आत्मकथा/स्व-जीवनी
>> गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013
पंजाबी के एक जाने-माने लेखक प्रेम प्रकाश का जन्म ज़िला-लुधियाना के खन्ना
शहर में 26 मार्च 1932(सरकारी काग़ज़ों में 7 अप्रैल 1932) को हुआ। यह 'खन्नवी' उपनाम से
भी 1955 से 1958 तक लिखते रहे।
एम.ए.(उर्दू) तक शिक्षा प्राप्त प्रेम प्रकाश 'रोज़ाना मिलाप'
और 'रोज़ाना हिंद समाचार' अख़बारों में पत्रकारिता से जुड़े रहे। 1990 से 2010
तक साहित्यिक पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका 'लकीर'
निकालते रहे। लीक से हटकर सोचने और करने में विश्वास रखने वाले इस
लेखक को भीड़ का लेखक बनना कतई पसन्द नहीं। अपने एक इंटरव्यू में 'अब अगर कहानी में स्त्री का ज़िक्र न हो तो मेरा पेन नहीं चलता' कहने वाले प्रेम प्रकाश स्त्री-पुरुष के आपसी संबंधों की पेचीदा गांठों
को अपनी कहानियों में खोलते रहे हैं। यह पंजाबी के एकमात्र ऐसे सफल लेखक रहे हैं
जिसने स्त्री-पुरुष संबंधों और वर्जित रिश्तों की ढेरों कामयाब कहानियाँ पंजाबी
साहित्य को दी हैं। इनकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि मनुष्य मन की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर
गांठों को पकड़ने में सफल रही हैं।
कहानी संग्रह 'कुझ अणकिहा वी' पर 1992 मे
साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त यह लेखक अस्सी वर्ष की उम्र में भी पहले जैसी
ऊर्जा और शक्ति से निरंतर लेखनरत हैं। इनके कहानी संग्रह के नाम हैं - 'कच्चघड़े'(1966), 'नमाज़ी'(1971), 'मुक्ति'(1980), 'श्वेताम्बर ने कहा था'(1983),
'प्रेम कहानियाँ'(1986), 'कुझ अनकिहा वी'(1990),
'रंगमंच दे भिख्सू'(1995), 'कथा-अनंत'(समग्र कहानियाँ)(1995), 'सुणदैं ख़लीफ़ा'(2001),
'पदमा दा पैर'(2009)। एक कहानी संग्रह 'डेड लाइन' हिंदी में तथा एक कहानी संग्रह अंग्रेजी
में 'द शॉल्डर बैग एंड अदर स्टोरीज़' (2005)भी प्रकाशित। इसके अतिरिक्त एक उपन्यास 'दस्तावेज़'
1990 में। आत्मकथा 'बंदे अंदर बंदे'
(1993) तथा 'आत्ममाया'( 2005) में प्रकाशित। कई पुस्तकों का संपादन जिनमें 'चौथी
कूट'(1996), 'नाग लोक'(1998),'दास्तान'(1999),
'मुहब्बतां'(2002), 'गंढां'(2003) तथा 'जुगलबंदियां'(2005) प्रमुख
हैं। पंजाबी में मौलिक लेखक के साथ साथ ढेरों पुस्तकों का अन्य भाषाओं से पंजाबी
में अनुवाद भी किया जिनमें उर्दू के कहानीकार सुरेन्द्र प्रकाश का कहानी संग्रह 'बाज़गोई' का अनुवाद 'मुड़ उही
कहाणी', बंगला कहानीकार महाश्वेता देवी की चुनिंदा कहानियाँ,
हिंदी से 'बंदी जीवन'- क्रांतिकारी
शुचिंदर नाथ सानियाल की आत्मकथा, प्रेमचन्द का उपन्यास 'गोदान', 'निर्मला', सुरेन्द्र
वर्मा का उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' तथा
काशीनाथ सिंह की चुनिंदा कहानियाँ आदि प्रमुख अनुवाद कृतियाँ हैं।
सम्मान : पंजाब साहित्य अकादमी(1982),
गुरूनानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर द्वारा भाई
वीर सिंह वारतक पुरस्कार(1986), साहित्य अकादमी, दिल्ली(1992), पंजाबी अकादमी, दिल्ली(1994),
पंजाबी साहित्य अकादमी, लुधियाना(1996),
कथा सम्मान,कथा संस्थान, दिल्ली(1996-97), सिरोमणि साहित्यकार, भाषा विभाग, पंजाब(2002) तथा
साहित्य रत्न, भाषा विभाग, पंजाब(2011)
सम्पर्क : 593, मोता
सिंह नगर, जालंधर-144001(पंजाब)
फोन : 0181-2231941
ई मेल : prem_lakeer@yahoo.com
आत्म माया
प्रेम प्रकाश
हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव
'डेड लाइन' वाली भाभी
जब कहानी 'डेड लाइन' की फिल्म बनाने वाली फिल्मी नायिका दीप्ति नवल के साथ मेरा सौदा तय हो गया
तो वह किसी मुकदमे के सिलसिले में अमृतसर आई। फिल्म की स्क्रिप्ट लिखने की सलाह करने
के लिए उसने मुझे फोन करके वहाँ रिट्ज़ होटल में बुला लिया।
पहले उसने मुझे
लाउंज में ही बिठा लिया और चाय-कॉफ़ी मंगाने लगी। फिर किसी का शोर सुनकर घबराकर उठ खड़ी
हुई। मुझे बड़े हॉल में ले गई। वहाँ एक मेज़ पर हम बैठ गए। कॉफ़ी का आर्डर दिया। वह फिर
उठ खड़ी हुई- 'नहीं, यहाँ भी शोर है।'
वहाँ नवधनाढ़्य उज्जड शहरी व्यापारी ऊँची आवाज़ में बातें कर रहे थे। वह
बेचैन थी। वह मेरी तरफ़ मुँह करती तो माथे के बल हटाकर मुस्कराहट ले आती। उसने बताया
कि असल में वह होटल का कमरा छोड़ चुकी है। उसे मुझसे बातें करने के बाद चले जाना है।
हम फिर लाउंज में
आ बैठे। एक दो बातें करते हुए उसके चेहरे पर मुस्कराहट आई। परंतु वह मुझे वैसी दीप्ति
बिलकुल नहीं लगी, जैसी मैंने फिल्मों में देखी थी... खिले चेहरे
वाली। खूबसूरज... अच्छी सेहत वाली और प्यार करने वाली।... उसके पतले जिस्म पर बग़ैर
बाजू की कसी हुई शर्ट थी। साधारण-सी जींस भी कसी हुई थी। कद छोटा। चेहरे पर लकीरों
का जाल-सा उभर रहा था, जो और दो-एक साल में साफ़ दिखाई देने वाला
था। क्या वह कहानी की नायिका के तौर पर जचेगी ?... मैं सोचता
रहा।
जब हम अच्छी तरह
से टिक गए तो वह पूछने लगी कि इस कहानी के पीछे की असली कहानी क्या है ? डेड लाइन की नायिका असल में कौन थी ? आपको कहाँ मिली
?... मैं बताता रहा। हम जो भाषा बोल रहे थे, उसमें अंग्रेजी और हिंदी के बहुत से शब्द थे। मैंने बताया कि वह जालंधर में
ही रहती थी। उसका पति रेलवे में पैटी आफ़ीसर था। उसका एक बेटा था। घर में अन्य कोई नहीं
था। काम करने वाली आकर चली जाती थी।
नहीं, वह उम्र में मेरे से बड़ी नहीं थी, बल्कि कुछ वर्ष छोटी
ही थी।
हाँ, वह बहुत सुन्दर थी। कम से कम मुझे लगती थी। उसका जिस्म भरा-भरा था। उसका नंगा
जिस्म भी सुन्दर था।
नहीं, हमारे बीच रिश्ते की सीमा कहीं भी नहीं थी। सब सीमाएँ पार कर गए थे हम। पहली
दो या तीन मुलाकातों में ही हमकों लगने लगा था कि हम एक-दूजे को प्रेम करने के लिए
ही पैदा हुए हैं।
हाँ, कई बार। कितनी बार हम अपने अपने परिवारों को छोड़ने की योजनाएँ बनाते थे। पर
कोई लोकलाज या मानवता का सवाल था जो हमको रोक लेता था। हम अपने दूसरे सदस्यों के साथ
अन्याय नहीं कर सकते थे।
यह सिलसिला सवा
दो या ढाई साल चला। फिर, बस फिर उसके पति का तबादला हो गया। रतलाम
में। नहीं, फिर नहीं मिल सके। तीन चार साल बाद वह मर गई। कैंसर
हो गया था।... यूटरस का। नहीं, मैं भी मिलने नहीं गया। मुझमें
पैसे-धेले का इतना सामर्थ्य नहीं था कि रतलाम जाता।... नहीं, पता नहीं। उसका बेटा आया था। किसी रिश्तेदार के संग।... मैं उसके साथ क्या
बात कर सकता था। वह मिलकर चला गया।... हाँ, उसने मुझे कई ख़त लिखे
थे। मैं उन्हें पढ़कर फाड़ देता था। उसकी दी हुई तस्वीरें मैंने छिपाकर किसी दोस्त के
घर में रखी थीं। वह दोस्त जब इंग्लैंड जाने लगा तो मुझे वापस कर गया था। अब तो मैंने
उन्हें भी फाड़ दिया है।
कहानी में मैंने
उसे आनंद परिवार बताया है। आनंद खत्री होते हैं। मध्यवर्गीय आर्य समाजी परिवार के।
अच्छे गुज़ारे वाला परिवार। ससुर रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी है।
नहीं, असल में वह एक सिक्ख परिवार था। नारंग अरोड़ों का। उसका पति तो मोना था,
पर उसका श्वसुर जो गाँव से कभी-कभी आता रहता था,
वह सिक्ख था। अमृतधारी। बहुत नेक इन्सान था। हमारी किसी बात में दख़ल
नहीं देता था। शक भी नहीं करता था। वह ड्राइंग रूम में होता था और हम किचन में प्यार
कर रहे होते थे।... मैं उसके प्यार में इतना पागल हो गया था कि एक बार मुझे अपने दोस्त
को लेकर स्वयं सायकियाट्रिस्ट के जाना पड़ गया था। मैं बहुत अबनॉर्मल-सा हो गया था।
मुझे अख़बार के दफ्तर में काम करना कठिन हो गया था। मैं उर्दू अख़बार के न्यूज़ डेस्क
पर सब-एडीटरी करता था। दो सौ ख़बरें याद रखनी पड़ती थीं। रोज़ की रोज़ ग़लती का हिसाब हो
जाता था। मालिकों के साथ अक्सर झगड़ा हो जाता था।
असल में,
थ्रोट-कैंसर का मरीज़ उसका देवर मेरी कल्पना ने उसके साथ जोड़ा था। वह
किसी दूसरे घर का था। वह बहुत देर से मेरे अन्दर पैदा होता रहता था।... असल में,
वह मेरे बहुत ही करीबी दोस्त ओम प्रकाश पनाहगीर का साला था। उसको अचानक
पता चला था कि उसको थ्रोट कैंसर है। उन दिनों कैंसर के बारे में नई नई बात चली थी।
वैसे वह बहुत सेहदमंद था। वह ऐसे महकमे में नौकर था जहाँ रिश्वत आम चलती थी। वे उच्च
कुल के ब्राह्मण थे, पर उसको मीट-शराब की आदत थी। कैंसर होने
पर मेरे दोस्त ने उसके विषय में मुझे बताया कि एक बड़ी उम्र की विधवा औरत के साथ उसके
संबंध हैं। अपने मरने की बात सुनकर वह शराब, मीट-मछली और उस औरत
में डूबने लग पड़ा था।... हाँ, मेरा घर बीच में था। मेरा दोस्त
पनाहगीर आते-जाते मेरे पास चाय पीते हुए उस लउके की बातें बता जाता था।
हाँ, बिलकुल... वह अपने बहनाई को सबकुछ बता देता था। उस औरत की गुप्त बातें भी।
एक दिन दिल फेल
होने से उस लड़के का बाप गुज़र गया। दोनों साला-बहनोई गंगा में फूल प्रवाहित करने गए।
रात में वे एक शहर के होटल में रुके। उन दोनों ने शराब पी और मछली खाई। फिर वह लड़का
लौटते हुए एक शहर में रंडियों के बाज़ार में चला गया।... जब वे मृतक की गति करवाने के
लिए पहोवा जाकर क्रिया वाले दिन लौटे तो भी उन्होंने पी रखी थी। लड़के ने पगड़ी बंधवा
कर...। खैर, यह अलग कहानी है। मैंने अपने पात्र के लिए उसकी कुछ
बातें लेकर अपने अंदर जज्ब कर लीं।
तीन महीनों बाद
वह लड़का मर गया था। पर मरने से एक दिन पहले भी वह अपनी प्रेमिका के साथ सोया था। यह
बात मुझे बेहद हैरान करने वाली लगी थी।
जी, हाँ। वह लड़का मुझे भी मिला करता था। मेरे घर भी आया करता था। मैं अपने मित्र
के साथ उसके घर भी कई बार गया था। मैंने उसकी दोस्त औरत भी देखी थी। वह ज़रा भारी ज़िस्म
की सुन्दर स्त्री थी। रंग साफ़ नहीं था, पर जिस्म दिलकश था। वह
कम बोलती थी। मैंने बहाना बनाकर उससे बात भी की थी।... वह लड़के के मरने पर नहीं आई
थी। उसकी अस्थियाँ प्रवाहित करवाने मैं अपने दोस्त के संग गया था।
जब मैंने यह कहानी
लिख ली तो मैंने इसे अपनी दोस्त औरत को पढ़वाया था। उसको पसंद नहीं आई थी। ''बस, ठीक है' कहकर उसने लौटा दी
थी। मुझे लगा था कि इसे अपने पात्र में से वो खूबियाँ नहीं मिलीं, जो वह अपने अन्दर महसूस करती होगी।... उन्हीं दिनों वह रतलाम चली गई। मैंने
उसकी एक फोटो अभी भी छिपाकर रखी हुई है।
मेरी बातें समाप्त
होने पर दीप्ति ने मुझे वह कहानी सुनाकर मेरे होश उड़ा दिए, जो
वह फिल्म के लिए तैयार कर रही थी। उसने उस परिवार को ब्राह्यण और जागीरदार किस्म के
उच्च वर्ग में रख लिया था। फिर कहानी चलती हुई 'भाभी'
के देवर का बच्चा होने और तीसरी पुश्त तक चली गई थी। जन्म-जन्मांतर के
प्यार के बंधनों की कहानी।... दीप्ति ने स्त्री पात्रा के बीच से सोचों और संवेदनाओं
के इतने नए पहलू जोड़ लिए थे कि मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकता था। औरत के कामुक व्यवहार
में इतनी छिपी हुई इच्छाओं की इतनी बारीक परतें भी होती हैं, यह मेरी सोच से बाहर की बात थी। उसकी कहानी सुनने के बाद मैंने उससे पूछा,
''आप कहानियाँ भी लिखते रहे हो कभी ?''
उसने कहानी और कविता
दोनों लिखी थीं। वह स्वयं स्क्रिप्ट राइटर थी। कोई फिल्म स्टार भी इतनी प्रतिभा की
मालिक हो सकती है ? यह सोचते हुए मैं लौट आया था।
असल में मैं दीप्ति
के कुरेदने वाले सवालों से ऊब गया था। शाम काफ़ी हो चुकी थी। मुझे जालंधर लौटना था।
दीप्ति से पीछा छुड़वाने के लिए मैंने उस औरत का जो अंत बताया उसके अनुसार वह रतलाम
चली गई थी और कैंसर की रोगी होकर मर गई थी। परंतु असली कहानी तो कुछ और ही थी। इससे
पहले वाला हिस्सा भी कुछ और ही था। मैं जो थोड़ी-बहुत बातें बता सकता हूँ, वे इस प्रकार हैं -
जिस ब्राह्मण स्त्री
ने मुझे पुराणों और हिंदू धर्म के अनुष्ठानों का ज्ञान और हर प्रकार का बेहिसाब प्यार
दिया, उस राम कली से टूटकर कुछ महीने मैं बड़ा घरेलू-सा जीव बना
घूमता रहा। मुझे उसके पति और अपने मित्र के गुज़रने और उस विधवा से दूर होने का बहुत
सदमा लगा था। जब भी फुरसत होती थी, मैं कॉफी हाउस में जा बैठता
था। नक्सली लहर पूरी तरह उठ खड़ी थी। दिमाग में आग भर गई थी। जबरन सरकार का और अख़बार
के मालिकों का विरोध करने और किसी से लड़ने को दिल करता रहता था। मैं बहस करता यूँ ही
लड़ पड़ता था। बात बात में गालियाँ बकने की आदत-सी पड़ गई थी। ऐसी मानसिक अवस्था में एक
औरत अपने फोटोग्राफर दोस्त के साथ कॉफी हाउस में कॉफी पीती हुई मिली। वह फोटोग्राफर
था तो बदसूरत-सा, पर कलाकार बढ़िया था। काम करते हुए सहगल के गाने
गाता रहता था। मुझे उसके साथ इतनी सुंदर औरत के बैठने पर हैरानी हुई थी। मेरे साथ उसका
हल्का-सा परिचय हुआ था। वह जाते समय मुझे अपने घर आने की रस्मी-सी दावत दे गई थी,
जो मैं भूल गया था।
एक दिन रिक्शा पर
माडल टाउन की तरफ जाती हुई मिल गई। मैं साइकिल पर था। उसने इशारा करके मुझे रोक लिया।
कहने लगी, ''मुझे तुम्हारी पत्रिका का चंदा देना था।''
मैं चंदा लेकर चलने लगा तो उसने डरते-झिझकते बताया कि वह भी कविता लिखती
है। फिर वही तकाज़ा, ''कभी घर आओ। सुनाऊँगी।''
उसने पचास का जो
नोट मुझे दिया था, उसी पर अपने घर का पता लिख दिया। मुझे दफ्तर
पहुँचने की जल्दी थी। दूसरे दिन वह फोटोग्राफर मेरे दफ्तर में आकर मुझे संकेत से बुलाकर
छत पर ले गया। बोला, ''आपकी एक फोटो चाहिए, किसी को।'' दो स्नैप लेकर वह चला गया। मुझे उस औरत का
अधिक ख़याल ही न आया।
एक दिन काम को मन
नहीं लग रहा था। मैंने बिना कारण दफ्तर से छुट्टी ले ली। कॉफी हाउस गया। कोई मित्र
नहीं था। कुछ वकील या पत्रकार बैठे खा-पी रहे थे। मैं माडल टाउन की मार्किट की दायीं
तरफ चला गया।
उस नंबर का कोने
का प्लाट बहुत बड़ा और टेढ़ा-सा था। बीच में दो मकान थे। बायीं ओर वाला बंद पड़ा था और
कोने वाला जो छोटा था, खुला हुआ था। वह छोटे वाले मकान में थी।
घर बहुत साफ़-सुथरा था। कीमती फर्नीचर और पर्दों वाला। मुझे देखकर वह बरामदे में आ गई
थी। मैं कीमती कालीन पर बूट रखते हुए डर गया था। मैंने बूट एक तरफ उतार दिए थे। उसने
हल्की ठंड रोकने वाला ग्रे सूट पहन रखा था। उसकी सातेक बरस की बेटी सोई पड़ी थी। शायद
बीमार थी।
वह वैसी ही चाय
का हॉफ सैट बनाकर ले आई, जैसी हम प्लाज़ा या ग्रीन में बैठकर पीते
थे। लेकिन उसकी क्रॉकरी कीमती थी। चाय पीते हुए मैंने देखा, उसने
लम्बे ड्राइंगरूम के दो शो-केसों में कीमती वस्तुएँ सजाकर रखी हुई थीं। एक तरफ गुरुओं
के चित्र थे और दूसरी तरफ शोभा सिंह की सोहणी लटक रही थी। दीवारों पर बाज़ार में बिकती
अन्य तस्वीरें भी टंगी हुई थीं। ड्राइंगरूम में से दिखाई देते किचन में कोई अधेड़-सी
औरत रसोई का काम कर रही थी। वह काम करने वाली माई थी।
मेरे दिमाग में
कामरेडों वाला शब्द आया- बुर्जुआ और मैं खुद ही हँस पड़ा। वह अपनी नोट बुक उठा लाई तो
मुझे पता चला कि उसका नाम दीपक नारंग था। उसकी कविता समाज-सुधार वाली या बड़ी रोमांटिक
थी। जैसे कोई विहरन प्रेम में घुलती चीख-पुकार या रुदन कर रही हो। शिव कुमार बटालवी
जैसी। बीमार बच्ची के जागने और रोने पर मैं उठ का चल दिया तो उसने मुझे कुछ कविताएँ
छापने के लिए दे दीं।
मैंने उसकी एक कविता
'लकीर' के नए अंक में अंत में जहाँ स्थान
खाली मिला, लगा दी। पूरी पत्रिका को डाक में डालने का काम समाप्त
कर मैं एक सुबह पत्रिका की एक प्रति उसको देने चला गया। सुबह के दस बजे थे। सूरज की
तपिश से ठंड कम हो गई थी। घर में वह मेकअप करके तैयार बैठी थी। काम करने वाली किचन
में थी। घंटी बजाकर जब मैं अंदर घुसा तो वह किताब मेज़ पर रखकर प्रसन्न चित्त मेरी ओर
यूँ बढ़ी जैसे किसी से हाथ मिलाना होता है या गले लगाना होता है।
वह पहले पत्रिका
और फिर उसमें छपी अपनी कविता देखकर बहुत प्रसन्न हुई। चाय के साथ मुझे बिस्कुट लेने
के लिए विवश करती रही। वह शरत चंद्र का कोई नॉवल पढ़ रही थी। हमने कुछ बातें शरत चंद्र
की नायिकाओं की कीं। वह बात बात पर यूँ ही भावुक-सी हो जाती और गहरा नि:श्वास लेती।
उसके घर में बहुत कुछ था, जो बड़े खाते-पीते घरों में हुआ करता
है। इस हद तक कि फ्रिज, बड़ा-सा टेप रिकार्डर, रेडियो और कैमरा भी पड़ा दिख रहा था। उसका पति न अधिक पढ़ा हुआ था और न ही किसी
बडे पद पर था।
करीब पौने घंटे
बाद जब काम करने वाली चली गई तो मुझे बाथरूम जाने की इच्छा हुई। साफ़-सुथरे बाथरूम से
लौटकर आया तो उसका लिबास बदला हुआ था। उसने हल्का गरम गाउन पहना हुआ था। उसने अपनी
चुटिया खोलकर बालों को कंधों पर बिखरा रखा था। वह इस तरह खड़ी थी मानो मेरी प्रतीक्षा
कर रही हो। मैं बैठने लगा तो वह बोली, ''आओ, आपको साधना वाला कमरा दिखाऊँ।''
वह कमरा बहुत साफ़-सुथरा
था। अंदर अगरबत्ती जल रही थी। हम जूते उतारकर अंदर गए थे। कोई फर्नीचर नहीं था। पूरे
फर्श पर कालीन के ऊपर सफेद चादरें बिछी थीं। कोने में बिछे गद्दे पर सितार,
रिकार्ड प्लेयर और करीब ही हारमोनियम पड़ा था। मुझे पर ऐसा प्रभाव पड़ा
जैसे किसी धार्मिक स्थान में प्रवेश करने पर पड़ता है। मैं भावुक-सा हो गया। तभी उसने
मेरा हाथ पकड़कर चूम लिया। मैं तो पागल ही हो गया। मैं सहमते-डरते उसके करीब हुआ तो
उसने अपने ब्लाउज के बटन खोल दिए। नीचे बारीक-सी बनियान पहन रखी थी। उसमें से जिस्म
का गोरा रंग और आकार दिखाई देता था। उसकी छातियाँ इतनी सुंदर थीं कि मैंने अब तक दुनिया
की किसी औरत की नहीं देखी थीं। तस्वीरों में भी नहीं। मैं शैदाई-सा हो गया। मैं आगे
बढ़ने लग पड़ा। उसने रोक दिया। आँखें मूंदकर इन्कार में सिर हिला दिया। मेरा हाल बहुत
बुरा था। मैं इशारों से मिन्नतें करने लगा। तभी, बाहर कोई खटका
हुआ। पड़ोसियों की जवान लड़की यूँ ही मिलने आई थी। उसके साथ मेरा परिचय करवाते हुए उसने
मेरी इतनी तारीफें क़ीं कि मैं शर्मिन्दा-सा हो गया। शीघ्र ही उसके घर से निकल आया।
इस घटना ने मेरे
जीवन की धारा ही बदल दी। मैं दफ्तर में काम करता, घर में पढ़ता-लिखता,
मित्रों से गप्पें मारता। सबकुछ ठीक होता। पर मन उसके घर जाने के लिए
उतावला रहता। एक तरफ तो ज़िन्दगी में दूसरी व्यस्तताओं में फंसा महसूस करके टेंशन बढ़ती
थी और दूसरी तरफ यह नया बखेड़ा सभी टेंशनों को और अधिक बढ़ा देता था।
मेरी ऐसी हालत विशेष
तौर पर उस दिन से हो गई थी जब मैं उसके घर में अड़कर बैठ गया था। वह बहुत बेदिली से
राज़ी हुई थी। बाद में मुझे इसका अफ़सोस भी था और इस बात का विश्वास भी कि यह उसका गुस्से
भरा नाटक-सा था। हमारी मुलाकात आधे घंटे की थी सिर्फ़। लेकिन इतने समय में ही कितने
भूचाल आ गए थे। बहुत कुछ फटाफट हो गया था। अब याद करता हूँ तो लगता है कि फिल्म के
सीन इतनी शीघ्रता से गुज़रे थे कि याद करना कठिन है। उसमें सबकुछ नरम नरम और आनंदभरा
ही नहीं था, कुछ रूखा, कसैला और दुखदायी
भी था। अपने आप को शर्मिन्दा करने वाला भी था।
जब यह नाटक-सा हम
कई बार दुहरा चुके थे तो मैं काफी नार्मल हो गया था। मेरे अंदर काम करने की शक्ति बढ़
गई थी। जीवन में रस भरता महसूस होता था। जब कभी मैं उससे मिलने में ज़रा-सा भी आलस्य
करता था तो वह किसी न किसी ढंग से मुझे संदेशा भेज देती थी। मेरे जाने पर यदि उसका
पति घर में होता था तो वह उसको किसी ऐसे काम पर भेज देती थी जिसमें करीब पौना घंटा
लग जाए। वह उससे डरता प्रतीत होता था।
कभी कभी जब वह मुझे
प्रेम करती, मुझे खाना खिलाती, मेरी सेहत
या मेरे लिबास के बारे में सोचते हुए बातें करती तो मुझे उसमें से माँ की ममता का सुख
मिलता था। वह मेरे बच्चों के बारे में भी सोचती थी। मैं काफी समय से अपने घर से दूर
था। अन्य घरवालों का तो अधिक नहीं, पर अपनी पत्नी का ख़याल आता
रहता था। मुझे हर मानसिक कमी के समय अपनी पत्नी याद आती थी। उसके पास जाकर मुझे यह
कमी पूरी होती लगती थी। यह सोच मुझे बड़ा सुख देती थी।
फिर वे जल्द ही
रतलाम चले गए थे। यह झूठी बात कभी मुझे भी सच ही लगती है। वैसे सच यह था कि उनके घर
में बहुत क्लेश पड़ गया था। शायद उसके पति को शक हो गया था। मैं जब भी जाता था,
वह कई बार ऊपर से आ जाता था। हम चाय पी रहे होते या बातें कर रहे होते,
उसका पति बहाना-सा खोजकर लड़ पड़ता था। मेरा वहाँ बैठना कठिन हो जाता था
और मैं चुपचाप उठकर चल देता था। पीछे से उनकी आवाज़ें सुनाई देती रहती थीं। फिर उनका
तबादला हो गया था। रतलाम का नहीं, किसी दूसरी जगह का। फिर वह
दुबारा मुझसे नहीं मिली।
(जारी)
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