पंजाबी उपन्यास
>> शनिवार, 16 मार्च 2013
बलबीर मोमी अक्तूबर 1982
से कैनेडा में प्रवास कर रहे हैं। वह बेहद सज्जन और मिलनसार इंसान ही
नहीं, एक सुलझे हुए समर्थ लेखक भी हैं। प्रवास में रहकर पिछले 19-20 वर्षों से वह निरंतर अपनी माँ-बोली पंजाबी की सेवा, साहित्य सृजन और
पत्रकारिता के माध्यम से कर रहे हैं। पाँच कहानी संग्रह [मसालेवाला
घोड़ा(1959,1973), जे मैं मर जावां(1965), शीशे दा समुंदर(1968), फुल्ल खिड़े
हन(1971)(संपादन), सर दा बुझा(1973)],तीन उपन्यास [जीजा जी(1961), पीला
गुलाब(1975) और इक फुल्ल मेरा वी(1986)], दो नाटक [नौकरियाँ ही नौकरियाँ(1960),
लौढ़ा वेला (1961) तथा कुछ एकांकी नाटक], एक आत्मकथा - किहो जिहा सी जीवन के अलावा
अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मौलिक लेखन के साथ-साथ मोमी जी ने पंजाबी में अनेक पुस्तकों का
अनुवाद भी किया है जिनमे प्रमुख हैं – सआदत
हसन मंटो की उर्दू कहानियाँ- टोभा टेक
सिंह(1975), नंगियाँ आवाज़ां(1980), अंग्रेज़ी नावल ‘इमिग्रेंट’ का पंजाबी अनुवाद ‘आवासी’(1986), फ़ख्र जमाल के उपन्यास ‘सत गवाचे लोक’ का लिपियंतर(1975), जयकांतन की तमिल
कहानियों का हिन्दी से पंजाबी में अनुवाद।
देश –विदेश
के अनेक सम्मानों से सम्मानित बलबीर
मोमी ब्रैम्पटन (कैनेडा)
से प्रकाशित होने वाले पंजाबी अख़बार ‘ख़बरनामा’
(प्रिंट व नेट एडीशन) के संपादक हैं।
आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास ‘पीला गुलाब’ भारत-पाक विभाजन की कड़वी यादों को
समेटे हुए है। विस्थापितों द्बारा नई धरती पर अपनी जड़ें जमाने का संघर्ष तो है ही,
निष्फल प्रेम की कहानी भी कहता है। ‘कथा पंजाब’
में इसका धारावाहिक प्रकाशन करके हम प्रसन्नता अनुभव कर रहे हैं। प्रस्तुत है इस
उपन्यास की आठवीं किस्त…
- सुभाष नीरव
पीला गुलाब
बलबीर सिंह मोमी
हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव
14
बापू जी नई अलॉट हुई ज़मीन से लौटते हुए एक रात भाई के घर ठहरे थे और भाई ने उनसे मेरे
हॉस्टल छोड़कर घर आ जाने की मंजूरी प्राप्त कर ली थी।
हॉस्टल छोड़ने का मेरे दिल को रत्तीभर
भी अफसोस नहीं था और मैं खुशी खुशी अपना बिस्तर, ट्रंक और किताबें
उठाकर भाई के घर आ गया था। ऊपर का चौबारा मुझे दे दिया गया और मेरे भतीजा-भतीजी और
छोटे बच्चे जो अभी छोटी कक्षाओं में थे, वे भी अपने बिस्तर ऊपर
ही ले आए। इस तरह भाई के एक ही घर में हम दो परिवारों की तरह रहने लग पड़े। नीचे वाले
हिस्से में भाई-भाभी और ऊपर वाले छोटे से परिवार का मैं इंचार्ज था।
दफ्तर से लौटकर भाई कम से कम एक
बार अवश्य हमारी पढ़ाई-लिखाई के बारे में पूछताछ करते। पढ़ाई के अलावा वह नित्य के जीवन
पर भी खोजभरा प्रभावशाली लेक्चर दिया करते। सिनेमा देखने, व्यर्थ
में शहर में घूमने-फिरने और फालतू बोलने से वह हमें विशेष रूप से रोकते थे। मैं भाई
से पहले से भी अधिक डरने लग पड़ा था। भाई सवेरे जल्दी उठकर पढ़ने पर बहुत ज़ोर देते थे,
पर मेरे लिए सवेरे जल्दी उठना सबसे बड़ी मुसीबत थी।
भाई के घर में रोटी-पानी का प्रबंध
बहुत बढ़िया था। घर की अनचुपड़ी और बाहर की चुपड़ी का सिद्धांत मैं अब ही अच्छी तरह समझ
सका था। भाभी मुझे अपने बच्चों से भी ज्यादा चाहती थी। जब मैं पाकिस्तान से नंगे पैर
आने और फटी चिथड़े हुए पगड़ी पहनकर स्कूल जाने की बात भाभी को बताता तो उसकी आँखों में
आँसू आ जाते। भाभी से मैंने कभी मोहिनी या मुक्ति की बात बताने का साहस नहीं किया था,
पर रात में जब सभी सो जाते, मैं चुपचाप अपने शरीर
से चादर उतारकर मुक्ति के पास पहुँच जाया करता था। जब नींद टूटती तो वही बिस्तर होता
और वही ओढ़ी हुई चादर। पिछले दिनों उसके विवाह की बात बड़े ज़ोरों से चल रही थी। गाँव
में चर्चा थी कि मुक्ति का बाप उसका विवाह मेरे साथ करना चाहता है, पर मैं नहीं मानता। पता नहीं, मुझे विवाह के नाम से इतनी
नफ़रत क्यों थी। मुझे मुक्ति अच्छी लगती थी, प्यारी लगती थी,
वह मुझे चाहती थी। मैं भी उसको प्यार करता था, पर इन सारी बातों का विवाह से क्या संबंध था। प्राय: शाम को जब हॉकी खेलने
जाता, मैं कालेज के ग्राउंड से परे खेतों की ओर निकल जाता और
मुक्ति के साथ बातें करता रहता। उसकी अनुपस्थिति मुझे बड़ी प्यारी लगती। और उसको दूरी
पर रख कर मैं उसके साथ प्रेम करना चाहता था। मेरे विचार में ज़िन्दगी का यह भी यथार्थ
था। सामाजिक यथार्थ की अपेक्षा मेरा यथार्थ मुझे मेरी कल्पना जैसा प्यारा लगता था।
मैं उसको लम्बी-लम्बी चिट्ठियाँ लिखकर फाड़ देता। फिर मैं सोचता कि मैंने अपने आप को
किन कामों में फंसा लिया था। मैं तो हीरों की तलाश में निकला था और कोड़ियों से झोली
भरकर संतुष्ट हो जाना चाहता था। इस तरह की बातें मुझे अक्सर उदास कर देतीं। फिर मैं
कालेज की लाइब्रेरी में पहुँच जाता और दुनिया के प्रसिद्ध लेखकों द्वारा जीवन,
साहित्य और दर्शन पर लिखी किताबें पढ़ता रहता। जब तक किताब समाप्त न हो
जाती, मैं खाना-पीना सब कुछ भूल जाता। मैंने प्रथम वर्ष से लेकर
द्वितीय वर्ष की परीक्षाओं के बीच दो सालों के अंदर विश्व के कई प्रसिद्ध लेखक पढ़ लिए।
कालेज के कई नाटकों में भाग लिया। अंग्रेजी ड्रामों के लिए पता नहीं मेरी शक्ल प्रोफ़ेसरों
को क्यों पसंद आ गई थी। कभी-कभी मैं कविता या कहानी भी लिखता जो कालेज की मैगज़ीन में
छप जाती और दूसरे वर्ष मुझे कालेज मैगज़ीन का सहायक संपादक भी बना दिया गया।
कभी-कभी मुक्ति की चिट्ठी आती।
मैंने उसको कह रखा था कि मैं पढ़ रहा हूँ, इसलिए मुझे महीने में
एक से अधिक चिट्ठी न लिखे। उसकी चिट्ठियों में बार बार यह चर्चा थी कि उसका विवाह शीघ्र
ही कहीं हो जाएगा। इसलिए मुझे कुछ करना चाहिए। मैं क्या कर सकता था ? फिर एक दिन इन उदासियों में एकदम ही वृद्धि हो गई। बापू जी ने अचानक गाँव छोड़
दिया। अफरा-तफरी में खेतिहर मज़दूरों के हाथों सामान बैलगाड़ियों पर लदवाकर नई अलॉट हुई
ज़मीन वाले गाँव भिजवा दिया। छोटी बहनों और माँ को रेल में चढ़ा कर शहर ले आया। इस शहर
से नया गाँव सिर्फ़ बीस मील दूर था। मैं यद्यपि इस गाँव में चार बार गया था,
पर यहाँ मेरी कोई सांझ नहीं थी। शहर में माँ मुझे भाभी के घर में एक
तरफ ले जाकर ऐसा कुछ कह गई जिससे मेरे होश गुम हो गए। बोली, ''मुक्ति एक रात मेरे पास आकर बोली- माँ, मुझे तू अपनी
बहू बना ले। तेरे पैरे धो-धो कर पिऊँगी। तेरी खूब सेवा करुँगी। गोबर-कूड़े से लेकर सारा
घर शीशे की तरह चमका कर रखा करुँगी। एक बार हाँ कर दे। आगे-पीछे तुमने बेटे को ब्याहना
ही है। आनी तेरे घर में एक बहू ही है, पर मेरी जैसी नहीं आएगी।
तू एक बार मेरी माँ के आगे हाँ कर दे। मेरे में अगर कोई कमी है तो नीचे बिठाकर मुझे
सौ जूती मार। रोटी की बुरकी भी चाहे देना या न देना। भूखा रखना, प्यासी रखना, अगर फिर भी कोई चूँ कर जाऊँ तो जान निकाल
लेना। बस मेरी प्यारी माँ, मुझे एकबार अपनी धी बना ले,
अपनी बहू बना ले। पता नहीं मेरा बापू मुझे किसके गले मढ़ेगा, जिसे मैं जानती नहीं, पहचानती नहीं। जिसकी शक्ल नहीं
देखी, मुँह नहीं देखा। सुना है, सिक्खवाले
का कोई अधेड़ दुहाजू है। पहली बीवी मर चुकी है।''
''बेटा-बेटी भी है और अब दूसरा
विवाह करवाने चला है। जायदाद उसके पास अच्छी है।''
माँ ये सब बातें बताकर नई ज़मीन
वाले गाँव चली गई। मैंने कोई उत्तर न दिया। मैं उत्तर दे भी क्या सकता था ! मैं जवाब
देने लायक भी कहाँ था ! मेरा वजूद भी क्या था! मेरे पल्ले था भी क्या ? परंतु वह अपने में इतना साहस कहाँ से ले आई थी। कई दिन इस घटना को सोचता-सोचता
पागलों जैसा ही हो गया था। अचानक गाँव छोड़ने का कारण भी मैं समझ गया था। क्योंकि फ़ैसले
की घड़ी जो आ गई थी और फिर मुक्ति ने माँ के सम्मुख अपने दिल की बात खुलकर कह दी थी।
मेरा मन होता था कि मैं मुक्ति
को मिलकर आऊँ। पर मैं अब कैसे मिल सकता था ? कहाँ जाकर रहूँगा
? किसके पास ठहरुँगा ? वह मुझे कहाँ मिलने
आएगी ? जब सारी कहानी ही नस्र हो गई थी तो अब उस गाँव में मेरा
कौन था।
इससे आगे उत्तर मिलता,
''उस गाँव में तेरा सबकुछ है। तेरा दिल वहाँ है। तेरी प्रेमिका वहाँ
है। वह स्कूल वहाँ है, जहाँ से तूने आठवीं, नौवीं और दसवीं पास की है। तेलियों का वो घर भी अभी वहाँ है जहाँ तीन बरस रहकर
मुक्ति की प्राप्ति हुई है।'' पर मैं अब उस घर में कैसे जाऊँगा
! अभी तो पाकिस्तान में छोड़े गाँव का दुख दिल में से गया ही नहीं था कि अब यह दूसरा
गाँव भी छोड़ना पड़ गया। पाकिस्तान के गाँव में बचपन बीता था, इस
गाँव में बचपन से छुटकारा पाकर जवानी शुरू की थी और मुक्ति मिली थी। पर तकदीर क्या
कर रही थी ?
शनिवार की शाम बग़ैर किसी को बताए
मैं मुक्ति के गाँव की ओर चल पड़ा। अब तो इसको मुक्ति का गाँव ही कहना चाहिए था।
शाम के झुटपुटे में मैं सीधा मुक्ति
के घर जा पहुँचा। मेरा दिल बुरी तरह धड़क रहा था। मुक्ति खेस ताने चारपाई पर लेटी थी।
मुझे देखकर उसकी आँखों में आँसू भर आए। उसने खेस से मुँह ढक लिया। करम सिंह किसी काम
से कहीं ओर गया हुआ था। हमारे वाले घर में लाहौर के एक अलॉटी ने ताला लगा गया था। मुक्ति
की माँ, जिसको मैं चाची कहा करता था, मेरे
लिए चाय रखने रसोई में चली गई। मैं मुक्ति के पास वाली चारपाई पर बैठ गया। हालांकि
उसने अपने आप को खेस में ढक रखा था, पर सिसकियों की आवाज़ फिर
भी मुझे सुनाई दे रही थी। मैं दिल पर पत्थर रखकर बैठा हुआ था। चाची चाय का पानी रखकर
पुन: मेरे पास आकर बैठ गई।
''ले रे गुलाब, तेरी माँ को तो हमने बहुत कहा, यह साल हमारे साथ काट
ले। अच्छा दिल लगा हुआ था और रौनक थी। पिछले तीन-चार साल तो जैसे तीन चार दिनों में
ही बीत गए हों। अगले साल हम भी अपनी ज़मीन को चले जाते और तुम भी। पर तेरा बापू पीछे
पड़कर सारा टब्बर-टीर ले गया। कितने अच्छे थे तुम लोग।'' कहते
कहते चाची की आँखें नम हो आईं।
मैंने खिड़की में से अपनी घर की
तरफ़ देखा जो भांय-भांय कर रहा था। इसी तरह भांय-भांय करता घर हम पाकिस्तान में छोड़कर
आए थे। अपना खाली घर देखकर मेरा भी रोना निकल गया। मैंने पैंट की जेब में से रूमाल
निकाल कर आँखें पोंछी, पर मैं कुछ बोल न सका। गला भर आया था।
ज़ोर-ज़ोर से रोने को जी करता था। पर रोया भी तो नहीं जाता था।
आख़िर मैं मर्द था। मर्द रोया नहीं करते, सहा करते हैं। चाची फिर
बोली, ''हम तो चाहते थे कि मुक्ति के हाथ तेरे संग ही पीले कर
देते। जोड़ी भी बहुत सुंदर थी। पर काका, तुम हुए बड़े आदमी,
ज्यादा ज़मीन-जायदाद वाले। और फिर तू है भी बहुत पढ़ा लिखा। तेरे माँ-बाप
कब मानते हम गरीबों का रिश्ता। तू किसी बी.ए. पास पढ़ी-लिखी किसी अफसर की धी से ब्याह
करवाएगा और खुद भी बड़ा अफसर बनेगा। हम अभागों के भाग्य इतने अच्छे कहाँ ?''
मैं अभी भी चुप था और बहुत गंभीर
हो चुका था। मैं चाहता था कि कह दूँ, ''चाची, अभी मेरे विवाह की उम्र ही कहाँ है। अभी तो मैं कालेज के पहले साल में ही पढ़
रहा हूँ। अभी तो विवाह की बातें बहुत दूर हैं और जब तक मैं विवाह करवाने योग्य होऊँगा,
तब तक ज़माने के रंग भी बदल जाएँगे।'' पर मैं कुछ
भी न कह सका।
चाची ने फिर कहना प्रारंभ किया
-
''तेरा चाचा हमारी न मानकर सिक्खवाले
के एक दुहाजू से मांग आया लड़की को। कहते हैं, जैदाद तो बहुत है,
पर है पक्की उम्र का। शाह के किसी बंदे ने बीच में पड़कर रिश्ता करवाया
है।''
चाची का यह कहना था कि मुक्ति
ज़ोर-ज़ोर से रोने लग पड़ी।
''बस कर बेटी, जो कुछ तेरी किस्मत में लिखा था, तुझे मिल गया। अब कलपने
से क्या बनेगा। रब की कुदरत की ओर देख। तेरे भागों में जो लिखा है, वही तुझे मिलना है।''
''मेरी तो जूती भी उस धौली दाढ़ी
वाले के साथ नहीं जाने वाली, देख लेना, किसी कुएँ, तालाब में डूब मरुँगी।''
मुक्ति रोते रोते उठकर बैठ गई।
''बस बस बेटी, ऐसे बोल न मुँह से निकाल। अब तो तेरे लगन की तारीख भी पक्की कर दी है,
इस हाड़ की पंद्रह की।''
हाड़(असाढ़) की पंद्रह की ! हाड़
की पंद्रह की !! अब मुझे इसके सिवा और कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। असाढ़ की पंद्रह
पर आकर मेरी सोच-शक्ति रुक गई थी।
''हाड़ की पंद्रह को मेरा डोला
नहीं, मेरी लाश ही इस घर से जाएगी।''
''देख, पागल
न हो तो ! गुलाब तू ही समझा इसको। कैसी पागलों जैसी बातें करने लगी है।''
पता नहीं उस समय मेरे अंदर कहाँ
से यह वाक्य बनकर होंठों पर आ गया -
''अच्छी लड़कियाँ माँ-बाप के आगे
नहीं बोला करतीं। तू क्या इनके लिए परायी या गैर है। अगर ये कुछ कर रहे हैं तो तेरे
भले के लिए ही कर रहे हैं। ज्यादा नहीं बोला करते। और तू तो सियानी भी बहुत है।''
''सियानी बनती है मेरी जूती। और
अब तू भी आ गया, सलाह देने को, मुझे जलाकर।
गुलाब, अगर मैं तेरे लेखे लगकर न मरी तो मुझे माँ की धी न समझना...।''
इस नाटक के तीन पात्र अपनी-अपनी आग में जल रहे थे। तीनों की मुठभेड़ हो रही थी। कुछ समझ में नहीं आ रहा
था कि कौन जीत रहा था और कौन हार रहा था।
उस रात मैं मुक्ति के घर पर ही
रहा। ग़मों की इस रात में मुक्ति सुलगती रही। रोती रही और विलाप करती रहती।
''पंद्रह हाड़ को मेरी अर्थी निकलेगी
रे लोगो !''
''मुझे रो रोकर याद किया करेगा
रे गुलाब !''
मुक्ति के इस करुण विलाप के सम्मुख
सरसों के तेल का दीया भी बुझ गया। चाची उसे मना मनाकर और बहला-बहलाकर हार गई,
पर वह चुप न हुई।
''तू ही चुप करा, काका... तेरे कहने पर क्या पता शांत हो जाए।''
मैंने उसकी चारपाई की बाही पर
बैठकर उसके हाथों को अपने हाथों में पकड़ लिया। स्याह काली रात में कहीं-कहीं तारे टिमटिमा
कर डरा रहे प्रतीत होते थे। मुक्ति के हाथ बहुत गरम थे। उसने मेरे हाथों को कसकर अपनी
छाती से लगा लिया। फिर मेरे हाथ उसने अपनी गालों पर फेरे जो आँसुओं से भीगी हुई थीं।
धीरे धीरे उसकी सिसकियाँ मद्धम पड़ गईं और उसका मन शांत होता प्रतीत हुआ। मैंने एक दो
बार अपने हाथ उसके हाथों में से खींचने की कोशिश की, पर उसने
हाथ न छोड़े।
रात बीतती जा रही थी।
जब चाची ने भी करवट बदल ली और
खर्राटे मारने लग पड़ी तो मुक्ति उठकर मुझसे लिपट गई। कितनी ही देर वह मुझसे लिपटी रही।
मैं उसकी पीठ पर हल्का-हल्का हाथ फेरता रहा। फिर उसने मेरी झोली में सिर दे दिया और
मेरी कमर के गर्द अपनी बांहों को और अधिक कस लिया।
रात बीतती जा रही थी। हम कोई बात
नहीं कर रहे थे। पर मैं समझता हूँ कि जितनी बातें हमने उस वक्त क़ी थीं, उतनी तो हज़ारों बरस भी नहीं हो सकती थीं। यह पवित्र प्रेम की तृप्ति की अवस्था
थी। उसके साथ विवाह के बारे में तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था। मैंने बड़े आहिस्ता से
धीमे स्वर में उसके कान में कहा, ''तू अगर मुझे सचमुच ही इतना
चाहती है तो चुपचाप विवाह करवा लेना। मेरे मन को शांति रहेगी।''
''पर मेरे मन की शांति का क्या
होगा ? क्या मैं सारी उम्र दुख भोगने के लिए पैदा हुई हूँ ?''
''ये सब तकदीरों के मामले हैं
मुक्ति।''
''ये सब तकदीरों के मामले नहीं,
ये तेरी बुजदिली, बेरुखी और अकड़ की जीत है।''
''यह तू क्या कह रही है ?''
''मैं सच कहती हूँ।''
''फिर ?''
''चल, तू
मुझे अभी कहीं ले चल।''
''मैं कहाँ ले जा सकता हँ। मेरे
माँ-बाप... क्या...।''
''तू यहीं मेरे पास ही रह। मेरे
बाप की बहुत ज़मीन है, दुबारा अलॉटमेंट में अच्छी ज़मीन मिलने वाली
है। मैं माँ-बाप की इकलौती बेटी हूँ। ईश्वर का दिया सबकुछ है। मैं पकाया करुँगी,
तू खाया करना।''
''मेरी पढ़ाई का क्या होगा ?''
''इतना पढ़कर भी अगर तुझे मेरे
जैसी न मिली तो ?''
''मैं विवाह ही नहीं करवाऊँगा।''
''झूठ।''
''मैं सच कहता हूँ।''
''यकीन कैसे आए ?''
''तू विवाह करवा ले। खुशी खुशी
बस जा। तेरी ओर से ठंडी हवा आती रहे। सुख-शांति के संदेशे मिलते रहें। जब मुझे विवाह
करवाना होगा, तुझसे इजाज़त लेने आऊँगा। अगर तू कहेगी तो विवाह
करवाऊँगा, नहीं तो सारी उम्र इसी तरह रहूँगा।''
''तू बहुत कमज़ोर और डरपोक है।''
''तू मेरे शांत और संकोची स्वभाव
को जानती है। तुझसे दूर रहकर मैं तेरे प्यार में तड़प सकता हूँ, तुझे प्राप्त करके तेरी निकटता में संतुष्ट नहीं रह सकता। मेरी अन्तिम इच्छा
यही है कि तू आराम से विवाह करवा ले।''
''तूने कोई मर्दों वाली बात तो
नहीं की, पर मैं तेरा कहा भी नहीं टाल सकती। परंतु आज की रात
मुझे अपने सीने से अलग न करना। फिर पता नहीं कब मिलन हो।''
(जारी…)
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