आत्मकथा/स्व-जीवनी
>> मंगलवार, 8 जनवरी 2013
पंजाबी के एक जाने-माने लेखक प्रेम प्रकाश का जन्म ज़िला-लुधियाना के खन्ना
शहर में 26 मार्च 1932(सरकारी काग़ज़ों में 7 अप्रैल 1932) को हुआ। यह 'खन्नवी' उपनाम से
भी 1955 से 1958 तक लिखते रहे।
एम.ए.(उर्दू) तक शिक्षा प्राप्त प्रेम प्रकाश 'रोज़ाना मिलाप'
और 'रोज़ाना हिंद समाचार' अख़बारों में पत्रकारिता से जुड़े रहे। 1990 से 2010
तक साहित्यिक पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका 'लकीर'
निकालते रहे। लीक से हटकर सोचने और करने में विश्वास रखने वाले इस
लेखक को भीड़ का लेखक बनना कतई पसन्द नहीं। अपने एक इंटरव्यू में 'अब अगर कहानी में स्त्री का ज़िक्र न हो तो मेरा पेन नहीं चलता' कहने वाले प्रेम प्रकाश स्त्री-पुरुष के आपसी संबंधों की पेचीदा गांठों
को अपनी कहानियों में खोलते रहे हैं। यह पंजाबी के एकमात्र ऐसे सफल लेखक रहे हैं
जिसने स्त्री-पुरुष संबंधों और वर्जित रिश्तों की ढेरों कामयाब कहानियाँ पंजाबी
साहित्य को दी हैं। इनकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि मनुष्य मन की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर
गांठों को पकड़ने में सफल रही हैं।
कहानी संग्रह 'कुझ अणकिहा वी' पर 1992 मे
साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त यह लेखक अस्सी वर्ष की उम्र में भी पहले जैसी
ऊर्जा और शक्ति से निरंतर लेखनरत हैं। इनके कहानी संग्रह के नाम हैं - 'कच्चघड़े'(1966), 'नमाज़ी'(1971), 'मुक्ति'(1980), 'श्वेताम्बर ने कहा था'(1983),
'प्रेम कहानियाँ'(1986), 'कुझ अनकिहा वी'(1990),
'रंगमंच दे भिख्सू'(1995), 'कथा-अनंत'(समग्र कहानियाँ)(1995), 'सुणदैं ख़लीफ़ा'(2001),
'पदमा दा पैर'(2009)। एक कहानी संग्रह 'डेड लाइन' हिंदी में तथा एक कहानी संग्रह अंग्रेजी
में 'द शॉल्डर बैग एंड अदर स्टोरीज़' (2005)भी प्रकाशित। इसके अतिरिक्त एक उपन्यास 'दस्तावेज़'
1990 में। आत्मकथा 'बंदे अंदर बंदे'
(1993) तथा 'आत्ममाया'( 2005) में प्रकाशित। कई पुस्तकों का संपादन जिनमें 'चौथी
कूट'(1996), 'नाग लोक'(1998),'दास्तान'(1999),
'मुहब्बतां'(2002), 'गंढां'(2003) तथा 'जुगलबंदियां'(2005) प्रमुख
हैं। पंजाबी में मौलिक लेखक के साथ साथ ढेरों पुस्तकों का अन्य भाषाओं से पंजाबी
में अनुवाद भी किया जिनमें उर्दू के कहानीकार सुरेन्द्र प्रकाश का कहानी संग्रह 'बाज़गोई' का अनुवाद 'मुड़ उही
कहाणी', बंगला कहानीकार महाश्वेता देवी की चुनिंदा कहानियाँ,
हिंदी से 'बंदी जीवन'- क्रांतिकारी
शुचिंदर नाथ सानियाल की आत्मकथा, प्रेमचन्द का उपन्यास 'गोदान', 'निर्मला', सुरेन्द्र
वर्मा का उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' तथा
काशीनाथ सिंह की चुनिंदा कहानियाँ आदि प्रमुख अनुवाद कृतियाँ हैं।
सम्मान : पंजाब साहित्य अकादमी(1982),
गुरूनानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर द्वारा भाई
वीर सिंह वारतक पुरस्कार(1986), साहित्य अकादमी, दिल्ली(1992), पंजाबी अकादमी, दिल्ली(1994),
पंजाबी साहित्य अकादमी, लुधियाना(1996),
कथा सम्मान,कथा संस्थान, दिल्ली(1996-97), सिरोमणि साहित्यकार, भाषा विभाग, पंजाब(2002) तथा
साहित्य रत्न, भाषा विभाग, पंजाब(2011)
सम्पर्क : 593, मोता
सिंह नगर, जालंधर-144001(पंजाब)
फोन : 0181-2231941
ई मेल : prem_lakeer@yahoo.com
आत्म माया
प्रेम प्रकाश
हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव
'मुक्ति' वाली सुषमा
यह वो समय था जब मेरा मन काफ़ी स्थिर था। लगता था, बेचैनी का दौर समाप्त हो गया है। मोता सिंह नगर के नये घर
में रहने का आनन्द आने लग पड़ा था। मैंने दो गायें रखी हुई थीं। घर में दूध-घी की बहार
थी। रोज़ खीर या गजरेला धरा जाता था। मेरी सेहत अच्छी होती जाती थी। मैं 'दस्तावेज़' की अच्छी-बुरी बहस से बाहर निकल आया था। तब
मैंने कहानी 'मुक्ति' कुछ डरते-डरते लिखी।
मेरी कहानी 'मुक्ति' की नायिका सुषमा का असली नाम पुरानी बूढ़ियों
वाल 'चम्पा' था। परंतु व्यवहार से वह एकदम
नये ज़माने की औरत थी। हमेशा फिल्मी दुनिया की नायिका की भाँति बन ठन कर रहने और जीने
वाली। वह खराब हालात में भी गाती और चहकती रहती थी। उनका नया घर नकोदर वाली रेलवे लाइन
के करीब नई बस रही आबादी में था जिसका अभी कोई नाम नहीं रखा गया था। आसपास खेत थे जिनमें
फसलें बोई हुई थीं।
मुझे उसके घर डॉक्टर
शर्मा लेकर गया था। शर्मा का क्लीनिक किसी बस्ती में था। चम्पा के कोई औलाद नहीं थी।
एक बच्चा होकर मर चुका था। वह अपना इलाज डॉक्टर शर्मा की डॉक्टर पत्नी से करवाती थी।
शर्मा के साथ बातें करती थी। उसको शर्मा से प्यार भी था, मुझे
ऐसा लगता था। शर्मा शौकिया कहानी लिखता था। वह साहित्य खूब पढ़ता था। उसको भी साहित्य
और फिल्मों की बातें करने का शौक था।
डॉक्टर शर्मा के
साथ मैं अरबन एस्टेट में कोई प्लाट या दुकान देखने गया था। वह अपना क्लीनिक इधर लाना
चाहता था। घर के करीब। नई पढ़ी-लिखी आबादी में। वह लौटते हुए कहता, ''चलो, चम्पा से मिल आएँ। बड़ा अच्छा गाती है।''
उसका नाम 'सुषमा' डॉक्टर
द्वारा रखा हुआ था। पता नहीं क्यों रखा था। वह उसके कालेज समय से परिचित थी, पर दोस्ती
कुछ देर पहले ही हुई थी। डॉक्टर ने नये खुले एक रेस्टोरेंट से दो चिकन ले लिए थे।
घर पहुँचे तो वह
अंदर ही थी और उसका अलसेशियन कुत्ता ज़रा ऊँची आवाज़ में भौंक कर पूंछ हिलाने लग पड़ा
था। चम्पा अंदर से खुशबू बिखेरती इस तरह बाहर आई मानो अभी-अभी
नहाकर उसने मेकअप किया हो। पर उसका चेहरा इतना दिलकश नहीं था जितनी प्रशंसा डॉक्टर
करता रहता था। वैसे नयन-नक्श बहुत तीखे थे। रंग गोरा था। जिस्म भरा हुआ। डॉक्टर ने
मेरा परिचय पहले उर्दू अख़बार के एडिटर के तौर पर और फिर पंजाबी के कहानीकार के तौर
पर करवाया। उसने हँसते हुए हाथ जोड़कर 'नमस्ते' की।
बड़ी मज़बूत कदकाठी
की वह हँसने-खेलने वाली औरत धीरे-धीरे मुझे भी सुन्दर लगने लग पड़ी थी। उसका रंग हल्का
पक्का था, पर नक्श तीखे थे। हँसती थी तो बायीं गाल में गड्ढ़ा
पड़ता था। उसके बाल लंबे और काले-स्याह थे। उसके औलाद नहीं थी। इसका उसके चेहरे पर कोई
मलाल दिखाई नहीं देता था। डॉक्टर से चिकन पकड़कर वह किचन में ले गई। डॉक्टर ने खुद ही
उसके फ्रिज में से बियर की बोतल निकाल ली। चम्पा गिलास ले आई। परंतु उसने स्वयं बहुत
थोड़ी-सी ली। मेरे लिए यह हैरान वाली बात थी कि कोई औरत किसी पराये मर्द के पास बैठकर
शराब पी ले। शराब न सही, बियर ही सही। बाद में तो वह मेरे साथ
सिगरेट का कश भी लगाने लग पड़ी थी। परंतु उसके ये सभी लक्षण किसी ज़रूरत के लिए नहीं
थे। वह तो बस फिल्मी दुनिया में उड़ती दिखाई देती थी। उस दिन उसका पति दिल्ली से आने
वाला था। हम जितनी देर वहाँ बैठकर खाते-पीते और बातें करते रहे, उसका कुत्ता दरवाज़े में बैठा हमारी ओर बडे गौर से ताकता रहा।
उनकी बातों से पता
चला कि उसका पति बलविंदर कुमार पहले सर्जिकल टूल्ज़ तैयार करने वाली अपने बाप की छोटी-सी
फैक्टरी में काम करता था। गत वर्ष एक अन्य भाई का विवाह हो गया तो इन्हें अलग कर दिया
गया। ये लोग अपना नया मकान खरीद कर इधर रहने लग पड़े। उसका पति अब अपनी कंपनी के साथ-साथ
अन्य कंपनियों के माल का भी सेल्ज़ एजेंट था। आम तौर पर दिन में टूर करके शाम को घर
लौट आता था। कभी-कभी रात में बाहर भी रहना पड़ता था। एक कमरे में
उसका छोटा देवर सोता था। वह काम भी करता था और साथ-साथ पढ़ता भी था। वह सबसे छोटा था।
चम्पा ने खुद भी
होम्योपैथी का कोर्स किया हुआ था और वह शाम को एक घंटे के लिए गरीबों की किसी बस्ती
की डिस्पेंसरी में मरीज़ों को देखती थी। मेडिकल प्रोफेसन के कारण ही उसकी डॉक्टर शर्मा
और उसकी पत्नी से मित्रता थी। कई बीमारियों के लिए डॉक्टर शर्मा स्वयं होम्योपैथी की
दवाइयों को प्रयोग करता था और चम्पा एलोपैथी की दवाइयों का। चम्पा को नित्य नई निकलने
वाली दवाइयों और बीमारियों के विषय में जानने की इच्छा लगी रहती थी। मुझे लगा कि वह
कुछ बनना चाहती है, फिल्मी नायिका न सही, कच्ची-पककी डॉक्टर ही सही।
बातों-बातों में सुषमा ने मुझसे कहानियों की पुस्तक मंगवाते हुए कहा था,
''कभी हमें भी दर्शन करवा दो।'' मुझे लगा था कि
अब चाहे डॉक्टर आए या न आए, मैं अवश्य आऊँगा इस घर में। मेरा
इधर आम तौर पर चक्कर लगता रहता था। उस औरत की आवाज़ इतनी अच्छी नहीं थी, पर उसके देखने के अंदाज़ और उसकी मुस्कान में जादू था। या फिर, यह जादू मुझे ही लगा था। मुझे लगा कि जब यह मोटी-मोटी
आँखों से देखती थी तो उसका सब कुछ सुन्दर लगने लग पड़ता था।
कुछ दिनों पश्चात
ही मैं एक दिन उसके घर गया तो उसका पति भी घर में ही था। मैं उसके लिए अपने दोनों कहानी
संग्रह 'कच्चकड़े' और 'नमाज़ी' ले गया था। बलविंदर मुझे रूखा-सा लगा। मैं जल्द
ही लौट आया।
फिर एक दिन वह मुझे
बस-स्टैंड की ओर से रिक्शे में आती हुई मिल गई। वह मुझे अपने संग ही घर ले गई। वह खुश
थी। फिल्मी गीत सुनाती रही। मुझे ऐसी औरतों के बारे में अनुभव हो चुका था। सो,
मैंने पहल कर ली। उसने मुझे कुबूल कर लिया। हमने एक ही मुलाकात में सारी
मंज़िलें तय कर लीं।
जब मैं लौटने लगा
तो उसने मुझे अपने गेट के पास रखा तुलसी के बूटे का गमला दिखाकर कहा, ''इसका कली किया हुआ सफेद हिस्सा दिखाई दे तो आ जाना। लाल रंग वाला दिखे तो खतरा
समझकर लौट जाना।'' गमले की यह निशानी देखकर मेरे साइकिल ने पता
नहीं मुझसे कितने चक्कर लगवाये होंगे।
एक दिन उसने पहाड़ों
पर जाने का कार्यक्रम बना लिया। उसने मुझसे कहा, ''तीन दिन की
छुट्टी ले ले। पालमपुर के पास मेरी मौसी है। तुझे मैं एक साधु आश्रम में कमरा दिलवा
दूँगी। तुझसे मिलने मैं वहीं आऊँगी।''
सुनिश्चित किए दिन
को मैं स्टेशन पर जाकर टिकट लेकर प्लेटफॉर्म पर बैठ गया। उसको उसका पति रेल में चढ़ाने
आया था। वह जिस डिब्बे में चढ़ी मैं उससे अगले डिब्बे में बैठ गया था। अगले स्टेशन पर
मैं उसके पास आ गया था। उसने मेरे लिए सीट रखी हुई थी। उसने बैग में से कई पैकेट निकाले।
हम नाश्ता करते हुए एक-दूसरे को देखकर इस तरह मुस्करा रहे थे मानो कोई फिल्मी जोड़ी
यात्रा कर रही हो। पठानकोट तक हमने इतनी बातें कीं कि अब सोच कर हैरानी होती है कि
आख़िर हमारे पास विषय कौन-सा था।
हम पठानकोट से जोगिंदर
नगर जाने वाली छोटी लाइन की ट्रेन में जा बैठे थे। छोटी ट्रेन में सफ़र करने का रोमांस
ही और था। हम कांगड़े वाली माता के पीले वस्त्रों वाले भक्तों के साथ 'जैकारे' लगाते रहे थे। कांगड़े से आगे पूरा डिब्बा खाली
हो गया था। ट्रेन ऊँची पहाड़ियों के पुल पार करती आहिस्ता-आहिस्ता बल खाती आगे बढ़ रही
थी। पहाड़, पहाड़ियों के मोड़, काले बादल,
काली होती हरियाली... चारों ओर सब कुछ सुन्दर-सुन्दर लगता था। हम अकेले
थे। मुझे शरारते सूझने लग पड़ी थीं। उसने मुझे दो मिनट रुकने का इशारा किया था और स्वयं
टॉयलेट में जा घुसी थी। लौटकर आई तो जैसे नहाई हुई हो। पूरा मेकअप किया हुआ और लंबे
बाल कंधों पर फैलाये हुए थे। माथे पर बिंदी, आँखों में काजल की
चमक थी। उसने दायें हाथ में पकड़कर अपनी लाल साड़ी का पल्ला लहराया था। उसे वैसे ही उठाये-उठाये
घूम गई थी, एक चक्कर लगाया था। मेरे सामने आई थी। आँखों,
भौंहों और हाथों की हरकतें करती हुई सुषमा ने फिल्मी गीत गुनगुनाया
था। छोटी ताल पर नाचती हुई मेरे पास आई थी। आँखों में आँखें डालकर गाती रही थी। फिर
हम दोनों वे हरकतें करने लग पड़े थे, जो नायक-नायिकायें
फिल्मी पर्दे पर करते हुए भी दिखाये नहीं जा सकते। किए और मित्रों को बताये अवश्य जा
सकते हैं।
पालमपुर से तीन
स्टेशन पहले हम उतर गए थे। छोटे-से स्टेशन पर कोई कुली नहीं था। सुषमा ने किसी मुसाफ़िर
के साथ बात की तो वह उसका बैग लेकर चल पड़ा। राह में साधु आश्रम आया। उसने मुझे एक साधु
का नाम बताया और सवेरे मिलने का वायदा करके खुद किसी गाँव की ओर चली गई थी।
आश्रम में उस साधु
सहित पाँच-छह लोग थे। रोटी तैयार हो रही थी। उन्होंने मुझे भी शामिल कर लिया। रात में
सोने के लिए चारपाई मिल गई थी। सवेरे सूर्योदय से पहले ही सुषमा आ गई। हल्की ठंड होने
के कारण उसने रंग-बिरंगा पुलओवर पहन रखा था। हम पूर्व दिशा में पहाड़ियों पर चढ़ते-उतरते
कितनी ही दूर निकल गए थे। वह तो यह दृश्य देखकर जैसे पगला ही गई थी। उसने अपना पुलओवर
उतारकर पहले कंधों पर और फिर एक पत्थर पर रख दिया था। वह फिल्मी धुनें गुनगुनाते हुए
नाच रही थी। मैं उसके संग चले जा रहा था। आगे एक पहाड़ी की ओट में पत्थर की चट्टान की
छत-सी बनी हुई थी। ओट देखकर मुझमें भी शैतानी आ गई थी। हम काफ़ी देर अपने आपस से और
एक-दूसरे से कल्लोल करते खेलते रहे थे। वह भागकर कहीं छिप जाती थी और मैं उसको खोजकर
चूमता हुआ गूंध देता था। वह मुझे दूर धकेलते हुए खिलखिलाकर हँसती थी। मुझे दूर धकेलती
भी थी और करीब आने का इशारा भी करती थी।
लौटते हुए हम एक
अन्य पगडंडी पर पड़ गए। हमें राह में तीन-चार घर मिले। कच्चे लिपे हुए चबूतरे पर एक
माई बैठी थी। उसके पास बकरी बँधी हुई थी। हमने उस माई से लेकर पानी पिया और फिर यह
कहकर चाय बनवाई कि हम पैसे देंगे...। चाय लेकर हम लक्कड़ के चार खम्भों पर धरती से चार
फीट ऊपर खड़े लकड़ी के खाली कमरे में घुस गए थे। उसकी चारों खिड़कियों को पल्ले नहीं लगे
हुए थे। उसके नीचे बकरियों की मींगने और गायों के गोबर के निशान थे। दुर्गन्ध लगातार
आती रही थी। बकरियाँ रात में यहाँ बैठा करती होंगी। हम एक दूसरे का हाथ थामे कितनी
देर अन्दर घास-फूस पर बैठे-लेटे बातें करते थकान उतारते रहे थे।
उस लकड़ी के कमरे
में लकड़ी की मूर्तियाँ दो आलों में रखी हुई थीं। सुषमा ने हनुमान जी की मूर्ति को माथा
टेका और वहाँ से अंगूठा लगाकर सिंधूर पहले मेरे माथे पर और फिर अपने माथे पर लगा लिया
था। मेरा नास्तिक मन साथ वाले आले में पड़े टूटे शीशे में अपना चेहरा देखकर गंभीर हो
गया था। मुझे लगा था कि जहाँ जिस जगह पर टीका लगा है, उस जगह
पर माथा गरम हो गया है। मैंने सुषमा को अपनी बाहों में कस लिया था। मुझे सारी एक्टिंग
भूल गई थी। तभी सुषमा अपने को छुड़ाकर माई के पैसे देने चली गई थी। माई दरवाज़ा बंद करके
जाने लगी थी। पैसे उसने बहुत मुश्किल से लिए।
फिर हम आश्रम गए।
आचार्य जी से मिले। उस पाठशाला का काम कुछ सरकारी मदद, कुछ साथ
लगी ज़मीन और कुछ दान आदि से चलता था। अधिकांश दान एक साधारण-सा राजा देता था। गुरू
जी ने हमें भोजन के लिए रोका तो हम रुक गए। दाल और दही पतले थे। शायद हमारी वजह से
पतले करने पड़े थे। पर लिपी हुई जगह पर विद्यार्थियों के बीच बैठ कर भोजन करने का अपना
ही स्वाद था। थकान होने के कारण भूख भी चमकी हुई थी।
विश्राम के लिए
हमें कच्ची सीढ़ियों वाला ऊँचा कमरा दे दिया गया। आसपास ऊँचे दरख्त थे। हम बहुत देर
तक धर्म और अधर्म, नैतिकता और अनैतिकता और नरक-स्वर्ग की बातें
करते रहे। मानो हमें धर्म का दौरा पड़ गया हो। मैंने उसे चुप करवाने के बाद उसी कमरे
में रात काटने के लिए कहा था। वह मानी नहीं थी। फिर मैंने उसे अपने संग ले जाने अथवा
निकट के शहर के होटल में एक रात काटने के लिए कहा। मैंने भी हठ की और उसको 'उधार की हुई रात' देने को कहा। 'एक रात के उधार' वाली बात इस प्रकार बनी थी कि एक बार
उसके घर के मुझे चार-पाँच चक्कर लगाने पड़ गए थे। मैं जब भी जाता, उसके गेट के पास दीवार पर पड़े तुलसी के बूटे वाले गमले का लाल रंग वाला हिस्सा
दिखाई देता। जो कि ख़तरे की निशानी था। दूसरे दिन उसने मुझे वायदा किया था कि वह कभी
न कभी मेरे साथ एक रात इकट्ठा गुजारेगी। इस प्रकार मेरी एक रात उस पर उधार हो गई थी।
मैं वही लेने के लिए जिद्द कर रहा था।
उसने मुझे बहलाने
के लिए मेरा हाथ पकड़कर दबाया और इशारे से ओट में होकर खड़ी हो गई। हम जो कुछ किए जाते
थे, उसके साथ मेरी बेचैनी कम होने की बजाय बढ़ती जा रही थी। मुझे
अपने आप पर नियंत्रण नहीं रहा था। पर तभी दो विद्यार्थी हमारे कमरे के नीचे आ खड़े हुए
थे। हम चुप थे परंतु हमारे साँसों की आवाज़ दूर तक जाती थी। सुषमा ने पहले हाथ जोड़े
और फिर कपड़े संवारकर झट से नीचे उतरते हुए बोली, ''आओ लाइब्रेरी
देखते हैं। फिर मुझे गाँव भी जाना है।''
मुझे लाइब्रेरी
देखने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। मैं दुखी बंदा उसके साथ-साथ चलता रहा था। वह आचार्य
के साथ बातें करती रही थी और मैं उसके चेहरे पर आँखें गड़ाये एकटक देखता रहा था।
शाम होने पर मेरी
बात अनसुनी करके वह उठी और यह कहकर किसी राही के साथ उसी गाँव की ओर चल पड़ी थी कि कल
सवेरे नौ बजे की ट्रेन पकड़ेंगे। दूसरे दिन वह उसी तरह मुझे ट्रेन में मिली थी। उसका
भाई उसको छोड़ने आया था। मैं उसी प्रकार अगले स्टेशन पर उसके पास चला गया था। लौटते
समय का सफ़र उतना सुखद नहीं था। काफ़ी समय चुप में निकल जाता था। मेरे मन में कुछ गिले-शिकवे
भी थे। सिर्फ़ इतना ही सुख था कि हम दोनों पति-पत्नी की तरह यात्रा कर रहे थे।
एक सुबह मैं उसके
घर गया तो वह रूखे स्वर में बोली, ''मेरी तबियत ठीक नहीं।''
मेरी समझ में कुछ
नहीं आया। मैं लौट आया। फिर वह बीमार रहने लग पड़ी थी। डॉक्टर शर्मा कहता था कि इसको
डिप्रैशन हो गया है। इसे बच्चा न होने का दु:ख तंग करने लग पड़ा है। वह चुप्पी साधे
हमारी ओर देखती रहती थी। दिनोंदिन ढलती जा रही थी। बलविंदर कुमार का कारोबार भी जमा
नहीं था। अंत में वह दिल्ली चले गए। फिर एक दिन आकर मकान भी बेच गए। बाद में,
समाचार
मिलते रहे कि अब वे बहुत खुश हैं। कुछ वर्ष पहले एक बार डॉक्टर शर्मा ने बताया था कि बलविंदर और सुषमा
अब बड़े लोग हो गए हैं। वे जालंधर आते हैं परंतु किसी से मिले बग़ैर लौट जाते हैं।
जिन दिनों में मैं
सुषमा के साथ पहाड़ों की सैर पर गया था, उम दिनों लौटने के बाद मैं अपने पिता और दादा की कुछ
बातों से परेशान-सा हो गया था। जिनमें कुछ सच भी था और कुछ मेरे वहम भी थे। उन्हीं
दिनों सुबह के समय कामरेड केवल कौर के घर मेरा जाना-आना हुआ करता था। मैं केवल कौर
से बातें करते हुए थक जाता तो सीधे सुषमा के घर में जा घुसता था। यह जा घुसना सीधा
नहीं होता था। शर्त यह थी कि उसके गेट वाली दीवार पर रखे तुलसी के बूटे वाले गमले का
सफ़ेद वाला हिस्सा बाहर की ओर हो, तभी। जिस दिन यह सफेद रंग मेरे
भाग्य में होता, उस दिन मैं सीधे अन्दर जा घुसता। वह कहीं भी
होती, किचन या बैड रूम में, मैं उसे बांहों
में कस लेता था। वह रस्मी-सा गुस्सा करती। घूरती और फिर स्वयं ही लिपटने लग जाती थी।
वह मेरे संकेत पर पूरे घर के पर्दे ठीक कर देती थी। सारे काम छोड़ देती थी। फिर फिल्मी
अंदाज़ में कल्लोल करती। गुनगुनाती। और हम सारी दुनिया से बेख़बर हो जाते। हमारी यह आदत
इतनी बढ़ गई थी कि वह खुद कहने लग पड़ी थी कि मुझे तो तेरी 'एडिक्शन'
हो गई है। मुझे ले बैठेगा यह तेरा नशा...। मुझे भी कई बार घर जाते हुए
यह लगता था कि हम तो बिलकुल ही पशु हो गए हैं। हमारे बीच दोस्तों वाली भावना तो कभी
कभार ही दिखाई देती है। क्या हम कामुक भूख के मारे एक-दूजे को मिलते हैं ? प्रतीक्षा करते हैं इतनी इतनी देर ? कुछ भी हो,
यह सच्चाई थी कि काम की इतनी उत्तेजना ही नहीं, तृप्ति की भी, मैं कहीं
ओर कल्पना नहीं कर सका था। यह भी मेरे लिए रहस्य था। जिसकी समझ मुझे कभी नहीं आई। मैं
किसी भी स्त्री की संगत में होऊँ, किसी के साथ बाते करूँ,
मैं बहुत नार्मल होकर विचरता हूँ। परंतु उसके पास बैठते ही, उसको देखते ही मेरी चेतना सुन्न होने लग पड़ती थी। मुझे यह सुन्नता अंधी करती
रहती थी।
सुषमा जिन रंगों
में खेलती थी, वे शायद ही किसी औरत के नसीब में हों। उन रंगों
में मेरा हिस्सेदार होना भी मेरी ज़िन्दगी की बहुत बड़ी घटना थी। सुषमा दूसरी आम स्त्रियों
के उलट जब छिपकर प्यार करती थी तो दबंग और बेलगाम हो जाती थी। वह अपने आसपास को भूल
कर दो जिस्मों की खेल मे गर्क हो जाती थी। जितनी उसकी चेतना उत्तेजित होती थी,
उससे कहीं अधिक अवचेतन के इशारे से उसका जिस्म जाग कर भड़क उठता था। वह
औरत वाली सारी शरमोहया अंदुरूनी वस्त्रों की भाँति एक तरफ उतार फेंकती थी। वह अधमरी
लोथ बनकर नहीं लेटती थी, अपितु मेरे से अधिक एक्टिव हो जाती थी।
फिर मुझे हर नई हरकत के लिए हुक्म देने लग पड़ती थी।
पता नहीं,
वह अंग्रेजी फिल्में देखती थी या अंग्रेजी उपन्यास पढ़ती थी, उस भावुक-उत्तेजित अवस्था में वह अंग्रेजी बोलने लग पड़ती थी। जैसे मैं शराबी
होने पर बोलने लगता था। मैं हँसकर उसको कहा करता था - यह तुझे अंग्रेजी कैसे चढ़ जाती
है ? वह कभी मद्धम और कभी चीखते स्वर में कहती, ''हिट...हाट। लैट इट बी... लैट इट।... डिग... पील... रिप्प।'' वह ऐसी बातें कहती मुझसे थी, पर किए खुद जाती थी।
वह कभी स्वार्थी
नहीं हुआ करती थी कि ज़रूरत ख़त्म होने पर दूर हो जाए। वह मेरा बहुत ख़याल रखती थी। मेरा
मन खुश रखने के लिए वह अपने दुखों की भी परवाह नहीं करती थी। फिर हम अदरक वाली चाय
या कॉफ़ी पिया करते थे। कभी-कभी आमलेट-ब्रैड खाते थे। भूख बहुत चमक जो पड़ती थी। खाते-पीते
और बातें करते हुए कभी-कभी उसको देखकर मुझे कपूरथले के महाराजा की रानी गोबिंद कौर या
दुनिया में मशहूर चित्रकार अमृता शेरगिल का ख़याल आ जाया करता था। मैं उन दोनों के विषय
में उसको बताता भी रहता था। वह सुनकर मुस्कराती रहती थी।
रानी गोबिंद कौर
का ज़िक्र दीवान जर्मनी दास ने अपनी पुस्तक 'महाराजा' में बहुत खुलकर किया है। उस रानी को रात में मिलने के लिए महाराजा तो कभी हिसाब
से ही आता था, पर रोज़ कई महाराजाओं की ज़रूरत पड़ती थी। उसने पहली
दोस्ती रियासत के मुसलमान महामंत्री से गांठी। रोज़ की चोरी-छिपे की मुलाकातों के लिए
रानी ने अपनी महल से एक सुरंग महामंत्री की कोठी तक खुदवाई। जब भी अवसर मिलता,
वह दोनों इकट्ठे हो जाया करते थे। महाराजा ने निगरानी सख्त की तो वह
किसी अहलकार को अपने महल में बुलाने लग पड़ी थी। फिर राजा ने उसको अकेला ही अलग महल
में बंद कर दिया और चारों तरफ़ ऊँची-ऊँची दीवारें और द्वारों पर बन्दूकों वाले संतरियों
का पहरा बिठा दिया।... रानी ने कुछ दिन मुश्किल में काटे। फिर उसने सशस्त्र संतरी के
साथ ही काम चला लिया। राजा ने और सख्ती की तो वह रानी उस जाट संतरी के साथ भागकर अंग्रेजी
सरकार के इलाके में जा छिपी। फिर वह उस गरीब जाट से विवाह करवाकर उसके साथ बस गई थी।
सुषमा को मैंने
चित्रकार अमृता शेरगिल की बात पहली बार सुनाई थी तो वह पहले खूब हँसी थी और मुझे चालाकी
से ऐसी बातें करने वाला फरेबी आदमी बताती रही थी। परंतु मैंने उसको उन दिनों पढ़ी एन.के.एस.
इकबाल की पुस्तक लाकर दिखा दी थी। इस पुस्तक में यह सारी घटना इस हवाले से लिखी हुई
थी कि अमृता ने यह बात स्वयं अपनी रिश्ते की बहन को लिखी चिट्ठी में लिखी थी। यह जानकर
सुषमा जो मुझे ऐसी कहानियाँ सुनाने वाला 'चीटर' और 'सैल्फिश' कहती थी, खुद अमृता शेरगिल की बातें बड़ी दिलचस्पी से करने लग पड़ी थी। पुस्तक में क्या
लिखा था, मुझे अब याद नहीं। इतनी बात याद है कि अमृता शेरगिल
शिमला की किसी पहाड़ी पर बने मकान के कमरे में ईज़ल पर लगे चित्र को पूरा करने में बहुत
दिनों से लगी हुई थी। जब उसको लगा कि अब यह कलाकृति सम्पूर्ण हो गई है तो उसका मन खिल
उठा। वह ब्रुश छोड़कर अपने स्टूल पर से उतर कर कालीन पर लेट गई। सामने वाली खिड़की में
से सूरज की किरणों का हल्का-हल्का सेक अंदर आ रहा था। वह जिस्म फैलाकर आँखें मूंद कर
लेटी रही। जब उसकी आँख खुली तो खिड़की में कोई जर्मन नस्ल का व्यक्ति उसके चित्र या
उसको देख रहा था। वह अचानक खिड़की में से कूद कर अंदर आ घुसा। बग़ैर कोई बात किए वे दोनों
इकट्ठा हो गए। जुड़ गए। जब जुदा हुए तो वह व्यक्ति वैसे ही खिड़की के रास्ते कूदकर बाहर
चला गया, जैसे वह आया था।
अमृता शेरगिल अपनी
चिट्ठी में लिखती है कि वह आदमी उसको दो बार फिर मिला। एक बार शिमला और दूसरी बार लाहौर
की किसी आर्ट गैलरी में चित्रों की प्रदर्शनी पर। परंतु उन दोनों के बीच फिर भी कोई
बात न हुई। दोनों अजनबियों की भाँति अपनी अपनी राह चले गए।... एक ऐसी ही घटना सुषमा
और मेरे बीच हुई थी।
तब मैं अख़बार के
दफ्तर से छुट्टी पर था। दोपहर के बाद मेरा मन टिक नहीं पा रहा था। मन और तन दोनों ही
स्थिर नहीं हो पा रहे थे। मैं तीन साढ़े तीन बजे साइकिल उठाकर सुषमा के चला गया। उसके
गेट पर रखे तुलसी के गमले का लाल हिस्सा बाहर की ओर था। जिसका अर्थ था कि अंदर ख़तरा
है। तब भी मैंने परवाह नहीं की। गेट खड़का दिया। वह अंदर से निकली तो उसकी आँखें लाल
थीं। सोई हुई उठकर आई थी। मैंने सोचा कि अब वह बिगड़ जाएगी। अंदर पता नहीं कौन हो।...
पर वह घर में अकेली ही थी। गमले को इसलिए नहीं घुमाया था कि उसको मेरे आने की उम्मीद
ही नहीं थी।
जब मैंने अंदर जाकर
अपने मन की बात बताई तो वह बहुत हँसी। बोली, ''मुझे अभी-अभी आए
सपने में तू दिखाई दिया था। मैंने कहा कि चल घर चले तो तू बोला - हम इस दरख्त की ओट
में हो जाते है।'' हम तभी सचमुच बेशर्मों वाली हरकतें करने लग
पड़े। अभी हमारी हरकतें पूरी तरह ख़त्म भी नहीं हुई थीं कि बाहर गेट पर खड़का हुआ। बलविंदर
कुमार दौरे पर से लौट आया था। वह शर्बत पीते हुए मेरे साथ बातें करता रहा और सुषमा
खाना तैयार करने लग पड़ी। मैं गिलास रखने के बहाने रसोई में गया। हमारी नज़रें मिलीं।
दोनों दुखी थे। तभी बलविंदर कुमार ने पूछा, ''घर में दही है क्या
?''
सुषमा तुरंत छोटा-सा
डोलू ले आई। बोली, ''यह हो। ले आओ पाव भर दही।... इस चौक वाले
से न लाना, खट्टी होती है। परले मंदिर वाले चौक से गूंगे हलवाई
से लाना।''
मैंने कहा,
''लाओ, मैं ला दूँ।'' पर
बलविंदर कुमार न माना। वह मेरा साइकिल उठाकर चला गया। सुषमा ने बेशर्मों वाली बाकी
की सारी रस्में सात मिनट में पूरी कर लीं। बलविंदर पूरे बारह मिनट बाद लौटा था। हम
बिलकुल नॉर्मल हुए बैठे थे। वह रोटी खाने लगा तो मैं उठकर अपने घर की ओर चल पड़ा।
सुषमा की बहुत सारी
बातें मैंने ओम प्रकाश को बता दी थीं। यदि कभी नहीं बताता था तो वह खुद ही पूछ लेता
था, ''गया नहीं फिर दूसरी तरफ़ बहने ?'' वह सुषमा की तरफ़ मेरे जाने को 'दो तरफ़ बहना' कहा करता था। मैं उसको उसकी हर बात बड़ी खोलकर बता देता था। कभी तो नमक-मिर्च
भी लगा देता था। वह बड़ा खुश होता था और मुझे शाबाशी देता हुआ कहता था, ''अल्ला दित्तियाँ गाजरां, तू विच्चे रंबा रख।'' (ईश्वर ने
तुझे गाजरे दी हैं, तू अपनी खुरपी बीच में ही रख।)
जब कभी मैं सुषमा
की कोई बात नहीं बताता था तो ओम प्रकाश कुरेदने वाले सवाल करता, ''फिर कैसे बीती ?''
मैं उसको कई बातें
सच-सच भी बता देता और कुछ ऐसी भी जिनकी उसको आस या प्रतीक्षा होती थी। वह सवाल करता,
''भई, उसकी तरफ़ से पहल करने वाली बात हैरान करने
वाली है।'' मैं उसको यह बात बताकर भी हैरान कर देता कि दूसरे
कमरे में उसका देवर बैठा होता है और वह मुझे आकर चूम लेती है।
सुषमा की बातें
जब कभी मैं कहानीकार दिलजीत सिंह को बता देता था तो वह मुँह बनाकर कह देता था,
''बकवास, सब कोरी कल्पना।'' जब उसने मेरी कहानी 'मुक्ति' प्रकाशित
होने पर पढ़ी थी, वह तब भी उसे कल्पित कहानी कहता था। जब मेरी
अन्य ऐसी कई कहानियाँ छपीं, वह तब भी एक नया दर्शन यह पैदा कर
लेता था कि यह काम की अंतहीन भूख है जो कहानियाँ लिखवाए जाती है। जो व्यक्ति प्यार
से अघा जाता है, वह तो इसकी बात करने से भी हट जाता है। प्रेम
ऐसी सारी बातें करना चाहता है, पर जब वास्तविक जीवन में नहीं
होतीं तो यह कल्पना कर करके कहानियाँ लिखे जाता है।
परंतु, इस कहानी की नायिका सुषमा का असली रूप तो वह नहीं जो कहानी में प्रस्तुत हुआ
है। उसका रूप, उसका सहज स्वाद, उसकी बात
करने की तमीज़दारी और अच्छे पहरावे वाली संस्कृति... असल में यह सुषमा के दो पात्रों
के जोड़-मेल से बनी है। जब उसके साथ मेरी आत्मीयता बन रही थी तो मेरी संगत एक दूसरी
पढ़ी लिखी और कोमल कलाओं में रची-बसी रहने वाली स्त्री के साथ हो गई थी। वह शहर के पॉश
इलाके की खुले आँगन वाली कोठी में रहती थी। हम पहली बार कहाँ मिले थे, मुझे ठीक से याद नहीं। शायद कॉफ़ी हाउस में मिले थे। उसने साथ
वाली मेज़ पर से उठकर जाते समय मेरे पास आकर मुझे सम्बोधित होकर पूछा था, ''तुम राइटर हो ?''
मैं डर गया था।
फिर हौसले के साथ कहा था, ''वह क्या होता है ?'' वह मुस्करा पड़ी थी। मैं अपने आप में आ गया था। ''अच्छा,
फिर मिलेंगे।'' कहकर वह सीढ़ियों के सिरे पर खड़े
अपने संग आए व्यक्ति के साथ जा मिली थी। महीने भर बाद फिर मिली तो सीधी मेरी मेज़ पर
आ बैठी थी। उसको मेरे बारे में सब बातें मालूम थीं कि मैं अख़बार में नौकरी करता हूँ,
कहानियाँ लिखता हूँ और एक साहित्यिक पत्रिका 'लकीर'
निकालता हूँ। वह स्वयं कहानी और कविता लिखती थी। उसने अमृता प्रीतम,
गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी और नानक सिंह को बहुत पढ़ा हुआ था। उसकी सोच में
गुरबख्श सिंह के शब्द और अमृता प्रीतम का लहजा था। वह नानक सिंह के स्त्री पात्रों
की तरह जीना चाहती थी। इन लेखकों ने सारी पीढ़ी को रोमांटिक बना रखा था। मुझे उससे मिलकर
खुशी सिर्फ़ इस बात पर हुई कि वह सुन्दर थी।... कुछ दिनों बाद वह मुझसे मिलने मेरे घर
आ गई थी। अपने घर का निमंत्रण देते हुए उसने नक्शा बनाकर मुझे समझाया था।
एक दिन मैं चला
ही गया। वह बहुत खुश थी। उसका छोटा-सा बेटा भी सुन्दर था। घर कमाल का सजा-संवरा हुआ
था। असल में, मुझे दूसरों के सजे घर इसलिए भी अच्छे लगते हैं
कि मैं अपने घर को बिलकुल नहीं सजाता। चाय पीते हुए की गई बातों से पता चला कि हमारे
बीच विचारों की कोई सांझ नहीं है। परंतु, वह बहुत कोमल दिल वाली
थी। उसकी आवाज़ में रस था। उसकी बैठने-उठने की बॉडी लैग्वेंज इतनी सुन्दर लगी कि मैं
विचारों को भूलकर उसके साथ मित्रता करने को उतावला हो गया। और शीघ्र ही हम दोस्त बन
गए। फिर हम जब भी जहाँ भी मिलते, साहित्य, संगीत और चित्रकारी की बातें करते रहते। मुझे उसकी बातें यद्यपि ठीक न भी लगतीं,
फिर भी मैं विरोध कम करता था। उसकी कई पसंदों को ठीक मान लेता था। अपनी
इस कमज़ोरी के बारे में सोचते हुए मुझे लगता था कि मुझे उसके साथ प्यार होने लग पड़ा
है।... उन दिनों में जब मैं सुषमा से मिलता था तो मैं उसका हो जाता था।
यह असली कहानी थी
जिसका पता नहीं मैंने क्या का क्या बना दिया या मेरे से बन गया। सुषमा और उसके पति
के बीच लड़ाई और सुषमा के प्रेमी दोस्त और उसकी पत्नी के बीच लड़ाई और फिर तलाक... ये
बातें पता नहीं मेरे पास कहाँ से आ गईं। पति-पत्नी की लड़ाई का मेरे पास कोई अनुभव नहीं
था। मैंने सुषमा और उसके पति की लडाई की बातें सुनी थीं।
मैं स्वयं जब यह
कहानी पढ़ता हूँ तो इसमें जब सुषमा मृत्यु के निकट होती है तो उसके दुख मेरे लिए सहन
करना कठिन हो जाते हैं। जब उसको उसका प्रेमी मिलने आता है और पति का व्यवहार बहुत रूखा
हो गया होता है। ये सब पढ़ते हुए मुझे परेशानी होने लगती है। मेरा मन सुषमा के लिए भर
आता है।
पर, पता नहीं या मुझे याद नहीं कि बीमार होकर मर रही किसी जवान औरत के सिरहाने
बैठकर उसके साथ इतनी मुहब्बत महसूस करने का अनुभव मुझे कहाँ से मिला है।... मुझे धुंधला-सा
याद है कि एक बार कहानी 'मुक्ति' में आने
वाली सुषमा गंभीर रूप से बीमार हो गई थी। उसका पति बलविंदर टूर पर होने के कारण उसकी
इतनी देखभाल नहीं कर सकता था। डॉक्टर शर्मा उसका इलाज किसी दूसरे डॉक्टर से करवाता
था। मेरे पास काफ़ी फ़ुरसत होती थी। मैं उसकी मेडिकल टैस्ट की रिपोर्टें और दवाइयाँ लाकर
दे देता था और उसके पास बैठा रहता था। वह काफ़ी तंग थी अपनी बीमारी से। मुझे उसके करीब
बैठना भी अच्छा लगता था। तब कभी-कभी मुझे महसूस होता था कि जिस्म के लोभ में मैं इसके
पीछे पागल हुआ जो कुछ करता रहा, सो ठीक, पर अब मैं प्यार की असली भावना को महसूस करता हूँ। यह नि:स्वार्थ प्रेम ही
असली है। शायद, यह अनुभव बदलकर घटना का रूप धारण कर गया हो या
यह छोटी-सी घटना पहले भावना बनकर मेरे अंदर फैली हो और उसने कहानी के उस हिस्से को
जन्म दिया हो। सच क्या है ? यह कौन जान सकता है ?
(जारी)
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