पंजाबी कहानी : आज तक

>> गुरुवार, 12 नवंबर 2009







पंजाबी कहानी : आज तक(2)

ज्ञानी गुरमुख सिंह 'मुसाफिर' (15 जनवरी 1889 - 18 जनवरी 1976)


ज्ञानी गुरमुख सिंह मुसाफिर एक कर्मठ राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ पंजाबी के बड़े साहित्याकार भी थे। उनके नौ कविता संग्रह और आठ कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ज्ञानी जी की कहानियों का क्षेत्र बहुत व्यापक था। उनकी कहानियों में आज़ादी की जंग, समाज की समस्याएं, हिन्दु-मुसलमान भाईचारा, विभाजन का दर्द, शरणार्थियों की दुख-तकलीफों से जुड़े विषय हमें देखने को मिलते हैं जिन्हें वह बेहद मनोवैज्ञानिक ढंग से कहानियों में उठाते हैं। ज्ञानी जी की प्रारंभिक कहानियाँ ''सभ हच्छा'', ''बागी दी धी'', ''रेशमी लीड़ा'' बहुत कामयाब कहानियाँ हैं। ''इक नवां पैसा'',''बल्हड़वाल'', ''अजायब'', और ''दुचित्त नंद'' उनकी अधिक चर्चित कहानियाँ रही हैं। 'पंजाबी कहानी : आज तक' में यहाँ प्रस्तुत है, शरणार्थी समस्या पर लिखी उनकी एक मनोवैज्ञानिक कहानी - ''खसमां खाणे'' ।
संपादक -कथा पंजाब


खसमां खाणे
गुरमुख सिंह मुसाफ़िर
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

अर्द्ध-जाग्रत अवस्था में ध्रोपदी ने कहा, नहीं उसके मुँह से बरबस ही निकल गया-''खसमां खाणे !'' हॉर्न की कर्कश आवाज़ से उसके कान जो फटने को आए थे। आज तक हॉर्न की जितनी भी आवाज़ें उसके कानों में पड़ी थीं, यह सबसे अधिक कर्कश थी।
''गणेसा टैक्सी वाला नहीं, चानन शाह आए होंगे।''
अपने पति भगत राम के मुँह से चानन शाह का नाम सुनकर ध्रोपदी कुछ शरमा-सी गई, ''हाय, कहीं शाह जी ने सुन ही न लिया हो।''
तीन-चार रोज़ पहले मुँह अंधेरे गणेसी की टैक्सी का हॉर्न सुनकर ध्रोपदी के मुँह से निकला था, ''खसमां खाणों को लगता है, रात में नींद ही नहीं पड़ती।'' उस वक्त जब भगत राम ने समझाया था कि इस टैक्सी वाले गरीब का चालान हो गया है, बेचारा शरणार्थी है, सिफारिश के लिए कह रहा है, तब ध्रोपदी ने और भी ऊँचे स्वर में कहा था, ''खाए खसमां नूं।'' गणेसा ने यह बात सुन ली थी, पर गरजमंद था, क्या कहता ? आज चानन शाह का लिहाज भगत राम को ध्रोपदी की झिझक से बचा गया था। कार दरवाजे के आगे खड़ी कर चानन शाह सीधा भगत राम के शयन-कक्ष में ही आ घुसा। ध्रोपदी ने स्वागत में 'आओ जी' कह कर कुर्सी आगे कर दी।
चुटकी बजाते हुए खड़े-खड़े ही चानन शाह ने पूछा, ''लाला जी, तैयार हो ?''
''जी हाँ, बस दवा की शीशी ले लूँ, लौटते हुए शायद देर हो जाए और...'' भगत राम की बात बीच में ही काट कर चानन शाह ने कहा, ''नहीं जी, अभी लौटते हैं, नई कार है। ढाई घंटे में अम्बाला, घंटा भर वहाँ और ढाई घंटे में ही वापस दिल्ली। कुल छह घंटों की ही तो बात है। अब छह बजे हैं, अगर हम दस-पन्द्रह मिनट में चल पड़े तो दोपहर सवा बारह बजे तक लौट आएंगे।''
''नहीं शाह जी, शरणार्थी कैम्प में मेरे दो सवा दो घंटे कम से कम ज़रूर लग जाएंगे।''
''चलो, ज्यादा से ज्यादा तीन बजे तक सही, शाम होने से पहले लौट ही आएंगे। उठो, जल्दी करो, जितना जल्दी निकलेंगे, उतना जल्दी लौटेंगे।''
ध्रोपदी बोली, ''अगर देर हो जाने का डर हो या रात में वहीं रुकना पड़ सकता हो तो कोई भारी कपड़ा या बिस्तर साथ...।''
चानन शाह ने ध्रोपदी को भी अपनी बात पूरी न करने दी और भगत राम को उसका हाथ पकड़ कर बिस्तर पर से उठा लिया, ''चलो, किसी चीज को साथ ले जाने की ज़रूरत नहीं, अभी तो लौट आना है। अगर सर्दी महसूस कर रहे हो तो कार में कम्बल रखा है, लपेट लो। तीन बजे तक तुम्हें हर हालत में घर पहुँचा देंगे।''
बड़ी तसल्ली के साथ नई कार के नरम गद्दों पर आराम से पीठ टिका कर बैठते हुए भगत राम ने पत्नी से कहा, ''कोई भी आए, तीन बजे का समय दे देना।''
चानन शाह ने भगत राम के घुटनों पर कम्बल फेंकते हुए कहा, ''बस, तुमने डिप्टी-कमिश्नर को शक्ल भर दिखानी है और हमारा काम हो जाएगा। फिर, तुम जहाँ चाहो, चले जाना बड़ी खुशी से... पेट्रोल बहुत है।''
लाला भगत राम शरणार्थी नेता थे। सवेर से शाम तक इनके पास ज़रूरतमंद आते रहते थे। ये सबकी बातें सहानुभूति से सुनते और उनका काम करवाने का यत्न करते। ध्रोपदी का भी स्वभाव वैसे तो बड़ा मीठा और दिल बड़ा हमदर्द था, पर तड़के जागने से पहले और रात को सोने के बाद अगर कोई उनका द्वार खटखटाता तो उन्हें उन पर कभी-कभी बड़ा गुस्सा आता।
अभी कार दरवाजे पर से हटी ही थी कि एक शरणार्थी ने लाला भगत राम के विषय में पूछा। ध्रोपदी ने जब बताया कि वह चानन शाह के साथ अम्बाला गए हैं, वह बड़बड़ाता हुआ चला गया, ''सरमायेदारों के साथ तो तुरन्त चल पड़ते हैं। अगर आज मेरे साथ कस्टोडियन के पास न गए तो शाम को मेरा सामान सड़क पर होगा।''
वह अभी गया ही था कि एक अन्य आ धमका, ''मुझे कर्ज़ तो मंजूर करवा दिया, पर लेने के लिए जमानत कौन दे ?''
''मेरे तबादले के कागजों पर आज दस्तख़त हो जाएंगे। मकान शरणार्थियों से भरा पड़ा है। माता-पिता बूढ़े हैं, घरवाली पूरे दिनों पर है। जहाँ तबादला हो रहा है, वहाँ रहने के लिए टैंट का भी प्रबंध नहीं।''
''मैं पेशावर में ए.डी.एम. था, यहाँ क्लर्की मिली है। उस पर से भी हटाने की बातें हो रही हैं।''
''बहन जी, एक सौ साठ बंगलों के मालिक को यहाँ किसी कोठी के बरामदे में भी टिकाना न मिले तो बताओ कहाँ सिर छिपाएँ।''
ध्रोपदी सभी आने वालों के काम सुनती रही और तीन बजे का समय देती रही।

नरम और नाजुक जल की बूँदें लगातार टपक टपक कर पत्थर की सख्त चट्टानों पर भी अपना स्थान बना लेती हैं। ध्रोपदी के हृदय में तो एक माँ का दिल है। ''पति गया, बेटा गया, अब इज्ज़त भी जाने वाली है।'' एक प्रौढ़-सी महिला शरणार्थी के मुख से ये शब्द सुनकर ध्रोपदी तीन बजे आने के लिए कहने ही लगी थी कि उसने अपनी व्यथा-कथा आरंभ कर दी। आँखें जुबान नहीं, पर बेजुबान भी नहीं। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे शरणार्थी महिला की दर्द कहानी उसकी जुबान और ध्रोपदी की आँखों से एक साथ ही सुनाई जा रही हो। इस बेसुधी में ध्रोपदी अन्य आने वाले लोगों को तीन बजे का समय देना भी एकबारगी तो भूल बैठी। एक अन्य स्त्री जिसने अपने बेहद गोरे बदन को तार तार हो चुके मैले-कुचैले दुप्पटे से बड़ी मुश्किल से जैसे तैसे ढंका हुआ था, ध्रोपदी की ओर आती दिखाई दी। शरीर के अग्रभाग को ढकने के लिए उसका सिर इतना झुका हुआ था कि वह सामने से आ-जा रहे व्यक्ति को भी नहीं देख सकती थी। धरती में नज़रें गड़ाये वह दरवाजे पर पहुँची ही थी कि वहाँ उसके पेट के दायें हिस्से से अपने विचारों में गुम खड़े एक शरणार्थी का सिर अचानक टकराया और वह स्त्री वहीं धड़ाम से गिर पड़ी। गिरने की आवाज़ से ही ध्रोपदी को उस स्त्री के बारे में पता चला। एक अन्य शरणार्थी महिला की मदद से ध्रोपदी ने उस स्त्री को उठाया और बाहर के कमरे में बिछी गंदी-सी दरी पर लिटा दिया जो लोगों की जूतियों-चप्पलों के कारण धूल से भरी हुई थी। कमरे में बैठे दूसरे सभी लोगों को ध्रोपदी ने तीन बजे आना कह कर उठा दिया था। गिरने वाली स्त्री की बेहोशी को देखकर ध्रोपदी के होश गुम हो गए। पसीना पसीना हुई वह अत्यन्त घबरा उठी। पहले से बैठी दूसरी शरणार्थी महिला ने उठकर दरवाजा अन्दर से बन्द कर दिया था। घबराई हुई ध्रोपदी ने दरवाजे की फांक से बाहर झांका ही था कि हॉर्न की आवाज़ उसके कानों में पड़ी। अरे ! तीन बज गए ?... ओह ! यह तो गणेसा है, खसमांखाणा ! पिछले शब्द ध्रोपदी के मुख से अनायास ही निकल गए थे। वह मन ही मन सोच में पड़ गई। तभी, उसने गणेसा को इशारा करके बुलाया। उसे कोई काम बताने में ध्रोपदी को संकोच हो रहा था किन्तु विवशता थी।
''करोलबाग गुरुद्वारा रोड पर लेडी डॉक्टर करतार कौर का नाम पूछ लेना।''
गणेसा सारी दिल्ली से परिचित हो चुका था, ध्रोपदी के मुख से निकले शब्द सुनते ही वह टैक्सी लेकर चल दिया। कुछ ही देर बाद वापस लौट कर दरवाजे के सामने उसने ज़ोर से हॉर्न बजाया लेकिन ध्रोपदी के कान इस समय केवल शरणार्थी महिला की दर्द भरी 'हाय-हाय' और नए आए जीव के रोने की आवाज़ सुनने में ही व्यस्त हुए पड़े थे। लेडी डॉक्टर को देखकर ध्रोपदी ने चैन की साँस ली। जननी की हालत देखने के बाद डॉक्टर ने ध्रोपदी की तारीफ की।
''टैक्सीवाले के चले जाने के बाद मुझे ख्याल आया, नहीं तो टेलीफोन ही करवा देती। आपने एक बार नोट करवाया था।''
ध्रोपदी की बात सुनकर लेडी डॉक्टर ने कहा, ''हाँ, वो घुमंडा सिंह का नंबर है। पर अब तो वह संदेशा नहीं पहुँचाते। पैसे वाले आदमी हैं। हाँ, अगर अपने किसी संबंधी या मिलने-जुलने वालों का हो तो तुरन्त आदमी भेज देते हैं।''
''खसमां खाणे ! पैसों का इतना घमण्ड !'' ध्रोपदी की हमदर्दी देखकर लेडी डॉक्टर ने जननी का नाम-पता पूछा।
''इसका नाम-पता तो अभी हमने पूछा ही नहीं, थोड़ा ठीक हो ले पहले।''
''यह भी अच्छा ही हुआ। कहीं सड़क पर ही बेचारी...।''
''अच्छा बहन ध्रोपदी, मैंने तो अपना रोना तुम्हारे आगे रोने को आना था। लाला जी कहाँ हैं ?''
''क्यों ? क्या बात है ? वह अम्बाला तक गए हैं, बस अब लौटने ही वाले हैं।''
''बात क्या बताऊँ बहन जी, जिस गैरज में मैं काम करती हूँ, आपको तो मालूम ही है, दो हजार खर्च करके मैंने पार्टीशन करवाया। दिन में काम करती हूँ, रात में वहीं काऊच पर सो जाती हूँ। मुझे पता चला है कि मेरे वाला गैरज बख्शी खुशहाल चन्द एडवोकेट ने अपने आम अलॉट करवा लिया है।''
ध्रोपदी ने आश्चर्य प्रकट किया और उन्हें कोसा, ''खसमां खाणे !''
''हाँ बहन ध्रोपदी, मुझे तो मारे चिंता के रात में नींद भी नहीं आती।''

तीन बज गए, साढ़े तीन, चार, फिर पाँच। लाला भगत राम के मकान के सामने शरणार्थियों की भीड़ लगी हुई थी पर वह अभी तक अम्बाला से नहीं लौटे थे।
''चानन शाह के घर फोन करके ही मालूम करो,'' ध्रोपदी के कहने पर उसके छोटे बेटे ने टेलीफोन की किताब देखकर कहा, ''उनके घर में तो टेलीफोन है ही नहीं।''
''नहीं, है। लाला जी ने अभी कुछ रोज़ पहले ही कोशिश करके लगवा कर दिया है।''
ध्रोपदी की बात सुन कर एक शरणार्थी बोला, ''लाला जी भी दौड़ कर पैसों वालों का ही काम करते हैं।''
''खसमां खाणे, दोष निकालने आ जाते हैं। पैसे के बिना कोई काम चलता है। अब, चानन शाह लाला जी को अपनी कार में बैठा कर अम्बाला ले गए हैं। काम बेशक उनका अपना भी था पर लाला जी ने शरणार्थियों की ख़बर लेने भी जाना था। कार में आरम से चले गए हैं, आराम से आ जाएंगे।'' बात करते करते ही ध्रोपदी ने अपने बेटे को फिर आवाज़ दी, ''टेलीफोन पर दफ्तर से पूछ कर लाला चानन शाह का नंबर मालूम कर लो।''
''कहाँ से बोलते हो जी ?''
''लाला चानन शाह की कोठी से।''
''शाह जी अम्बाला गए थे।''
''आ गए हैं।''
''उन्हें ज़रा टेलीफोन दो।''
''आप थोड़ी देर बाद टेलीफोन करना, इस वक्त वह बाहर बगीचे में बैठे हैं, कुछ मेहमान आए हुए हैं, पार्टी चल रही है।''
''अच्छा, उनसे पता कर दो, लाला भगत राम जी उनके साथ गए थे, वह कहाँ हैं?''
''आप कौन बोल रहे हैं ?''
''ध्रोपदी, लाला जी के घर से।''
''अच्छा, एक दो मिनट इंतज़ार करो या फिर अपना नंबर बता दो।''
ध्रोपदी ने अपना नंबर बता दिया। वह अभी लेडी डॉक्टर करतार कौर से बात करने ही जा रही थी कि टेलीफोन की घंटी बज उठी।
''हैलो...''
''हाँ, जी...''
''शाह जी कह रहे हैं कि लाला जी डिप्टी कमिश्नर की कोठी से ही टांगा लेकर शरणार्थी कैम्प चले गए थे। कार में पेट्रोल कम था और शाह जी ने अपने एक-दो काम और करने थे। शाह जी ने लाला जी को शरणार्थी कैम्प से साथ लेना था पर दूसरे ज़रूरी कामों में उन्हें देर हो गई। यहाँ घर पर कुछ लोग चाय पर बुलाए हुए थे। अगर कैम्प में लाला जी को ढूँढ़ने चले जाते तो देर हो सकती थी इसलिए वह वापस आ...।'' 'गए' शब्द अभी बोलने वाले के मुख में ही था कि ध्रोपदी ने 'खसमां खाणे !' कह कर ज़ोर से रिसीवर पटक दिया। बात सबको मालूम हो गई तो सब लोग अपने-अपने घर को लौट गए।

रात का सन्नाटा ज्यूँ-ज्यूँ गहरा होता जाता, ध्रोपदी की बेचैनी बढ़ती जाती थी। सड़क से गुजरने वाली किसी भी मोटर की आवाज़ उसे अपने आँगन में सुनाई देती, वह तुरन्त उठ कर दरवाजा खोलती लेकिन मोटर आगे बढ़कर लुप्त हो जाती। जच्चा शरणार्थी और बच्चे की सेवा-सुश्रुषा ध्रोपदी के जागने का अच्छा बहाना थी लेकिन वैसे भी आज उसकी आँखों में नींद नहीं थी।
''पौह माह की रात, कोई बिस्तर, भारी कपड़ा भी नहीं लेकर गए, दवा के बिना तो उन्हें नींद भी नहीं आती।'' उठते, बैठते जच्चा का कपड़ा-लत्ता ठीक करते-कराते, मोटर की आवाज़ों के भुलावे में बार-बार बाहर झांकते-ताकते, अंगीठी की आग को ऊपर-नीचे करते ध्रोपदी को सवेर हो गई। आख़िर कल की तरह, मुँह-अँधेरे एक मोटर उसके दरवाजे के आगे आ खड़ी हुई। इसका हॉर्न भी बेहद कर्कश था पर ध्रोपदी के कानों को यह सवेर के 'आशा राग' की भाँति मीठा लगा।
गणेसा ने टैक्सी का दरवाजा बाहर से खोला, पतले से चीकट कम्बल को ओढ़े लाला भगत राम जी बाहर निकले। ध्रोपदी दायें हाथ की उंगुलियों से कम्बल की मोटाई नाप रही थी और लाला जी कह रहे थे - ''शरणार्थी बेचारा रात में सर्दी में मर गया होगा। एक ही तो कम्बल था उसके पास जिसे उसने मुझे रेल में बिठाते समय जबरदस्ती ओढ़ा दिया।'' ध्रोपदी ने बायां हाथ कमीज की जेब में डाला, 'सतिश्री अकाल' की आवाज़ उसके कानों में पड़ी। गणेसा की दूर भागती टैक्सी को देखते देखते उसके मुख से निकला, ''एक इस गरीब को देखो, और एक वो खसमां खाणे !''

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2 टिप्पणियाँ:

निर्मला कपिला 13 नवंबर 2009 को 10:22 am बजे  

बहुत सुन्दर कहानी है आपके इस प्रयास से पंजाबी लेखकों को पढने का अवसर मिलेगा। गुरमुख सिंह मुसाफिर पंजाब की शान थे ुन जैसे साहितयकार आज मिलना मुश्किल है धन्यवाद्

रूपसिंह चन्देल 13 नवंबर 2009 को 8:24 pm बजे  

भाई सुभाष

एक मार्मिक और यथार्थपरक कहानी. एक ओर चाननशाह जैसे लोग हैं तो दूसरी ओर भगतराम जैसे. ध्रोपदी एक सशक्त चरित्र के रूप में उभरकर आई है. तुम्हारा अनुवाद खूबसूरत है.

रूपसिंह चन्देल

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काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
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ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

व्यवस्थापक
'अनुवाद घर'

समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
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‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

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