पंजाबी कहानी : नए हस्ताक्षर

>> रविवार, 19 सितंबर 2010



पंजाबी कहानी : नए हस्ताक्षर(1)

मुहम्मद इकबाल उर्फ़ ईशर सिंह रल्ला
देशराज काली
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

वह सिर इन्सान का नहीं था।
उसे बदबू आ रही थी, पता नहीं, जैसे उसके तन-मन में बदबू भर गई हो। उसे उल्टी आने को हो रही थी। अजीब हालत थी। साँस अंदर खींचते हुए भी बदबू आती, बाहर निकालते हुए भी। उसके दिल में एक बेचैनी और घबराहट थी। वह फटाफट गुरुद्वारे के अंदर जा घुसा। पानी पिया। वह हर घूंट के साथ उस बदबू को अंदर निगल जाना चाहता था, पर बदबू थी कि मर नहीं रही थी।
शायद, गधे का सिर था वह।
क्यों चला गया वह इसके साथ गुरधाम से बाहर ? अच्छे भले यहाँ बढ़िया लंगर छक रहे थे। अपने लोगों के हाथों का बनाया हुआ। बड़ा आनन्द आ रहा था। यूँ ही बाहर निकल गया। अब यह बदबू पता नहीं पीछा छोड़ेगी कि नहीं। इसे कहा भी था कि हम इनके हाथों का बनाया कुछ भी नहीं खा सकते। ये हर चीज़ गोश्त में बनाते हैं। पर नहीं, नहीं माना। यह भी नहीं कि कोई फल-फ्रूट ही खा ले बंदा ! नहीं, नहीं माना। अब यह मुँह बदबू से भरा पड़ा है। और, इसे यह भी मालूम था कि अब जब हमारे बहन-भाई हमें मिलने आए तो वे भी... पंडित से खाना बनवा कर लाए थे। नये बर्तनों में। अगर वे जानते थे, तो क्या इसे नहीं मालूम था। नहीं खा सकते भाई, हम लोग नहीं खा सकते !
सिर रो रहा था। नहीं, शायद गर्व से ऊँचा हो रहा था। हाँ-हाँ, गर्व से ऊँचा ही हो रहा था।
''सरदार जी, आप पंजाब से आए हो ?''
''हाँ जी।''
''आपने लाहौर देखा ?''
''नहीं जी, वक्त बहुत कम है। कल हमने वापस चले जाना है।''
''चलो, हम आपको लाहौर दिखाते हैं ?''
''नहीं, नहीं, कोई बात नहीं। फिर कभी देख लेंगे।''
''नहीं-नहीं क्या हुआ ? आप हमारे भाई हो। चलो, लाहौर देखें।''
''पर आप यह परोपकार क्यों कर रहे हो हम पर ?''
''दरअसल, कुछ बरस पहले हम मोहाली क्रिकेट का मैच देखने गए थे। वहाँ हमारी जो सेवा पंजाबी भाइयों ने की, वह भूलने वाली नहीं। वे दिखने में भी आपके जैसे ही लगते थे। इधर लाहौर से ही उजड़ कर गए थे। अब मेरा मन करता है कि मैं भी आपकी सेवा करूँ। मेरे दिल की हसरत है...।''
फिर, वही सिर सफारी गाड़ी में बैठकर लाहौर देखता रहा। फूड मार्किट में जा कर वैष्णों भोजन किया। महाराजा रणजीत सिंह के शाही किले के सामने छाती चौड़ी करके फोटो खिंचवाई। फिर वापस गुरद्वारा साहिब आकर जत्थे में आ मिला। फिर, वही सिर मेरे साथ बातें करता रहा, ''वो कहते हैं कि जो सेवा हमारी पंजाब में हुई, वो कहीं ओर नहीं हुई। काफ़ी अमीर घराने के लोग थे। सफारी गाड़ी थी उनके पास। वे कहते थे- तुमने जब भी इधर आना हो, आओ। हमारा कार्ड ले जाओ। कोई दिक्कत नहीं होगी... बस, वे जैसे कर्ज़ उतार रहे थे।''
मैं सिर की शिनाख्त में खोया हुआ था। उसकी कोई-कोई बात मुझे समझ में आ रही थी। सिर लगातार बोले जा रहा था- ''हाँ, पहले शेख़ इजाज़ दिल्ली आया था। वह कट्टर मुसलमान है। पाँच वक्त का नमाजी। उसने पठानी सूट पहन रखा था। बुआ जी के पास पहुँच गया था। बुआ जी बहुत वृद्ध थीं। जो आदमी उसे बुआ के पास लेकर गया था, उसने बुआ के सामने इजाज़ को करते हुए पूछा था कि पहचान कौन है ? मुसलिम भेष के बावजूद बुआ ने पहचान लिया था। बोली- रे तू, ईशर का बेटा तो नहीं ? फिर, इजाज़ बुआ के पैरों में गिर कर खूब रोया था। अपने संग लाईं गाँव की निशानियों उसने दूर फेंक दी थीं, खून से बड़ी निशानी और कौन सी है?
मैं सिर की शिनाख्त नहीं कर पाया। यह ज़रूर किसी इन्सान का ही सिर है। हाँ, ज़रूर किसी इन्सान का सिर है। फिर उनमें कोई बहस होने लगी थी।
''ताया जी, बुरा न मानना। मैं पूछना चाहती हूँ कि आप हमारे साथ छुआछात क्यों करते हो ? हम एक खून हैं। क्या हुआ आप लोग झटका खाते हो और हम हलाल। फिर, अगर दूध उबल कर आग में गिरे तो माँस के जलने जैसी बदबू नहीं आती...? फिर दूध और माँस में क्या फ़र्क है ?''
''भाई साहब, लगती तो हमारी भतीजी ही थी। पर मैंने उसे कह दिया कि हम तुम्हारे हाथ का नहीं खा सकते। भाई, हम झटका खाते हैं तो इसका मतलब है कि जिंदा माँस खाते हैं। हलाल तो बिलकुल सफेद पड़ जाता है। उसमें से खून निचुड़ जाता है। बिलकुल मुरदार का माँस लगता है। झटका तो शेर खाता है। शेर मुरदार कभी नहीं खाता। भाई साहब, मैंने कहा कि हम मुर्दार कभी नहीं खा सकते। क्या किया जाए ?... और जब वे हमारी बुआ को अपने संग ले गए थे तो वह बुजुर्ग भी तीन-चार दिन वहाँ भूखी ही रही। दूध या फलों से आख़िर क्या बनता है। अन्न तो अन्न ही होता है। फिर उन्हें समझ में आ गया। उन्होंने बुआ से कहा कि बुआ जी, आप पकाओ, हम सब आपके हाथों का बनाया खाएंगे। फिर जी, चौथे दिन बुआ जी ने खुद रोटी पकाकर खाई थी। पर वह अधिक दिन वहाँ नहीं रह सकी थी।''
सिर बेताल का लग रहा था। बदबू मेरे नाक में चढ़ी। मैंने नाक दबा ली। बदबू बहुत ज्यादा आ रही थी। मैं चाहता था कि राहत का साँस आए। वह बोले जा रहा था- ''भाई साहब, वहाँ मैंने अपने बड़े भाई की कब्र की तस्वीर भी देखी थी। उस पर लिखा हुआ था- मुहम्मद इकबाल उर्फ ईशर सिंह रल्ला वल्द मक्खन सिंह रल्ला... यह मक्खन सिंह वही हमारा दादा था जिसकी निशानियाँ इजाज़ अपने संग लेकर आया था। कंगणी वाला गिलास, जिस पर मक्खन सिंह का नाम खुदा था। पुरानी किरपाण और एक सुखमणी साहिब का गुटका ! पर खून को पहचान की क्या ज़रूरत ?''
पर मैं इस सिर को क्यों पहचानना चाहता हूँ ? फिर इसकी शिनाख्त भी तो नहीं हो पा रही। अजीब हालत है। यह कुछ पूछने भी नहीं दे रहा। बोले ही जा रहा है। जो मुँह में आता है, बोले जा रहा है, ''भाई साहब, लाहौर स्टेशन पर एक बुजुर्ग मिल गया। वह लोगों से पूछ रहा था कि किधर से आए हो ? मुझसे पूछा तो मैंने कहा कि मैं जालंधर से आया हूँ। उसकी आँखों में चमक आ गई। उसने पूछा- वहाँ इमाम नासर मस्जिद है अभी भी ? हाँ है। वैसी ही है। वह बोला- मेरी वहाँ दुकान हुआ करती थी। मैं बस्ती दानिशमंदाँ में रहता था। हम गूजर हैं। मैंने कहा कि मैं भी बस्ती दानिशमंदाँ ही रहता हूँ। उस बस्ती का नाम अभी भी दानिशमंदाँ ही है। उस बुजुर्ग ने मेरा माथा चूम लिया- सरदार जी, आप उस मुक्कदस जगह से आए हो... फिर वह सिसकने लगा।''
मैं बात को दूसरी ओर मोड़ना चाहता था। उसने पूछा- ''आपने बंटवारा झेला था। कितना नुकसान हुआ था। परिवार का क्या हुआ ?''
''क्यों नहीं भाई। बंटवारे ने तो ऐसे जख्म दिए हैं कि पूछो मत। पिताजी और चाचा जी का कत्ल हो गया था। माँ हम दो भाइयों और दो बहनों को किसी न किसी तरह बचा कर ननिहाल ले आई थी, बनारस के करीब। हम वहीं रहे। फिर चार-पाँच सालों बाद दादा जी बचते-बचाते आ गए। दरअसल वह सहजधारी थे। इसलिए पठानी भेष में बचते रहे थे। पर उनका भाई जो पूरा गुरसिक्ख था, वह वहीं रह गया। धर्म परिवर्तन कर लिया था। यह जो परिवार इतने बरसों बाद मिला था, वह दादा का ही परिवार था। इनका सुनारी का काम था। मेरा भाई मुझे बता रहा था कि दादा जी ने एक चांदी की खुंडी(छड़ी) बनाई थी, साथ में जूती का जोड़ा। वह अपने भाई को खोजना चाहता था। उसे तोहफ़ा देना चाहता था। इसीलिए अपने पत्नी और बहू को गुरद्वारों के दर्शन करने के लिए भेजता रहता था कि कहीं कोई सुराग मिले...। फिर जब मृत्यु के किनारे पहुँचा तो अपने बेटे से बोला- अगर मैं मर गया तो पीछे से यह खुंडी और जूती का जोड़ा सरहद से पार फेंक आना, कंटीली तारों के ऊपर से। मैं समझ लूंगा कि मेरे भाई के पास चली गई ये चीजें...।''
पत्थर का सिर भला कैसे हो सकता है ?
नहीं-नहीं, हो सकता है, मुझे भ्रम हुआ हो। वह सिर नहीं रोया था। कोई और रोया होगा। पर मेरे करीब तो कोई दूसरा था भी नहीं। फिर रोया कौन था ? कुछ समझ में नहीं आ रहा। यह बड़ा अजीब दौर है। सब कुछ गड्ड-मड्ड हुआ पड़ा है। दूध से पानी अलग करने वाला कोई नहीं। वैसे भी, यूँ ही कहते हैं कि हंस दूध और पानी अलग कर देता है। असल में बात तो यह है कि जब वह अपनी चोंच दूध में डुबोता है तो उसकी तेजाबी राल से दूध फट जाता है। चलो जी, दूध अलग और पानी अलग !
मैं भी कौन-सी बातों में जा लगा। बात तो उस सिर की कर रहा था जो मुझे इन्सान का नहीं लग रहा था। लेकिन बातचीत इन्सानों की तरह ही कर रहा था। इन्सान ही तो कभी हैवान, कभी शैतान बन सकता है। पर वह तो अंदर से बदल सकता है, सिर बदलने की क्या तुक ? सिर क्यों बदल गया ? यह क्या करिश्मा हो गया ? अंदर से शैतान हो गया, यह तो समझ में आता है। पर बाहर से सिर ही बदल गया ! यह सिर का मामला बहुत टेढ़ा है।
''भाई साहब, आप गुस्सा न करना। मैं एक बात पूछना चाहता हूँ।''
''पूछो।''
''आपने कहा था कि हम पाकिस्तान नहीं जा सकते या वहाँ रह नहीं सकते। क्यों ?''
''बिलकुल जी। एक तो वे मुसलमान हैं। उनका खाना-पीना बहुत गंदा है। बदबू आती है। बदबू तुम्हारे अंदर-बाहर बस जाती है। वे हर चीज़ गोश्त में बनाते हैं। सुबह का नाश्ता भी गोश्त से शुरू होता है। गरीबी भी बहुत है। मँहगाई इससे भी ज्यादा। मैंने अब वहाँ कुल्फ़ी खाई थी। वह भी अभी एक ही चम्मच मुँह में डाला था, पर मुझे स्वाद बहुत खराब लगा। मैंने वहीं सब कुछ छोड़ दिया। मेरा मुँह बदबू से भर गया था। मुझे उल्टी आने को हो रही थी। मैंने गुरद्वारा साहिब आकर पानी पिया। पानी के एक-एक घूंट से मैं बदबू को अंदर निगलने की कोशिश कर रहा था, पर बदबू मर नहीं रही थी। नहीं रह सकते हम वहाँ। बिलकुल नहीं। और फिर मेरी वहाँ झड़प हो गई, खूफिया पुलिस के एक आदमी से। उसने मुझसे बहुत टेढ़े सवाल किए। मुझसे बोला- कहाँ से आए हो ? मैंने कहा- भारत से। पूछने लगा- कहाँ जन्मे थे ? मैंने जवाब दिया-अनडिवाडिड इंडिया के गाँव में। वह बोला- पाकिस्तान के गाँव में क्यों नहीं कह रहे ? मैंने कहा- कह ही नहीं सकता। पाकिस्तान होगा, नई जनरेशन के लिए। मेरे लिए तो अनडिवाडिड इंडिया का गाँव ही है। उसने कहा- इसका मतलब तुम्हारे मन में अभी कई तरह का फिरकूपन है। मैंने कहा कि यह बात नहीं, अब इकबाल साहिब ने कविता लिखी है- सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्ताँ हमारा...अब तुम उस तुक को बदल सकते हो ? तुम इस कविता की एक भी लाइन काट सकते हो ? तुम इस कविता की एक भी लाइन काट तो मैं कह दूँगा कि मेरा जन्म पाकिस्तान के गाँव में हुआ था। भाई साहब, हमारा भारत बहुत बढ़िया मुल्क है। अब तुम अटारी स्टेशन से हमारी तरफ आओ, तो देखो कितनी तरक्की की है हमने। मल्टी स्टोरी इमारतें हैं। उधर जाओ तो लाहौर तक वही पुराने घर। अब मैं तुम्हें बता रहा हूं कि मैं बनारस यूनिवर्सिटी में ही पढ़ा हूँ। फिर रेलवे में नौकरी लग गया। सन् 86 में मेरी बदली पंजाब में हो गई। उस वक्त हालात बहुत खराब थे। पंजाब तो आग की नाल बना हुआ था। तुम्हें तो पता ही है पंजाब ने जो संताप झेला डेढ़-दशक तक। कहाँ किसी से छिपा है। केंद्र भी कौन सा कम कर रहा था पंजाब के साथ। ये तो यहाँ के होकर भी बेगाने ही रहे हैं। भाई साहब, हम पता नहीं उधर कैसे बचते रहे हैं। चौरासी में तो बहुत ही डर गए थे। अब तुम खुद सोचो...।''
पता नहीं, किसका सिर है। बोले जाता है, बोले जाता है।
''... भाई साहब, ये कट्टर भी बहुत हैं। अब थे तो हमारे भाई ही। जब मैंने उनकी बच्चियों को आलिंगन में लेकर प्यार किया तो छोटे भाई ने बहुत बुरा मनाया। कहने लगा- हमारे धर्म में ऐसा नहीं है। मुझे उस वक्त ईशर की बहुत याद आई। ईशर होता तो उसने कह देना था- नहीं, हमारे धर्म में ऐसा ही होता है। हम बच्चियों को ऐसे ही प्यार देते हैं। मैं ईशर की कब्र देखना चाहता था। मेरा और ईशर का जन्म एक ही कमरे में हुआ था। हम तो जैसे जुड़वां भाई थे। पर वीज़ा ही नहीं था गाँव का। वह मेरी ओर टेढ़ी नज़रों से झांकता रहा था। अब आप खुद देख लो। वे लड़कियाँ कहती हैं कि जब हम टी.वी. पर सिक्ख परिवारों की लड़कियों को अपने भाइयों की शादी में गिद्धा-भांगड़ा डालते देखती हैं तो हमारा मन बहुत खुश होता है। इधर तो हम पर्दे में ही ज्यादा रहती हैं। पहले भी जब मेरा भाई बुआ जी को मिलकर वापस लौटते समय वाहगे में मुझसे मिला था, तो बातें करते-करते इसका नमाज का वक्त हो गया था। यह मुझसे बोला कि भाई मुझे तो नमाज अदा करनी है। तुम बैठो। फिर भाई इसने इतनी जोर-जोर से नमाज पढ़ी कि पूरे स्टेशन पर सुनाई दी थी। लोग कहते कि यह तो बहुत कट्टर है। यह तुम्हारा भाई कैसे हो सकता है! तुम सिक्ख हो और यह कट्टर मुसलमान ! भाई, मैं तो उस वक्त डर ही गया था।''
''और क्या अब भी उनके साथ कोई राब्ता...?''
''हाँ जी, हम फोन करते रहते हैं। उन्होंने अपने बेटे के ब्याह पर हमें बुलाया था। पर मेरे बड़े भाई ने कहा कि ऐसे अवसर पर हमें नहीं जाना चाहिए। उनके सारे रिश्तेदार मुसलमान होंगे। हमसे वे नफ़रत करेंगे। हम वहाँ सिर्फ़ दो ही सिक्ख होंगे, बाकी सभी वहीं होंगे। हमारे भाई तो हमें प्यार करेंगे, पर दूसरे लोग नफ़रत करेंगे। और फिर, वे हमारी स्पेशल सेवा कैसे करेंगे ? उनका वाला खाना तो हमसे खाया नहीं जाएगा। फिर भाई ने कहा- और फिर धर्म का मामला है। हमने सोचा, फिर कभी फुरसत के समय जाएंगे, जब सिर्फ़ उन्हीं का परिवार होगा। तब भी दो-एक रोज़ रुक कर लौट आएंगे। वे भी फोन करते रहते हैं। मैंने अपनी बहू से उनकी बहू की भी बातचीत करवाई थी। वे दोनों काफी देर तक बातें करती रही थीं। पर एक दिन भाई बोला- हम तो सो गए थे। पर जब से तुम मिलकर गए हो, ईद मौके उदास हो जाते हैं।''
बोले जा रहा है, बोले जा रहा है। पता नहीं, किसका सिर लगा हुआ है।
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देशराज काली
जन्म : १६ मार्च १९७१
प्रकाशित पुस्तकें : ‘चीक’, ‘ज़ख़्मा दे रिस्तियों’, फ़कीरी (कहानी संग्रह), पर्णेश्वरी (उपन्यास)।
संप्रति : पत्रकारिता और लेखन।
संपर्क : ३८/३, नीला महल, जालंधर (पंजाब)
ई मेल : kalianjoo@gmail.com
फोन : 093562 67116, 094176 58139

6 टिप्पणियाँ:

सुनील गज्जाणी 22 सितंबर 2010 को 3:54 pm बजे  

सम्मानिय सुभाष जी
नमस्कार !
''कथा पंजाब '' के लिए आप को बधाई !
सादर

सुनील गज्जाणी 22 सितंबर 2010 को 3:57 pm बजे  

सम्मानिय सुभाष जी
समानीय देश राज जी
नमस्कार !
कहानी अच्छी लगी , साधुवाद
सादर !
''

डा सुभाष राय 23 सितंबर 2010 को 11:18 am बजे  

देशराज काली की कहानी बहुत पसन्द आयी. अपने समय का इतना गहरा सम्वेदन किसी भी रचनाकार को बड़ा बना देने के लिये काफी है. मजहब ने हमारे समाज का बहुत नुकसान किया है. कौन मानता है कि मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर करना, मजहब ही तो वैर करना सिखा रहा है और इसी के नाते हम इनसान को बांटकर देखने के आदी होटल चले गये हैं. यह डर इस कहानी में साफ झलकता है. काली को बधाई, सुभाष जी को भी.

परमजीत सिहँ बाली 2 अक्तूबर 2010 को 9:50 pm बजे  

काली जी कहानी बहुत बढ़िया लगी। बधाई।

amar jeet 5 नवंबर 2010 को 4:06 pm बजे  

बदलते परिवेश मैं,
निरंतर ख़त्म होते नैतिक मूल्यों के बीच,
कोई तो है जो हमें जीवित रखे है,
जूझने के लिए है,
उसी प्रकाश पुंज की जीवन ज्योति,
हमारे ह्रदय मे सदैव दैदीप्यमान होती रहे,
यही शुभकामनाये!!
दीप उत्सव की बधाई...................

हरकीरत ' हीर' 6 नवंबर 2010 को 2:49 pm बजे  

सुभाष जी ,
अच्छी कहानी देशराज जी की ...कुछ पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं ......

@अगर दूध उबल कर आग में गिरे तो मांस के जलने जैसी बदबू नहीं आती ....?
@ हलाल तो बिलकुल सफ़ेद पड जाता है ....
@ यह खुंडी और जूती सरहद पार फें क आना कंटीली तारों के ऊपर से मैं समझूंगा मेरे भाई के पास चली गई
@ पकिस्तान के गाँव क्यों नहीं कहते हो ....?
कुछ विभाजन की त्रासदियाँ भी देखने को मिली ..
दो मुल्को के बीच अंतर्वेदना को बखूबी दर्शाया है देशराज जी ने .....

अनुवाद में आपका कोई सानी नहीं ....बहुत मेहनत करते हैं आप ....
बधाई ....!!

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

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ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

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