पंजाबी उपन्यास
>> गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013
बलबीर मोमी
अक्तूबर 1982 से कैनेडा में प्रवास कर रहे
हैं। वह बेहद सज्जन और मिलनसार इंसान ही नहीं, एक सुलझे हुए समर्थ लेखक भी हैं।
प्रवास में रहकर पिछले 19-20 वर्षों से वह निरंतर अपनी
माँ-बोली पंजाबी की सेवा, साहित्य सृजन और पत्रकारिता के माध्यम से कर रहे हैं। पाँच कहानी संग्रह [मसालेवाला घोड़ा(1959,1973),
जे मैं मर जावां(1965), शीशे दा समुंदर(1968), फुल्ल खिड़े हन(1971)(संपादन), सर दा
बुझा(1973)],तीन उपन्यास [जीजा जी(1961), पीला गुलाब(1975) और इक फुल्ल मेरा
वी(1986)], दो नाटक [नौकरियाँ ही नौकरियाँ(1960), लौढ़ा वेला (1961) तथा कुछ एकांकी
नाटक], एक आत्मकथा - किहो जिहा सी जीवन के अलावा अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी
हैं। मौलिक लेखन के साथ-साथ मोमी जी ने पंजाबी
में अनेक पुस्तकों का अनुवाद भी किया है जिनमे प्रमुख हैं – सआदत
हसन मंटो की उर्दू कहानियाँ- टोभा टेक
सिंह(1975), नंगियाँ आवाज़ां(1980), अंग्रेज़ी नावल ‘इमिग्रेंट’ का पंजाबी अनुवाद ‘आवासी’(1986), फ़ख्र जमाल के उपन्यास ‘सत गवाचे लोक’ का लिपियंतर(1975), जयकांतन की तमिल कहानियों का
हिन्दी से पंजाबी में अनुवाद।
देश –विदेश के अनेक
सम्मानों से सम्मानित बलबीर मोमी ब्रैम्पटन (कैनेडा) से प्रकाशित होने वाले पंजाबी
अख़बार ‘ख़बरनामा’ (प्रिंट व नेट एडीशन) के संपादक हैं।
आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास ‘पीला गुलाब’ भारत-पाक विभाजन की कड़वी यादों को समेटे हुए है। विस्थापितों द्बारा नई
धरती पर अपनी जड़ें जमाने का संघर्ष तो है ही, निष्फल प्रेम की कहानी भी कहता है। ‘कथा पंजाब’ में इसका धारावाहिक प्रकाशन करके हम प्रसन्नता अनुभव
कर रहे हैं। प्रस्तुत है इस उपन्यास की आठवीं किस्त…
- सुभाष नीरव
पीला गुलाब
बलबीर सिंह
मोमी
हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव
13
इतवार और सोमवार
का पूरा दिन मैं अपने गाँव में बिता कर शहर जाने वाला था। माँ ने मेरे लिए दो वक्त
क़ा दूध रख कर खोया बनाया था। खोये में बेसन मिलाकर पीपी भर दी थी। कुछ और कपड़े सिलाने
के लिए मैंने माँ से करीब पचास रुपये भी ले लिए। मुझे पता था कि माँ इन पैसों के बारे
में बापू से कोई बात नहीं करेगी। एक दूसरे झोले में माँ ने ताजा कद्दू, भिंडियाँ और टींडे तुड़वाकर डाल दिए थे जिन्हें मुझे गाँव की
सौगात के रूप में भाभी के घर पहुँचाना था।
यद्यपि शहर में सब्ज़ी का कोई अभाव
नहीं था, पर इस तरह गाँव से भेजी सब्ज़ी में एक तरह की अपनापन
झलकता था।
बातें करते-करते मैंने माँ से
भाई के घर जाने के बारे में भी पूछ लिया था। माँ को कोई एतराज़ नहीं था सिवाय इसके कि
शहर आख़िर शहर ही होता है। आख़िरी अनुमति बापू से ही लेनी थी। बापू नई ज़मीन पर गया हुआ
था।
चलते समय माँ दरवाज़े तक मेरे साथ
आई और मेरे सिर पर प्यार से हाथ फेरा और माथा चूमा। जब मैं दरवाजे में से निकलकर बाहर
वाली गली में निकलने ही लगा था तो मेरी नज़र साथ वाले दरवाजे पर चली गई। मैंने देखा,
मुक्ति बड़ी हसरतभरी नज़रों से मेरी तरफ देख रही थी। दो आँसू उसकी आँखों
में अटके हुए थे जो दरवाज़े में से बाहर पैर रखते ही बह चले थे। स्टेशन तक ये आँसू भरी
आँखें मुझे दिखाई देती रहीं। गाड़ी में सामने की सीट पर बैठी एक नौजवान औरत पता नहीं
क्या सोच रही थी। कभी कभी वह अपना मुँह दुपट्टे से ढक लेती। दुपट्टा फिसल कर फिर नीचे
गिर पड़ता। इससे उसकी कमज़ोर मानसिक अवस्था का पता चलता था। मैंने बोरियत से बचने के
लिए थैले में से अर्थ-शास्त्र की किताब निकालकर पढ़नी शुरू कर दी। लेकिन मेरा ध्यान
किताबी ज्ञान से बागी होकर फिर गाँव में पहुँच गया। आँसुओं से भरी आँखें, और कोई यूँ आधी रात के समय मेरे सिर के बालों में उंगलियाँ फेरता था। वह कौन-सी
शक्ति थी जो उसे लोक लाज से ऊपर उठकर उसको मेरे पास ले आई थी। यह मुझे क्या होता जा
रहा था। मेरी आँखें भी तर होती जा रही थीं। मैंने किताब एक तरफ रख दी और पैंट की जेब
में से रूमाल निकालकर आँखें पौंछीं। सामने बैठी औरत ने अपने आप ही किताब उठाकर पन्ने
उलटे-पलटे और फिर उसे वहीं रख दिया।
''भाजी, तुम कहाँ पढ़ते हो ?'' उसने बड़े धैर्य से मुझसे पूछा।
''फीरोजपुर कालेज में।''
मैंने बड़ी गंभीरता से जवाब दिया।
''मेरा भाई भी कालेज में पढ़ता
है।'' उसने बात आगे बढ़ाई।
मेरी समझ में नहीं आया कि अब मैं
क्या कहूँ। पर अधिक देर होने से पहले ही मैंने उससे पूछ लिया -
''कहाँ पढ़ता है ?''
''अंबरसर, खालसा कालेज में।''
''अमृतसर तो बहुत दूर है।''
मैंने कहा।
''मेरे मायके वाले अंबरसर के नज़दीक
ही एक गाँव में हैं। रोज़ पढ़कर साइकिल से घर आ जाता है।''
''फिर तो खर्चा भी कम ही होता
होगा।'' मैंने बिना सोचे-समझे पूछ लिया।
''उसकी तो बल्कि फीस भी माफ है।
कालेज वाले कहते थे, वजीफा भी देंगे। उसको खेलों का बड़ा शौक है।''
''फिर तो बड़ी मौज है।''
मैंने कहा।
गाड़ी धीरे होते-होते रुक गई। मैंने
खिड़की में से बाहर देखा। कोई बरसाती नाले की मरम्मत हो रही थी। गाड़ी फिर चल पड़ी। उस
नौजवान औरत का दिल मेरे साथ खुल कर बातें करने को कर रहा था। परंतु मेरी सोचों की सुई
दुबारा पलकों से ढके आँसुओं पर जा रुकती थी।
स्टेशन आया। उस नौजवान औरत ने
हैंडिल वाला झोला पकड़ा और हम आगे-पीछे गाड़ी में से उतर गए। स्टेशन से बाहर तक हम दोनों
साथ-साथ ही आए।
''भाजी, हम बगदादी दरवाज़े के अंदर मसीत(मस्जिद) में रहते हैं। कभी आते-जाते मिल जाना।''
''अच्छा...।'' मैंने सहज ही कहा और रिक्शा वाले को कालेज चलने के लिए आवाज़ दी। उसने रिक्शा
खींचना आरंभ किया और मैं देख रहा था कि वह औरत अभी भी मुझे हसरत भरी नज़रों से देख रही
थी।
''ये आपके साथ नहीं थे ?''
रिक्शा वाले ने पूछा।
''हाँ...।'' मैंने बहुत धीमे स्वर में कहा। बार-बार मुझे ऐसा लग रहा था मानो मैं उसकी किसी
बात को अनसुनी करके दौड़ गया होऊँ।
कालेज से दो फर्लांग पहले ही उतर
कर मैं भाई के घर को चला गया। बच्चे 'चाचा जी, चाचा जी' कहकर मेरे से चिपट गए। भाभी ने रस्मी तौर पर
एक समझदार औरत की तरह सारे घर की खैर-ख़बर पूछी। मैंने झिझकते झिककते सब्जियों वाला
थैला भाभी को थमा दिया। ऐसा करते हुए मैं हीनता का शिकार होता जा रहा था। भाभी ने नौकर
को चाय के लिए कहा और मेरे संग मीठी-मीठी बातें करने लग पड़ी। हमारे बातें करते करते
धोबिन आ गई। उसने कपड़ों वाली गाँठ ड्राइंग रूम में ही हमारे सामने खोल कर रख दी। भतीजी
ने अल्मारी में से कॉपी लाकर भाभी को पकड़ा दी। भाभी बोलती गई और धोबिन गिन गिनकर कपड़े
एक तरफ रखती गई। जब यह काम खत्म हुआ तो फिर गंदे-मैले कपड़ों का ढेर धोबिन के सामने
लगा दिया गया जिन्हें मैं कॉपी पर तरतीबवार लिखता रहा और धोबिन उन्हें एक चादर में
फेंकती रही। धोबिन ने सारे कपड़ों को चादर में बाँध लिया। उसने नीला लहंगा और ऊँचा ब्लाउज
पहन रखा था। देखने में वह अधिक उम्र की नहीं लगती थी, पर ढीली
जवानी के चिन्ह साफ़ नज़र आते थे।
''सुना गौरी, अब तेरा घरवाला तुझे पीटता तो नहीं ?''
''वैसे ही पीटता है मालकिन। रोज
दारू पीता है, रोज पीटता है।''
''बच्चे का क्या हाल है ?''
''वो तो बीमार है जी। खाँसी और
बुखार तो पीछा ही नहीं छोड़ते।''
फिर काफी देर तक धोबिन भाभी के
आगे घरेलू जीवन के दुखड़ों की चर्चा करती रही। मैं धोबिन की दुखभरी बातें बड़े गौर से
सुन रहा था और बीच बीच में धोबी के रूखे व्यवहार के बारे में भी सोचता रहा था। मेरे
लिए यह सबकुछ नया था।
उठते समय धोबिन ने भाभी से पूछा-
''ये कौन हैं मालकिन ?''
भाभी ने हँसकर उत्तर दिया-
''यह मेरा देवर है। देख,
है न कितना सुंदर। शरीफ। मैं इसके साथ विवाह करवा लूँगी। सरदार तो अब
बूढ़ा हो गया है।''
धोबिन एक क्षण मुस्करा कर चली
गई और मेरे साथ तो पूछो ही नहीं, क्या हुआ।
कई दिनों तक मैं अपनी माँओं जैसी
भाभी के आगे आँखें न उठा सका और भाभी के खुले दिल पर अत्यंत हैरान होता रहा।
(जारी…)
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