लेखक से बातचीत
>> रविवार, 19 सितंबर 2010
लेखक से बातचीत(2)
''मेरे पास एक अदबी तबीअत है- तलविंदर सिंह''
''मेरे पास एक अदबी तबीअत है- तलविंदर सिंह''
पंजाबी की चौथी कथा पीढ़ी के कथाकारों में तलविंदर सिंह एक प्रमुख नाम है। तलविंदर ने पंजाबी कथा साहित्य में बड़ी तेजी से अपनी एक पुख्ता और पृथक पहचान बनाई है। स्त्री-पुरुष सम्बन्धों पर पंजाबी
के अग्रज और वरिष्ठ लेखक खूब लिखते रहे हैं। पंजाबी की नयी कथा पीढ़ी ने भी इस विषय पर अपने अलग अंदाज और नये दृष्टिकोण के साथ कलम चलाई है। तलविंदर की 'मायाजाल' हो, 'भीतरी औरत' हो, 'नीली आँखें' हो, 'खाली मकान' हो, या 'अमर कथा' कहानी हो, इनमें इस अलग अंदाज और नये दृष्टिकोण को बखूबी देखा जा सकता है। भारत -पाक के रिश्तों को लेकर लिखी गयी कहानियाँ 'नो मैन्ज़ लैंड' और 'खुशबू' एक अलग तरह की मिठास लिए हुए हैं। दलित विमर्श के इस दौर में तलविंदर की कहानी 'फासला' भी एक गौरतलब कहानी है। तलविंदर सिंह के अब तक दो उपन्यास -'लौ होण तक' तथा 'योद्धे', चार कहानी संग्रह -'रात चानणी'(1992), 'विचली औरत' (2001), 'नायक दी मौत' (2006) तथा 'इस वार' (2007) प्रकाशित हो चुके हैं। यहाँ प्रस्तुत है- कथाकार तलविंदर सिंह से कथाकार एवं 'शब्द' त्रैमासिक के संपादक जिंदर द्वारा की गई लम्बी बातचीत के महत्वपूर्ण अंश -

जिंदर - आपके साहित्यिक सफ़र का आरंभ कैसे हुआ ? किन लेखकों ने शुरू में प्रभावित किया और बाद में आपने किनका प्रभाव स्वीकार किया ?
तलविंदर सिंह - मुझे लगता है, कहीं न कहीं अदबी बीज मेरे अन्दर था। मेरे भापा जी को भी पढ़ने का थोड़ा शौक था ही। उन्होंने कुछ चुनिंदा कवियों की कविताएं एक कापी में उर्दू अक्षरों में उतार रखी थीं। वे उस कापी में से हमें कविताएं, गीत पढ़ पढ़कर सुनाया करते। मेरा मन भी होता कि मैं भी ऐसी कविताएं लिखूं। इसीलिए मैंने प्राइमरी करते समय ही उनसे उर्दू सीखी। दूसरी बात जो मुझे याद आती है, वह गुरदयाल सिंह फुल्ल से जुड़ी है। मेरी एक किताब पर चढ़े कवर पर एक रचना गुरदयाल सिंह फुल्ल के नाम तहत छपी हुई थी। चूंकि हमारा गोत्र भी फुल्ल था इसलिए मेरे मन में इच्छा जाग्रत हुई कि इसी तरह मेरा नाम भी अख़बार में छपे। तीसरा कारण, मुझे चिट्ठियों की शक्ल में याद आता है। मेरी बड़ी बहन विवाह के बाद आसाम चली गई थी। उसे चिट्ठी लिखने की जिम्मेदारी मेरी हुआ करती थी। माँ अपने ढंग से चिट्ठी लिखवाती जैसे सब राजी खुशी है, आगे समाचार यह है, खत का जवाब जल्दी देना वगैरह-वगैरह। माँ जब लिखवा चुकी होतीं तो मैं अपना ढंग इस्तेमाल करता। इधर उधर की घटनाएं लिखता, कई काल्पनिक जुमले जोड़ता। बहन जवाब में लिखती कि वीर(भाई) की चिट्ठी पढ़कर मजा आ जाता है। चिट्ठियाँ लिखना भी मेरी हॉबी बन गया। एक लम्बे समय तक मैंने चिट्ठियों में कहानियाँ भरीं। इससे अगला कारण जो मुझे नज़र आता है, वह है- मेरा साहित्यिक किताबें पढ़ने का शौक। मैं जो भी किताब पढ़ता, पढ़कर यही सोचा करता कि ऐसी बातें तो मैं भी लिख सकता हूँ। पढ़ने का शौक आठवीं-नौवीं में लगा था। जहाँ तक मुझे स्मरण है, पहली रचना मैंने कहानी के रूप में उस समय लिखी थी जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ता था। उन दिनों ही सन् 1971 में जंग लगी थी और वह कहानी जंग में शहीद होने वाले सिपाही के बारे में थी। तब तक मैंने पाठ्यक्रम में लगे लेखकों का ही पढ़ा था। सोहण सिंह शीतल, नानक सिंह, जसवंत सिंह कंवल, अमृता प्रीतम, संतसिंह सेखों, सुजान सिंह आदि। इनकी भी एक-एक कहानी ही। इन लेखकों को मैंने जमकर कॉलेज में ही पढ़ा। बेरिंग कॉलेज की लायब्रेरी बहुत बड़ी थी। पंजाबी की पुस्तकों का बड़ा भंडार था। मैं एक समय में तीन किताबें इशु करवाता और एक हफ्ते में पढ़ लेता। तीन तीन सौ पृष्ठों के उपन्यास मैं दो तीन बैठकों में खत्म कर देता। कहानियों की बनिस्बत उपन्यास मैं अधिक पढ़ता। नानक सिंह का कहानी जोड़ने का ढंग और कंवल का वार्तालाप मन पर गहरा असर छोड़ते। मैं अपने अन्दर एक नावल खड़ा करता। मन कहता कि तू लिख सकता है। बी.ए. प्रथम वर्ष में कॉलेज की मैगज़ीन 'दीपशिखा' में मेरी एक कविता छपी। जिस दिन मैगज़ीन मिला, वह दिन मेरी ज़िन्दगी का एक बेहद हसीन दिन था। मैंने वह कविता हर किसी को दिखाई। फिर, द्वितीय वर्ष में उसी पत्रिका में मेरी एक कहानी छपी जिसका नाम था- 'दीपा'। कुछ समय पश्चात् घर में मैंने एक उपन्यास शुरू किया। हमारे नज़दीक एक पेंटर रहता था। उसे गुरुद्वारे में बाणी की तुकें लिखने के लिए बुलाया गया था। वे तुकें मैं लिखवा रहा था। वह पाकिस्तान में कई साल कैद काट कर लौटा था। वह जासूसी के जुर्म में पकड़ा गया था। उसकी कहानी जबर्दस्त थी। उसने अनेक यातनाएं झेली थीं, पीछे से उसका घर उजड़ गया था, और तो और, सरकार ने उसकी कोई बात नहीं पूछी। मैंने उसे पास बिठा कर ब्यौरे लिखे और उन्हें उपन्यास का रूप देने लगा। जहाँ अटक जाता, पेंटर को बुला लेता। इस तरह मैंने सौ से अधिक पेज लिख मारे। नाम रखा - 'कलंक'। इसके बाद एक और उपन्यास लिखा- 'आधी रात का सूरज' नाम से। पर ये पुलिंदे ऐसे ही पड़े रहे, कई साल। एक बार मैं एक पांडुलिपि लेकर सुरिंदर काहलों के पास छपवाने के इरादे से गया भी। काहलों ने बटाला में प्रैस लगा रखी थी। उसने पांडुलिपि को उलट-पलट कर देखा। उसने मुझसे पढ़े हुए लेखकों के बारे में पूछा। मेरा जवाब उसे संतोषजनक नहीं लगा। उसने मुझे सलाह दी कि अभी मैं और पढ़ूं। मैं निराश होकर लौट आया पर लिखने की ललक बरकरार रही। पढ़ाई समाप्त करने के बाद कुछ समय बेकारी से जूझने के कारण, नौकरी के प्रारंभिक वर्ष और विवाह के आरंभिक दौर में मैं कुछ खास न लिख सका। कभी कभी कहानी लिखने की कोशिश करता। जालंधर मैं पंजाब बुक सेंटर और भाषा विभाग के दफ्तर जाता और वहाँ से किताबें ले आता। मिली जुली किताबें- उपन्यास, कहानी और फिलासफी से जुड़ी। यहीं मैंने मोहन राकेश, यशपाल, राजिंदर सिंह बेदी, सुदर्शन आदि की पंजाबी में अनूदित कहानियाँ पढ़ीं। अजीत कौर और गार्गी की शैली भाने लगी। तीखे और करारे संवाद अच्छे लगते। कुंलवंत सिंह विरक का कहानी बुनने का ढंग पसंद आता। नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा आदान-प्रदान श्रृंखला में प्रकाशित किए गए भारतीय भाषाओं के अनुवाद पढ़े। मेरी आँखें खुलती गईं। पहले लिखे उपन्यास खुद ब खुद कोने में लगते गए। सन् 1987 में मैंने एक और उपन्यास लिखा - 'लौ होण तक' जिसे रवि साहित्य प्रकाशन ने छापा। इस उपन्यास को भाषा विभाग, पंजाब ने वर्ष 1989 में नानक सिंह पुरस्कार से नवाजा। लेकिन इस उपन्यास की साहित्य में अधिक चर्चा न हो सकी। इस समय तक मैं पंजाबी कथाकार प्रेम प्रकाश, रघुबीर ढंड, वरियामसिंह संधु की लेखन विधि को बड़े गौर से देख रहा था। मेरी कहानी 'वारिस' डा. रविंदर की पत्रिका 'विकल्प' में छपी तो तुरन्त प्रतिक्रिया हुई। भाजी गुरशरन सिंह(नाटककार) और सरदार पंछी आदि के खत आए कि इस कहानी पर फिल्म बनाने की अनुमति भेजो। वर्ष 1992 में मेरा पहला कहानी संग्रह 'रात चानणी' प्रकाशित हुआ। इसी वर्ष जालंधर में होने वाले कहानी उत्सव में बलदेव धालीवाल ने 'पंजाबी कहानी, नए नक्श' शीर्षक के तहत लिखे गए अपने परचे में इस कहानी के साथ साथ दो-तीन अन्य कहानियों का उल्लेख किया। मेरी पहचान बनी और मुझे लगा कि मैं अदब के अखाड़े में आ गया हूँ। रही प्रभाव स्वीकार करने की बात। अगर आप कोई एक नाम पूछो, तो उत्तर देना कठिन होगा। मैंने हर लेखक से कुछ न कुछ लिया है। हर लेखक का कुछ न कुछ योगदान है। सीखने और सबक लेने की प्रक्रिया अन्तहीन है। मैं समझता हूँ कि जब लेखक लिखता है तो उसके पीछे पूरी परंपरा गतिशील होती है। स्वयं वह सूत्रधार होता है।
तलविंदर सिंह - मुझे लगता है, कहीं न कहीं अदबी बीज मेरे अन्दर था। मेरे भापा जी को भी पढ़ने का थोड़ा शौक था ही। उन्होंने कुछ चुनिंदा कवियों की कविताएं एक कापी में उर्दू अक्षरों में उतार रखी थीं। वे उस कापी में से हमें कविताएं, गीत पढ़ पढ़कर सुनाया करते। मेरा मन भी होता कि मैं भी ऐसी कविताएं लिखूं। इसीलिए मैंने प्राइमरी करते समय ही उनसे उर्दू सीखी। दूसरी बात जो मुझे याद आती है, वह गुरदयाल सिंह फुल्ल से जुड़ी है। मेरी एक किताब पर चढ़े कवर पर एक रचना गुरदयाल सिंह फुल्ल के नाम तहत छपी हुई थी। चूंकि हमारा गोत्र भी फुल्ल था इसलिए मेरे मन में इच्छा जाग्रत हुई कि इसी तरह मेरा नाम भी अख़बार में छपे। तीसरा कारण, मुझे चिट्ठियों की शक्ल में याद आता है। मेरी बड़ी बहन विवाह के बाद आसाम चली गई थी। उसे चिट्ठी लिखने की जिम्मेदारी मेरी हुआ करती थी। माँ अपने ढंग से चिट्ठी लिखवाती जैसे सब राजी खुशी है, आगे समाचार यह है, खत का जवाब जल्दी देना वगैरह-वगैरह। माँ जब लिखवा चुकी होतीं तो मैं अपना ढंग इस्तेमाल करता। इधर उधर की घटनाएं लिखता, कई काल्पनिक जुमले जोड़ता। बहन जवाब में लिखती कि वीर(भाई) की चिट्ठी पढ़कर मजा आ जाता है। चिट्ठियाँ लिखना भी मेरी हॉबी बन गया। एक लम्बे समय तक मैंने चिट्ठियों में कहानियाँ भरीं। इससे अगला कारण जो मुझे नज़र आता है, वह है- मेरा साहित्यिक किताबें पढ़ने का शौक। मैं जो भी किताब पढ़ता, पढ़कर यही सोचा करता कि ऐसी बातें तो मैं भी लिख सकता हूँ। पढ़ने का शौक आठवीं-नौवीं में लगा था। जहाँ तक मुझे स्मरण है, पहली रचना मैंने कहानी के रूप में उस समय लिखी थी जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ता था। उन दिनों ही सन् 1971 में जंग लगी थी और वह कहानी जंग में शहीद होने वाले सिपाही के बारे में थी। तब तक मैंने पाठ्यक्रम में लगे लेखकों का ही पढ़ा था। सोहण सिंह शीतल, नानक सिंह, जसवंत सिंह कंवल, अमृता प्रीतम, संतसिंह सेखों, सुजान सिंह आदि। इनकी भी एक-एक कहानी ही। इन लेखकों को मैंने जमकर कॉलेज में ही पढ़ा। बेरिंग कॉलेज की लायब्रेरी बहुत बड़ी थी। पंजाबी की पुस्तकों का बड़ा भंडार था। मैं एक समय में तीन किताबें इशु करवाता और एक हफ्ते में पढ़ लेता। तीन तीन सौ पृष्ठों के उपन्यास मैं दो तीन बैठकों में खत्म कर देता। कहानियों की बनिस्बत उपन्यास मैं अधिक पढ़ता। नानक सिंह का कहानी जोड़ने का ढंग और कंवल का वार्तालाप मन पर गहरा असर छोड़ते। मैं अपने अन्दर एक नावल खड़ा करता। मन कहता कि तू लिख सकता है। बी.ए. प्रथम वर्ष में कॉलेज की मैगज़ीन 'दीपशिखा' में मेरी एक कविता छपी। जिस दिन मैगज़ीन मिला, वह दिन मेरी ज़िन्दगी का एक बेहद हसीन दिन था। मैंने वह कविता हर किसी को दिखाई। फिर, द्वितीय वर्ष में उसी पत्रिका में मेरी एक कहानी छपी जिसका नाम था- 'दीपा'। कुछ समय पश्चात् घर में मैंने एक उपन्यास शुरू किया। हमारे नज़दीक एक पेंटर रहता था। उसे गुरुद्वारे में बाणी की तुकें लिखने के लिए बुलाया गया था। वे तुकें मैं लिखवा रहा था। वह पाकिस्तान में कई साल कैद काट कर लौटा था। वह जासूसी के जुर्म में पकड़ा गया था। उसकी कहानी जबर्दस्त थी। उसने अनेक यातनाएं झेली थीं, पीछे से उसका घर उजड़ गया था, और तो और, सरकार ने उसकी कोई बात नहीं पूछी। मैंने उसे पास बिठा कर ब्यौरे लिखे और उन्हें उपन्यास का रूप देने लगा। जहाँ अटक जाता, पेंटर को बुला लेता। इस तरह मैंने सौ से अधिक पेज लिख मारे। नाम रखा - 'कलंक'। इसके बाद एक और उपन्यास लिखा- 'आधी रात का सूरज' नाम से। पर ये पुलिंदे ऐसे ही पड़े रहे, कई साल। एक बार मैं एक पांडुलिपि लेकर सुरिंदर काहलों के पास छपवाने के इरादे से गया भी। काहलों ने बटाला में प्रैस लगा रखी थी। उसने पांडुलिपि को उलट-पलट कर देखा। उसने मुझसे पढ़े हुए लेखकों के बारे में पूछा। मेरा जवाब उसे संतोषजनक नहीं लगा। उसने मुझे सलाह दी कि अभी मैं और पढ़ूं। मैं निराश होकर लौट आया पर लिखने की ललक बरकरार रही। पढ़ाई समाप्त करने के बाद कुछ समय बेकारी से जूझने के कारण, नौकरी के प्रारंभिक वर्ष और विवाह के आरंभिक दौर में मैं कुछ खास न लिख सका। कभी कभी कहानी लिखने की कोशिश करता। जालंधर मैं पंजाब बुक सेंटर और भाषा विभाग के दफ्तर जाता और वहाँ से किताबें ले आता। मिली जुली किताबें- उपन्यास, कहानी और फिलासफी से जुड़ी। यहीं मैंने मोहन राकेश, यशपाल, राजिंदर सिंह बेदी, सुदर्शन आदि की पंजाबी में अनूदित कहानियाँ पढ़ीं। अजीत कौर और गार्गी की शैली भाने लगी। तीखे और करारे संवाद अच्छे लगते। कुंलवंत सिंह विरक का कहानी बुनने का ढंग पसंद आता। नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा आदान-प्रदान श्रृंखला में प्रकाशित किए गए भारतीय भाषाओं के अनुवाद पढ़े। मेरी आँखें खुलती गईं। पहले लिखे उपन्यास खुद ब खुद कोने में लगते गए। सन् 1987 में मैंने एक और उपन्यास लिखा - 'लौ होण तक' जिसे रवि साहित्य प्रकाशन ने छापा। इस उपन्यास को भाषा विभाग, पंजाब ने वर्ष 1989 में नानक सिंह पुरस्कार से नवाजा। लेकिन इस उपन्यास की साहित्य में अधिक चर्चा न हो सकी। इस समय तक मैं पंजाबी कथाकार प्रेम प्रकाश, रघुबीर ढंड, वरियामसिंह संधु की लेखन विधि को बड़े गौर से देख रहा था। मेरी कहानी 'वारिस' डा. रविंदर की पत्रिका 'विकल्प' में छपी तो तुरन्त प्रतिक्रिया हुई। भाजी गुरशरन सिंह(नाटककार) और सरदार पंछी आदि के खत आए कि इस कहानी पर फिल्म बनाने की अनुमति भेजो। वर्ष 1992 में मेरा पहला कहानी संग्रह 'रात चानणी' प्रकाशित हुआ। इसी वर्ष जालंधर में होने वाले कहानी उत्सव में बलदेव धालीवाल ने 'पंजाबी कहानी, नए नक्श' शीर्षक के तहत लिखे गए अपने परचे में इस कहानी के साथ साथ दो-तीन अन्य कहानियों का उल्लेख किया। मेरी पहचान बनी और मुझे लगा कि मैं अदब के अखाड़े में आ गया हूँ। रही प्रभाव स्वीकार करने की बात। अगर आप कोई एक नाम पूछो, तो उत्तर देना कठिन होगा। मैंने हर लेखक से कुछ न कुछ लिया है। हर लेखक का कुछ न कुछ योगदान है। सीखने और सबक लेने की प्रक्रिया अन्तहीन है। मैं समझता हूँ कि जब लेखक लिखता है तो उसके पीछे पूरी परंपरा गतिशील होती है। स्वयं वह सूत्रधार होता है।

तलविंदर से बातचीत करते जिंदर
जिंदर - आपकी दिलचस्पी संगठनों में भी रही है। आप पिछले काफी समय से 'केन्द्रीय पंजाबी लेखक सभा' में भी काम करते रहे हो। क्या इससे आपका लेखन प्रभावित नहीं होता ?
तलविंदर सिंह - मुझे याद है, मई 1984 में मैं, हांस और जगीर सिंह नूर अपनी पत्नियों सहित अलीवाल पिकनिक पर गए थे। वहीं हम तीनों ने यह निश्चय किया कि क्यों न बटाला में एक साहित्य सभा बनाई जाए। वहीं हमने इसका नामकरण कर लिया और पद भी बांट लिए। साथ ही प्रैस को भी ख़बर दे दी। शीघ्र ही, सुभाष कलाकार, गुरमीत सरां, सुरिंदर शांत, अमरदीप संधावालिया आदि इससे आ जुड़े। हम नियमित हर माह बैठकें करते। जब इसका घेरा व्यापक हुआ तो मैंने इसे केन्द्रीय सभा से जोड़ने के लिए केन्द्रीय सभा के तत्कालीन महा सचिव तेरा सिंह चन्न से सम्पर्क किया। उस समय केन्द्रीय सभा के विधान के अनुसार एक शहर में से एक ही सभा केन्द्रीय सभा से जुड़ सकती थी। मैंने लिखकर दिया कि हमारी सभा का दफ्तर गांव शुकरपुरा में है। लेकिन प्रस्ताव केन्द्रीय सभा की मीटिंग में रद्द हो गया। बटाला में हरभजन बाजवा की रहनुमाई में 'साहित्य कला संसार' पहले ही कार्यशील था और बाजवा के कारण ही ऐसा हुआ था। हमने बैठक में प्रस्ताव पारित किया कि हम केन्द्रीय सभा से कभी भी संबंध नहीं रखेंगे। ख़बर पढ़कर मक्खन कुहाड़ मेरे पास आया और उसने इस प्रस्ताव को वापस लेन के लिए कहा। उसने लम्बा चौड़ा व्याख्यान संगठनों की आवश्यकता के हक में दिया जिससे मैं असहमत नहीं हो सकता था। उन्होंने अगली बैठक में केन्द्रीय सभा के विधान की इस धारा में कि एक शहर में से एक सभा ही केन्द्रीय सभा से जुड़ सकती है' में संशोधन करवाया और हमारी सुविधा के लिए रास्ता खोला। केन्द्रीय सभा पंजाबी भाषा के हक में सरगरम थी और निरंतर धरनो, प्रदर्शनों के माध्यम से सरकार पर दबाव डाल रही थी कि वह पंजाबी को हर स्तर पर लागू करे। इस मुद्दे पर हमारे अन्दर भी कोई मतभेद नहीं था। सो, मैं भी इन जुलूसों, धरनों में जाने लगा। फिर जब अमृतसर से डा. श्यामसुंदर दीप्ति को मीतप्रधान के लिए चुनाव लड़वाया तो मैं कार्यकारणी में आ गया। मैं लगातार दो बार कार्यकारणी में रहा। तीसरी टर्म में मुझे सचिव के पद के लिए चुनाव लड़वाने का फैसला हुआ। मैं जीत गया और फिर और अधिक सक्रिय हो गया। अमृतसर में मैंने और डा. दीप्ति ने जनवादी लेखक संघ की स्थापना डा. प्रदीप सक्सेना की सलाह पर की और कुछ बड़े समारोह किए। इस तरह संगठनात्मक कामों में मेरी भागीदारी बढ़ती गई। यह ठीक है कि इसके साथ अपने लेखन पर असर पड़ता है। छुट्टियों के दिन संगठन के कामों में लग जाते हैं पर मुझे इसमें कोई नुकसान प्रतीत नहीं होता। मैं समझता हूँ कि हर मसले के हल के लिए साझे प्रयत्न ज़रूरी हैं। लिखना बहुत ज़रूरी है पर बड़े मसलों के प्रति संजीदा होना भी बहुत ज़रूरी है। अगर सरकार पंजाब में अभी तक पंजाबी भाषा के हक में कोई ठोस कार्रवाई नहीं कर सकी तो नि:संदेह इसमें लेखकों के अतिशक्तिशाली प्रैशर का अभाव है। हमारे पास केन्द्रीय सभा या साहित्य अकादमी के अलावा और कौन सा दल है जो भाषा के मसले पर चिंता करता हो ?
जिंदर- कहानी लिखते समय आपका प्रेरणास्रोत क्या होता है ?
तलविंदर सिंह -मेरा प्रेरणास्रोत वह सब होता है जो पहले देखा, पढ़ा या सुना होता है। फिर अपने अनुभव होते हैं जिनमें से गुजरकर कोई सोची या देखी-सुनी घटना साहित्यिक आकार ग्रहण करती है। कई बार लिखते समय बिलकुल नए या भूले बिसरे वाक़यात स्मरण हो आते हैं और सहज ही रचना का हिस्सा बन जाते हैं। मैंने अनुभव किया है कि कई बार बचपन की वे बातें कहानी का हिस्सा बन जाती हैं जिनके बारे में सोचा भी नहीं होता। मुझे लगता है यदि मैं स्थूल रूप में यह कहना चाहूँ कि अमुक बात लिखते समय प्रेरित करती है या कोई और बात, तो शायद बात न बनें। ये प्रेरणाओं का समूह-सा होता है जो स्वत: ही लिखवा ले जाता है। यह सूक्ष्म-सा व्यवहार है जिसमें से गजर कर काई ख़याल रचनात्मक माडल में ढल जाता है। इसमें काफी दख़ल हमारी हुनरी तबीअत का भी है।
जिंदर - आप पहले प्रगतिशील स्वर की कहानी लिखते थे, फिर अचानक करवट बदल ली। क्या कारण रहा?
तलविंदर सिंह - मुझे याद है, जब मैं कॉलेज में पढ़ा करता था, उस समय प्रगतिवादी लहर का ज़ोर था। एस.एफ.आई, पी.एस.यू., ए.आई.एस.एफ.आई., जैसे संगठनों का ज़ोर था। विद्यार्थी जुझारू लहरों के साथ खुद को कहलवा कर खुश हुआ करते थे। मैं किसी भी पार्टी या ग्रुप से नहीं जुड़ा था, पर माहौल का असर लाज़मी ही था। पहले प्रो. नरिंजन सिंह ढेसी और फिर प्रो. रतन सिंह चाहल हमारे पंजाबी के अध्यापक रहे। प्रो. ढेसी का तो मालूम था कि वह नक्सली लहर से जुड़े थे। शायद, प्रो. चाहल भी जुड़े थे। वे पढ़ाते समय प्रगतिशील विचारों का खुलासा करते। मुझे याद है, बी.ए. के दूसरे वर्ष में पढ़ते समय जो कहानी मैंने लिखकर प्रो. चाहल को दी थी, वह अधूरे प्रेम के कारण बर्बाद हुए एक व्यक्ति की कहानी थी। कहानी तो उन्होंने छपने के लिए रख ली लेकिन छापने से पहले उन्होंने मुझे बुलाकर कहा कि दु:ख तो और भी हैं ज़िन्दगी में, ज़रा गहरी दृष्टि डाल। मुहब्बत ही कोई अकेला मसला नहीं है। अगर लिखना है तो समाज की नब्ज़ पर हाथ रख। कुछ माहौल का असर और कुछ ऐसे सबक, इससे मेरे मन-मस्तिष्क पर कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा ही होगा। अगली बार जब मैं उस मैगज़ीन का विद्यार्थी संपादक था तो खुद छात्र-छात्राओं से उनकी रचनाएँ पकड़ते समय इस बात का ख़याल रख रहा था कि ये कविताएँ या कहानियाँ अकेले इश्क का उबाल तो नहीं, ये कुछ सार्थक कह भी रही हैं या नहीं ? फिर अपने मोहल्ले में अपने दोस्त-मित्रों के साथ मिलकर एक ‘समाज सुधार सभा’ बना ली। मैं इश्तहारों का मैटर लिखता, दूसरों को बोलने के लिए नुक्ते लिख-लिख कर देता, स्वयं सभाओं, बैठकों में आगे बढ़ कर बोलता। सयाने
लोग मेरी प्रशंसा करते हुए कहते -''भई मिस्त्री करतार सिंह का लड़का सयाना है, सयानी और सुथरी बातें करता है।'' मैं अपने ऊपर सयानेपन का लबादा औढ़ने लग पड़ा, आदर्शवादी बन गया। बटाला में मेरे उपन्यास ''लौ होण तक'' पर एक गोष्ठी के दौरान प्रो. उधम सिंह शाही ने कहा था कि हैरानी की बात है, प्रेम करने की उम्र में तलविंदर के पात्र इतने बेहिस क्यों हैं। मुझे इस बात की बारीकी का पता नहीं था, लेकिन बाद में जाकर महसूस किया कि उस उम्र में मैंने प्रेम के कई अवसर गवां लिए। अन्दरूनी तड़प हवस बनकर पलती रही। आदर्श मुखौटे के पीछे कुदरती जज्बे उठते-गिरते रहे और मैं एक द्वंद को भोगता रहा। फिर साहित्यिक सफ़र तय करते समय कुछ नया पढ़ा, मानवीय स्वभाव के विषय में, मनोवैज्ञानिक मसलों के बारे में, कुछ लेख फ्रायड के लिखे भी पढ़े। नये विषयों पर लिखी कहानियाँ पढ़ीं तो मुझे लगा कि जैसे मेरे अन्दर भी ऐसा बहुत कुछ पड़ा हुआ है। मुझे भी वे गांठें खोलनी चाहिएं। इस कोशिश को अंजाम देने में ही मैंने इस ओर करवट ली।
जिंदर- आपकी कहानी 'ताड़ी' (ताली) पिछले समय में काफी चर्चित रही है। इस कहानी के मुख्य पात्र की मनोस्थिति को समझते हुए मुझे लगा कि वह खुद तलविंदर है। आपकी बताई गई बातों के अनुसार ही वह मानसिक तौर पर टूटा हुआ और कमज़ोर नज़र आता है। क्या यह सही है ?
तलविंदर सिंह - यह कहानी उस व्यक्ति की मानसिकता को प्रतिबिम्बित करती है जिसने जवानी में आदर्श लिबास पहने और मुहब्बत के कई असवर गवां लिये। उसने आदर्शवादी होने का ढोंग रचा और प्रौढ़ उम्र में आकर मानसिक त्रासदी का शिकार हो गया। वे अवसर जो कभी उसके लिए गौरव थे, पश्चाताप में बदल जाते हैं। अगली बात यह कि वह पात्र स्वयं तलविंदर है या नहीं, इस बारे में मैं यही कहूँगा कि कहानियों के मसले हम बहुत ही नज़दीक से पकड़ा करते हैं। शायद बहुत कुछ अपने भीतर से ही मिल जाता है। यह ज़रूरी नहीं, सोची-समझी विधि हो, सहज स्वभाव भी घटित होता है। तुम्हें लगता है तो हो सकता है कि ये घटनाएँ मेरे आसपास से भी गुजरी हों। लेकिन यह बहुत सारे लोगों की कहानी है। इस कहानी को पढ़कर एक दिन कहानीकार मुख्तार गिल मुझे दारू पीकर गालियाँ बकता फोन पर कह रहा था कि मैंने लोगों से यह क्यों बताया कि हम भीतर से ऐसे हैं। ऐसे ही एक बार डा. रजनीश बहादर अमृतसर आया और मैंने उसे डा. राही के पास ले जाने के लिए बस स्टैंड से लिया। राह में मैं उसे अपने दफ्तर ले गया। वह इसी कहानी में आई एक लड़की पात्र ऐना का नाम लेकर पूछने लगा कि वह तेरी पी.ए. कहाँ बैठती है। फिर रास्ते में उसने 'ताड़ी' के मुख्य पात्र की समस्या को मेरे साथ जोड़कर प्रश्न किया कि क्या सचमुच औरतों के प्रति मेरा तटस्थ व्यवहार है। मैंने उसे बताया कि यह मेरी समस्या नहीं। वैसे मेरा ख़याल है कि पात्र न जिंदर होता है, न मुख्तार गिल और न ही तलविंदर। वह समस्या का साधारणीकरण होता है। जो मुखौटेधारी लोग हैं, उन्हें छोड़कर सभी लोग कहेंगे कि यह हमारा मसला है।
जिंदर- मेरा अगला सवाल थोड़ा निजी और टेढ़ा है। आपने जवानी और प्रौढ़ आयु के मनोवैज्ञानिक तथा जिन्सी मसलों को स्पर्श किया है। इस बात का अहसास होने के बाद कि कई मुहब्बत के अवसर चाहे-अनचाहे गुम हो गए, क्या किसी गुम हुए मौके को फिर से दस्तक दी ?
तलविंदर सिंह - यह वाकई टेढ़ा और घर से बाहर निकलवा देने वाला सवाल है। फिर भी मैं कोशिश करूँगा कि ईमानदारी से जवाब दे सकूं। मैंने जवानी में एक लड़की से बेपनाह मुहब्बत की। मेरा अपनी पत्नी के संग भी इश्क रहा। फिर लम्बे समय तक ऐसी कोई घटना नहीं घटी। बहुत ही रंगीन और सुखद विवाहित जीवन के बीच बहुत बाद में एक मुहब्बत ने बड़ी सहजता से मेरे जीवन में प्रवेश किया। मैंने बेसब्रा होकर उसे एक ही साँस में पी लेना चाहा। सारी अक्ल-समझदारी को छीके पर टांग मानो पिछली कमियों को पूरा करने की कोशिश की। पर उमंगित मन देर तक ऐसे अमलों में पड़ने के लिए भी राजी नहीं हुआ। उस मुहब्बत ने मेरी सोच को नये आयाम दिए। यह अनुभव कथा-कहानी में ढलकर अपना रंग दिखाते रहे। मैं सोचता हूँ, अगर यह बाद वाली मुहब्बत मेरे जीवन मे न आती तो बहुत सारे अहसास लिखे ही नहीं जा सकते थे।
जिंदर- क्या आपकी कहानियाँ आपकी पत्नी की नज़र में पड़ती हैं ?
तलविंदर सिंह - यह कैसे हो सकता है कि छपी रचना किसी निजी कैद में छिपा ली जाए। यह तो संभव है कि अनछपी रचना आप किसी कोने में संभाल कर सुरक्षित रख लो, पर छपी हुई रचना को तो किसी भी प्रकार से छिपाया नहीं जा सकता। दूसरी बात, मेरी शायद ही कोई कहानी हो जिसे मेरी पत्नी ने न पढ़ा हो। पहले तो वह अनछपी कहानी पढ़ लिया करती थी पर अब जिस पत्रिका में कहानी आती है, उसे वह तब तक संभाल कर रखती है जब तक पढ़ने के लिए समय न निकाल ले। कई बार पूछती भी है, 'यह लड़की पात्र कौन है, यह बात मन में कैसे आई कि इसे इस तरह लिखना है ?' वेसे वह कहानी के 'मैं' पात्र को मेरे से पृथक कर लेती है। अगली बात जो अधिक अहम है, वह यह है कि वह मेरी ही नहीं, तुम सब की कहानियाँ पढ़ती है और बहुत बार मेरे से चर्चा भी करती है। कई बार हँसते हुए यह कहकर कि लेखक सभी रंगीन तबीअत के होते हैं, मुझे बाइज्ज़त बरी कर देती है। मेरा तो इतने में ही निपट जाता है। बाकी भाई मेरे, हो सकता है कि तू अपनी कहानियाँ अपनी बीवी की नज़रों से छिपाने में कामयाब हो जाता हो, पर मेरे यहाँ ऐसा नहीं है।
जिंदर- आपकी कहानी 'माया जाल' भी कई जगह अनुवाद होकर छपी है। इसका मुद्दा आपके हाथ में कैसे आया ?
तलविंदर सिंह - हमारे अमृतसर में एक बार एक घटना घटित हुई। एक पाँच-छह वर्ष के बच्चे का क़त्ल हो गया। कारण यह था कि उसने अपनी माँ को किसी गैर मर्द के साथ देख लिया था, अपने ही घर में। उसने कहा कि मैं पिता को बताऊँगा। उस औरत और उस व्यक्ति ने बच्चे को बहुत फुसलाया, पर वह नहीं माना। आख़िर उस औरत ने उस व्यक्ति की मदद से बच्चे को नहर में ले जाकर मार दिया। यह घटना बहुत समय तक मेरे अन्दर पड़ी रही। यही सोचता रहा कि यदि ऐसे ही बच्चा अपने पिता को किसी अन्य औरत के संग देखता और कहता कि वह माँ को बताएगा, तो क्या पिता भी ऐसा ही करता, जैसा उस औरत ने किया था। मुझे लगा कि औरत अपनी सामाजिक स्थिति को सुरक्षित रखने के लिए ही यह कारा करती है। इस कहानी के बाकी के विवरण मैंने अपने दोस्त देव दर्द से जुड़ी एक घटना से ले लिए।
जिंदर- मेरा मानना है कि आप विशुद्ध ग्रामीण जीवन से नहीं जुडे रहे। फिर भी आपकी कई कहानियों में ग्रामीण दृश्य बड़े सजीव हैं। यह कैसे ?
तलविंदर सिंह- मैंने अपना गाँव घोड़ेवाह तो बिलकुल ही नहीं देखा। आज भी मुझे उस गाँव का रास्ता नहीं पता। ननिहाली गाँव से गहरा रिश्ता रहा है। वहाँ मैं हफ्ते-दस दिन में ज़रूर जाता। यह 'कोटली ढोले शाह' जैंती पुर से कोई दो किलोमीटर की दूरी पर है। मेरा नाना गाँव का सीरी था। घर में ज़मींदार दरांती-हल आदि का काम करवाने आते रहते। वह बहुत ही सज्जन व्यक्ति था। गाँव में बड़ी मान और इज्ज़त का मालिक। नानी भी बहुत बढ़िया स्वभाव की थी। वहाँ बड़े मामा के बच्चे थे। मेरी बड़ी बहन का हमउम्र छोटा मामा था। वह मेरा पक्का साथी था। ननिहाल में मेरा बहुत दिल लगता। हम खुले खेतों में डंगर चराने जाते। कुएं पर नहाते। नाना के साथ कोल्हू पर जाकर रस पीता, गरम गरम गुड़ खाता। घर में खुला खाना पीना था। गर्मियों की छुट्टियाँ मैं अक्सर यहीं बिताया करता। यहाँ फ़सलें भी काटीं और खेतों में सोकर भी देखा। यहाँ मुझे सभी ‘शहर वाली बीबी का काका’ कहा करते थे। सभी मर्द मेरे मामा थे और औरतें मामियाँ। मुझे इन रिश्तों में से बहुत महक आती। इस गाँव के हमउम्र लड़के मेरे मित्र थे। यह सब कुछ मेरे बड़े होने तक जारी रहा। छोटा मामा अपने इश्क की झूठी-सच्ची कहानियाँ मुझे मसाले लगा-लगा कर सुनाता था। वह बेपरवाह आदमी था। फिल्में देखने का शौकीन। ग्रामीण जीवन के अनेक विवरण मैंने इसी गाँव में से लिए। कुछ अनुभव बुआ के गाँव दीपेवाल का भी था। वहाँ भी मैं कभी-कभी जाकर रहता था। बाकी लिखते समय किसी शब्द, नाम, स्थान पर अटक जाऊँ तो अपनी माता से जाकर पूछ लेता हूँ। इस तरह मेरा काम चल जाता है।
जिंदर- आपके विषय में एक बात चर्चा में है कि तलविंदर लाहौरिया हो गया। आपके ताल्लुकात पाकिस्तानी लेखकों से बढ़ गए। आप वहाँ की कहानी से भी जुड़े। इस अमल में से कोई साहित्यिक फ़ायदा हुआ ?
तलविंदर सिंह - पिछले कुछ वर्षों में मैं कई बार पाकिस्तान गया हूँ। जैसा कि होना था, मेरी निकटता वहाँ के अदीबों से बनी। फिर राब्ता कहानीकारों से बढ़ा। मैंने महसूस किया कि पचास-पचपन सालों के वक्फ़े ने एक साहित्यिक फ़ासला बना दिया है। मैं वहाँ मंशा याद, अफज़ल, अहिसन रंधावा, अफज़ल तौसीफ़, फरखंदा लोधी, इलियास घुम्मण, जुबैर अहिमद, मकसूद साकिब, तौकीर चुगताई आदि कहानीकारों से मिला। फिर मैं और घुम्मण ने मिलकर एक किताब संपादित की -'उजड़े घरों के वासी'। इसमें पाकिस्तानी पंजाब की बारह कहानियाँ शामिल की गईं। पर मैंने सोचा कि यह काफी नहीं है। फिर मैंने खुद 40 कहानियों का चयन किया और अपने मित्र पाल सिंह वल्ला से उन्हें लिप्यिंतर करवाकर 'साझी पीर' शीर्षक के तहत पंजाबी में प्रकाशित करवाई। फिर मुझे लगा कि कुछ अच्छे समर्थवान कहानीकार छूट गए हैं। इस तरह और चालीस कहानीकारों की कहानियों पर आधारित अगली किताब 'कच्चे कोठों का गीत' आई। अभी एक और ऐसी किताब के संपादन की गुंजाइश है जिस पर मैं काम कर रहा हूँ। इसके अलावा, अनवर अली की 'गुड़ की भेली', अफ़ज़ल तौसीफ़ की 'बुलबलीना', मकसूद साकिब की 'धुले पन्नों की इबारत', जुबैर अहिमद की 'कबूतर, बनेरे और गलियाँ' मंशा याद की 'अंधा कुआं' और 'बहता पानी' भी छपी हैं। पश्तों कहानियों की किताब 'किस्सा मेरे पिंड दा' भी छापी। ज़ाहिद हसन का नावल 'इश्क लताड़े आदमी' छापा। उस तरफ पाकिस्तान में अमृता, दुग्गल, विरक, धीर छपे हैं। तेरी किताब 'नहीं, मैं नहीं' छपी है। प्रेम प्रकाश छपा है। बलदेव सिंह का उपन्यास 'लाल बत्ती' छपा है। अब मेरा कहानी संग्रह 'विचली औरत' छपा है। पाठक एक दूसरे का जानने लगे हैं। रही साहित्यिक फ़ायदे की बात, वह तो मेरी समझ में बहुत है। आख़िरकार, हम दोनों धड़े पंजाबी अदब के सृजक हैं। क्यों नहीं सारे लेखन को एक मुख्यधारा में रखकर देखा जाता। अलग बात है कि अभी दोनों देशों के सम्बन्ध उस स्तर तक नहीं सुलझे कि सारा साहित्यिक माहौल सहज हो जाए। ये प्रारंभिक यत्न अधूरे भी हैं और कम भी। जिस मुख्यधारा की स्थापना की मैं बात करता हूँ, वह अभी बहुत दूर है। पर क्या इतना कम है कि जो हमारे पाठक/लेखक पाकिस्तानी लेखकों के बारे में कतई नहीं जानते थे, वे अब जानने लगे हैं। फिर भी एक आधार तो हमने बनाया है। 28 अगस्त 2007 को अलहमरा हाल में एक समारोह में सईदा दीप, नसरीन अंजुम भट्टी और परवीन मलिक ने मुझे राखी बांध कर भाई बनाया। इकबाल कैसर मेरा भाई बना है। ननकाणा में रहने वाला कल्याण सिंह कल्याण मुझे बड़े भाइयों का सत्कार देता है। करामत अली मुगल मेरा बेटों जैसा भाई है। पिछले दौरे में ख़ालिद फ़रहाद ने धालीवाल के सिर अपनी पगड़ी बांध कर उसे अपना अज़ीज़ बनाया।
जिंदर- मैंने पिछले दिनों छपी आपकी कहानियों में देखा कि कुछ मुसलमान पात्रों की आमद हुई है। हमारी इधर की पंजाबी कहानी में ऐसे पात्र लगभग गायब ही रहे। इसके पीछे कोई कारण ?
तलविंदर सिंह - मेरा जन्म पाकिस्तान बनने के सात साल बाद का है। बचपन में जो बातें मैंने बड़े-बुजुर्गों से सुनीं, उनमें मुसलमानों की तस्वीर बड़ी बिगड़ी हुई थी। उस समय ताज़ा ताज़ा विभाजन हुआ था और दुश्मनी की भावना भी प्रबल थी। मैं सोचा करता, शायद सच में ही मुसलमान इतने बुरे होते हैं। मेरी माँ भी जब कभी दीवार-मुंडेर पर से कौए को उड़ाती तो कहती, ''उड़ रे मुसल्ले।'' एक कहानी जोड़ रखी थी कि गुरू गोविन्द सिंह ने कहा है कि मुसलमान तेल में बांह भिगो कर तिलों में लबेड़ कर ले आए तो जितने तिल बांह पर लगें, वह उतनी ही कसमें सच्चे होने की खाए, तब भी उस पर यकीन न करो। इन बातों का असर तो होना ही था। पर अब जब आपसी मेल-मिलाप का उत्साह मिला, मैं पाकिस्तान गया तो देखा कि यह तो वो बन्दे नहीं जो बचपन में हमारे मनों में बड़े-बुजुर्गों ने बिछा छोड़े थे। ये तो बड़े मुहब्बती और मिलनसार हैं। खुले और पंजाबी स्वभाव के ऐन अनुकूल। मैंने अफ़ज़ल अहिसन रंधावा और सलीम खान गिम्मी को पढ़ा तो उसमें सिख पात्र देखकर अच्छा लगा। मुझे लगा कि इस मामले में हम महदूद हो रहे हैं। मैंने मुसलमान घरों का माहौल और लोगों के आम आचार-व्यवहार को समझने में रुचि पैदा की। मैंने अपने पाकिस्तानी लेखक मित्रों से ऐसे मुद्दों पर बातें कीं। मेरे घर अफ़ज़ल तौसीफ आई तो मैंने उसे मुल्तान एरिये की एक सामूहिक बलात्कार पीड़ित औरत मुख्तारां माई के जीवन पर आधारित लिखी कहानी 'निक्की इट्ट वाली हवेली' सुनाई और उससे तकनीकी मशवरे लिए। वह कहानी अच्छी बन गई। इस तरह कुछ अन्य में भी साझी रहितल को चित्रित किया। मुझे लगता है कि पंजाबी साहित्य को भरा-पूरा बनाने के लिए यह लाज़मी है।
जिंदर- आपने कहानी विधा के अलावा उपन्यास पर भी काम किया है। इसके विषय में कुछ बताओ।
तलविंदर सिंह - अपना उपन्यास 'लौ होण तक' मैंने बटाले की इंडस्ट्री में काम करते मज़दूरों के आसपास घुमाया। इसमें कहानी तत्व कम और भाषण तत्व अधिक था। मेरा मज़दूर संगठनों के बारे में कोई खास अनुभव नहीं था इसलिए इस उपन्यास पर मेरी कल्पना भारी थी। सन् 1968 में मैंने पंजाब में आए आतंकवाद को केन्द्र में रख कर 'योद्धे' शीर्षक से उपन्यास लिखा। जालंधर देश भगत हाल में कोई समारोह चल रहा था। वहाँ हरनाम दास सहिराई मिले। उन्होंने कहा- एक काम कर। गले में झोला डाल और उसमें कुछ कागज रख। आतंकवाद से पीड़ित गाँवों में जा कर लोगों के दर्द सुन और लिख। मैंने उनसे वायदा कर लिया और पूरे दो साल फील्ड वर्क किया। पहले चार सौ पृष्ठ लिखे। फिर एडिट करके सवा दो सौ किए। यह उपन्यास उनकी हल्ला-शेरी से लिखा गया। आगे और उपन्यास लिखने की भी मेरी योजना है।
जिंदर- अपनी नई कहानियों में से किसी एक का जिक्र करना चाहो तो ?
तलविंदर सिंह - मेरी नई किताब 'इस वार' की आखिरी कहानी 'रूहां-बदरूहां' को मैंने इस विचार के साथ जोड़कर लिखा कि आदमी अपने से तगड़ी औरत से डरता है। मुझे इस बात की समझ आई कि विवाहों के जोड़े बनाते समय हमारा समाज लड़की का चयन करते हुए उसकी पढ़ाई, उसका कद, उसकी उम्र और शारीरिक ताकत लड़के से कम क्यों खोजता है। कारण, लड़के को लड़की के सामने महफ़ूज रखने के लिए। मुझे याद है कि गाँव में लोग कहा करते थे कि सेंट-इतर लगाकर बाहर जाओगे, तो चुड़ैलें चिपट जाएँगीं। असल में ये चुड़ैलें कोई पराभौतिक शै नहीं थीं अपितु कामुक औरतें ही थीं। हमें चुड़ैलों के बारे में हमारे बड़े बताते थे कि वे रात बारह बजे से दो बजे तक जब गहरी रात होती है, निर्वस्त्र बाहर निकलती हैं। उन्होंने अपनी छातियों को कंधों से पीछे फेंक रखा होता है। वे अकेले आदमी को देखकर चिपट जाती हैं। मुझे लगता है कि यह आदमी के बलात्कार जैसी कोई बात है। कमज़ोर और दब्बू आदमी बलात्कार नहीं करवा सकता। वह हीनता में गर्क हो जाता है। यही कारण है कि आदमी तगड़ी औरत से घबराता है। 'रूहां-बदरूहां' कहानी मैंने ऐसे कमज़ोर और नपुंसक आदमी की होनी को लेकर लिखी।
जिंदर- आप साहित्य, समाज और लेखक के पारस्परिक रिश्ते के बारे में कैसे सोचते हो ?
तलविंदर सिंह - पहली बात, मैं साहित्य को जीवन और समाज के लिए मानता हूँ। साहित्य का मनोरथ जीवन में सहजता भरना, अनकहे को जुबान देना और रहस्यों को खोलना है। समाज और जीवन के प्रति समझ को विशाल करना है। साहित्य उपदेश नहीं देता, यह समाज और मन के साथ एक सुर होकर आदमी की सोच को झकझोरता है। साहित्य के मंथन में से गुजरते हुए व्यक्ति खुद चाहे और अनचाहे मूल्यों का निपटारा करता है। साहित्य पाठक को समय के सच के साथ जोड़ता है। यह अपने समय का लोक-इतिहास है। मैं लेखक को अपने समय का सूत्रधार कहता हूँ जो व्यक्ति, स्थिति और समाज के बीच कड़ी पैदा करता है। या फिर वह एक ऐसा डाक्टर है जिसके हाथ आपरेशन करने वाला औजार है। कलम लेखक के हाथ औजार की तरह ही है। यह लेखक की प्रतिभा और उसकी सूझबूझ पर निर्भर करता है कि वह किस साफ़गोई से चाहे-अनचाहे का निपटारा करता है।
जिंदर- आप साहित्य में अश्लीलता किसे कहते हैं ? आप जानते ही हो कि इस प्रश्न पर कुछ कहानियों को आधार बनाकर पंजाबी में चर्चा भी चली है। खासकर कहानीकार सुखजीत के मामले में।
तलविंदर सिंह - तुमने 'आस्था' फिल्म देखी है ? 'बवंडर' देखी है ? फिल्म का सन्दर्भ इसलिए दे रहा हूँ कि यह बहुत सारी कलाओं का सम्मिश्रण होता है और इसकी पहुँच भी व्यापक है। किताब से अधिक। इनमें निर्वस्त्र दृश्य हैं। क्या वे अश्लील हैं ? हम बच्चा पैदा होने पर उसकी बांह देखते हैं या सिर ? बिलकुल नहीं। उसका गुप्त अंग देखते हैं। हमारे घरों में बेटियाँ-बहनें होती हैं। घर में भैंसे ब्याती है। सभी के सामने वे नया दूध देती हैं। क्या यह अश्लील कर्म है? मैं खुजराहो गया, कोर्णाक का सन-टेंपिल देखा। शिवलिंग की पूजा होती है मंदिरों में। मेरे यार, यह सब बात का बतंगड़ है। सुखजीत ने एक सच पर से परदा उतारकर दिखाया है। तुमने गार्गी की 'नेक्ड ट्राईएंगल' पढ़ी है न ? ऐसे तो बहुत कुछ उस किताब का अश्लीलता के घेरे में आ जाएगा। एक जगह ऐसे सवाल के जवाब में गार्गी का लिखा मैंने पढ़ा है। उस पर इल्ज़ाम लगाया जाता है कि वह गालियों का प्रयोग करता है। वह शरीर के गुप्त अंगों के नाम ज्यों के त्यों लिख देता है। वह कहता है - मैं एक ऐसे कल्चर की पैदावार हूँ जहाँ मेरा बाप रात में दारू पीकर आता था और बाहरवाला दरवाजा पीटते हुए जोर जोर से कहा करता था- ओए भैण चोदे... ओए माँ चोदे...बूहा खोल। फिर वह आगे लिखता है, जो नाम अंगों के समाज ने रखे हैं, वही इस्तेमाल करता हूँ। अब मैं उन्हें न सेब कह सकता हूँ, न चाकू। दूसरी बात, ज़रूरी नहीं कि कथित अश्लीलता निर्वस्त्र होने में हो। वह पूरे कपड़ों में भी हो सकती है। मधुर और सभ्य भाषा भी अश्लीलता प्रवाहित कर सकती है। तीसरी बात, चर्चा होना और सवाल उठना अच्छी बात है। बहस-मुबाहसा होता रहना चाहिए। यह जिन्दा होने की निशानी है। हर एक को अपनी राय रखने का हक है। वह कहते हैं न, सौ फूल खिलने दो।
जिंदर- एक आखिरी प्रश्न। पंजाबी आलोचना पर यह इल्ज़ाम लगता है कि यह अपनों का पक्ष लेती है। एक दूसरे को उठाने-गिराने के प्रपंच रचे जाते हैं। आपको क्या लगता है ?
तलविंदर सिंह - सच बताऊँ, मैं इस बात के बारे में अधिक नहीं सोचता, यह मेरा स्वभाव है। दलबंदियाँ, गुटबंदियाँ भी अधिक परेशान नहीं करतीं। हमारी पीढ़ी के लगभग सभी लेखक पन्द्रह-बीस सालों से लिख रहे हैं। अगर उनकी कोई किताब, कहानी या उपन्यास पाठ्यक्रम में नहीं लगा तो यार ख़ैर है। जो प्रोफेसर किताबें सैट करते हैं, वे पढ़ते ही नहीं। एक स्थान पर उनकी ब्रेक लगी हुई है। ज़रा, पिक एंड चूज विधि से पाँच-सात प्रोफेसरों को पकड़ कर पड़ताल करके देखो। वे भलेमानस नौकरियाँ करते हैं। एक दो पीरियड लगाये और महीने बाद तनख्वाह जेब में डाल ली। बाकी अल्ला-अल्ला और ख़ैर-सल्ला। यूँ ही खामख्वाह दिमाग पर बोझ क्यों डालें। मैं तो जिंदर भाई यह समझता हूँ कि कहकर आलोचना करवाई तो क्या करवाई। कहकर किताब लगवाई तो क्या लगवाई। मुझे पता है कि मैं कितने पानी में हूँ। मैं साधना किए जाने पर ही बल देता हूँ। मेरी कहानियों पर चार विद्यार्थी एम.फिल कर बैठे हैं और आगे चार और कर रहे हैं। दो ने पी.एच.डी. के लिए इन्हें आधार बनाया है। मैंने कभी किसी प्रोफेसर से नहीं कहा, किसी मित्र प्रोफेसर से भी नहीं। आलोचना में मुझे डा. जोगिंदर सिंह राही के ढंग-तरीके पर तसल्ली है। वह रचना की रूह देखता है, लेखक का मुख नहीं। डा. रवि रविंदर और प्रो. तरलोक बंधू की बात को समझने और कहने की विधियाँ अनबायस्ड हैं। वे आलोचना करते समय पगड़ियाँ नहीं, दिमागों को पकड़ने का यत्न करते हैं। मैं नहीं चाहता कि लेखक रिआयती पास हो। अगर रचना में दम होगा तो उसे इग्नोर नहीं किया जा सकता।
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तलविंदर सिंह -मेरा प्रेरणास्रोत वह सब होता है जो पहले देखा, पढ़ा या सुना होता है। फिर अपने अनुभव होते हैं जिनमें से गुजरकर कोई सोची या देखी-सुनी घटना साहित्यिक आकार ग्रहण करती है। कई बार लिखते समय बिलकुल नए या भूले बिसरे वाक़यात स्मरण हो आते हैं और सहज ही रचना का हिस्सा बन जाते हैं। मैंने अनुभव किया है कि कई बार बचपन की वे बातें कहानी का हिस्सा बन जाती हैं जिनके बारे में सोचा भी नहीं होता। मुझे लगता है यदि मैं स्थूल रूप में यह कहना चाहूँ कि अमुक बात लिखते समय प्रेरित करती है या कोई और बात, तो शायद बात न बनें। ये प्रेरणाओं का समूह-सा होता है जो स्वत: ही लिखवा ले जाता है। यह सूक्ष्म-सा व्यवहार है जिसमें से गजर कर काई ख़याल रचनात्मक माडल में ढल जाता है। इसमें काफी दख़ल हमारी हुनरी तबीअत का भी है।
जिंदर - आप पहले प्रगतिशील स्वर की कहानी लिखते थे, फिर अचानक करवट बदल ली। क्या कारण रहा?
तलविंदर सिंह - मुझे याद है, जब मैं कॉलेज में पढ़ा करता था, उस समय प्रगतिवादी लहर का ज़ोर था। एस.एफ.आई, पी.एस.यू., ए.आई.एस.एफ.आई., जैसे संगठनों का ज़ोर था। विद्यार्थी जुझारू लहरों के साथ खुद को कहलवा कर खुश हुआ करते थे। मैं किसी भी पार्टी या ग्रुप से नहीं जुड़ा था, पर माहौल का असर लाज़मी ही था। पहले प्रो. नरिंजन सिंह ढेसी और फिर प्रो. रतन सिंह चाहल हमारे पंजाबी के अध्यापक रहे। प्रो. ढेसी का तो मालूम था कि वह नक्सली लहर से जुड़े थे। शायद, प्रो. चाहल भी जुड़े थे। वे पढ़ाते समय प्रगतिशील विचारों का खुलासा करते। मुझे याद है, बी.ए. के दूसरे वर्ष में पढ़ते समय जो कहानी मैंने लिखकर प्रो. चाहल को दी थी, वह अधूरे प्रेम के कारण बर्बाद हुए एक व्यक्ति की कहानी थी। कहानी तो उन्होंने छपने के लिए रख ली लेकिन छापने से पहले उन्होंने मुझे बुलाकर कहा कि दु:ख तो और भी हैं ज़िन्दगी में, ज़रा गहरी दृष्टि डाल। मुहब्बत ही कोई अकेला मसला नहीं है। अगर लिखना है तो समाज की नब्ज़ पर हाथ रख। कुछ माहौल का असर और कुछ ऐसे सबक, इससे मेरे मन-मस्तिष्क पर कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा ही होगा। अगली बार जब मैं उस मैगज़ीन का विद्यार्थी संपादक था तो खुद छात्र-छात्राओं से उनकी रचनाएँ पकड़ते समय इस बात का ख़याल रख रहा था कि ये कविताएँ या कहानियाँ अकेले इश्क का उबाल तो नहीं, ये कुछ सार्थक कह भी रही हैं या नहीं ? फिर अपने मोहल्ले में अपने दोस्त-मित्रों के साथ मिलकर एक ‘समाज सुधार सभा’ बना ली। मैं इश्तहारों का मैटर लिखता, दूसरों को बोलने के लिए नुक्ते लिख-लिख कर देता, स्वयं सभाओं, बैठकों में आगे बढ़ कर बोलता। सयाने

जिंदर- आपकी कहानी 'ताड़ी' (ताली) पिछले समय में काफी चर्चित रही है। इस कहानी के मुख्य पात्र की मनोस्थिति को समझते हुए मुझे लगा कि वह खुद तलविंदर है। आपकी बताई गई बातों के अनुसार ही वह मानसिक तौर पर टूटा हुआ और कमज़ोर नज़र आता है। क्या यह सही है ?
तलविंदर सिंह - यह कहानी उस व्यक्ति की मानसिकता को प्रतिबिम्बित करती है जिसने जवानी में आदर्श लिबास पहने और मुहब्बत के कई असवर गवां लिये। उसने आदर्शवादी होने का ढोंग रचा और प्रौढ़ उम्र में आकर मानसिक त्रासदी का शिकार हो गया। वे अवसर जो कभी उसके लिए गौरव थे, पश्चाताप में बदल जाते हैं। अगली बात यह कि वह पात्र स्वयं तलविंदर है या नहीं, इस बारे में मैं यही कहूँगा कि कहानियों के मसले हम बहुत ही नज़दीक से पकड़ा करते हैं। शायद बहुत कुछ अपने भीतर से ही मिल जाता है। यह ज़रूरी नहीं, सोची-समझी विधि हो, सहज स्वभाव भी घटित होता है। तुम्हें लगता है तो हो सकता है कि ये घटनाएँ मेरे आसपास से भी गुजरी हों। लेकिन यह बहुत सारे लोगों की कहानी है। इस कहानी को पढ़कर एक दिन कहानीकार मुख्तार गिल मुझे दारू पीकर गालियाँ बकता फोन पर कह रहा था कि मैंने लोगों से यह क्यों बताया कि हम भीतर से ऐसे हैं। ऐसे ही एक बार डा. रजनीश बहादर अमृतसर आया और मैंने उसे डा. राही के पास ले जाने के लिए बस स्टैंड से लिया। राह में मैं उसे अपने दफ्तर ले गया। वह इसी कहानी में आई एक लड़की पात्र ऐना का नाम लेकर पूछने लगा कि वह तेरी पी.ए. कहाँ बैठती है। फिर रास्ते में उसने 'ताड़ी' के मुख्य पात्र की समस्या को मेरे साथ जोड़कर प्रश्न किया कि क्या सचमुच औरतों के प्रति मेरा तटस्थ व्यवहार है। मैंने उसे बताया कि यह मेरी समस्या नहीं। वैसे मेरा ख़याल है कि पात्र न जिंदर होता है, न मुख्तार गिल और न ही तलविंदर। वह समस्या का साधारणीकरण होता है। जो मुखौटेधारी लोग हैं, उन्हें छोड़कर सभी लोग कहेंगे कि यह हमारा मसला है।
जिंदर- मेरा अगला सवाल थोड़ा निजी और टेढ़ा है। आपने जवानी और प्रौढ़ आयु के मनोवैज्ञानिक तथा जिन्सी मसलों को स्पर्श किया है। इस बात का अहसास होने के बाद कि कई मुहब्बत के अवसर चाहे-अनचाहे गुम हो गए, क्या किसी गुम हुए मौके को फिर से दस्तक दी ?
तलविंदर सिंह - यह वाकई टेढ़ा और घर से बाहर निकलवा देने वाला सवाल है। फिर भी मैं कोशिश करूँगा कि ईमानदारी से जवाब दे सकूं। मैंने जवानी में एक लड़की से बेपनाह मुहब्बत की। मेरा अपनी पत्नी के संग भी इश्क रहा। फिर लम्बे समय तक ऐसी कोई घटना नहीं घटी। बहुत ही रंगीन और सुखद विवाहित जीवन के बीच बहुत बाद में एक मुहब्बत ने बड़ी सहजता से मेरे जीवन में प्रवेश किया। मैंने बेसब्रा होकर उसे एक ही साँस में पी लेना चाहा। सारी अक्ल-समझदारी को छीके पर टांग मानो पिछली कमियों को पूरा करने की कोशिश की। पर उमंगित मन देर तक ऐसे अमलों में पड़ने के लिए भी राजी नहीं हुआ। उस मुहब्बत ने मेरी सोच को नये आयाम दिए। यह अनुभव कथा-कहानी में ढलकर अपना रंग दिखाते रहे। मैं सोचता हूँ, अगर यह बाद वाली मुहब्बत मेरे जीवन मे न आती तो बहुत सारे अहसास लिखे ही नहीं जा सकते थे।
जिंदर- क्या आपकी कहानियाँ आपकी पत्नी की नज़र में पड़ती हैं ?
तलविंदर सिंह - यह कैसे हो सकता है कि छपी रचना किसी निजी कैद में छिपा ली जाए। यह तो संभव है कि अनछपी रचना आप किसी कोने में संभाल कर सुरक्षित रख लो, पर छपी हुई रचना को तो किसी भी प्रकार से छिपाया नहीं जा सकता। दूसरी बात, मेरी शायद ही कोई कहानी हो जिसे मेरी पत्नी ने न पढ़ा हो। पहले तो वह अनछपी कहानी पढ़ लिया करती थी पर अब जिस पत्रिका में कहानी आती है, उसे वह तब तक संभाल कर रखती है जब तक पढ़ने के लिए समय न निकाल ले। कई बार पूछती भी है, 'यह लड़की पात्र कौन है, यह बात मन में कैसे आई कि इसे इस तरह लिखना है ?' वेसे वह कहानी के 'मैं' पात्र को मेरे से पृथक कर लेती है। अगली बात जो अधिक अहम है, वह यह है कि वह मेरी ही नहीं, तुम सब की कहानियाँ पढ़ती है और बहुत बार मेरे से चर्चा भी करती है। कई बार हँसते हुए यह कहकर कि लेखक सभी रंगीन तबीअत के होते हैं, मुझे बाइज्ज़त बरी कर देती है। मेरा तो इतने में ही निपट जाता है। बाकी भाई मेरे, हो सकता है कि तू अपनी कहानियाँ अपनी बीवी की नज़रों से छिपाने में कामयाब हो जाता हो, पर मेरे यहाँ ऐसा नहीं है।
जिंदर- आपकी कहानी 'माया जाल' भी कई जगह अनुवाद होकर छपी है। इसका मुद्दा आपके हाथ में कैसे आया ?
तलविंदर सिंह - हमारे अमृतसर में एक बार एक घटना घटित हुई। एक पाँच-छह वर्ष के बच्चे का क़त्ल हो गया। कारण यह था कि उसने अपनी माँ को किसी गैर मर्द के साथ देख लिया था, अपने ही घर में। उसने कहा कि मैं पिता को बताऊँगा। उस औरत और उस व्यक्ति ने बच्चे को बहुत फुसलाया, पर वह नहीं माना। आख़िर उस औरत ने उस व्यक्ति की मदद से बच्चे को नहर में ले जाकर मार दिया। यह घटना बहुत समय तक मेरे अन्दर पड़ी रही। यही सोचता रहा कि यदि ऐसे ही बच्चा अपने पिता को किसी अन्य औरत के संग देखता और कहता कि वह माँ को बताएगा, तो क्या पिता भी ऐसा ही करता, जैसा उस औरत ने किया था। मुझे लगा कि औरत अपनी सामाजिक स्थिति को सुरक्षित रखने के लिए ही यह कारा करती है। इस कहानी के बाकी के विवरण मैंने अपने दोस्त देव दर्द से जुड़ी एक घटना से ले लिए।
जिंदर- मेरा मानना है कि आप विशुद्ध ग्रामीण जीवन से नहीं जुडे रहे। फिर भी आपकी कई कहानियों में ग्रामीण दृश्य बड़े सजीव हैं। यह कैसे ?
तलविंदर सिंह- मैंने अपना गाँव घोड़ेवाह तो बिलकुल ही नहीं देखा। आज भी मुझे उस गाँव का रास्ता नहीं पता। ननिहाली गाँव से गहरा रिश्ता रहा है। वहाँ मैं हफ्ते-दस दिन में ज़रूर जाता। यह 'कोटली ढोले शाह' जैंती पुर से कोई दो किलोमीटर की दूरी पर है। मेरा नाना गाँव का सीरी था। घर में ज़मींदार दरांती-हल आदि का काम करवाने आते रहते। वह बहुत ही सज्जन व्यक्ति था। गाँव में बड़ी मान और इज्ज़त का मालिक। नानी भी बहुत बढ़िया स्वभाव की थी। वहाँ बड़े मामा के बच्चे थे। मेरी बड़ी बहन का हमउम्र छोटा मामा था। वह मेरा पक्का साथी था। ननिहाल में मेरा बहुत दिल लगता। हम खुले खेतों में डंगर चराने जाते। कुएं पर नहाते। नाना के साथ कोल्हू पर जाकर रस पीता, गरम गरम गुड़ खाता। घर में खुला खाना पीना था। गर्मियों की छुट्टियाँ मैं अक्सर यहीं बिताया करता। यहाँ फ़सलें भी काटीं और खेतों में सोकर भी देखा। यहाँ मुझे सभी ‘शहर वाली बीबी का काका’ कहा करते थे। सभी मर्द मेरे मामा थे और औरतें मामियाँ। मुझे इन रिश्तों में से बहुत महक आती। इस गाँव के हमउम्र लड़के मेरे मित्र थे। यह सब कुछ मेरे बड़े होने तक जारी रहा। छोटा मामा अपने इश्क की झूठी-सच्ची कहानियाँ मुझे मसाले लगा-लगा कर सुनाता था। वह बेपरवाह आदमी था। फिल्में देखने का शौकीन। ग्रामीण जीवन के अनेक विवरण मैंने इसी गाँव में से लिए। कुछ अनुभव बुआ के गाँव दीपेवाल का भी था। वहाँ भी मैं कभी-कभी जाकर रहता था। बाकी लिखते समय किसी शब्द, नाम, स्थान पर अटक जाऊँ तो अपनी माता से जाकर पूछ लेता हूँ। इस तरह मेरा काम चल जाता है।
जिंदर- आपके विषय में एक बात चर्चा में है कि तलविंदर लाहौरिया हो गया। आपके ताल्लुकात पाकिस्तानी लेखकों से बढ़ गए। आप वहाँ की कहानी से भी जुड़े। इस अमल में से कोई साहित्यिक फ़ायदा हुआ ?
तलविंदर सिंह - पिछले कुछ वर्षों में मैं कई बार पाकिस्तान गया हूँ। जैसा कि होना था, मेरी निकटता वहाँ के अदीबों से बनी। फिर राब्ता कहानीकारों से बढ़ा। मैंने महसूस किया कि पचास-पचपन सालों के वक्फ़े ने एक साहित्यिक फ़ासला बना दिया है। मैं वहाँ मंशा याद, अफज़ल, अहिसन रंधावा, अफज़ल तौसीफ़, फरखंदा लोधी, इलियास घुम्मण, जुबैर अहिमद, मकसूद साकिब, तौकीर चुगताई आदि कहानीकारों से मिला। फिर मैं और घुम्मण ने मिलकर एक किताब संपादित की -'उजड़े घरों के वासी'। इसमें पाकिस्तानी पंजाब की बारह कहानियाँ शामिल की गईं। पर मैंने सोचा कि यह काफी नहीं है। फिर मैंने खुद 40 कहानियों का चयन किया और अपने मित्र पाल सिंह वल्ला से उन्हें लिप्यिंतर करवाकर 'साझी पीर' शीर्षक के तहत पंजाबी में प्रकाशित करवाई। फिर मुझे लगा कि कुछ अच्छे समर्थवान कहानीकार छूट गए हैं। इस तरह और चालीस कहानीकारों की कहानियों पर आधारित अगली किताब 'कच्चे कोठों का गीत' आई। अभी एक और ऐसी किताब के संपादन की गुंजाइश है जिस पर मैं काम कर रहा हूँ। इसके अलावा, अनवर अली की 'गुड़ की भेली', अफ़ज़ल तौसीफ़ की 'बुलबलीना', मकसूद साकिब की 'धुले पन्नों की इबारत', जुबैर अहिमद की 'कबूतर, बनेरे और गलियाँ' मंशा याद की 'अंधा कुआं' और 'बहता पानी' भी छपी हैं। पश्तों कहानियों की किताब 'किस्सा मेरे पिंड दा' भी छापी। ज़ाहिद हसन का नावल 'इश्क लताड़े आदमी' छापा। उस तरफ पाकिस्तान में अमृता, दुग्गल, विरक, धीर छपे हैं। तेरी किताब 'नहीं, मैं नहीं' छपी है। प्रेम प्रकाश छपा है। बलदेव सिंह का उपन्यास 'लाल बत्ती' छपा है। अब मेरा कहानी संग्रह 'विचली औरत' छपा है। पाठक एक दूसरे का जानने लगे हैं। रही साहित्यिक फ़ायदे की बात, वह तो मेरी समझ में बहुत है। आख़िरकार, हम दोनों धड़े पंजाबी अदब के सृजक हैं। क्यों नहीं सारे लेखन को एक मुख्यधारा में रखकर देखा जाता। अलग बात है कि अभी दोनों देशों के सम्बन्ध उस स्तर तक नहीं सुलझे कि सारा साहित्यिक माहौल सहज हो जाए। ये प्रारंभिक यत्न अधूरे भी हैं और कम भी। जिस मुख्यधारा की स्थापना की मैं बात करता हूँ, वह अभी बहुत दूर है। पर क्या इतना कम है कि जो हमारे पाठक/लेखक पाकिस्तानी लेखकों के बारे में कतई नहीं जानते थे, वे अब जानने लगे हैं। फिर भी एक आधार तो हमने बनाया है। 28 अगस्त 2007 को अलहमरा हाल में एक समारोह में सईदा दीप, नसरीन अंजुम भट्टी और परवीन मलिक ने मुझे राखी बांध कर भाई बनाया। इकबाल कैसर मेरा भाई बना है। ननकाणा में रहने वाला कल्याण सिंह कल्याण मुझे बड़े भाइयों का सत्कार देता है। करामत अली मुगल मेरा बेटों जैसा भाई है। पिछले दौरे में ख़ालिद फ़रहाद ने धालीवाल के सिर अपनी पगड़ी बांध कर उसे अपना अज़ीज़ बनाया।
जिंदर- मैंने पिछले दिनों छपी आपकी कहानियों में देखा कि कुछ मुसलमान पात्रों की आमद हुई है। हमारी इधर की पंजाबी कहानी में ऐसे पात्र लगभग गायब ही रहे। इसके पीछे कोई कारण ?
तलविंदर सिंह - मेरा जन्म पाकिस्तान बनने के सात साल बाद का है। बचपन में जो बातें मैंने बड़े-बुजुर्गों से सुनीं, उनमें मुसलमानों की तस्वीर बड़ी बिगड़ी हुई थी। उस समय ताज़ा ताज़ा विभाजन हुआ था और दुश्मनी की भावना भी प्रबल थी। मैं सोचा करता, शायद सच में ही मुसलमान इतने बुरे होते हैं। मेरी माँ भी जब कभी दीवार-मुंडेर पर से कौए को उड़ाती तो कहती, ''उड़ रे मुसल्ले।'' एक कहानी जोड़ रखी थी कि गुरू गोविन्द सिंह ने कहा है कि मुसलमान तेल में बांह भिगो कर तिलों में लबेड़ कर ले आए तो जितने तिल बांह पर लगें, वह उतनी ही कसमें सच्चे होने की खाए, तब भी उस पर यकीन न करो। इन बातों का असर तो होना ही था। पर अब जब आपसी मेल-मिलाप का उत्साह मिला, मैं पाकिस्तान गया तो देखा कि यह तो वो बन्दे नहीं जो बचपन में हमारे मनों में बड़े-बुजुर्गों ने बिछा छोड़े थे। ये तो बड़े मुहब्बती और मिलनसार हैं। खुले और पंजाबी स्वभाव के ऐन अनुकूल। मैंने अफ़ज़ल अहिसन रंधावा और सलीम खान गिम्मी को पढ़ा तो उसमें सिख पात्र देखकर अच्छा लगा। मुझे लगा कि इस मामले में हम महदूद हो रहे हैं। मैंने मुसलमान घरों का माहौल और लोगों के आम आचार-व्यवहार को समझने में रुचि पैदा की। मैंने अपने पाकिस्तानी लेखक मित्रों से ऐसे मुद्दों पर बातें कीं। मेरे घर अफ़ज़ल तौसीफ आई तो मैंने उसे मुल्तान एरिये की एक सामूहिक बलात्कार पीड़ित औरत मुख्तारां माई के जीवन पर आधारित लिखी कहानी 'निक्की इट्ट वाली हवेली' सुनाई और उससे तकनीकी मशवरे लिए। वह कहानी अच्छी बन गई। इस तरह कुछ अन्य में भी साझी रहितल को चित्रित किया। मुझे लगता है कि पंजाबी साहित्य को भरा-पूरा बनाने के लिए यह लाज़मी है।
जिंदर- आपने कहानी विधा के अलावा उपन्यास पर भी काम किया है। इसके विषय में कुछ बताओ।
तलविंदर सिंह - अपना उपन्यास 'लौ होण तक' मैंने बटाले की इंडस्ट्री में काम करते मज़दूरों के आसपास घुमाया। इसमें कहानी तत्व कम और भाषण तत्व अधिक था। मेरा मज़दूर संगठनों के बारे में कोई खास अनुभव नहीं था इसलिए इस उपन्यास पर मेरी कल्पना भारी थी। सन् 1968 में मैंने पंजाब में आए आतंकवाद को केन्द्र में रख कर 'योद्धे' शीर्षक से उपन्यास लिखा। जालंधर देश भगत हाल में कोई समारोह चल रहा था। वहाँ हरनाम दास सहिराई मिले। उन्होंने कहा- एक काम कर। गले में झोला डाल और उसमें कुछ कागज रख। आतंकवाद से पीड़ित गाँवों में जा कर लोगों के दर्द सुन और लिख। मैंने उनसे वायदा कर लिया और पूरे दो साल फील्ड वर्क किया। पहले चार सौ पृष्ठ लिखे। फिर एडिट करके सवा दो सौ किए। यह उपन्यास उनकी हल्ला-शेरी से लिखा गया। आगे और उपन्यास लिखने की भी मेरी योजना है।
जिंदर- अपनी नई कहानियों में से किसी एक का जिक्र करना चाहो तो ?
तलविंदर सिंह - मेरी नई किताब 'इस वार' की आखिरी कहानी 'रूहां-बदरूहां' को मैंने इस विचार के साथ जोड़कर लिखा कि आदमी अपने से तगड़ी औरत से डरता है। मुझे इस बात की समझ आई कि विवाहों के जोड़े बनाते समय हमारा समाज लड़की का चयन करते हुए उसकी पढ़ाई, उसका कद, उसकी उम्र और शारीरिक ताकत लड़के से कम क्यों खोजता है। कारण, लड़के को लड़की के सामने महफ़ूज रखने के लिए। मुझे याद है कि गाँव में लोग कहा करते थे कि सेंट-इतर लगाकर बाहर जाओगे, तो चुड़ैलें चिपट जाएँगीं। असल में ये चुड़ैलें कोई पराभौतिक शै नहीं थीं अपितु कामुक औरतें ही थीं। हमें चुड़ैलों के बारे में हमारे बड़े बताते थे कि वे रात बारह बजे से दो बजे तक जब गहरी रात होती है, निर्वस्त्र बाहर निकलती हैं। उन्होंने अपनी छातियों को कंधों से पीछे फेंक रखा होता है। वे अकेले आदमी को देखकर चिपट जाती हैं। मुझे लगता है कि यह आदमी के बलात्कार जैसी कोई बात है। कमज़ोर और दब्बू आदमी बलात्कार नहीं करवा सकता। वह हीनता में गर्क हो जाता है। यही कारण है कि आदमी तगड़ी औरत से घबराता है। 'रूहां-बदरूहां' कहानी मैंने ऐसे कमज़ोर और नपुंसक आदमी की होनी को लेकर लिखी।
जिंदर- आप साहित्य, समाज और लेखक के पारस्परिक रिश्ते के बारे में कैसे सोचते हो ?
तलविंदर सिंह - पहली बात, मैं साहित्य को जीवन और समाज के लिए मानता हूँ। साहित्य का मनोरथ जीवन में सहजता भरना, अनकहे को जुबान देना और रहस्यों को खोलना है। समाज और जीवन के प्रति समझ को विशाल करना है। साहित्य उपदेश नहीं देता, यह समाज और मन के साथ एक सुर होकर आदमी की सोच को झकझोरता है। साहित्य के मंथन में से गुजरते हुए व्यक्ति खुद चाहे और अनचाहे मूल्यों का निपटारा करता है। साहित्य पाठक को समय के सच के साथ जोड़ता है। यह अपने समय का लोक-इतिहास है। मैं लेखक को अपने समय का सूत्रधार कहता हूँ जो व्यक्ति, स्थिति और समाज के बीच कड़ी पैदा करता है। या फिर वह एक ऐसा डाक्टर है जिसके हाथ आपरेशन करने वाला औजार है। कलम लेखक के हाथ औजार की तरह ही है। यह लेखक की प्रतिभा और उसकी सूझबूझ पर निर्भर करता है कि वह किस साफ़गोई से चाहे-अनचाहे का निपटारा करता है।
जिंदर- आप साहित्य में अश्लीलता किसे कहते हैं ? आप जानते ही हो कि इस प्रश्न पर कुछ कहानियों को आधार बनाकर पंजाबी में चर्चा भी चली है। खासकर कहानीकार सुखजीत के मामले में।
तलविंदर सिंह - तुमने 'आस्था' फिल्म देखी है ? 'बवंडर' देखी है ? फिल्म का सन्दर्भ इसलिए दे रहा हूँ कि यह बहुत सारी कलाओं का सम्मिश्रण होता है और इसकी पहुँच भी व्यापक है। किताब से अधिक। इनमें निर्वस्त्र दृश्य हैं। क्या वे अश्लील हैं ? हम बच्चा पैदा होने पर उसकी बांह देखते हैं या सिर ? बिलकुल नहीं। उसका गुप्त अंग देखते हैं। हमारे घरों में बेटियाँ-बहनें होती हैं। घर में भैंसे ब्याती है। सभी के सामने वे नया दूध देती हैं। क्या यह अश्लील कर्म है? मैं खुजराहो गया, कोर्णाक का सन-टेंपिल देखा। शिवलिंग की पूजा होती है मंदिरों में। मेरे यार, यह सब बात का बतंगड़ है। सुखजीत ने एक सच पर से परदा उतारकर दिखाया है। तुमने गार्गी की 'नेक्ड ट्राईएंगल' पढ़ी है न ? ऐसे तो बहुत कुछ उस किताब का अश्लीलता के घेरे में आ जाएगा। एक जगह ऐसे सवाल के जवाब में गार्गी का लिखा मैंने पढ़ा है। उस पर इल्ज़ाम लगाया जाता है कि वह गालियों का प्रयोग करता है। वह शरीर के गुप्त अंगों के नाम ज्यों के त्यों लिख देता है। वह कहता है - मैं एक ऐसे कल्चर की पैदावार हूँ जहाँ मेरा बाप रात में दारू पीकर आता था और बाहरवाला दरवाजा पीटते हुए जोर जोर से कहा करता था- ओए भैण चोदे... ओए माँ चोदे...बूहा खोल। फिर वह आगे लिखता है, जो नाम अंगों के समाज ने रखे हैं, वही इस्तेमाल करता हूँ। अब मैं उन्हें न सेब कह सकता हूँ, न चाकू। दूसरी बात, ज़रूरी नहीं कि कथित अश्लीलता निर्वस्त्र होने में हो। वह पूरे कपड़ों में भी हो सकती है। मधुर और सभ्य भाषा भी अश्लीलता प्रवाहित कर सकती है। तीसरी बात, चर्चा होना और सवाल उठना अच्छी बात है। बहस-मुबाहसा होता रहना चाहिए। यह जिन्दा होने की निशानी है। हर एक को अपनी राय रखने का हक है। वह कहते हैं न, सौ फूल खिलने दो।
जिंदर- एक आखिरी प्रश्न। पंजाबी आलोचना पर यह इल्ज़ाम लगता है कि यह अपनों का पक्ष लेती है। एक दूसरे को उठाने-गिराने के प्रपंच रचे जाते हैं। आपको क्या लगता है ?
तलविंदर सिंह - सच बताऊँ, मैं इस बात के बारे में अधिक नहीं सोचता, यह मेरा स्वभाव है। दलबंदियाँ, गुटबंदियाँ भी अधिक परेशान नहीं करतीं। हमारी पीढ़ी के लगभग सभी लेखक पन्द्रह-बीस सालों से लिख रहे हैं। अगर उनकी कोई किताब, कहानी या उपन्यास पाठ्यक्रम में नहीं लगा तो यार ख़ैर है। जो प्रोफेसर किताबें सैट करते हैं, वे पढ़ते ही नहीं। एक स्थान पर उनकी ब्रेक लगी हुई है। ज़रा, पिक एंड चूज विधि से पाँच-सात प्रोफेसरों को पकड़ कर पड़ताल करके देखो। वे भलेमानस नौकरियाँ करते हैं। एक दो पीरियड लगाये और महीने बाद तनख्वाह जेब में डाल ली। बाकी अल्ला-अल्ला और ख़ैर-सल्ला। यूँ ही खामख्वाह दिमाग पर बोझ क्यों डालें। मैं तो जिंदर भाई यह समझता हूँ कि कहकर आलोचना करवाई तो क्या करवाई। कहकर किताब लगवाई तो क्या लगवाई। मुझे पता है कि मैं कितने पानी में हूँ। मैं साधना किए जाने पर ही बल देता हूँ। मेरी कहानियों पर चार विद्यार्थी एम.फिल कर बैठे हैं और आगे चार और कर रहे हैं। दो ने पी.एच.डी. के लिए इन्हें आधार बनाया है। मैंने कभी किसी प्रोफेसर से नहीं कहा, किसी मित्र प्रोफेसर से भी नहीं। आलोचना में मुझे डा. जोगिंदर सिंह राही के ढंग-तरीके पर तसल्ली है। वह रचना की रूह देखता है, लेखक का मुख नहीं। डा. रवि रविंदर और प्रो. तरलोक बंधू की बात को समझने और कहने की विधियाँ अनबायस्ड हैं। वे आलोचना करते समय पगड़ियाँ नहीं, दिमागों को पकड़ने का यत्न करते हैं। मैं नहीं चाहता कि लेखक रिआयती पास हो। अगर रचना में दम होगा तो उसे इग्नोर नहीं किया जा सकता।
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1 टिप्पणियाँ:
mai ise bebak interview kahna chahunga. accha lagega agar talvinder saheb ka bhi upanyaas hamein hindi me padhne mile.
shukriya ise padhaane ke liye
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