आत्मकथा/स्व-जीवनी
>> रविवार, 9 दिसंबर 2012
पंजाबी के एक जाने-माने लेखक प्रेम प्रकाश का जन्म ज़िला-लुधियाना के खन्ना
शहर में 26 मार्च 1932(सरकारी काग़ज़ों में 7 अप्रैल 1932) को हुआ। यह 'खन्नवी' उपनाम से
भी 1955 से 1958 तक लिखते रहे।
एम.ए.(उर्दू) तक शिक्षा प्राप्त प्रेम प्रकाश 'रोज़ाना मिलाप'
और 'रोज़ाना हिंद समाचार' अख़बारों में पत्रकारिता से जुड़े रहे। 1990 से 2010
तक साहित्यिक पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका 'लकीर'
निकालते रहे। लीक से हटकर सोचने और करने में विश्वास रखने वाले इस
लेखक को भीड़ का लेखक बनना कतई पसन्द नहीं। अपने एक इंटरव्यू में 'अब अगर कहानी में स्त्री का ज़िक्र न हो तो मेरा पेन नहीं चलता' कहने वाले प्रेम प्रकाश स्त्री-पुरुष के आपसी संबंधों की पेचीदा गांठों
को अपनी कहानियों में खोलते रहे हैं। यह पंजाबी के एकमात्र ऐसे सफल लेखक रहे हैं
जिसने स्त्री-पुरुष संबंधों और वर्जित रिश्तों की ढेरों कामयाब कहानियाँ पंजाबी
साहित्य को दी हैं। इनकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि मनुष्य मन की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर
गांठों को पकड़ने में सफल रही हैं।
कहानी संग्रह 'कुझ अणकिहा वी' पर 1992 मे
साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त यह लेखक अस्सी वर्ष की उम्र में भी पहले जैसी
ऊर्जा और शक्ति से निरंतर लेखनरत हैं। इनके कहानी संग्रह के नाम हैं - 'कच्चघड़े'(1966), 'नमाज़ी'(1971), 'मुक्ति'(1980), 'श्वेताम्बर ने कहा था'(1983),
'प्रेम कहानियाँ'(1986), 'कुझ अनकिहा वी'(1990),
'रंगमंच दे भिख्सू'(1995), 'कथा-अनंत'(समग्र कहानियाँ)(1995), 'सुणदैं ख़लीफ़ा'(2001),
'पदमा दा पैर'(2009)। एक कहानी संग्रह 'डेड लाइन' हिंदी में तथा एक कहानी संग्रह अंग्रेजी
में 'द शॉल्डर बैग एंड अदर स्टोरीज़' (2005)भी प्रकाशित। इसके अतिरिक्त एक उपन्यास 'दस्तावेज़'
1990 में। आत्मकथा 'बंदे अंदर बंदे'
(1993) तथा 'आत्ममाया'( 2005) में प्रकाशित। कई पुस्तकों का संपादन जिनमें 'चौथी
कूट'(1996), 'नाग लोक'(1998),'दास्तान'(1999),
'मुहब्बतां'(2002), 'गंढां'(2003) तथा 'जुगलबंदियां'(2005) प्रमुख
हैं। पंजाबी में मौलिक लेखक के साथ साथ ढेरों पुस्तकों का अन्य भाषाओं से पंजाबी
में अनुवाद भी किया जिनमें उर्दू के कहानीकार सुरेन्द्र प्रकाश का कहानी संग्रह 'बाज़गोई' का अनुवाद 'मुड़ उही
कहाणी', बंगला कहानीकार महाश्वेता देवी की चुनिंदा कहानियाँ,
हिंदी से 'बंदी जीवन'- क्रांतिकारी
शुचिंदर नाथ सानियाल की आत्मकथा, प्रेमचन्द का उपन्यास 'गोदान', 'निर्मला', सुरेन्द्र
वर्मा का उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' तथा
काशीनाथ सिंह की चुनिंदा कहानियाँ आदि प्रमुख अनुवाद कृतियाँ हैं।
सम्मान : पंजाब साहित्य अकादमी(1982),
गुरूनानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर द्वारा भाई
वीर सिंह वारतक पुरस्कार(1986), साहित्य अकादमी, दिल्ली(1992), पंजाबी अकादमी, दिल्ली(1994),
पंजाबी साहित्य अकादमी, लुधियाना(1996),
कथा सम्मान,कथा संस्थान, दिल्ली(1996-97), सिरोमणि साहित्यकार, भाषा विभाग, पंजाब(2002) तथा
साहित्य रत्न, भाषा विभाग, पंजाब(2011)
सम्पर्क : 593, मोता
सिंह नगर, जालंधर-144001(पंजाब)
फोन : 0181-2231941
ई मेल : prem_lakeer@yahoo.com
आत्म माया
प्रेम प्रकाश
हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव
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अवचेतन का बुहारा हुआ सच
सपने में जागी रामकली
वह अजीब-सा सपना मुझे तब अक्सर आया करता था जब मुझे खन्ना से जालंधर आए को
बीस बरस का समय हो गया था। वैसे डरावने सपने तो मुझे निरंतर आते ही रहते थे, पर यह अजीब-सा सपना कभी-कभार आता था। यह कुछ सुखद था जिसमें
मेरा दुख टूटता था।... मुझे खन्ना वाला अपना उस समय का घर दिखाई देता था, जब मैं आठवीं-नौंवी कक्षा में पढ़ता था। बड़े दरवाजे और कच्चे फर्श और दो खिड़कियों
वाली ड्योढ़ी। आगे चौकोर आँगन, पक्की ईंटों के फर्श वाला। बगल
वाला हिस्सा कच्चा, गऊ के गोबर से लिपा हुआ। जहाँ दादी चूल्हा-चौका
करती थी। हम नई लिपी जगह पर बोरियाँ बिछा कर पालथी मारकर रोटी खाया करते थे। सामने
पक्की सीढ़ी। ऊपर दो चौबारे। गर्मियों में सीढ़ी से होकर हवा नीचे आती थी।
अब वह घर हालाँकि
बहुत बदल गया था। दीवारें, फर्श और दरवाजे-ख़िड़कियाँ सब कुछ बदल
गया था। सारा घर कीमती और सजावटी पत्थरों से सजा लिया गया था। इसमें मेरा सबसे छोटा
भाई और भतीजे रहते। मैं जब भी उस घर में जाता, अपनी कुछ निशानियाँ
खोज लेता। यह अल्मारी मेरी हुआ करती थी। इसमें मैं अपनी किताबें रखा करता था।... पर
मुझे सपने उसी पुराने घर के ही आते रहे। उसी कच्चे आँगन वाले घर के।
मुझे स्वप्न में
यही जगह दिखाई देती थी। सपने में समय पता नहीं रात के पहले पहर का होता या अन्तिम पहर
का। मैं बड़े चौबारे में से नींद में उठकर अर्द्ध-चेतनावस्था में सीढ़ियों के निचले स्टैप
पर आ बैठता हूँ। मैं कमर से नीचे नंगा हूँ। मैं काँप रहा हूँ। मुझे तेज़ बुखार चढ़ा हुआ
है। मेरा सारा शरीर दुख रहा है। मेरी आवाज़ सुनकर मेरी दादी दुखी होकर कहती है,
''हे राम, मेरा पुत्त ताप में जल रहा है।''
ड्योढ़ी में से मैली-सी
धोती वाली कोई पराई औरत आती है। मेरी दादी उसको कहती है, ''इसकी
धार निकाल दे भाई।''
वह जवान और भरपूर
देह वाली पूरबिया-सी लगती स्त्री मेरे पास आकर झुककर मेरी धार निकालती है। गाढ़े दूध
सी धारों का नाली में गिरना एक आवाज़ करता है- घर्र-घर्र की आवाज़ें। धार समाप्त होने
पर मेरा ताप उतर जाता है। धोती वाली औरत गायब हो जाती है।... मैं चौबारे में अपने बिस्तर
पर पड़ा जाग उठता हूँ। भीगे कपड़ों को ठीक करता हूँ। शर्मिंदा-सा होता हूँ। नींद टूट
जाती है।
यह सपना मुझे 30-32 साल की उम्र तक आता रहा था। जब पहली बार आया था तो मेरा विवाह नहीं हुआ था।
पर जब हो गया तब भी आने से नहीं हटा। सन् 1974 में इसमें यूँ
तो और भी कई तब्दीलियाँ दिखाई दे रही थीं, पर बड़ा फर्क यह पड़ा
था कि मुझे उस पराई औरत के स्थान पर मेरी कल्पना में सृजित राम कली दिखाई देने लग पड़ी
थी। पूरी राम कली तो नहीं, पर उससे मिलती-जुलती औरत। लाल किनारी
वाली धोती और गोरे गले में काली माला। बीच में चाँदी का तावीत, घंटी के नीचे हलक के गङ्ढे पर लटकता। उस समय मेरे मन में उसका कोई नाम नहीं
था।... पर जब वह मुझे जीवन में मिली तो उसका नाम राम कली था। कौन थी वह ? वह मेरे जीवन में कैसे दाख़िल हुई और कैसे निकल गई ? यह
मेरी पहली प्रेम कहानी थी।
शायद यह 1972 या 1973 की बात है। मुझे ज्योति चौक के करीब देसी शराब
के ठेके के साथ वाले अहाते के पास पनवाड़ी के खोखे पर एक शरीफ़-सा व्यक्ति बातें करता
हुआ मिला। उसकी बोली खन्ना इलाके की लगती थी। उससे बातें करते हुए मैंने पूछा कि कहाँ
का रहने वाला है। वह सुन्दर नहर पर पड़ने वाले दो पुलों के निकट के एक गाँव का था। उसका
नाम सोमदत्त शास्त्री था। स्थानीय स्कूल में हिंदी-संस्कृत का अध्यापक था। नौकरी अस्थाई
थी। माडल टाउन से परे और माडल हाउस कालोनी के बीच किसी डेयरी वाले के एक कमरे के मकान
में किराये पर रहता था। घर में पत्नी और एक बेटा था। हम खोखे पर ही दो-दो पैग लगाकर
बिछड़ गए।
कई दिनों बाद मैं
माडल हाउस की ओर से होते हुए कहानीकार दिलजीत सिंह के घर की तरफ़ जा रहा था। बूटा मंडी
के चौक में सोम दत्त मिल गया। अपने घर ले गया। घर तो ठीक था, एक कमरा और रसोई। पर आसपास पशुओं के गोबर और मूत्र की बदबू फैली हुई थी। वह
भैंसों की डेयरी के एक कोने में था। तभी सस्ता मिला था। उसकी पत्नी का नाम राम कली
था। वह गोरी, लम्बी और सुन्दर नयन-नक्श वाली थी। उसने कोई गहना
तो नहीं पहन रखा था पर गले में पहनी काली माला में तावीत पड़ा था। उनका बेटा मदन गोपाल
भी बड़ा प्यारा था। हम चाय पीते हुए अध्यापकों की दयनीय हालत को लेकर बातें करते रहे।
मैंने उसको बता दिया था कि पहले मैं भी प्राइमरी स्कूल में मास्टर हुआ करता था।
इस प्रकार कई मुलाकातें
हो गईं। मुझे हैरानी हुई कि वह कोई आम अध्यापक नहीं था। शास्त्रों के विषय में उन दोनों
पति-पत्नी का ज्ञान बहुत विशाल था। उसके दिमाग में पुराणों की कहानियों का खज़ाना था।
देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना की विधियों के बारे में जानने के लिए मेरे अंदर उत्सुकता
जाग्रत हो गई थी। मैं आर्य समाजी घर में से आया था। कभी किसी मंदिर में माथा नहीं टेका
था। सोम दत्त मुझे पुराणों की कहानियाँ सुनाता और मंदिरों के अंदर ले जाकर पूजा की
विधियों को भी बताया करता था। बातें करते हुए हम एक दो पैग भी लगा लेते और बीड़ियाँ
फूँकते रहते थे। उसने एक बार मुझे एक शिव मंदिर में ले जाकर अंदर बिठाकर शिवलिंग दिखाया,
जो बड़ी योनि में स्थित था। योनि और लिंग के सिरों पर नाग देवता का निवास
था। ऊँची तिपाई पर रखे घड़े में से बूँद-बूँद पानी लिंग पर टपक रहा था। सोम दत्त ने
बताया कि पुजारी लिंग को कच्ची लस्सी से स्नान करवाता है। मंदिर के दरवाज़े आम तौर पर
तंग और छोटे होते हैं। स्त्रियाँ खास तौर पर कुआँरी स्त्रियों का अंदर आकर पूजा करना
वर्जित है। बेल पत्र और फूल स्नान के बाद चढ़ाये जाते हैं। चमेली या मोतिये की कच्ची
कली का चढ़ाना निषेध है।
एकबार मैं गया तो
वह घर पर नहीं था। राम कली ने मुझे चाय पीने के लिए रोक लिया। वह भी पौराणिक कथाओं
का भंडार निकली। काफ़ी देर तक उसकी बातें सुनते-सुनते मेरे मन में उसके लिए आदरभाव पैदा
हो गया। जैसा कि गुरुओं को लेकर होता है। फिर एक दो बार अकेले में मिलने पर प्रेम जाग
पड़ा उसके लिए। जिसे मैल पैदा होना भी कहा जा सकता है। तभी मुझे अपना आप बुरा लगा। मेरे
अंदर अपने धर्म, अपने खानदान की शराफत और समाज के बनाये संस्कारों
को लेकर युद्ध होता रहा। मेरा आदर्श खन्ना का बनाया हुआ था कि किसी भी मित्र की बहन
को हमेशा बहन ही समझना है। दोस्त की पत्नी को मैली दृष्टि से देखना घोर पाप है। मैं
यद्यपि नास्तिक था। किसी धर्म या परमात्मा को नहीं मानता था। फिर भी, मैं संस्कारों में बुरी तरह बंधा हुआ था। राम कली के संग बातें करते हुए मुझे
अनुभव होता रहता था कि उसकी नज़र भी मैली हुई लगती है। बातें करते हुए वह मुझे ख़ास ढंग
से तिरछी नज़र से देखती थी। मुस्करा कर सिर एक तरफ़ करके चोटी पीछे से आगे ले आती थी
या आगे से पीछे ले जाती थी, एक झटके से।
एक दिन मैं जानबूझकर
सुबह के करीब ग्यारह बजे उनके घर गया। मै जानता था कि सोम दत्त घर पर नहीं होगा। मैंने
दरवाज़े पर हल्की-सी दस्तक दी। कोई आवाज़ नहीं आई। मैंने फांक में से अंदर झांका। वह
खड़ी कपड़े बदल रही थी। मेरे बदन को आग लग गई। मैंने दरवाज़ा साइकिल की चाबी से खटखटाकर
रहस्यभरी आवाज़ में कहा, ''जल्दी खोल।''
तभी आधा तख्ता खुला।
मैंने अंदर घुसकर उसको बाहों में कस लिया। वह डरी नहीं। 'ठहर'
कहकर उसने कुंडा लगा लिया। जब कुंडा खुला तो याद आया कि मदन गोपाल कहाँ
गया। वह कपड़े बदलकर उसे खोजने जाना चाहती थी। हम दोनों बाहर निकले तो वह घर से काफ़ी
दूर खड़ा रोता हुआ मिला। हम बहुत शर्मिंदा हुए।
इसके बाद यह सिलसिला
कभी न कभी हो ही जाता। मैंने राम कली की बातों से पता लगाया कि सोम दत्त दिनोंदिन शराबी
होता जाता है। वह पीकर आता है और फिर डेयरी वाले चरनदास के साथ बैठ जाता है। जब आता
है तो वह रोटी खाने में भी असमर्थ होता है। बिस्तर पर गिरने की करता है। उसे साँस की
बीमारी हो गई है। वह किसी डॉक्टर के पास नहीं जाता।
जब मैंने सोम दत्त
से पूछा तो वह कुछ कहने योग्य नहीं था। मुझे लगा कि वह विद्वान पंडित शरीर से अधिक
मानसिक कष्ट में से गुज़र रहा था। उसकी सेहत गिरती जा रही थी। मैं उसको लेकर अपने दोस्त
डॉ. शर्मा के पास गया। वह हमें एक प्राइवेट अस्पताल में ले गया। उसने बहुत सारे टैस्ट
बताये। पर सोम दत्त लापरवाही बरत गया। लगभग छह महीनों में जब हालत खराब हो गई तो पता
चला कि उसको फेफड़े का कैंसर था। वह एक साल भी मुश्किल से जिया।
मुझे सोम दत्त के
चले जाने का सदमा उसके जाने के बाद हुआ। जब उसका इलाज चल रहा था तो मैं तंग आकर उसके
मरने की इच्छा करने लगता था। किसी से भी उसका हाल देखा नहीं जाता था। उसका खाना-पीना
भी कठिन हो गया था। वह स्वयं बग़ैर खाये-पिये पास बैठा मौत की प्रतीक्षा करता रहता था।
उसने बीड़ी पीनी भी छोड़ दी थी। उसे देखकर मैं सोचता कि कितना कठिन होता होगा,
औरतों का मर्द के बग़ैर जीना।
जिस दिन यह कांड
हुआ, सभी काम उसके साथी अध्यापकों ने इस प्रकार किए मानो वे पहले से ही इसकी तैयारी
करते रहे थे। मैं तो मशीन की तरह उनके साथ-साथ चलता रहा था।...
राम कली की सास उसको अपने गाँव में ले गई थी। उसका एक गरीब ब्राह्मण भाई भी आया था।
मेरे मन में इतनी उदासी भर गई थी कि मुझे घबराहट होने लग पड़ी थी। मैं भगवा वस्त्र धारण
करके प्राणायाम और स्वाध्याय करने लग पड़ा था। सवेरे और रात को सोने से पहले यही कुछ
करता था और शाम को शराब पी लिया करता था। दोस्तों से कटकर मैं चुप रहने लग पड़ा था।
साहित्य और जीवन के बारे में मेरा रवैया निराशावादी हो गया था। मैंने कहानी लिखना छोड़
दिया था।
मेरे अंदर अच्छा
परिवर्तन मेरे बहुत करीबी मित्र लेकर आए। वे शाम को मेरे घर आ जाते थे। मैं लकड़ी की
खड़ाऊँ उतारकर और भगवा अंगोछा ओढ़े बैठा होता। वे शराब पीते और गप्पें मारते रहते। बीच-बीच
में मुझसे भी हुंकारा लेते रहते। एक रात मेरा बाँध टूट गया। मैं भी उनके साथ मिल गया।
अच्छी शराब पी। खूब नशा हुआ। उसका आनन्द उठाया। मस्ती में शरारतें हुईं। दोस्तों ने
मेरा भगवा अंगोछा उतारकर मुझे नंगा कर दिया। मेरी पत्नी समराला गई हुई थी। हम रात ग्यारह
बजे तक नाचते-गाते रहे।
सभी ढाबे से लाया
खाना खाकर चले गए तो मैंने पड़ासियों के जानवर के साथ कुकर्म किया। तब मुझे नींद आई।
हम सुबह सोकर उठे तो वह जानवर मरा पड़ा था। बीमार होगा। मैं बहुत शर्मिंदा हुआ।
एक दिन नकोदर रोड
पर मुझे राम कली मिल गई। वह किरयाने की दुकान के पास जा रही थी। अचानक हम एक-दूसरे
के सामने रुक गए। वह इतनी कमज़ोर नहीं हुई थी जितना मैं सोचता था। वैसे उम्र की पक्की
दिख रही थी। नाक-कान खाली थे। बायीं कलाई पर मौली बाँध रखी थी। कोई पूजा की होगी। माथे
पर तिलक था। सूट सुन्दर पहन रखा था। उसने बताया कि वह अपनी सास के साथ शहर आ गई है।
माडल टाउन के करीब रहती है। गाँव में भूखे मरते थे। अब वह कई घरों के बर्तन मांजने,
सफ़ाई करने और खाना पकाने का काम करती है। महाजन लोग उसको दूसरों से अधिक
पैसे और खाने-पीने को देते हैं। मदन गोपाल सरकारी स्कूल में पढ़ता है।
मेरे कई बार जाने
पर मुझे मालूम हुआ कि उसकी सास को सारी बात समझ में आ गई थी। पर उसने मुझे रोका नहीं
था। मैं जब भी जाता था, गोपाल के लिए कुछ न कुछ संग ले जाता था।
कभी खिलौना, कभी कोई कपड़ा और कभी कोई घर में काम आने वाली वस्तु।
कभी फल। कभी कोई बर्तन जिसकी मुझे उस घर में कमी दिखाई देती। मुझे उस घर की ज़रूरतों
का पता चल जाता था। वह मांगती कुछ नहीं थी।
एक शाम अँधेरा पड़ने
पर मैं गया तो वहाँ चरण दास डेयरीवाला बैठा था। उसके यहाँ पोती हुई थी। उसने मुझे कड़वी
नज़रों से देखा। फिर जैसे हवा को गालियाँ देने लग पड़ा। न राम कली बोली और न ही उसकी
सास। राम कली ने मुझे चले जाने का संकेत किया।
मैं अंदर से निकल
कर सीढ़ियों में खड़ा हो गया। खड़े-खड़े सोचता रहा। चरण दास उसी तरह गालियाँ बके जा रहा
था।... आख़िर मैंने धागा तोड़कर बात खत्म कर दी। दुबारा कभी नहीं गया।
मैं हमेशा उन दोस्तों
की औरतों का सामना करने से डरता था, जो दुनिया को अलविदा कर चुके
होते हैं। मुझे लगता है कि उनके मरने में मेरा भी कोई हाथ है।... मैं उस तरफ़ जाता,
पर राम कली के घर की ओर न जाता। एक दिन राम कली चौक वाली मार्किट की
ओर जाती हुई मुझे मिल गई। वह लड़के के लिए बैग लेने आई थी। उसने बताया कि उन्होंने घर
बदल लिया है। वह अब माडल टाउन के आख़िरी हिस्से
में बनी एक कोठी के सर्वेंट क्वाटर में रहने लग पड़ी है। मालिक महाजन है। बूढ़े पति-पत्नी
संग रहते हैं। उन्होंने काम के बदले में रहने के लिए क्वाटर दे दिया है। राम कली ने
मुझे घर के बारे में समझा कर साथ चलने के लिए कहा। मैं फिर आने का वायदा करके आ गया।
एक दिन करीब तीन
बजे मैं उसके घर गया। वह और उसकी सास दोनों खुश हुईं। मैं गोपाल के लिए पुराना साइकिल
ले गया था। करीब आधे घंटे के बाद मैं उठकर चलने लगा तो उसने बाहर आकर मुझे तीसरे दिन
दोपहर में आने के लिए कहा। मुझे लगा कि इसका अर्थ कुछ और है।
जब मैं गया तो वह
अकेली थी। मैंने उसका मतलब ठीक समझा था। हम दोनों बहुत खुश हुए। फिर उसने चाय के साथ
पकौड़े भी बनाए। विदा होते समय हम दोनों प्यार में नहाये हुए थे, पर लगता था कि जैसे दिल न भरा हो। चरण दास की बात न उसने बताई और न मैंने पूछी।
यह मेरी ज़िन्दगी
का एक बड़ा रहस्य था। मैं किसी को बताने के लिए उतावला हुआ पड़ा था। मैंने ओम प्रकाश
को यह घटना कहानी बनाकर सुनाई तो उसने कहा, ''इसमें बहुत कुछ
डालने वाला है। यह अभी बनी नहीं।'' उसका मतलब कहानी के केन्द्रीय
विचार से था। फिर मैंने धीरे धीरे इस घटना को अपने संग जुड़ी होने के बारे में बताया।
पर लंबी और सच्ची बातें न बता सका, क्योंकि वह बीच बीच में प्रश्न
बहुत गहरे करने लग पड़ता था।
एक बार मैं घर में
अकेला था। परिवार समराला गया हुआ था। अख़बार में मेरी ड्यूटी रात की थी। मैं उठकर चाय
बनाने लगा तो लगा कि मुझे बुखार है। मैं फिर लेट गया। रेडियो लगाकर मैं ऊँघता रहा।
फिर देसी चाय का जुशांदा पिया। थोड़ा ठीक हुआ तो साइकिल उठाकर डॉक्टर शर्मा के घर की
ओर चल पड़ा। उसके यहाँ ताला लगा हुआ था। वे सभी माता के गए हुए थे। मैं यूँ ही माडल
टाउन के बाहरी हिस्से की तरफ निकल गया। हल्की-हल्की ठंडी हवा से बुखार और तेज़ हो गया।
मेरा साइकिल राम कली के घर की ओर मुझे ले जा रहा था। हर पैडल के साथ मेरा मन उतावला
होने लगता।
जब मैंने उस कोठी
के सर्वेंट क्वाटर के अंदर झांका तो वह अकेली बैठी उधड़ी हुई सलवार सी रही थी। मुझे
देखकर उसकी सुई रुक गई। वह उठकर खड़ी हो गई। गाल पर हाथ फेरती रही। मुझे पता था कि मदन
गोपाल स्कूल गया होगा। मैं अंदर घुसकर चारपाई पर बैठ गया। माता(सास) के बारे में पूछा।
वह मंदिर गई हुई थी। नवरात्रों के दिन थे। मैंने राम कली को अपने पास बुलाया और मेरी
बांह देखने को कहा। मेरा बदन तप रहा था। उसने हाथ लगा कर गरमी महसूस की। बोली,
''मैं तुलसी की चाय बनाती हूँ।'' इतना कहकर वह
जाने लगी तो मैंने उसकी बांह पकड़ ली और उसे अपने करीब बिठा लिया। आँखें मूंदकर चूमते
हुए कहा, ''तू बस मेरी धार निकाल दे।''
वह मेरी बात न समझ
पाई। परंतु मेरी हरकतों से मेरा इरादा समझ गई। लेकिन उसका मन ठीक नहीं था। मैं तकाज़ा
करता रहा, वह रोकती रही। कुछ मिनट की खींचाखींची के बाद पता नहीं
उसके मन में क्या आया कि वह बाहरवाला दरवाज़ा बंद करके कुण्डा लगा आई।
बस, सपना देखने भर जितना समय लगा। मुझे चैन पड़ गया। मुझे लगा कि मेरा बुखार टूटने
लग पड़ा है। फिर वह तुलसी की चाय बना लाई तो माता भी आ गई। मैं उसकी सेहत के बारे में
पूछते हुए यूँ ही बेमतलब-सी बातें करता रहा। जाते समय मैंने राम कली को पचास का नोट
दिया तो उसने पकड़ने से इन्कार कर दिया। मैंने जबरन ही उसे पकड़ा दिया। मुझे उसकी ज़रूरत
का पता था। वह लौटाती रही, पर मैं साइकिल उठाकर लौट आया।
घर आकर मुझे अपने
शरीर से राम कली की बू आती रही। जैसे सरसों का तेल लगे जिस्म में से पसीने की बू आती
है। हो सकता है कि उसने सवेरे सरसों के तेल की मालिश की हो। फिर उसमें पसीना मिल गया
हो। मुझे उसके बालों में से भी खट्टी लस्सी या खट्टे दही की सिर के मैल में मिली बू
आती रही थी। मेरा जी मिचलाने लगा। जैसे उसकी बू मेरे बदन के अंदर घुस गई हो।... मैं
थोड़ा-सा पानी गुनगुना करके नहाया तो चैन पड़ा। फिर मैंने जुशांदा उबालकर पिया और कंबल
लपेटकर सो गया।
नींद से जागा तो
पसीने-पसीने हुआ पड़ा था। बुखार उतर गया था। मैंने नल के ताज़ा पानी से मुँह-हाथ धोया।
दो अंडों का आमलेट बनाया और ब्रेड के साथ खाते हुए कॉफी पीता रहा और रेडियो पर ग़ज़लें
सुनता रहा। उस अवस्था में मैंने कहानी 'कार सेवा' के चार पाँच पन्ने लिख मारे। या जैसा कि मैं कहा करता हूँ, मुझसे लिखे गए।
कहानी लिखने के
बाद राम कली मेरी नज़रों में और ऊँची हो गई थी। परंतु अफ़सोस कि मैं उसके साथ बहुत देर
तक निभा नहीं सका। बीच में चरणदास बदमाश जो आ गया था। कुछ समय बाद वह अपने भाई के कहने
पर उसके साथ उत्तर प्रदेश के शहर सहारनपुर चली गई थी। जहाँ उसके भाई का लकड़ी का कारोबार
खूब चल पड़ा था। मुझे पता चला था कि उसका भाई उसको किसी के साथ बिठाना चाहता था। यह
बात मेरे लिए भी तसल्ली वाली थी।
ऐसे रिश्ते ने मुझे
पहले कहानी 'नमाज़ी' दी और फिर 'कार सेवा'। इसके बाद मेरी कहानियों के बुनियादी तत्वों
में हिंदू मिथक शामिल होने लग पडा। मैं पात्रों के संस्कारों और धार्मिक आधारों को
समझने लग पड़ा। सोम दत्त और राम कली ने मेरे लिए हिंदू धर्म के बारे में ज्ञान के ख़जाने
खोल दिए। मैं किसी भी स्त्री को इतने आदर से स्मरण नहीं करता जितने आदर से राम कली
को करता हूँ। पर सोम दत्त के साथ मैंने जो सुलूक किया, उसको मैं
काफी हद तक दोस्त को धोखा देना और उससे दगा देना मानता हूँ। मुझे यह अपराध-बोध अब भी
होता है। जब बहुत वर्षों के बाद मैंने कहानी 'सुमरो बेगम',
1999 में लिखी तो उसमें सुमरो बेगग के साधू स्वभाव पति मंगल का जब मैं
चित्रण कर रहा था तो मेरे मन में राम कली का पति सोम दत्त था। पर मंगल शराब नहीं पीता
था। बहुत विद्वान भी नहीं, पर उसकी वृत्ति नेक काम करने वाले
संत लोगों वाली है। यह मेरी सोम दत्त के लिए श्रद्धांजलि भी कही जा सकती है। राम कली
का अहसान मैं किसी स्तर पर उतारना चाहता हूँ यदि किसी शक्ति ने मुझे यह अवसर दिया।
यह कहानी 'कार सेवा' लिखने के समय मैं काफ़ी देर तक संकोच रहा। मैंने
कई बार लिखकर रखी और कभी फाड़ भी दी। जब भी मैं उसका नैरेटर मर्द पात्र को बनाता था
तो बयान में संकोच करते हुए भी कुछ ऐसे शब्द या बातें आ जाती थीं कि नंगेज का अथवा
असभ्य होने का अहसास होने लग पड़ता था।... फिर, अनुभव के तौर पर
मैंने यह कहानी स्त्री पात्र के चित्त में से लिखी तो अपने आप सारी बातें नरम,
सभ्य, सुशील और संवेदनशील हो गईं। कथा के बयान
में गहराई पैदा हो गई लगी।
(जारी)
1 टिप्पणियाँ:
आत्मकथा का यह अंश अच्छा बन पड़ा है. लेखक की ईमान्दार बयानी पसंद आयी. अनुवाद अच्छा है. प्रारंभ में ’धार’ निकालने का अर्थ समझ नहीं आया था, लेकिन बाद में बातें स्पष्ट हो गयीं.
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