पंजाबी कहानी : आज तक

>> रविवार, 9 दिसंबर 2012



पंजाबी कहानी : आज तक(13)


सांझ
गुरदयाल सिंह


रेल से उतरकर एक औरत असमंजस की स्थिति में इधर-उधर झाँक रही थी। बंतू टेढ़ा-सा होकर उसकी ओर बढ़ा। नज़र कुछ कमजोर-सी हो जाने के कारण उसे इतनी दूर से आदमी की पहचान नहीं होती थी। करीब जाकर गौर से देखा तो उसे गा मानो वह जै कौर हो।
      ''कौन है ?''
      ''मैं जै कौर।''
      ''तू यहाँ कैसे ?''
      और साथ ही साथ बंतू का मुँह खुला का खुला रह गया। जै कौर पल दो पल कुछ झिझकी, फिर धीमी आवाज़ में बोली, ''शहर से आई थी। बड़ी बहू अस्पताल में दाख़िल है।''
      ''ख़ैर तो है ?''
      ''हाँ, बच्चा होना है।''
      '', फिर चलें।''
      जै कौर को कोई जवाब न सूझा। वह दुविधा में पड़ गई। दिन छिप चला था और गाँव तक पहुँचते-पहुँचते रात की रोटी का समय हो जाना था। वाकई, गाड़ी से कोई तीसरा बन्दा नहीं उतरा था। पहले कभी गाड़ी इतनी देर से नहीं पहुँची थी। दिन के उजाले में ही पहुँच जाया करती थी पर, आज इतनी पिछड़ गई थी। एक बार उसके मन में आया कि रात यहीं अपनी भतीजी के घर बिता ले। लेकिन कल फिर उसे दोपहर की गाड़ी से लौटना था। घड़ी भर उसने सोचा और फिर सामने खड़े बंतू की ओर ध्यान से देखा। बंतू की आँखों में एक अनोखी चमक दिखी और उसका पूरा व्यवहार विनम्र-सा प्रतीत हुआ।
      ''अच्छा, चल।'' जै कौर ने मन कड़ा करके कहा।
      जब बंतू ने लम्बा डग भरा तो उसके सिर पर रखी सौदे-सुल्फे वाली गठरी डोल गई। उसने दोनों हाथों से उसे सम्भालते हुए यूँ पुचकारा जैसे शैतान बछड़े को टिका रहा हो। इसके बाद वह कुछ बुदबुदाया और फिर स्वयं ही मुस्करा पड़ा।
      ''और सुना जैकुरे...'' पुलकित स्वर में बंतू ने राह पकड़ते हुए बात छेड़ी, ''कबीलदारी तो ठीक ठाक है ?''
      ''सब किरपा है गुरु की।''
      ''शुक्र है, शुक्र है'' कहकर बंतू ने खाँसा, दायें-बायें देखा और छिपे सूरज की ढल रही लालिमा देखकर उसे किसी गुप्त खुशी का अनुभव हुआ। लेकिन अभी तक बाजरे के लम्बे सिट्टों की कोरों को चमकते देखकर उसने फिर नज़रें झुका लीं।
      चारों ओर इतना सन्नाटा था कि रास्ते के दोनों ओर खड़े घने दरख्तों के पत्तों में छिपी चिड़ियाँ जब उनकी पदचाप सुनकर एक साथ बोलने लगती थीं तो उनके शोर से आसमान फटने को हो जाता। जब चिड़ियाँ चुप हो जातीं तो फिर से वैसा ही सन्नाटा पसर जाता। बंतू कितनी ही दूर तक यूँ ही अपने पीछे-पीछे आती जै कौर की जूतियों की थाप सुनता रहा। इस आवाज़ में से उसे गुरुद्वारे में बजते 'ढोलकी-छैनों' की ताल की तरह झनकार सुनाई देती थी।
      ''हमें आपस में मिले, हो गए होंगे कई बरस जै कुरे ?''
      ''हाँ !'' जै कौर ने जैसे डरी हुई आवाज़ में उत्तर दिया।
      ''छह-सात बरस तो तू शायद अपने छोटे भतीजे के पास राजस्थान में भी रह कर आई है।''
      ''हाँ।''
      जै कौर ने आँखें ऊपर उठाकर बंतू की ओर देखा तो वह काँप उठी। वह खड़ा होकर पीछे की ओर देख रहा था और जूती के रेते को झाड़ने में लगा था। उसकी आँखें सूरज की ढलती लाली जैसी चमक से दिपदिपा रही थीं। पर, पर उसकी धौली दाढ़ी देखकर जै कौर का मन स्थिर हो गया। अब उसे बंतू से बिल्कुल भी कोई संकोच या डर नहीं लग रहा था। अब तक मानो उसे बंतू के इतना बूढ़ा हो जाने का ख़याल ही नहीं आया था। जब बंतू यूँ ही थोड़ा-सा मुस्कराकर आगे बढ़ा और उनके बीच का फासला एक कदम ही रह गया तो जै कौर उसके शरीर को ऐड़ी से लेकर सिर तक अच्छी तरह देख सकती थी। बंतू की पिंडलियाँ सूखकर लकड़ी जैसी हो गई थीं। गर्दन पर मांस लटक आया था। पीठ झुक चुकी थी और कन्धों के ऊपर की हड्डियाँ कटड़े के सींग की भाँति ऊपर की ओर उभर आई थीं। उसके कपड़ों में कितनी कितनी मैल थी।
      और, उस समय जै कौर की आँखों के सम्मुख एक और बंतू आ खड़ा हुआ... इस बंतू के माथे पर राजाओं जैसा तेज़ था ! लम्बा कद, भरवां शरीर, चौड़ी-मज़बूत छाती ओर रसीली आँखें जिनकी ताब झेली नहीं जाती थी। यही बंतू जब...
      जै कौर को उसी समय कंपकंपी छूट गई। वह फिर डरकर बंतू की ओर देखने लगी। लेकिन दूसरे ही पल उसके होंठों में से हँसी निकल गई।
      ''तू क्यों इतना कमजोर हुआ पड़ा है ?'' तरस भरी आवाज़ में मानो हमदर्दी जताते हुए जै कौर ने चुप को तोड़ा, ''कहीं बीमार-शिमार तो नहीं रहा ?''
      बंतू ने तभी एक गहरी साँस ली और उत्तर दिया, ''अब तो जै कुरे... बस, कुछ न पूछ !''
      ''कोई नहीं, इतना दिल नहीं हारा करते...'' जै कौर ने दिलासा दिया, ''घर घर में यही हाल है। कबीलदारी जो हुई, यह तो जंजाल ठहरा !''
      ''जंजाल तो है जै कुरे, पर जमाना इतना बुरा आ गया है कि कोई किसी की बात ही नहीं पूछता। यह मेरी उम्र भला अब धक्के खाने की है ?... दस बरस हो गए जब बेटों की जैदात (जायदाद) बांट दी थी, वही आँखें फेर गए। दोनों बहुएँ ऐसी चन्दरी(दुष्ट) आई हैं कि... कहती हैं, बस बुड्ढ़े की जितनी खाल उतारनी है, उतार लो, इसने कौन-सा दूसरे काम आना है। वक्त से रोटी नहीं देनी, नहाने को पानी नहीं देना, कपड़ा नहीं धोना...अच्छा, फिर किसी से क्या, सभी तरफ यही हाल है। अपनी लिखी भुगतनी है, जै कुरे !''
      जै कौर को बंतू एकाएक बच्चा-सा लगने लगा जो मार खाकर शिकायत कर रहा हो।
      ''कोई बात नहीं, इतना उदास नहीं हुआ करते।'' जै कौर कड़कदार स्वर में बोली, ''मेरे जैसों की ओर देख जो दर-दर भटकते फिरते हैं। एक तो रब ने सारी उम्र सुनी नहीं, ऊपर से भतीजों के दर पर धक्के खाने पड़े। भाइयों की बात और होती है। मन-आत्मा दुखी है। कहते हैं न - 'नानक दुखिया सब संसार !'  किसी के कोई वश है ? अपना बोया काटना है। कहते हैं - जेहा बीजे सो लुणे, करमां सन्दड़ा खेत !''
      जै कौर बोलती गई और बंतू के मन को ढाढ़स मिलता रहा। जैसे एक दुखी को देखकर दूसरे दुखी के मन को तसल्ली होती है, वैसी ही तसल्ली उसे हो रही थी। एक तरह से उससे भी अधिक क्योंकि जै कौर से उसकी गहरी आत्मीयता थी।
      बंतू ने बायीं ओर देखा। सूरज की लाली बिल्कुल ढल चुकी थी और निखरे आकाश में केई छोटे-छोटे तारे चमकने लग पड़े थे। हवा बन्द होने के कारण उमस बढ़ गई थी और 'चरी-गुआर' के पत्तों की खड़खड़ाहट भी सुनाई नहीं देती थी। रास्ता आगे जाकर और तंग हो गया था। जै कौर बेझिझक उसके पीछे-पीछे चली आ रही थी। उसकी भारी आवाज़, अभी तक अनढला शरीर, चौड़ा माथा, गोरा रंग और ढलते नैन-नक्श (जिनमें अभी भी औरत वाला खिंचाव था) उसे बहुत अच्छे लग रहे थे और एक बार खड़े होकर उसे देखने को उसका मन कर रहा था।
      ''जै कुरे, यह अपना खेत है।'' पैर मलते हुए जूती में से रेत झाड़ता हुआ बंतू एकाएक खड़ा हो गया था और दायीं ओर के घने नरमे की ओर हाथ करके उसे बता रहा था, ''इसबार पाँच-साढ़े पाँच घुमाव बोया है। वो...सामने शीशम के पेड़ तक।''
      जै कौर एकदम रुक गई। उसकी साँसें तेज़ हो उठीं और दिल ज़ोरों से धड़कने लग पड़ा। जिस शीशम के पेड़ की ओर बंतू ने इशारा किया था, यह...यह वही शीशम थी जिसके पास, आज से तीस-पैंतीस बरस पहले एक बार बंतू उसे घेरे खड़ा था और उसने बेझिझक जै कौर की बाँह पकड़ ली थी। उस समय जै कौर एकबारगी तो डर ही गई थी लेकिन फिर उसका मन किया था कि बंतू यूँ ही उसकी बांह पकड़े रहे। जै कौर को सचमुच कंपकंपी छूट गई। बंतू जूती में से रेता झाड़ने के बहाने कितनी ही देर तक आगे नहीं बढ़ा था और आँखें फाड़कर जै कौर की ओर देखे जा रहा था। जै कौर ने एक-दो बार उसकी ओर देखा और नज़रें झुका लीं। उसे बंतू से सच में डर लगने लगा और उसका झुर्रियों भरा चेहरा बड़ा घिनौना-सा लगा।
      ''उस शीशम के साथ ही बाजरा लगा है।'' बंतू ने मानो शरारत में कहा हो, ''मैंने तो कहा था, वहाँ भी नरमा बो देते हैं, पर तू तो समझदार है, बूढ़ों की कहाँ सुनी जाती है। सब अपनी अपनी मरजी करते हैं।''
      ''ठीक है, ठीक है।''
      ''वो शीशम, जै कुरे मेरे विवाह के वक्त बापू बेचने चला था, पर मैंने कहा - चाहे ज़मीन गिरवी धर दे लेकिन मैं यह शीशम नहीं बेचने दूँगा।''
      जै कौर के पूरे बदन में एक बार फिर सनसनाहट फैल गई। बंतू फिर से शीशम की बात छेड़े जा रहा था। अब जब वे फिर से रास्ते पर चलने लगे तो जै कौर आहिस्ता-आहिस्ता पीछे रह गई और उनके बीच का फासला पाँच-छह कदमों का हो गया। अब बंतू को जै कौर की पदचाप सुनाई नहीं दे रही थी। वह बोलते-बोलते फिर रुका और पीछे मुड़कर देखने लग पड़ा।
      ''आ जा, आ जा, बस अब तो आ ही गए,'' हौसला देते हुए बंतू ने कहा, ''वो सामने गाँव खड़ा है, अब कहाँ दूर है !''
      जै कौर ने निगाह ऊपर उठाकर देखा, गाँव आधे कोस की दूरी पर था। वह जल्दी जल्दी दो-तीन कदम बढ़ाकर फिर से बंतू के साथ आ मिली।
      ''जै कुरे... जब से तेरी भरजाई मरी है, लगता है जैसे यूँ ही साँसों को बिलो रहे हैं।''
      'तेरी भरजाई' शब्द जब बंतू ने कुछ दबाकर कहे तो जै कौर के होंठों पर हँसी फैल गई।
      ''जै कुरे !'' बंतू फिर बोला, ''उम्र उम्र की बातें हैं। जब जवान होते थे, कभी रब को याद नहीं किया था, पर अब लगता है, यूँ ही बेकार में दिन काटे जा रहे हैं। अगर मर जाएँ तो अच्छा ! पर मांगने से मौत भी कहाँ मिलती है।''
      ''रे, अभी किसलिए दुआएँ मांगता है मरने की ?'' जै कौर बोली, ''अपने पोतों के विवाह देखकर जाना। पड़ पोतों को खिला कर जाना। और फिर, पड़ पोतों का अरथी को हाथ लगे बिना तो गति भी नहीं होती।''
      बंतू का मन जै कौर की बात से किसी अजब रौ में बह चला। उसका जैसे एक ही वक्त में मरने को भी मन करता था और जीने को भी।
      ''बात तो तेरी ठीक है, पर क्या लेना अब घुटने घिसटकर। गति अपने आप होती रहेगी। यह कोई जून है ? सुबह होते ही कुत्ते की तरह पूरे टब्बर से 'दुर-दुर' करवाते फिरो। हँसकर कोई रोटी का टुकड़ा भी तो नहीं पकड़ाता।''
      जै कौर को बंतू की बात सच लगी। उसके मन में बंतू से वही गहरी सांझ उत्पन्न हो उठी जो आज से तीस-पैंतीस बरस पहले उत्पन्न हुई थी। जब वे दोनों एक जैसे कुआँरे थे। अभी भी दोनों एक जैसे थे - दूसरे के हाथों की ओर देखने को विवश। वह स्वयं बीस बरस बाल-बच्चे के लिए तरसती रही थी, पर किसी पीर-फकीर ने, किसी देवी-देवता ने उसकी झोली नहीं भरी थी। और आख़िर में उसके पति की अचानक हुई मौत ने सारी उम्मीद ही खत्म कर दी थी। और अब सात बरस हो गए, वह कभी चार दिन ससुराल में काट आती थी, और कभी मायके में। कभी भतीजियों के द्वारे आ बैठती थी। रोटी के लिए उसे किस-किस की गुलामी नहीं करनी पड़ी थी।
      ''इन बेटों-पोतों की गुलामी करके ही रोटी खानी पड़ती है, जै कुरे ! नहीं तो सात सौ गालियाँ देकर घर के बाहर वाले छप्पर के नीचे चारपाई डाल देते हैं - कुत्ते भगाने के लिए !''
      बंतू अभी अपनी ही राम कहानी सुनाए चला जा रहा था और धीरे-धीरे वह फिर से पहले वाली रौ में आता जा रहा था।
      ''जै कुरे, यह कोई जून है ? जब मरने के बाद कोई याद करने वाला ही न हो तो वह मौत भी कैसी ! अकेले आदमी की तो मौत को भी धिक्कार है।''
      बंतू बोलता जा रहा था, पर जै कौर का ध्यान अब उसकी बातों की ओर नहीं था। वह सामने गाँव के दीयों की ओर देख रही थी जो उसे किसी चिता की लपटों की रोशनी की भाँति दिख रहे थे।
मुड़कर उसने बंतू की ओर देखा। सूखे डंडों-सी उसकी टांगें अँधेरे में गुम हो गई थीं। उसका दुर्बल शरीर हिल रहा था। जै कौर को उस पर तरस आया।
''अच्छा, मैं बाहर वाली सड़क पर चलती हूँ।'' उसने बंतू से कहा, ''ज्यादा उदास न हुआ कर। जो चार दिन और काटने हैं, हँसकर काटें, रीं-रीं करने पर कोई हमें पलंग पर बिठाने वाला नहीं है।''
''सत्य है, सत्य है,'' कहता हुआ बंतू अपने रास्ते की ओर मुड़ गया।

गुरदयाल सिंह
जन्म : 10 जनवरी 1933
1957 में अपना साहित्यिक जीवन अपनी कहानी 'भागांवाले' से करने वाले गुरदयाल सिंह जी ने अपने उपन्यासों से पंजाबी साहित्य में एक अलग पहचान बनाई। 1964 में लिखा इनका लिखा उपन्यास  'मढ़ी का दीवा' एक बहु-चर्चित उपन्यास रहा जिस पर 1989 में फिल्म भी बनी। इसके अतिरिक्त  'अनहोए' 'रेत दी इक मुट्ठी', 'कुवेला', 'अध चाननी रात', 'अन्हे घोड़े दा दान', 'पौ फुटाले तों पहिलां' तथा 'परसा' भी उल्लेखनीय उपन्यास हैं। 12 कहानी संग्रह जिनमें 'सग्गी फुल्ल', 'कुत्ता ते आदमी', 'बेगाना पिंड' और 'करीर दी ढींगरी' शामिल हैं। 'धान दा बूटा', 'ओपरा घर', 'मस्ती बोटा', 'पक्का ठिकाना'(कहानी संग्रह) के अलावा इन्होंने नाटक भी लिखे हैं और बच्चों के लिए भी लेखन किया है। साहित्य अकादमी अवार्ड, ज्ञानपीठ अवार्ड, सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड, भाई वीर सिंह फिक्शन अवार्ड आदि से सम्मानित। कुछ नाटक और बाल लेखन भी। सम्पर्क : 4/54, जैतो-151202, जिला-फरीदकोट(पंजाब)। 


 

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ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

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संपादक – कथा पंजाब

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