आत्मकथा/स्व-जीवनी
>> शनिवार, 16 मार्च 2013
आत्मकथा/स्व-जीवनी(12)
पंजाबी के एक जाने-माने लेखक प्रेम प्रकाश
का जन्म ज़िला-लुधियाना के खन्ना शहर में 26 मार्च 1932(सरकारी
काग़ज़ों में 7 अप्रैल 1932) को हुआ। यह 'खन्नवी' उपनाम से भी 1955 से 1958
तक लिखते रहे। एम.ए.(उर्दू) तक शिक्षा प्राप्त प्रेम प्रकाश 'रोज़ाना मिलाप' और 'रोज़ाना हिंद
समाचार' अख़बारों में पत्रकारिता से जुड़े रहे। 1990 से 2010 तक साहित्यिक पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका 'लकीर' निकालते रहे। लीक से हटकर सोचने और करने में
विश्वास रखने वाले इस लेखक को भीड़ का लेखक बनना कतई पसन्द नहीं। अपने एक इंटरव्यू
में 'अब अगर कहानी में स्त्री का ज़िक्र न हो तो मेरा पेन
नहीं चलता' कहने वाले प्रेम प्रकाश स्त्री-पुरुष के आपसी
संबंधों की पेचीदा गांठों को अपनी कहानियों में खोलते रहे हैं। यह पंजाबी के
एकमात्र ऐसे सफल लेखक रहे हैं जिसने स्त्री-पुरुष संबंधों और वर्जित रिश्तों की
ढेरों कामयाब कहानियाँ पंजाबी साहित्य को दी हैं। इनकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि मनुष्य
मन की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर गांठों को पकड़ने में सफल रही हैं।
कहानी संग्रह 'कुझ अणकिहा वी' पर
1992 मे साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त यह लेखक अस्सी
वर्ष की उम्र में भी पहले जैसी ऊर्जा और शक्ति से निरंतर लेखनरत हैं। इनके कहानी
संग्रह के नाम हैं - 'कच्चघड़े'(1966), 'नमाज़ी'(1971), 'मुक्ति'(1980), 'श्वेताम्बर ने कहा था'(1983), 'प्रेम कहानियाँ'(1986),
'कुझ अनकिहा वी'(1990), 'रंगमंच दे भिख्सू'(1995),
'कथा-अनंत'(समग्र कहानियाँ)(1995), 'सुणदैं ख़लीफ़ा'(2001), 'पदमा दा पैर'(2009)। एक कहानी संग्रह 'डेड लाइन' हिंदी
में तथा एक कहानी संग्रह अंग्रेजी में 'द शॉल्डर बैग एंड अदर
स्टोरीज़' (2005)भी प्रकाशित। इसके अतिरिक्त एक उपन्यास 'दस्तावेज़' 1990 में। आत्मकथा 'बंदे
अंदर बंदे' (1993) तथा 'आत्ममाया'(
2005) में प्रकाशित। कई पुस्तकों का संपादन जिनमें 'चौथी कूट'(1996), 'नाग लोक'(1998),'दास्तान'(1999), 'मुहब्बतां'(2002), 'गंढां'(2003) तथा 'जुगलबंदियां'(2005)
प्रमुख हैं। पंजाबी में मौलिक लेखक के साथ साथ ढेरों पुस्तकों का
अन्य भाषाओं से पंजाबी में अनुवाद भी किया जिनमें उर्दू के कहानीकार सुरेन्द्र
प्रकाश का कहानी संग्रह 'बाज़गोई' का
अनुवाद 'मुड़ उही कहाणी', बंगला
कहानीकार महाश्वेता देवी की चुनिंदा कहानियाँ, हिंदी से 'बंदी जीवन'- क्रांतिकारी शुचिंदर नाथ सानियाल की
आत्मकथा, प्रेमचन्द का उपन्यास 'गोदान',
'निर्मला', सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' तथा काशीनाथ सिंह की चुनिंदा
कहानियाँ आदि प्रमुख अनुवाद कृतियाँ हैं।
सम्मान : पंजाब साहित्य अकादमी(1982), गुरूनानक
देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर द्वारा भाई वीर सिंह वारतक
पुरस्कार(1986), साहित्य अकादमी, दिल्ली(1992),
पंजाबी अकादमी, दिल्ली(1994), पंजाबी साहित्य अकादमी, लुधियाना(1996), कथा सम्मान,कथा संस्थान, दिल्ली(1996-97),
सिरोमणि साहित्यकार, भाषा विभाग, पंजाब(2002) तथा साहित्य रत्न, भाषा विभाग, पंजाब(2011)
सम्पर्क : 593, मोता सिंह नगर, जालंधर-144001(पंजाब)
फोन : 0181-2231941
ई मेल : prem_lakeer@yahoo.com
आत्म माया
प्रेम
प्रकाश
हिंदी
अनुवाद
सुभाष
नीरव
'श्वेतांबर ने कहा था'
वाली शारदा
अपनी कहानी 'श्वेतांबर ने कहा था' की पृष्ठभूमि
के विषय में काफी कुछ भूल चुका था। इतना भर याद है कि मैं किसी औरत की दोस्ती में बहुत
भावुक होने के बाद सामान्य हो गया था। सब रिश्ते ठीकठाक रहे थे। मैं अपने पुराने दर्द
को भूलता उस औरत के दुखों के विषय में सोचने लग पड़ा था, जो बूढ़ी
होती जा रही थी। फिर उसकी औलाद द्वारा बड़े होकर उसके प्रेम-संबंधों में रुकावटें डालने
की बात सोचते हुए मेरे मन में कई दुखांत घटित हो जाते थे।
यह सोच चल ही रही थी कि मेरी दोस्त औरत के घर मेरी मुलाकात उसके एक पुराने
दोस्त के साथ हो गई। वह कुछ समय में ही मेरे और उस औरत के मध्य इतनी बड़ी रुकावट बनकर
खड़ा हो गया कि मेरे लिए सहना कठिन हो उठा। मुझे करीब छह महीने मानसिक संताप में काटने
पड़े थे। मेरी इस मानसिक अवस्था का पता इस कहानी में बयान हुई मुहब्बत की शिद्दत के
अलावा मेरी डायरी के कुछ पन्नों से भी लगता है, जो मैंने तारीख़
और समय का हवाला दिए बगैर उन दिनों लिखी थी। उसके नमूने इस पुस्तक में 'कहानियों के बीज' शीर्षक के अंतर्गत दर्ज़ हैं,
जिनमें मेरी उस समय की मानसिक स्थिति का पता लगता है।
ऐसी मानसिक अवस्था में से गुज़र कर मुझे यह कहानी सूझी। परंतु लिखते समय मैं
उस अवस्था में से निकल चुका था। मैं कभी ओम प्रकाश पनाहगीर से बातें करता अपनी उस हालत
का मजाक भी उड़वाया करता था। वह पूछा करता, ''फिर क्या कहता है
तेरा श्वेतांबर ?'' उत्तर में मैं कहता, ''बड़ गया श्वेतांबर... वह अब मेरे से ज्यादा शारदा से बातें करता होगा।''
मैं कोई भी कहानी लिखने से पहले ओम प्रकाश को कच्ची-पक्की-रूप में सुना देता
था। ऐसा करने से मेरे जेहन में कहानी सीधी हो जाती थी।
इस कहानी की नायिका में पढ़ी-लिखी, सभ्य, सुंदर और अधेड़ उम्र की नायिका शारदा की तस्वीर मेरे जेहन में बहुत साल पहले
से ही पल रही थी। वह मुझे बहुत दिलकश लगती थी। असल में नौजवानी की आयु में मुझे पक्की
उम्र की स्त्रियाँ प्यारी लगा करती थीं। ऐसे औरतों को शहर में जाते हुए देखकर मैं खड़ा
हो जाता था। मेरा उनके साथ बैठकर कॉफी पीने और बातें करने को दिल किया करता था। पर
ऐसा अवसर शायद ही कभी मिलता था। यदि कभी मिलता भी था तो मेरा संकोची स्वभाव मुझे रोकता
रहता था। ऐसी औरत मेरी लिए एक आनंदमयी सपना था। मैं तो विवाह भी अपने से बड़ी उम्र की
औरत से करवाना चाहता था।
मैं मोता सिंह नगर के अपने घर से 'हिंद समाचार'
अख़बार की ओर अथवा शहर के बाज़ारों में जाता-आता रहता था। मुझे राह में
एक स्त्री मिला करती थी। हमेशा सादा-सी साड़ी पहने वह मुझे सुंदर लगा करती थी। उसके
लम्बे बाल कंधों पर खुले पड़े होते थे। कभी रिबन या क्लिप से ढीले-से बाँध रखे होते
थे। वह हमेशा रेडियो स्टेशन के करीब मिलती थी या बी.एम.सी. चौक पार करके। साधारण-सी
चप्पलें पहने वह धीरे धीरे चला करती। गर्मियों में उसके हाथ में छतरी हुआ करती थी।
उसको देखकर मुझे ख़याल आता कि यह कहीं मास्टरनी लगी होगी। शायद किसी सरकारी दफ्तर में
क्लर्क या छोटी-मोटी अफ़सर। शायद विधवा हो, तभी नौकरी करनी पड़
रही है। उन दिनों में हमारी उम्र की खाते-पीते घरों की बहुत कम औरतें नौकरी किया करती
थीं।
एक दिन मैंने सड़क के फुटपाथ पर खड़े होकर उसको ध्यान से देखा। उसके बालों में
कोई कोई सफेद बाल दिखाई देता था। उसने अपनी घड़ी देखते हुए मुझ खड़े हुए से टाइम पूछा।
उसकी आवाज़ सुरीली नहीं थी, पर गंभीर थी। उसकी घड़ी के स्टैप के
नीचे 'एस डी' अंकित था। मैंने सोचा,
सत्यादेवी होगा इसका नाम। उसके नक्श सुंदर थे। आँखों का रंग गहरा भूरा था। उसके नाक में कोका
था और कानों में टोप्स। बाहों में कोई गहना नहीं था। तब भी वह विधवा नहीं लगती थी।
तलाक वाली या अपनी इच्छा से कुआँरी रही हो सकती थी। वह शारदा का एक रूप बनी।
डॉक्टर की माँ के पात्र की रचना मेरी कल्पना में ऐसी हुई कि रेडियो कालोनी
में रहता एक नौजवान डॉक्टर शर्मा मेरा मित्र बन गया। वह हिंदी में कहानियाँ लिखा करता
था। क्लीनिक उसका किसी बस्ती में था। मैं वहाँ कभी गया नहीं था। हम रात को उसके घर
पर ही कभी मिला करते थे। उनका मकान अपना था। सड़े स्वभाव की उसकी पत्नी सरकारी डिस्पेंसरी
में डॉक्टर थी। वह घर में भी प्रैक्टिस करती थी। मेरे आने पर वह अधिक खुश नहीं होती
थी। उसकी प्राइवेट प्रैक्टिस और माथे की त्यौरी डॉक्टर को अच्छी नहीं लगती थी। इसी
बात पर घर में क्लेश रहता था। झगड़े का दूसरा कारण बहू-सास में अक्सर रहने वाली खींचतान
थी। जिससे घर में कभी कभी क्लेश बढ़ जाता था। डॉक्टर शर्मा घबराकर मेरे पास पीने आ जाता
था। कभी मैं उसके घर भी चला जाता था, पर वहाँ हम पीते नहीं थे।
उसकी माता जो रिटायर्ड टीचर थी, मकान के पिछले हिस्से
में रहती थी। वह विधवा सरकारी स्कूल से रिटायर हुई थी। अच्छी पेंशन मिलती थी। बहू को
सास के चरित्र पर शक था। उससे मिलने उसका एक कुलीग आया करता था। उसे मैंने भी देखा।
वह बड़ा पढ़ा-लिखा और सभ्य बोलचाल वाला व्यक्ति था। वह कभी हमारे पास बैठकर उर्दू साहित्य
और आर्ट-फिल्मों की बातें भी किया करता था। वह अपनी नौजवानी में क्रांतिकारी भी रहा
था। उर्दू में कविता लिखता रहा था। डॉक्टर की माता भी साहित्य पढ़ती और सामाजिक मामलों
पर बहस किया करती थी। उसको समाज में स्त्रियों की कानूनी हैसियत ने तंग किया हुआ था।
वह कभी कभी राजनीतिक वर्करों की तरह आंदोलनों की बातें भी करती थी। उसने हिंदी में
छपी मेरी भी दो कहानियाँ पढ़ी थीं। उनकी आलोचना भी की थी। उसे मेरी कहानी में रोगी मन
वाले पात्र अच्छे नहीं लगते थे।
कुछ ऐसा ही हाल मेरी दोस्त औरत का भी था। उसने सरकारी नौकरी से प्रीमिच्योर
रिटायरमेंट ले ली थी। उसके घर भी उसकी बहू आ गई थी। लड़का नौकरी करने के लिए रोज़ लुधियाने
जाया करता था। बहू अकेली बैठी रहती थी। मैं जब भी उनके घर जाता, हम ड्राइंग रूम में बैठ जाते। चाय पीते, गप्पें मारते।
जब कभी अवसर मिलता हम एक-दूजे के हाथ भी पकड़ लेते। उठाकर हल्का-सा चूम भी लेते। यदि
बहू नहाने चली जाती तो हमें खिड़की का पर्दा करके जफ्फियाँ डालने का अवसर भी मिल जाता।
पर डर डर कर। कभी बात काफी आगे भी बढ़ जाती थी। जिसके बाद दिल बहुत देर तक धड़कता रहता
था। बुढ़ापे के कारण दिल कमज़ोर भी हो गए थे। ब्लॅड प्रैशर बढ़ जाता था जिसे सामान्य करने
के लिए हम पढ़ी हुई किताबों की बातें करते थे। बातें क्या, मुँह
से इतनी ऊँची आवाज़ निकालते थे, जिसे बहू भी सुन सके। चाय-कॉफी
की बजाय शरबत पीते थे। हम इस बात से बड़े दुखी होते थे कि बहू हम पर पहरा लगाए बैठी
थी। हमारे सुख-आनंद को हमारे पुत्र बहू यूँ ही राख किए जाते थे, जैसे कभी हमने उनके आनंद को किया था। नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से अपने बदले ले
रही थी।
हमारे बीच टेलीफोन का सिलसिला इस तरह चलता था कि मैं फोन पर दो बेल देकर बंद
कर देता था। अवसर ठीक होता था तो वह फोन उठा लेती थी। हम अपने घड़े हुए शब्दों में खुफिया
तरीके से बात करते थे। मैं मिलने के मौके के बारे में पूछता, ''माहौल कैसा है ?'' प्रत्युत्तर में वह कहती,
''खुशगवार है।'' इसका अर्थ होता कि तू आकर मिल
सकता है। यदि वह कहती कि यूँ ही धूल मिट्टी उड़ रही है, तो मैं
समझ जाता कि घर में बहू-बेटा बैठे हैं। अथवा बहू से नोंक-झोंक होकर हटी है। हमें हर
समय डर लगा रहता था कि कोई दूसरा हमारा फोन सुन न ले। कभी घर का माहौल खराब होता था
तो वह फोन सुनकर रखते हुए कह देती थी, ''यूँ ही रांग नंबर आए
जाते हैं।''
फिर जब बहू भी किसी फर्म में काम करने लग पड़ी थी तो हमें सुविधा हो गई थी।
परंतु मेरे अधिक आने-जाने और मेरी तरफ से बड़े तकाजे क़रने पर वह मेरे से भी तंग हो गई
थी। उसको यह बात भी तंग करने लग पड़ी थी कि बहू नौकरी पर जाकर किसी के साथ गुलछर्रे
न उड़ाती घूमती हो। जो काम वह अपने लिए ठीक समझती थी, वह अपनी
बहू के लिए बुरे कहने लग पड़ी थी। फिर उसको यह चिंता भी लग गई थी कि बहू को गर्भ नहीं
ठहरता था। मैंने एक बार हँसते हुए कहा था कि यदि तेरी पहली चिंता सही हुई तो दूसरा
काम खुद-ब-खुद हो जाएगा। यह बात उसका बुरी लगी थी। इसके बाद वह मुझ पर भी संदेह करने
लग पड़ी थी।
इस कहानी में 'श्वेतांबर' का पात्र
इस तरह मेरे मन में बसा हुआ था कि मैंने जैन मत के बारे में पुस्तकें पढ़ी थीं। जिनमें
से एक जैन मुनियों, तीर्थांकरों और जैन मत को मानने वाले भिन्न-भिन्न
तरह के मतों से संबंधित थीं। एक खास मानसिक अवस्था या यूँ कह लीजिए कि आनंदातिरेक की
अवस्था में मुझे कभी ऐसा प्रतीत होता कि कोई श्वेतांबर मुनी मेरे साथ बातें कर रहा
है। मैंने वही पात्र बनाकर कहानी में डाल दिया। जो लोकाट के छोटे-से पेड़ के नीचे खड़ा
कहानी की नायिका शारदा को दिखाई देता और लुप्त हो जाता है। यह आहिस्ता-आहिस्ता पात्र
से बढ़कर नायिका के अंतर्मन का प्रतिरूप बन गया था। जो किसी भी समय उस औरत के पास आकर
बातें करने लग पड़ता था और कभी मखौल भी कर जाता था। कभी सलाहें देता और कभी दुख भी हल्का
कर जाता था।
डॉक्टर शर्मा की माता बीमार रहकर शीघ्र ही मर गई थी। उसका दोस्त उसके मरने
पर भी आया था और उसके बाद के सारे संस्कारों के समय भी। बाद में वह उनके घर आने से
हट गया था। पर मुझे कभी कभी बाज़ार या कॉफी हाउस में मिल जाता था। उसकी सेहत तेज़ी से
बिगड़ने लग पड़ी थी। शायद बुढ़ापे के कारण या उसको अपनी ज़िन्दगी में डॉक्टर की माँ से
बिछड़ने का दुख हो। तब मुझे बुढ़ापे की सेहत के तबाह होने के राह का पता नहीं था। जब
वह मरा तो मुझे यही लगता रहा था कि वह अपनी प्रेमिका के विछोह के दुख से मरा है।
उन दिनों में मुझे अपने आप को परिपक्व आयु के व्यक्ति के प्रेम में घुलने का
अनुभव हो रहा था। मेरी अपनी आयु भी पक चुकी थी। मेरी दोस्ती भी एक ऐसे दुखांत में से
गुज़र रही थी जिसका मेरे पास कोई चारा नहीं था। मैं स्वयं के साथ बातें करने वाला हो
गया था कि मुझे ओम प्रकाश पनाहगीर को भी बातें बताना अच्छा नहीं लगता था। हाँ,
एक कामरेड दोस्त प्रियव्रत मेरे बहुत करीब आ गया था। वह भी किसी औरत
के प्रेम-चक्कर में से गुज़र रहा था। सो, हम इन बातों पर बैठकर
विचार करते रहते थे। जब ऊब जाते तो पाकिस्तानी ग़ज़ल गायिका की गाई ग़ज़लों के रिकार्ड
सुनते और अपनी बनाई चाय की चुस्कियाँ भरते रहते थे।
यह कहानी लिखने के समय मेरे उस दोस्त का बैठना-उठना इंग्लैंड से आई एक बूढ़ी
स्त्री के साथ हो गया था। उसने बाल कटवा कर गर्दन तक रखवा लिए थे। वह शक्ल और अक्ल
में साधारण-सी औरत थी, पर पता नहीं उसमें क्या था कि व्यक्ति उसकी ओर खिंचे चले जाते
थे। उसकी बात का अंदाज़ मर्दाना-सा था। वह जब सूट पहनती थी तब भी चुन्नी नहीं लेती थी।
परंतु उसमें कोई छिपा हुआ गुण अवश्य होगा। जो व्यक्ति उसके घर में एक बार घुस जाता
था, वह शीघ्र लौटता नहीं था। पर वह मुझे बहुत अच्छी नहीं लगती
थी। वह मुझे भी अच्छा आदमी नहीं समझती थी। हम जब भी मिलते, हमारे
माथों पर बल पड़ जाते। जब मैं घर जाकर ठंडे दिमाग से सोचता तो वह मुझे एक आज़ाद औरत की
मिसाल के तौर पर अच्छी लगने लग पड़ती थी। वह बहस करते हुए औरत का पक्ष इतनी मज़बूती से
पेश करती थी कि बड़ी उम्र की औरत की प्रेम भूख का भी खुला वर्णन करने लग पड़ती थी।
धीरे धीरे वह मुझे ठीक लगने लग पड़ी थी। फिर वह अचानक इंग्लैंड चली गई थी। उसके
जाने के बाद मेरे प्रतिपक्ष में खड़ी औरत आम हो गई थी। वह मेरी कहानी में 'शारदा' के रूप में आकर एक पढ़ी-लिखी, सूझवान, रिटायर्ड प्रिंसीपल और डॉक्टर पुत्र की माँ बनकर
एक बड़ा पात्र बन गई थी।
(जारी)
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