पंजाबी लघुकथा : आज तक
>> मंगलवार, 8 जनवरी 2013
पंजाबी लघुकथा
: आज तक(11)
'पंजाबी
लघुकथा : आज तक' के अन्तर्गत अब तक आप कथाकार भूपिंदर सिंह,
हमदर्दवीर नौशहरवी, (स्व.)दर्शन मितवा, (स्व.)शरन मक्कड, सुलक्खन मीत, श्याम सुन्दर अग्रवाल, डॉ.
श्यामसुन्दर दीप्ति, (स्व.) जगदीश अरमानी, हेमकरन खेमकरनी तथा धर्मपाल साहिल की चुनिंदा
लघुकथाएं पढ़ चुके हैं। अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं- निरंजन बोहा की पाँच पंजाबी लघुकथाओं का हिंदी अनुवाद। निरंजन बोहा जी लघुकथा लेखक ही नहीं पंजाबी लघुकथा के युवा आलोचक भी हैं। इन्होंने कुछ कहानियाँ भी लिखी हैं
और लेखन के साथ साथ पंजाबी पत्रकारिता से भी वर्षों से जुड़े हुए हैं। इनकी लघुकथाएं समाज में व्याप्त विसंगतियों पर कटाक्ष करती हैं और मानवीय
सम्वेदना से भरपूर होती हैं। यहाँ प्रस्तुत हैं इनकी पाँच चुनिंदा लघुकथाओं
का हिंदी अनुवाद -
-सुभाष
नीरव
संपादक : कथा पंजाब
निरंजन बोहा की
पाँच लघुकथाएं
हिंदी अनुवाद
: सुभाष नीरव
बौने
अपने पति के
व्यवहार में आए परिवर्तन को महसूस करके वह खुश भी थी और आश्चर्यचकित भी। एक अरसे
बाद राजीव ने उसको भरपूर प्यार दिया था। थकावट और रात के उनींदेपन के कारण उसका
बिस्तर में से उठने को दिल नहीं कर रहा था। काफ़ी समय बाद पति के साथ बिताई हसीन
रात की याद को दिल की गहराइयों में सुरक्षित करने के लिए उसका अपना सारा ध्यान इस
ओर लगा हुआ था। मीठे-मीठे सुरूर के साथ उसकी आँखों की पलकें बंद हो गई थीं।
अपने पति की नज़रों में न तो
वह सुन्दर थी और न ही अक्ल की मालिक। पति के खानदान को वह जायदाद का वारिस भी नहीं
दे सकी थी। राजीव और अपने सास-ससुर की हर ज्यादती को बड़े सब्र के साथ सहन करने
योग्य तो उसने अपने आपको बना लिया था। पर जब कभी राजीव उसको तलाक देने की धमकी दे
देता तो उसकी सहनशक्ति जवाब दे जाती। वह घंटों रोने के लिए विवश हो जाती। अब तो दो
रातों के पति से मिलाप ने उसक सारे गिले-शिकवे दूर कर दिए थे।
''उठ हरामजादी! सात बजे गए,
अभी तक बिस्तर पर पसरी पड़ी है।'' राजीव ने
उसके हसीन सपनों को तोड़ते हुए उसको झिंझोड़कर जगा दिया। पति को पहले वाले रूप में
वापस आया देख वह काँप गई।
''उठ ! रोज़ मायके-मायके करती
थी... आज तुझे सदा के लिए मायके भेज दूँगा।'' उसका पति गरजा।
''सुबह सुबह यह आपको क्या हो
गया... रात में तो...।'' वह बात पूरी न कर सकी। उसका गला भर
आया।
''यह तेरी इस घर में आखिरी
रात थी... मैंने सोचा जाती बार का मज़ा ले लें।'' एक कमीनी
मुस्कराहट उसके पति के होंठों पर चिपकी थी।
पहली बार गुस्से में भरी एक
झनझनाहट उसके पूरे शरीर में से गुज़र गई। उसको लगा कि सचमुच उसका पति उसके योग्य
नहीं है।
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संबंध
अपनी बहन की
सहेली रीमा उसको बहुत अच्छी लगती। जब वह उसकी बहन के पास बैठी होती तो वह
बहाने-बेबहाने उसके पास चक्कर लगाता। रीमा भी उसकी चोर आँख को ताड़ने लग पड़ी थी, पर वह हमेशा शरम से अपनी आँखों को झुकाये रखती।
पिछले कई दिनों से रीमा उनके
घर नहीं आ रही थी। उसका दिल करता था कि वह अपनी बहन से उसके न आने का कारण पूछे,
पर बड़ी बहन से ऐसा पूछने का साहस वह न जुटा पाता। वह यह सोचकर बेचैन
था कि कहीं रीमा उसकी चाहत की बात उसकी बहन को न बता दे। उसकी बहन का रीमा के घर
में आना-जाना आम था।
उस दिन वह अपनी बहन के साथ
कैरम बोर्ड खेल रहा था तो कमरे में प्रवेश करते हुए एक सुन्दर-से नौजवान ने सीधे
उसकी बहन बिमला की ओर देखते हुए पूछा, ''इधर रीमा तो नहीं आई
?''
''नहीं, इधर तो नहीं आई। आप बैठो, मैं चाय बनाकर लाती हूँ।''
उसकी बहन ने विशेष तौर पर उस नौजवान को बैठने के लिए कहा और साथ ही
उसका परिचय करवाया, ''वीर जी, यह रीमा
के भाई पवन हैं।''
उसको लगा जैसे रीमा के भाई को
देखकर उसकी बहन की आँखों में एक विशेष चमक आ गई हो। उस दिन के बाद ही रीमा का उनके
यहाँ आना-जाना बदस्तूर जारी रहा, पर अब वह उस तरफ कम ही जाता
था, जिधर वह उसकी बहन के साथ बैठी होती। रीमा की अपने घर में
मौजूदगी उसको बुरी लगती और वह दिन रात सोचता रहता कि दोनों सहेलियों के संबंधों को
वह कैसे तोड़े।
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रिश्तों का सच
''शाम
के वक्त ग़ाँव से टेलीफोन आया था। बेबे बहुत बीमार है... बार-बार आपको याद कर रही
है।''
इस समय कोई बस भी तो गाँव
नहीं जाती। विवश होकर किराये पर जीप करनी पड़ी ताकि शीघ्र पहुँच कर जीते-जी बेबे का
मुँह देख सकें। पूरी राह पति-पत्नी बेबे की बातें करते रहे। परिवार के लिए बेबे की
देन को याद करते हुए दोनों के मुँह से उसकी तारीफ़ निकल रही थी।
धड़कते दिल से उन्होंने घर में
प्रवेश किया। आँगने में ही करीब के गाँव में ब्याही उसकी बड़ी बहन भी मिल पड़ी।
''रब ने हमारी सुन ली वीर।
बेबे तो रब के घर जाकर लौट आई है।'' बहन ने खुश होकर बताते
हुए भाई को बाहों में भर लिया।
वे अन्दर आ गए। बेबे सिरहाने
से पीठ टिकाये बैठी मुस्करा रही थी।
''आ गए बेटा !'' बेबे ने दोनों के सिर को सहलाते हुए प्यार दिया।
... पर बेबे की मुस्कराहट के जवाब में वे मुस्करा न सके।
बेबे ने वर्ष के शुरू में ही छुट्टियाँ खराब कर दीं। कल खन्ना साहब के घर में
पार्टी थी, वो भी गई। बेटा सोच रहा था।
'बूढ़ी ने मुफ्त में ही हजार रुपये का खून करा दिया।' बहू के माथे पर
त्यौरियाँ उभर आई थीं।
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अपना-अपना दर्द
भले ही उन्होंने यह रिश्ता बहुत देख-भाल कर किया था, पर विवाह के कुछ महीने
बाद ही लड़की का पक्का रंग लड़के को बहुत चुभने लगा था। वह सरेआम कहने लगा कि
माँ-बाप ने उसके साथ बेइंसाफी की है। लड़के ने पत्नी से बात करना तक बंद कर दिया।
आखिर, लड़के के बाप को उन दोनों का तलाक करवाने के विषय में सोचने पर विवश होना पड़ा।
लेकिन इतने बड़े अहम फैसले के लिए उसने अपने दामाद और बेटी के साथ सलाह-मशवरा कर
लेना मुनासिब समझा।
''ठीक है... अगर लड़के को लड़की पसंद ही नहीं तो एक तरफ करो!'' दामाद ने एकदम फ़ैसला
सुना दिया।
पास बैठी बेटी चुपचाप उठकर अपनी भाभी के कमरे में चली गई और उसकी छाती से लगकर
रोने लगी। अपनी बढ़ती बीमारी और पति के दिनोंदिन रूखे होते जा रहे व्यवहार को याद
कर वह काँप उठी। पति द्वारा सुनाए गए फैसले में उसे अपना भविष्य भी नज़र आ रहा था।
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शीशा
सुबह से ही मैं अपनी नई कहानी लिखने की कोशिश कर रहा था। लेकिन कहानी के
पात्रों की उलझी हुई डोर सुलझाने के चक्कर में मैं स्वयं उलझकर रह गया। कहानी का
प्रभावशाली अंत मुझे नहीं सूझ रहा था। दिन के बारह बज गए लेकिन मेरे द्वारा कागज
लिख-लिखकर फाड़ देने का क्रम जारी था।
''आपने अभी तक नाश्ता भी नहीं किया। मुझे सरला के घर उसकी लड़की को शगुन डालने
जाना था।'' पत्नी ने डरते-डरते मेरे कमरे का दरवाज़ा खोला।
''बीस बार कहा है, जब मैं लिख रहा होऊँ, मुझे परेशान मत किया कर। पर तेरे पर तो कोई असर होता ही नहीं।'' मैंने गुस्से में
पत्नी को झिड़क दिया।
वह कुछ नहीं बोली लेकिन गुस्से और मायूसी के भाव उसके चेहरे पर साफ़ झलक रहे
थे। मैं फिर कहानी के प्लॉट में जोड़-तोड़ करने के लिए किसी नए नुक्ते के बारे में
सोचने लगा।
''पापा, आज छुट्टी है। आपने हमें रोज-गार्डन ले
जाने का वायदा किया था।'' मेरी पाँचवर्षीय बेटी जसमीत ने पीछे से आकर मेरे गले में बाहें डाल दीं।
कहानी की ओर से एकाग्रता दूसरी बार भंग होने पर मैंने अपनी बेटी की बांह पकड़कर
उसे दूर धकेल दिया और ज़ोर से गरजा, ''इन्हें संभालकर रखा कर। सारे टब्बर का दिमाग पता
नहीं क्यों काम नहीं करता।''
जसमीत ऊँची आवाज़ में रोने लगी। पत्नी ने बेटी को गोद में उठाया और गंभीर स्वर
में बोली, ''आप घर के जीते-जागते पात्रों की भावनाओं से तो इंसाफ कर नहीं सकते, कहानी के कल्पित
पात्रों को आपसे क्या आस हो सकती है।''
कलम मेरे हाथ से गिर पड़ी। मैं अवाक् नज़रों से पत्नी की ओर देखता भर रह गया।
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जन्म : 6 सितम्बर 1956
पंजाबी लघुकथा के सशक्त हस्ताक्षर एवं आलोचक। सवा सौ से अधिक संग्रहों में
लघुकथाएं संकलित। आलोचना में सत्तर से अधिक आलेख प्रकाशित। एक कहानी संगह 'पूरा मर्द' तथा एक लघकथा संग्रह 'हड़ताल जारी है' का संपादन।
संप्रति : समाजसेवा एवं फोटोग्राफी।
सम्पर्क : गाँव व डाकखाना : बोहा, जिला-मानसा (पंजाब)
फोन : 08968282700
ई मेल : niranjanboha@yahoo.com
2 टिप्पणियाँ:
सभी कथाएँ मन को छूने वाली हैं । साधुवाद!
लघुकथाएँ अच्छी लगी।
पर एक साथ इतनी कथाएँ न देँ।
।।।
http://yuvaam.blogspot.com/2013_01_01_archive.html?m=0
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