक्का उछाल देता है और दूर किसी अदृश्य दिशा की ओर चला जाता है।

इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है कि यह चौक सरहद के उस पार है कि इस पार !
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(2) फटे काग़ज़ की कथा

हैड मास्टर साहब ने छठी कक्षा में पढ़ते करमे के पिता को स्कूल में बुलवाया था। हैड मास्टर बहुत दु:खी था और हैरान भी कि लोग इस हद तक झूठ बोल सकते हैं।
''तुम ही धरम सिंह हो ?''
''जी, साब !'' धरम सिंह ने सहमी हुई धीमी आवाज़ में कहा जैसे कोई कब्र की मिट्टी के नीचे से बोला हो।
हैड मास्टर ने एक बार धरम सिंह की दयनीय हालत की ओर देखा, फिर फीस माफी वाली अर्जी की ओर और जैसे स्वयं से ही बोला हो - 'ठीक ही तो लिखा है !'
''मैं जट्ट (किसान) हूँ। पर जट्ट भी कैसा ! दो किल्ले जमीन है। उसमें भी होता कुछ नहीं। पहले मैंने अपने आप को हरिजन लिखवाने के बारे में सोचा था। फिर, मैंने सोचा, झूठ क्यों बोलूं...'' और वह अपनी पगड़ी से आँखों में छलक आए आँसू पोंछने लगा।
''सोचता हूँ, किसी न किसी तरह करमा पढ़ जाए। कुछ बन जाए। मैं तो...।'' उसकी आँखें फिर भर आईं।
''आप सोचते होगे, मैंने झूठ लिखा है। पर मैं सच कह रहा हूँ। मैं मर चुका हूँ। मैं अपने बच्चों को दो वक्त की रोटी तक नहीं दे सकता। मैं मर चुका हूँ।''
''ऐसा नहीं सोचते। दिल को तगड़ा रख कर जूझते हैं। मैंने करमे की पूरी फीस माफी का नोट लिख दिया है। भविष्य में भी जितने समय यह मेरे पास रहेगा, इसकी फीस माफ रहेगी। ले, यह अर्जी फेंक दे।''
धरम सिंह ने अर्जी के दो टुकड़े किए और उन्हें मेज के नीचे 'मुझे प्रयोग करो' वाले पीपे में फेंक दिया और बाहर निकल आया।
काग़ज़ का एक टुकड़ा पीपे में गिरने की बजाय बाहर फर्श पर गिर पड़ा था जिस पर लिखे शब्द झांक रहे थे -
...दो बीघे जमीन है।
बाप मर गया है।
...माफ की जावे।
का आज्ञाकारी
करमसिंह, छठी बी
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(3) नीची जगह का पानी

थोड़ी-सी बारिश होती। पानी फिसलता और नीची जगह पर आकर जमा होता जाता तो मक्खियाँ-मच्छर और गंदगी फैलाते।
''इमरजेंसी राज में हमसे फैसलों में तो कोई गलती नहीं हुई। स्थानीय स्तर पर कर्मचारियों ने अच्छे फैसलों को लागू करने में शायद ही ज्यादतियाँ की होंगी।'' इमरजेंसी के कारण हार गई सरकार के मुखिया का विचार था।

''चौकीदार जिम्मेदार है। घूंट लगाकर कहीं सो गया होगा, पीछे से सारा गोदाम खाली हो गया।'' सरकारी चीनी-गोदाम में चोरी हो जाने पर सुरक्षा अधिकारी का बयान था।

''संबंधित फाइल गुम हो गई है तो संबंधित क्लर्क से पूछो। उसकी लापरवाही से ही गुम हुई है।'' विभाग प्रमुख कह रहा था। विभाग में लाखों का घोटाला पकड़े जाने के बाद अचानक संबंधित फाइल गुम हो गई थी।

''स्वदेशी मिल्स में मिलावट ! हो सकता है रात की शिफ्टवाले मज़दूर से कोई कोताही हो गई हो और तबेले के बाहर पड़ी घोड़ों की लीद मसाले में मिल गई हो। लक्खू के बच्चे को ज़रूर सजा मिलनी चाहिए।'' मिल मालिक पुसिल से कह रहा था।

माली जिम्मेदार है...
चपरासी जिम्मेदार है...
सफाई कर्मचारी जिम्मेदार है...
मज़दूर जिम्मेदार है...

बारिश हो रही है। नीचे, गंदे तालाब में पानी अब और जमा नहीं हो सकता। और अब पानी का दरिया प्रवाह बनकर चल पड़ा है। किनारे पर खड़ी मजबूत इमारतें रेत के महलों की तरह ढह रही हैं...।
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(4) संस्कार

वह अस्पताल में पड़ी थी। अपनी आखिरी साँसें गिन रही थी। अन्तिम समय समीप आता देख मैं उसे देखने चला गया था।
मैं 'भाइया जी' को अपने संग लेकर अस्पताल पहुँचा। 'भाइया जी' उसके जेठ लगते थे और वह उम्रभर 'भाइया जी' से पर्दा करती रही थी।
''मैं सुखपाल हूँ, बरनाला से।''
''मैं पहचानती हूँ। बहुत अच्छा किया। अन्तिम समय दर्शन...'' उसे खाँसी छिड़ गई। उसका चेहरा नंगा था, शेष शरीर सिर समेत ढका हुआ था। उसका दायां हाथ कम्बल से बाहर था। वह इतनी कमजोर हो चुकी थी कि अपनी गर्दन भी स्वयं नहीं मोड़ सकती थी।
पास बैठी औरत ने उसका निर्जीव हाथ कम्बल के नीचे कर दिया।
''अकेले आए हो ?''
''भाइया जी, तुम भी अन्दर आ जाओ।''
'भाइया जी' अन्दर आ गए। उसके निर्जीव हाथों में जाने कहाँ से इतनी शक्ति आ गई कि उसने बड़ी तेजी से सिर का कपड़ा खींच कर अपना चेहरा ढक लिया।
अब चारपाई पर लाल कम्बल था। पता नहीं, कम्बल के नीचे उसके शरीर में कोई साँस बाकी भी थी या नहीं। आखिरी वक्त शायद उसे यह चिंता थी कि अस्पताल के बिस्तरे में जब उसकी लाश को बाहर निकालेंगे तब उसका चेहरा यदि नंगा हो गया तो !
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(5) भीग रहा आदमी

कोठरी में से तीखी बरछी-सी रोशनी की एक लकीर एक दरार के रास्ते बाहर आ रही थी। बैठक के बड़े तख्तों की दरार में से भी रोशनी की एक लकीर सफेद लहू की धार जैसी बाहर जा रही थी।
आँगन के बीच एक पुरानी घनी नीम थी। नीम के नीचे वह अतीत के टूटे धागे जोड़-जोड़ कर कोई कथा बुन रहा था।
कच्चे पुराने धागे।
काली अंधेरी रात थी। टिप्...टिप्... वर्षा की नन्हीं-नन्हीं बूँदें पड़ रही थी। कभी बादल गजरते, कभी बिजली चमकती।
उसके चार बेटे थे। उसे सभी की शादी की चिंता थी। पिछवाड़े दो कोठरियाँ थीं, आगे एक साझा-सा कमरा। बाहरी गेट के समीप एक बैठक थी।
उसका बड़ा लड़का ब्याहा गया। पिछली कोठरी उसके और उसकी घरवाली के लिए रिजर्व हो गई। उसका दूसरा लड़का भी ब्याहा गया। उसके लिए पीछे की दूसरी कोठरी के अन्दर आना-जाना वर्जित हो गया।
उसके तीसरे लड़के की शादी के बाद आगे का साझा कमरा मिल गया। उसे चौथे और आखिरी बेटे की बहुत फिक्र थी। उसके तौर-तरीके ठीक नहीं थे। खेती-बाड़ी में उसका जी नहीं लगता था, अगर कुआंरा रह गया तो लोग क्या कहेंगे ?
एक दिन उसका यह बेटा भी ब्याहा गया। उसने बैठक में अपने दहेज का सामान लगा दिया।
बूढ़ा पिता अब नीम के नीचे था, बिलकुल अकेला, बिलकुल चिंतामुक्त और आज़ाद !
वह सोच रहा था, इस नीम को काट कर वह अपने लिए एक छोटा-सा कच्चा कोठा क्यों न डाल ले, पर उसकी मृत्यु के बाद उसके चारों बेटे कोठे को कैसे बांटेंगे ? नीम की टहनियाँ तो चलो काट-बांट भी लेंगे।
वह गुरुद्वारे की ओर चल दिया लेकिन फिर लौट आया, 'लोग क्या कहेंगे ? इतने बड़े परिवार का मालिक...।'
और, वह खेस की बुक्कल मारे नीम के नीचे बैठा था। टिप्... टिप्... आहिस्ता-आहिस्ता बारिश हो रही थी और एक-एक कर उसके सारे कपड़े भीगते जा रहे थे।
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जन्म : 11 फरवरी 1937
शिक्षा : एम.ए.(पंजाबी, इतिहास और राजनीति)
कृतियाँ : धरती भरे हुंगारा, तपती भूमि, नंगे पैर, चट्टान और किश्ती, फिर आई बाबरवाणी, काले समय के साथ-साथ(सभी कविता संग्रह), धूप, उजाड़ और राहगीर, खंडित मनुष्य की कथा, बर्फ़ के आदमी और सूरज, सलीब पर टंगा मनुष्य, छोटे-छोटे हिटलर, नीरो बंसी बजा रहा था, कहानी अभी खत्म नहीं हुई, एक आदमी का काफिला(सभी कहानी संग्रह), प्लस आदमी(उपन्यास), आधुनिक साहित्य अनुभव, नये पंजाबी साहित्य की गति(आलोचना), तिनके और घोंसला(संपादन)।
सम्मान : रंगकर्मी समराला, गांधी नेशनल कॉलेज, अम्बाला छावनी, पंजाबी लोककला अकादमी, अमृतसर की ओर से सम्मानित।
संपर्क : कविता भवन, माछीवाड़ा रोड, समराला-141114, जिला- लुधियाना (पंजाब)।

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स्त्री कथालेखन : चुनिंदा कहानियाँ







स्त्री कथालेखन : चुनिंदा कहानियाँ (1)

अमृता प्रीतम ( 31 अगस्त 1919 - 31 अक्तूबर 2005)

पंजाबी की प्रख्यात कवयित्री, कहानीकार व उपन्यासकार अमृता प्रीतम का जन्म 31 अगस्त 1919 में गुजरांवाला, पंजाब(अब पाकिस्तान में) में हुआ। वह मात्र ग्यारह वर्ष की थीं जब उनकी माता का देहान्त हुआ। फिर वह अपने पिता के साथ लाहौर आ गईं। सोलह वर्ष की आयु में इनका पहला संग्रह प्रकाशित हुआ। सन् 1947 में भारत-पाक विभाजन के समय मुस्लिम, हिन्दू और सिक्खों के हुए क़त्लेआम से क्षुब्ध होकर उन्होंने अपनी विश्वप्रसिद्ध कविता लिखी -''अज्ज आक्खां वारिस शाह नूं, कितों कब्रों विचों बोल/ ते अज किताबे इश्क दा कोई अगला वरका फोल/ इक रोई सी धी पंजाब दी, तू लिख लिख मारे वैण/ अज्ज लक्खां धीयां रोन्दियाँ, तैनू वारिस शाह नूं कहिण..।'' अपनी पुस्तक ''सुनेहे'' पर वर्ष 1956 में साहित्य अकादमी अवार्ड से सम्मानित होने वाली प्रथम महिला। वर्ष 1982 में ''कागज़ ते कैनवास'' पुस्तक पर भारतीय ज्ञानपीठ अवार्ड तथा पदमभूषण सम्मान से सम्मानित अमृता प्रीतम जी के आठ उपन्यास - 'पिंजर', 'डॉक्टर देव', 'कोरे कागज़, उनचास दिन', 'सागर और सीपियाँ', 'रंग का पत्ता' , 'दिल्ली की गलियाँ', 'तेरहवाँ सूरज' और 'यात्री', एक कविता संग्रह और दो कहानी संग्रह तथा एक आत्मकथा की पुस्तक ''रसीदी टिकट'' प्रकाशित। इसके अतिरिक्त पंजाबी साहित्यिक पत्रिका ''नागमणि'' का प्रकाशन भी किया।


कहानी
एक ज़ब्तशुदा किताब
अमृता प्रीतम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव



वे दोनों एक-दूसरे को आमने-सामने देखकर नीचे धरती की ओर देखने लग पड़ीं।
नीचे कुछ भी नहीं था, पर दोनों को पता था कि दोनों के बीच एक लाश है...
''सब लोग चले गए ?''
''सब लोग जा सकते थे इसलिए चले गए। माँ दूसरे बेटे के पास रहने के लिए, दोनों बच्चे होस्टल में। अब सिर्फ़ मैं हूँ, अकेली...।''
''बच्चे छुट्टियों में आएंगे, कभी-कभी माँ भी आएगी।''
''हाँ, कभी-कभी।''
''पर मेरे पास कभी कोई नहीं आएगा।''
''आज तू ज़िन्दगी में पहली बार घर के अगले दरवाजे से आई है।''
''यह दरवाजा तो तेरा था, कभी भी मेरा नहीं था इसलिए।''
''पर जब तू पिछले दरवाजे से आती थी, मुझे पता चल जाता था। उस दिन एक मर्द अपने घर में ही चोर होता था।''
''घर में नहीं, सिर्फ़ बागीचे वाली अपनी लायब्रेरी में... वहाँ मैं उसकी एक किताब की तरह हुआ करती थी।''
''पर औरत एक किताब नहीं होती।''
''होती है, पर ज़ब्तशुदा...।''
''क्या मतलब ?''
''यही कि तू शादीशुदा थी, मैं नहीं।''
एक औरत ज़ोर से हँस पड़ी। शायद उसका सारा रुदन हँसी की योनि में पड़ गया। वह उस दूसरी औरत को कहने लगी, ''इसलिए आज मैं विधवा हूँ, तू नहीं...।''
''मेरा हक न पहले लफ्ज़ पर था, न दूजे पर।''
''तूने मुझसे बस ये दो लफ्ज़ नहीं छीने, बाकी सब कुछ छीन लिया।''
''एक और भी है तीसरा लफ्ज़ जो सिर्फ़ तेरे पास है, मेरे पास नहीं।''
''कौन सा ?''
''उसके बच्चे की माँ होने का।''
''तीन लफ्ज़, सिर्फ़ तीन लफ्ज़... पर वह खुद इन तीन लफ्ज़ों से बाहर था।''
''इसीलिए खाली हाथ था।''
''पर इन लफ्ज़ों के सिवा उसके पास मुहब्बत के सारे लफ्ज़ थे।''
''हाँ, पर जब ये तीन लफ्ज़ ज़ोर से हँसते थे, ज़िन्दगी के बाकी लफ्ज़ रो पड़ते थे।''
''तूने ये भी उससे मांगे थे ?''
''नहीं, क्योंकि मांगने पर मिल नहीं सकते थे।''
''अगर मिल जाते, तू आज मेरी तरह विधवा होती...।''
''अब भी हूँ।''
''पर सबकी नज़र में कुआँरी।''
''छाती में पड़ी हुई लाश किसी को नज़र नहीं आती।''
''पर मेरी छाती में उस वक्त भी उसकी लाश थी, जब वह जीवित था।''
''हाँ, समझती हूँ।''
''मैं तब भी एक कब्र की तरह ख़ामोश थी।''
''शायद, हम तीनों ही कब्रों के समान थे। एक दूसरे की लाश को अपनी-अपनी मिट्टी में संभाल कर बैठी हुई कब्रें...।''
''शायद। पर अगर तू उसकी ज़िन्दगी में न आती...''
''कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।''
''कैसे ?''
''फिर वह खाली कब्र की तरह जीता।''
''शायद, शायद नहीं।''
''उसने अन्तिम समय कुछ कहा था ?''
''कुछ नहीं, सिर्फ़...।''
''अब जो कुछ तुझसे गुम हुआ है, वह मुझसे भी गुम हो चुका है। इसलिए जो कुछ उसने कहा था, मुझे बता दे।''
''कुछ नहीं कहा था। बस, जब कोई कमरे में आता था, वह आँखें खोल कर एक बार ज़रूर उसकी ओर देखता था, फिर चुपचाप आँखें मूंद लेता था।''
''शायद, वह मेरी प्रतीक्षा कर रहा था।''
''शायद...।''
''तूने मुझे बुलाया क्यों नहीं था ?''
''घर में उसकी माँ थी, उसका छोटा भाई था, बच्चे भी... मैं सबकी नज़र में उसको बचाना चाहती थी।''
''क्या खोया, क्या बचाया, इसका हिसाब लग सकेगा ?''
''मैंने जो खोना था, खो चुकी थी। मुझे अपना ख्याल नहीं था।''
''तूने ठीक कहा था, अगर मैं उसकी ज़िन्दगी में न आती...।''
''मैं नफ़रत के दुख से बच जाती... और शायद दूसरे दुख से नहीं बच सकती थी।''
''दूसरा दुख ?''
''खालीपन का... शुरू से ही जानती थी, पाकर भी कुछ नहीं पाया। वह मेरे बिस्तर में भी मेरा नहीं होता था। खाली-खाली आँखों से शून्य में देखता रहता था।''
''फिर तो तुझे तसल्ली होती होगी, अगर वह अन्तिम समय में भी सिर्फ़ शून्य में देखता ?''
''शायद होती... यह तसल्ली ज़रूर होती कि उसकी लाश पर सिर्फ़ मेरा हक है... पर अब...।''
''अब ?''
''लगता है, तूने उसकी लाश भी मुझसे छीन ली है।''
''सिर्फ़ लाश...।''
''नहीं, उसे भी छीना था, जब वह जिन्दा था।''
''वह अकेला कभी नहीं था। उसके अन्दर तू भी शामिल थी, बच्चे भी... मैंने जब भी उसे पाया, तेरे और तेरे बच्चों समेत पाया।''
''पर जब तू उसके करीब होती होगी, उस वक्त उसके जेहन में न मैं होती होऊँगी, न बच्चे...।''
''कुछ चीज़ों को याद नहीं करना होता, वे होती हैं, चाहे दीवार से परे हों, पर इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता।''
''उसने तुझे यह बताया था ?''
''यह कहने वाली या पूछने वाली बात नहीं थी। जब वह कभी अकेला होता तो शायद पूछ लेती।''
''पर वहाँ लायब्रेरी में वह सदैव तेरे पास अकेला होता था।''
''वहाँ उसकी बीवी एक खुली किताब-सी होती थी और बच्चे भी, किताब की तस्वीरों की तरह...।''
''और तू ?''
''मैं एक खाली किताब थी जिस पर उसने जो इबारत लिखनी चाही, कुछ लिख ली...।''
''तन की इबारत भी ?''
''हाँ, तन की इबारत भी... पर वह बहुत देर बाद की बात है।''
''बहुत देर बाद की ? किससे बहुत देर बाद की ?''
''मन की इबारत लिखने से बहुत देर बाद की।''
''क्या उस वक्त भी मैं एक खुली किताब की तरह उसके सामने होती थी ?''
''हाँ, होती थी... इसलिए वह हमेशा एक कांपती हुई कलम की तरह होता था।''
''वह बच्चों को बहुत प्यार करता था।''
''हाँ, इसलिए उसने अपना दूसरा बच्चा दुनिया से लौटा दिया था।''
''दूसरा बच्चा ?''
''वह मेरी खाली किताब में एक फटी हुई तस्वीर जैसी बात है।''

दोनों गहरी चुप्पी में खो गईं। पहली खुली हुई किताब की भाँति और दूसरी खाली किताब की तरह... फिर पहली ने एक ठंडी साँस भरते हुए कहा, ''पर आज तू मेरे पास क्यो आई है ?''
''क्यों ? पता नहीं...''
''मैं ही तो तेरे रास्ते की दीवार थी।''
वह दूसरी, पहली के कंधे पर सिर रख कर रो पड़ी, कहने लगी, ''शायद इसलिए कि जब कोई बहुत अकेला होता है, उसे किसी दीवार से सिर लगाकर रोने की ज़रूरत होती है।''
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‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव
वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, मूल्य : 300 रुपये

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
शुभम प्रकाशन, एन-10, उलधनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032, मूल्य : 120 रुपये

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव
यूनीस्टार बुक्स प्रायवेट लि0, एस सी ओ, 26-27, सेक्टर 31-ए, चण्डीगढ़-160022, मूल्य : 400 रुपये

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव
नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्या नगर सोसायटी, पटपड़गंज, दिल्ली-110032, मूल्य : 150 रुपये

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह) संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह)  संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नेहरू भवन, 5, इंस्टीट्यूशनल एरिया, वसंत कुंज, फेज-2, नई दिल्ली-110070, मूल्य :60 रुपये।

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, वर्ष 1998, 2004, मूल्य :35 रुपये

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-1100-6, मूल्य : 125 रुपये

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

व्यवस्थापक
'अनुवाद घर'

समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

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