पंजाबी उपन्यास

>> मंगलवार, 8 जनवरी 2013



बलबीर मोमी अक्तूबर 1982 से कैनेडा में प्रवास कर रहे हैं। वह बेहद सज्जन और मिलनसार इंसान ही नहीं, एक सुलझे हुए समर्थ लेखक भी हैं। प्रवास में रहकर पिछले 19-20 वर्षों से वह निरंतर अपनी माँ-बोली पंजाबी की सेवा, साहित्य सृजन और पत्रकारिता के माध्यम से कर रहे हैं। पाँच कहानी संग्रह [मसालेवाला घोड़ा(1959,1973), जे मैं मर जावां(1965), शीशे दा समुंदर(1968), फुल्ल खिड़े हन(1971)(संपादन), सर दा बुझा(1973)],तीन उपन्यास [जीजा जी(1961), पीला गुलाब(1975) और इक फुल्ल मेरा वी(1986)], दो नाटक [नौकरियाँ ही नौकरियाँ(1960), लौढ़ा वेला (1961) तथा कुछ एकांकी नाटक], एक आत्मकथा - किहो जिहा सी जीवन के अलावा अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मौलिक लेखन के साथ-साथ मोमी जी ने पंजाबी में अनेक पुस्तकों का अनुवाद भी किया है जिनमे प्रमुख हैं सआदत हसन मंटो की उर्दू कहानियाँ- टोभा  टेक सिंह(1975), नंगियाँ आवाज़ां(1980), अंग्रेज़ी नावल इमिग्रेंट का पंजाबी अनुवाद आवासी(1986), फ़ख्र जमाल के उपन्यास सत गवाचे लोक का लिपियंतर(1975), जयकांतन की तमिल कहानियों का हिन्दी से पंजाबी में अनुवाद।
देश विदेश के अनेक सम्मानों से सम्मानित बलबीर मोमी ब्रैम्पटन (कैनेडा) से प्रकाशित होने वाले पंजाबी अख़बारख़बरनामा (प्रिंट व नेट एडीशन) के संपादक हैं।

आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास पीला गुलाब भारत-पाक विभाजन की कड़वी यादों को समेटे हुए है। विस्थापितों द्बारा नई धरती पर अपनी जड़ें जमाने का संघर्ष तो है ही, निष्फल प्रेम की कहानी भी कहता है। कथा पंजाब में इसका धारावाहिक प्रकाशन करके हम प्रसन्नता अनुभव कर रहे हैं। प्रस्तुत है इस उपन्यास की आठवीं किस्त…
- सुभाष नीरव


पीला गुलाब
बलबीर सिंह मोमी

हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव


12

रात में देर तक पढ़ते रहने के कारण अगले दिन खूब दिन चढ़े तक मेरी नींद न खुली। दूसरी यह हॉस्टल की ज़िन्दगी मेरे लिए नई और अनोखी ज़िन्दगी थी। हॉस्टल के विद्यार्थी आधी आधी रात तक हो-हल्ला करते रहते थे। रात बारह बजे सोने पर सवेरे सात बजे से पहले मेरी आँख ही नहीं खुलती थी। हॉस्टल के जिस कमरे में मैं रहता था, वह कमरा वार्डन की कोठी के बहुत निकट था और इस कमरे का नंबर दस था। जैसा कि फर्स्ट इअर के विद्यार्थियों को पुराने विद्यार्थी मूर्ख बनाते हैं, ऐसे ही मुझे बहुत सारे दस नंबरी कहकर बुलाते थे। मैं अक्सर इनसे दूर ही रहता था। पर कितना भी दूर रहने की कोशिश करता, आख़िर रहना तो उनके बीच ही था। इसलिए उनके बीच से माला के मनके की तरह टूटना असंभव-सी बात थी।
      कुछ भी क्यों न हो, मुझे इस हॉस्टल की ज़िन्दगी से सख़्त घृणा थी। मेरे इस विचार से वहाँ का कोई भी लड़का सहमत प्रतीत नहीं होता था। वे सभी हॉस्टल के वातावरण के अभ्यस्त हो गए थे। मुझे प्राय: घर की याद सताती रहती थी। पता नहीं, मैं लड़कों के बीच रह क्यों नहीं सकता था। इसका एक अर्थ यह भी था कि वे मेरे पर रौब गालिब कर लेते थे।
      ये विद्यार्थी जब टोलियों में बैठकर बातें किया करते तो इनकी बातों का मुख्य विषय कालेज की लड़कियाँ ही हुआ करतीं। हर कोई अपनी जगह पर हीरो था। कोई कहता, ''मैंने आज बिमला के दुपट्टे से अपने बूट साफ़ किए हैं।'' कोई बताता, ''मैंने ललिता के ऊन के गोले में से सिलाई खींच ली थी।'' कोई कहता, ''मैंने संतोष से बॉयलोजी की किताब मांगी तो वह हँसकर बोली- अभी खाली नहीं।'' कोई कहता, ''बेंच के नीचे से गुरशरन का गिरा हुआ रूमाल मिला और मैं सारी रात छाती से लगाकर सोता रहा। कसम गुरू की, खूब नींद आई। रूमाल में से मौलसिरी की खुशबू आती थी।'' कोई अन्य कहने लगता, ''कमला बड़ी मगरूर है, किसी को नाक तले ही नहीं लाती।'' किसी को स्ट्राबरी से ख़ार थी कि वह बड़ी चुस्त थी। इन लड़कियों के साथ कैसे संबंध बढ़ाए जाएँ, यही सोचते हुए वे योजनाएँ बनाते रहते। इस बात को अगर मैं छुपाऊँ तो यह मेरी कमज़ोरी होगी कि मुझमें किसी लड़की से संबंध बढ़ाने का ख़याल ही उत्पन्न नहीं होता था, पर जिस सस्ते ढंग से दूसरे विद्यार्थी लड़कियों से संबंध बनाने की तरीके सोचते थे, वह तरीका मुझे कतई पसन्द नहीं था। प्रेम को लेकर मेरे दिल में बहुत ऊँची कल्पना थी। यदि कोई किसी लड़की की नज़रों में जंच सकने के योग्य था तो जद्दोज़हद करने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी।
      जिस कालेज में मैं शिक्षा प्राप्त कर रहा था, वह कोई प्रगतिशील विचारों वाला कालेज नहीं था। यह शहर भी कोई एडवांस्ड शहर नहीं था। कालेज में करीब सात सौ विद्यार्थी पढ़ते थे जिनमें सत्तर के आसपास लड़कियाँ थी। हर लड़के के दिल में तमन्ना थी, जज्बे थे और प्यार के वलवले थे, लेकिन लड़कियाँ रबड़ तो नहीं थी कि लड़कों के जज्बों के अनुसार खींच कर बढ़ाई जा सकें।
      कालेज के इस नए वातावरण में मैं अपने आप को एडजस्ट नहीं कर सका था। यहाँ मुझे और बहुत से कष्ट उठाने पड़ रहे थे। जैसे यहाँ सुबह के नाश्ते का कोई प्रबंध नहीं था। सिर्फ़ किचन में से दो वक्त क़ी रोटी ही मिलती थी। एक मामूली-सी दुकान थी जिसमें डालडे की गला ख़राब करने वाली मिठाइयाँ और सस्ती चाय या लस्सी का प्रबंध था। समोसे, पकोड़े और तली हुई मूंगी की दाल के अलावा शकरपारे, गुलाब जामुन और सूखी हुई बर्फ़ी के टुकड़े पड़े होते थे। यह सब कुछ मुझे पसंद नहीं था। हर तरफ़ शहीरी बनावटीपन की मुहर लगी हुई थी और मैं ग्रामीण स्पष्टता का प्रेमी था जहाँ बनावट और मिलावट कम थी। परंतु मेरी बात को समझने वाला वहाँ कौन था! डालडे की मिठाई और खट्टी लस्सी ने मेरा गला ख़राब कर दिया था और ख़राब गले के साथ मेरी यादें और अधिक ज़ख्मी हो गई थीं। सवेरे-सवेरे में मुझे माँ का लाड़ से जगाना और मक्खन में निचुड़ते उसके दिए हुए परांठे मुझे याद आते और व्याकुल कर जाते। मुझे कोई दु:ख है, इन बातों का जिक्र मैं किसी से नहीं करता था और बेसब्री से छुट्टियों की प्रतीक्षा करता रहता था।
      एक सुबह मैं अभी सोया ही पड़ा था कि दरवाज़ा खटका। हड़बड़ाकर मैं उठा और दरवाज़ा खोला। बाहर मेरी ग्यारह वर्षीय भतीजी और नौ वर्षीय भतीजा खड़े थे। उनके हाथों में लस्सी की लुटिया, परांठे और मक्खन था। दोनों बच्चों ने बड़े अदब से मुझे सत्श्री अकाल कहा और भतीजी जिसने पॉपलीन का प्रिंटिड फ्रॉक पहन रखा था, बड़ी भोली और मीठी आवाज में बोली, ''अंकल जी, मम्मी ने आपके लिए नाश्ता भेजा है।'' और भतीजा कहने लगा, ''और डैडी जी ने आपको बुलाया है।''
      मैंने दोनों को प्यार दिया और कहा, ''तुम बड़े अच्छे हो।'' और साथ ही मैं यह भी कह गया, ''ये नाश्ता भेजने की तकलीफ़ क्यों की ?'' फिर मैंने सोचा, ''ये छोटे हैं, इस बात को नहीं समझेंगे।''
      उन दोनों को मैं चित्रों वाली पत्रिका पकड़ाकर स्वयं टूथ ब्रश, पेस्ट, साबुन और तौलिया लेकर बाथरूम में चला गया। एक अजीब-सी उमंग में मैंने ठंडे पानी की धार के नीचे खड़े होकर अपने शरीर को पानी की मेहरबानी पर छोड़ दिया।
      नहाकर मैंने नाश्ता किया। कपड़े पहनकर दोनों बच्चों को संग ले भाई के घर की ओर चल पड़ा। भाई का घर हॉस्टल के करीब ही था। पता नहीं भाई ने क्यों बुलाया है, मैं राह में सोचता रहा था। अपने छोटे होने और उनके बड़े होने का भाव मेरे मन में एक भय की तरह छा गया था। जब मैं घर पहुँचा तो भाई साहब पलंग पर लेटे हुए कोई सरकारी कागज देख रहे थे।
      मैंने आदर से नमस्कार किया और उनके संकेत पर सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया। तभी, रसोई में से भाभी भी आ गई। मैंने झुक कर उनके चरण छुए और आशीर्वाद प्राप्त करके पुन: कुर्सी पर बैठ गया। भाभी भी साथ वाली कुर्सी पर बैठ गई। उसने कीमती साड़ी पहन रखी थी और साड़ी के बल बता रहे थे कि उसने रात में नाइट सूट की जगह साड़ी ही पहने रखी थी। अमीर बाप की बेटी छोटी-छोटी बचत को फिजूल समझती थी।
      भाई साहब कुछ देर कागज पढ़ते रहे। मैं और भाभी धीमे स्वर में बातें करते रहे। भाभी बार-बार यह पूछ रही थी कि हॉस्टल में दिल लगता है कि नहीं और मैं हर बार 'हाँ...हूँ' में उत्तर दे रहा था।
      आख़िर भाई साहब ने कागज देखने बंद कर दिए और मुझसे बेहद प्रेमपूर्वक पूछा, ''सुना भई, दिल लग गया हॉस्टल में ?''
      ''हाँ जी, लग ही गया है और लगाना ही पड़ता है।'' इतना भर कहते हुए ही मेरा गला खुश्क हो गया।
      ''मेरा विचार है कि तू हॉस्टल छोड़कर घर में आज जा। कौन-सा दूर है कालेज। मुझे अक्सर दौरे पर जाना पड़ता है और तेरी भाभी और बच्चे अकेले होते हैं। तू घर में होगा तो मुझे पीछे की चिंता नहीं रहेगी।''
      ''और फिर, यह कोई बेगाना है। घर रहेगा, घर की रोटी खाएगा, बच्चे इसके साथ रच-बस जाएँगे।'' भाभी ने भाई की बात की पुष्टि कर दी।
      मैं कोई उत्तर न दे सका। भाभी की रचने-बसने की बात मुझे उस वक्त तो पूरी तरह समझ में नहीं आई थी, अब मुझे महसूस होता है कि यह बड़ा नुक्ता था। मेरे आसपास जो ग्रामीणता की परत थी, भाभी उस परत को हटाकर भीतर की गिरी को परखना चाहती थी। 'रचने-बसने' को भला मैं क्या बच्चा हूँ!
      भाई ने दुबारा दोहरा कर मेरे से पूछा, ''क्यों भई, क्या ख़याल है फिर तेरा ?''
      इस बार भी मैं कोई उत्तर देने की हिम्मत न कर सका। उत्तर देते समय मेरी जबान फुक जाती थी और दिमाग के आगे एक झिझक आ जाती थी। अब मैं इस झूठ को भी क्यों छिपाऊँ ? इस झिझक के पीछे मेरे बापू के कुछ उसूल थे जिन्हें उसने मुझे समझाकर उन पर दृढ़ रहने का वायदा लिया था। सो, मैं सीधे तौर पर न भी नहीं कर सकता था। इसलिए बहाना बनकर वहाँ से चला आया कि अभी तो हॉस्टल और मैस का महीने भर का किराया भरा हुआ है। इसकी समाप्ति पर मैं आ जाऊँगा।
      कहने को तो मैं कह आया था, पर मुझे अंदर से डर लग रहा था। यही डर था जिसे मैं अपने और अपने पिता की आत्मा के बीच पवित्रता की एक सीमा समझता था। कहने को वह बेशक मुझसे कुछ न कहता, पर मेरे दिल को यह चोर बार-बार खाए जा रहा था।
      शनिवार मैं झोला हाथ में उठाये अपने गाँव की तरफ़ जा रहा था। इतवार के साथ लगने वाली सोमवार की भी किसी धार्मिक दिवस की छुट्टी थी।
      मैंने अपने आने के विषय में अपने घरवालों को कोई सूचना नहीं दी थी। यूँ अचानक पहुँच जाने को लेकर भीतर ही भीतर मैं डर रहा था, पर माँ के प्यार का नशा मेरे दिल-दिमाग पर पूरी तरह से चढ़ चुका था और मैं भागकर अपनी माँ की छाती से लग जाना चाहता था। मानसिक स्थितियों पर मेरा और मेरी माँ का सोचने का ढंग एक जैसा ही था। घर पहुँच कर मैंने माँ के चरण छुए और माँ ने मुझे अपनी छाती से कस कर चिपटा लिया। एक माँ के प्यार से विवश होकर उसने चूम चूमकर मेरा चेहरा गीला कर दिया। मेरी आँखों में इस मिलन के आँसू आ गए।
      जब मैं अपनी माँ से मिल रहा था तो मुक्ति मेरी ओर घूर घूरकर देख रही थी और फिर मुस्करा कर खिड़की में से एकदम से हट गई थी जैसे बिजली चमक कर लुप्त हो जाती है। माँ के प्यार के बाद मुझे मुक्ति के प्यार का अहसास बड़ी तीव्रता से उभरता महसूस हुआ। बापू जी नई ज़मीन से लौटकर नहीं आए थे।
      रात में सोने के लिए हमेशा की भाँति मेरा बिस्तर कोठे पर था। मैं ग्यारह बजे तक अपने बिस्तर में करवटें बदलता रहा। पता नहीं मुझे नींद क्यों नहीं आ रही थी। जितना मैं नींद को लाने की कोशिश करता, नींद उतना ही दूर भाग रही थी। मैंने घड़ी की ओर देखा। रेडियम की चमक से पता चला कि बारह बजे रहे थे। आसपास सब लोग गहरी नींद में सोये पडे थे। चाँद अब मेरे सिर पर आ गया था। उसकी निखरी चाँदनी के सम्मुख तारों की लौ बहुत मद्धम थी। इस चाँदनी रात में मैं और मेरा बिस्तर, मेरी सोच की उठा-पटक, पता नहीं कब आँख लग गई। इतना अवश्य याद है कि अभी आँख लगे को कुछ ही समय हुआ था कि मेरे सिर के बालों में हल्की-हल्की खाज महसूस हुई। मैंने सिर पर हाथ लगा कर देखा। अचानक जिस कोमल शै ने मेरे हाथ छुए, वह मुक्ति के हाथ थे। मेरी साँसें सूख गईं मानो नसों में खून जम गया हो। दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। बोलने की तो हिम्मत कतई नहीं रही थी। उसको कुछ नहीं कह सका था। न हाथ बढ़ सके और न शब्द सहारा दे सके। वह जैसे आई थी, वैसे ही धीरे-धीरे बिल्ली की तरह दबे पाँव वापस लौट गई। एक-एक करके सभी तारों ने अपना स्थान बदल लिया। चाँद का हुस्न भी मंद पड़ गया। चाँदनी रात अँधेरे के आगोश में आ बैठी और जब मेरी सुबह के समय आँख खुली तो मुझे रात की घटना पर विश्वास नहीं हो रहा था। मेरा सचेत मन यही कह रहा था कि मैंने रात में कोई सपना देखा था।
(जारी…)

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‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

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वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, मूल्य : 300 रुपये

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
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रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव

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यूनीस्टार बुक्स प्रायवेट लि0, एस सी ओ, 26-27, सेक्टर 31-ए, चण्डीगढ़-160022, मूल्य : 400 रुपये

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव
नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्या नगर सोसायटी, पटपड़गंज, दिल्ली-110032, मूल्य : 150 रुपये

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह) संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह)  संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नेहरू भवन, 5, इंस्टीट्यूशनल एरिया, वसंत कुंज, फेज-2, नई दिल्ली-110070, मूल्य :60 रुपये।

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, वर्ष 1998, 2004, मूल्य :35 रुपये

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-1100-6, मूल्य : 125 रुपये

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

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समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

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