पंजाबी कहानी : आज तक

>> गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013



पंजाबी कहानी : आज तक(14)

नवतेज सिंह(1925 - 1981)

पंजाबी कहानी के एक सशक्त कथाकार। मनोविज्ञान में एम.ए. तक की शिक्षा ग्रहण कर अपने पिता गुरबख्श सिंह की तरह ही इस लेखक ने पंजाबी साहित्य को कई यादगार कहानियाँ ीं। पिता के बाद पंजाबी की 'प्रीतलड़ी' साहित्यिक पत्रिका का संपादक के तौर पर काम देखते रहे। इस पत्रिका में इनका नियमित छ्पने वाला स्तंभ 'मेरी धरती, मेरे लोग' काफ़ी चर्चित रहा। एक पत्रकार के रूप में सन् 1977 में पंजाब सरकार के शिरामणी पत्रकार अवार्ड से आप सम्मानित भी हुए। 'देश-वापसी'(1955), 'नवीं रुत'(1958), 'बासमती की महिक'(1960), चानण दे बीज'(1962) और 'भाइयां बाझ'(1974) इनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं।


संदेशा
नवतेज सिंह
अनुवाद : सुभाष नीरव


...आप तो जानते हो सरदार जी, आज़ादी से पहले का मैं इस रूट पर बस चला रहा हूँ। तब आधे से ज्यादा राह कच्चा होता था। अब तो आख़िर तक पक्की सड़क की बादशाही है। तब शहर से बाहर हुए नहीं और बस, फिर क्या, बिजली का लाटू खत्म... और अब ईश्वर की कृपा से सारे रास्ते ही लाटुओं की झिलमिल और कई जगहों पर बंबों की घूँ-घूँ...।
      ... और अब तो एक बहुत बढ़िया कानून बन गया है। हमें आदेश हो गया है कि बारह बरस से कम उम्र के लड़के-लड़कियों को स्कूल जाते समय या छुट्टी होने पर घर लौटते समय बस में मुफ्त चढ़ाया जाए।
      ...हाँ, कई तो शक करते हैं कि यह कानून वोट डलने तक ही लागू है, बाद में कोई नहीं पूछेगा।
      ...हाँ, सरदार जी, मैं तो एक ज़माने से बालकों को अपनी बस में चढ़ाता रहा हूँ, तब भी जब मेरी सारी रूट पर कसम खाने को एक स्कूल नहीं हुआ करता था। अब तो आज़ादी के बाद ईश्वर की कृपा से बड़े स्कूल खुल गए हैं। यह बात अलग है कि पढ़ने वालों की गिनती से इन स्कूलों की गिनती बहुत कम है, पर कई डरैवर बड़े अड़ियल होते हैं जी... उन्हें अब इस कानून के कारण बच्चे चढ़ाने ही होंगे
      ...मुझे एक बार की बात याद आ रही है। तब अभी यह दो मील का टुकड़ा कच्चा ही होता था। मुझे मुहरका ताप चढ़ गया। मेरी जगह सुरैण सिंह डरैवर आया। शिखर दुपहरी किताबें उठाये बच्चे नंगे पाँव तपते रहते, पर वो बाप का बेटा सुरैण सिंह बस ही न रोके। बच्चे भी बड़े शरारती होते हैं। उन्होनें इस कच्चे रास्ते की पुलिया की ईंटें निकाल दीं। बहुत परेशानी हुई, पर सुरैण सिंह ने आगे के लिए कानों को हाथ लगा लिए और बच्चों को रोज बस में चढ़ाने लग पड़ा। जिस सुरैण सिंह से अड्डे पर कंट्रोलर सहमते थे, उसको छोटे-छोटे बच्चों ने बंदा बना दिया।
      ...बगल में बस्ता दबाये, नंगे पैरों वाले बालकों को जब बस में बैठा ले, तो वो मीठा-मीठा आपकी तरफ ताकते हैं। उनके चेहरों पर छाई खुशी देखकर पल भर को ताज़ा ताज़ा हुए चालान का दुख भी बिसर जाता है। और यह भी बिसर जाता है कि पहली तारीख कब की चढ़ी हुई है और दफ्तर की ओर से बुलाये जाने का अभी कोई अता-पता नहीं। कसम रब की, कोई बढ़िया से बढ़िया वलैती शराब भी क्या गम गलत करेगी !
      ...जब से यह नया कानून बना है, बहुत सारे लड़के छुट्टी होने पर नहर के पुल के करीब आम के पेड़ों के नीचे बैठ कर बस का इंतजार करते रहते हैं। कोई कोई तो वहीं बैठकर घर के लिए मिले सवाल निकालने लग पड़ता है। कोई घास पर यूँ ही टेढ़ा होकर लेट जाता है। और जब मैं पुल पर पहुँचकर उनके लिए बस रोकता हूँ, तो वे नाचते-कूदते मुझे घेर लेते हैं। और मैं उनसे कहता हूँ, ''मैं तुम्हें बस में किसी लिहाज से नहीं चढ़ा रहा। अब हमारा देश आज़ाद हो गया है और पढ़ने वाले बेटे-बेटियों को बस में मुफ्त सवारी का हक दे दिया गया है।''
      ... मेरी ज़िन्दगी के बारे में पूछते हैं, सरदार जी ? ज़िन्दगी खूब गुज़री है और खूब गुज़र रही है। हमारे इस पेशे में ज़िन्दगी रोज नई होती रहती है, नित्य नए लोगों से वास्ता जो पड़ता रहता है। गाँव से शहर में संदेशे पहुँचाते हैं, शहर से गाँववालों के लिए कई चीज़ें लेकर जाते हैं।
      ... इस रूट पर बहुत पुराने समय से चलते होने के कारण संदेशों के आदान-प्रदान और चीज़ों के लाने-ले जाने की भरमार रहती है। पर मैं भी कभी मना नहीं करता। ज़रा-सी परेशानी से दूसरे का इतना काम हो जाता है। और लोगों के चेहरों की सुखद याद रात को इस तरह नींद लाती है कि ऐसा लगता है कि अपने टब्बर से दूर बस की कड़ी छत पर नहीं बल्कि फूलों की सेज पर सोया होऊँ।
      ...संदेशे और वस्तुएँ पूछते हो सरदार जी! संदेशों और चीज़ों की अनेक किस्में हैं। कोई नतीजे वाले दिन अख़बार छिपाकर मंगवाता है, कोई बीमार बीवी के लिए टीके मंगवाता है, किसी के घर में कोई बहुत ऊँची नाक वाला मेहमान आया हुआ होता है जिसकी सेवा के लिए शहर से फल, सब्जी मंगवाये बिना गुज़ारा नहीं होता। कभी शहर के बड़े अस्पताल में किसी का सगा-संबंधी दाख़िल होता है, उसके लिए घर का दूध पहुँचाना पड़ता है। और फिर गाँव की हर मौसम की नियामतें - गन्ने, सरसों का साग, डेले और अन्य बहुत कुछ किसी का किसी के लिए शहर पहुँचाना होता है। शहर वाले अड्डे पर इस गाँव के एक अच्छे हलवाई की दुकान है, उसी के हवाले सबकुछ कर देते हैं। आगे जिसका संदेशा होता है या जिसकी चीज़ होती है, वह खुद आकर ले जाता है।
      ...आपके जैसे पढ़े-लिखे नौजवानों के लिए तो कभी-कभार जूड़े सजाए, एनकों वाली जवान लड़कियों के संदेशे भी ले जाते हैं जी ! अब कबूतरों के हाथ नहीं, डरैवरों के हाथ संदेशे आते हैं।
      ... आपको मैं नाम नहीं बताता। कबूतरों ने भेद छिपाकर रखने की बड़ी अच्छी परंपरा डाली है। हम डरैवर इस परंपरा का उल्लंघन नहीं करते। एक दिन एक बहुत सुंदर-सी लड़की शहर के बस-अड्डे पर मुझे आपके जैसे गाँव के एक अच्छे पढ़े-लिखे लड़के के लिए चिट्ठी पकड़ा गई। जब मेरी बस आपके गाँव पहुँची, वह लड़का वहाँ पहले से ही खड़ा था। उसने चिट्ठी लेकर मेरी तरफ इस तरह देखा मानो मैं उसके लिए सात स्वर्ग ले आया होऊँ। अगली सुबह वह लड़का बस चलने से दस मिनट पहले ही मेरी बस में आ बैठा। उसके हाथ में सफेद और गुलाबी कंवल के फूल थे। इन फूलों जैसी ही चमक उसके मुँह पर भी थी। पहले जब भी वह शहर जाता था, दौड़ते-भागते हुए ही बस पकड़ता था और खीझा-खीझा-सा होता था। आज जैसा उसका चहकता-चमकता चेहरा पहले कभी नहीं देखा था।
      ... मेरी बस में इतने बरस हज़ारों मुसाफिर चढ़े-उतरे होंगे। चीजें आई-गई होंगी, पर ऐसे चेहरे वाला कभी कोई नहीं चढ़ा था, कंवल के फूल कभी कोई लेकर नहीं आया था।
      ...अगले मोड़ के बायीं ओर जो गिल्लों का पोखर है, वह सारे का सारा कंवलों से ही भरा पड़ा है। चार-पाँच कनाल जगह होगी। पर यहाँ के लोग ये कभी नहीं कहते कि कंवल लगा रखे हैं। बल्कि कहते हैं, 'भें(कमल ककड़ी) लगा रखी है।' और सावन में कई कई बोरी यहाँ से निकालकर मेरी बस में लादते रहते हैं, कमल ककड़ियाँ शहर भेजी जाती हैं। लेकिन आज तक कंवल के फूल कोई मेरी बस में नहीं ले गया था।
      शहर में जब बस पहुँची, वह चिट्ठी वाली लड़की इस कंवल वाले लड़के का इंतज़ार कर रही थी। शाम को आखिरी बस पर वही लड़की उस लड़के को छोड़ने आई। अब कंवल के फूल उस लड़की के हाथ में थे।
      सभी सवारियाँ बैठ गईं, सामान और बहुत कुछ छोटा-मोटा लाद लिया गया। परंतु वे दोनों आखिर तक बाहर चुपचाप खड़े रहे। एक दूसरे को निहारते रहे। दोनों की क्या अजब हसरत थी या प्यास थी जिसे वे आखिरी कतरे तक पी लेना चाहते थे। सरकती बस में लड़का चढ़ा, पर फिर भी पीछे की ओर देखता रहा।
      ...कविता ? हमें कहाँ आती है लिखनी जी ? हाँ, कविता पढ़ने का शौक ज़रूर है।
      ...कहानियाँ भी पढ़ता हूँ, पर पता नहीं जैसी ज़िन्दगी में नित्य नई घटती देखते हैं, वैसी कहानियाँ लिखने वाले क्यों नहीं लिखते।
      ... हाँ, यह ठीक है। हमारी नित्य की मुसाफ़िरी वाली ज़िन्दगी में बहुत कुछ घटता रहता है। यदि मुझे कहानी लिखनी आती होती तो मैं बहुत कुछ कलमबद्ध करता। मेरी इन कहानियों में हुनर का तो पता नहीं, पर आपकी कसम, वे ज़िन्दा ज़रूर लगतीं।
      ...नहीं, यदि मुझे कहानी लिखनी आती तो मैं सबसे पहले कंवल के फूलों वाले लड़के और लड़की की कहानी न लिखता। एक दूसरी कहानी लिखता। एक छोटे-से लड़के, बस आठ-नौ बरस के बालक ने अपने पिता के पास पहुँचाने के लिए मुझे एक बार संदेशा दिया था। इस लड़के और इस संदेशे की कहानी मैं सबसे पहले लिखता।
      यह उन दिनों की बात है जब इस इलाके के गाँवों में नई नई बिजली आई थी। मेरा नाचने को मन करता था- बिजली, मेरे लोगों के लिए रौशनी ! पर लोग मेरी तरह नाच क्यों नहीं रहे, यह मेरी समझ से बाहर था।
      इन्हीं दिनों एक दिन नहर के पुल के पास से गुज़रते हुए मैंने बस रोकी तो एक आठ-नौ बरस का बालक मुझे अपने पिता के लिए एक संदेशा दे गया। अपनी ज़िन्दगी में यही एक संदेशा शायद मैं पूरा नहीं कर सका था।
      ... यह बात नहीं कि यह मुझे याद नहीं रहा था। याद तो यह मुझे तब भी होगा जिस घड़ी मैं इस दुनिया से विदा हो रहा होऊँगा। और सबकुछ भले ही भूल जाए, वे कंवल के फूल भी बेशक भूल जाऊँ, परंतु इस संदेशे की कसक सदैव ज़िन्दा रहेगी। दरअसल, इस पूरे संदेशे को पचाने का साहस ही मुझ में नहीं हुआ था।
      हाँ, तो मैं कह रहा था - यह उन दिनों की बात है जब नई नई बिजली हमारे इलाके के गाँवों में आई थी। आपको याद होगा, आपके गाँव के अड्डे पर बिजली के एक ठेकेदार ने दुकान खोली थी। ठेकेदार के मिस्त्री के पास नरैणा काम किया करता था। उसी नरैणे के पुत्र ने यह संदेशा मुझे दिया था। नरैणे का गाँव नहर के साथ लगता है। आपके गाँव में तो वह रिजक का मारा आया हुआ था।
      ...हाँ, नरैणे के पुत्र ने जो संदेशा मुझे दिया था, वही मै आपको बताने जा रहा था। नहर के पुल के पास जब मैंने बस को रोका तो यह बालक मेरे पास आया। बोला, ''भाजी, मेरे बापू को आप जानते हो न ?'' उसने इतने सहज-स्वभाव में मुझसे पूछा मानो वह बापू की पीछे छूट गई कोई वस्तु उस तक पहुँचाने के लिए मुझे देने आया हो। फिर उसने कहा, ''जहाँ आखिर में आपकी बस जाकर खड़ी होती है, वहीं बिजली की एक दुकान पर मेरा बापू काम सीखता है। दुकान तो इस वक्त बंद होगी, पर रात में वह सोता भी दुकान में ही है। आप भाजी उसको कह देना कि मेरी माँ कहती थी - आज भी हम आटा उधार लेकर आए हैं।''
      वह बालक तो जैसे आया था, वैसे ही सहज-स्वभाव लौट गया, पर मैं पूरे रास्ते सोचता रहा - अगर बिजली का काम सीखने वाले इस नरैणे के घर कोई दानी अपने पल्ले से बिजली का लाटू लगवा भी दे, तो नरैणे के लिए यह रौशनी किस काम की ? उधार लिया आटा गूंधती अपनी बीवी और कुछ दिन बाद की खाली परात और अपने पुत्र का भूखा-प्यासा मुँह देखने के लिए बिजली के लाटू की क्या ज़रूरत थी !
      ... बिजली आ गई है, बड़ा अच्छा हुआ है, सरदार जी! पर रौशनी होने में अभी देर है!

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ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

व्यवस्थापक
'अनुवाद घर'

समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

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