पंजाबी उपन्यास
>> रविवार, 9 दिसंबर 2012
बलबीर मोमी
अक्तूबर 1982 से कैनेडा में प्रवास कर रहे
हैं। वह बेहद सज्जन और मिलनसार इंसान ही नहीं, एक सुलझे हुए समर्थ लेखक भी हैं।
प्रवास में रहकर पिछले 19-20 वर्षों से वह निरंतर अपनी
माँ-बोली पंजाबी की सेवा, साहित्य सृजन और पत्रकारिता के माध्यम से कर रहे हैं। पाँच कहानी संग्रह [मसालेवाला घोड़ा(1959,1973),
जे मैं मर जावां(1965), शीशे दा समुंदर(1968), फुल्ल खिड़े हन(1971)(संपादन), सर दा
बुझा(1973)],तीन उपन्यास [जीजा जी(1961), पीला गुलाब(1975) और इक फुल्ल मेरा
वी(1986)], दो नाटक [नौकरियाँ ही नौकरियाँ(1960), लौढ़ा वेला (1961) तथा कुछ एकांकी
नाटक], एक आत्मकथा - किहो जिहा सी जीवन के अलावा अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी
हैं। मौलिक लेखन के साथ-साथ मोमी जी ने पंजाबी
में अनेक पुस्तकों का अनुवाद भी किया है जिनमे प्रमुख हैं – सआदत
हसन मंटो की उर्दू कहानियाँ- टोभा टेक
सिंह(1975), नंगियाँ आवाज़ां(1980), अंग्रेज़ी नावल ‘इमिग्रेंट’ का पंजाबी अनुवाद ‘आवासी’(1986), फ़ख्र जमाल के उपन्यास ‘सत गवाचे लोक’ का लिपियंतर(1975), जयकांतन की तमिल कहानियों का
हिन्दी से पंजाबी में अनुवाद।
देश –विदेश के अनेक
सम्मानों से सम्मानित बलबीर मोमी ब्रैम्पटन (कैनेडा) से प्रकाशित होने वाले पंजाबी
अख़बार ‘ख़बरनामा’ (प्रिंट व नेट एडीशन) के संपादक हैं।
आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास ‘पीला गुलाब’ भारत-पाक विभाजन की कड़वी यादों को समेटे हुए है। विस्थापितों द्बारा नई
धरती पर अपनी जड़ें जमाने का संघर्ष तो है ही, निष्फल प्रेम की कहानी भी कहता है। ‘कथा पंजाब’ में इसका धारावाहिक प्रकाशन करके हम प्रसन्नता अनुभव
कर रहे हैं। प्रस्तुत है इस उपन्यास की आठवीं किस्त…
- सुभाष नीरव
पीला गुलाब
बलबीर सिंह
मोमी
हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव
11
गुलाब एक गाँव
में से गुजर रहा था। यह गाँव एक नहर के किनारे था और गाँव की लड़कियाँ नहर पर पानी भरने
आई अपने-अपने घड़ों को एक तरफ रखकर नाचने-कूदने और गिद्धा डालने लग पड़ी थीं। कुछ आगे
जाकर वह घास पर लेट गया और उसे याद आया-
जब मैं गर्मियों की छुट्टियाँ
बिताकर कालेज जाने वाला था तो तीजों के दिन थे और मैंने मुक्ति से कहा था-
''मैं कल जा रहा हूँ मुक्ति,
कालेज खुल रहे हैं।''
यह सुनकर मुक्ति की आँखों में
आँसू आ गए थे और उसके नथुने और अधर फड़कने लग पड़े थे।
मेरे काँपते हाथों की काँपती उंगलियों
के काँपते पोर मुक्ति की आँखों के आँसू पोंछने की निष्फल कोशिश कर रहे थे। मेरे हाथों
को उसने अपनी आँखों के साथ कस लिया। जब आँखों का तेल जल चुका तो मुक्ति ने भारी आवाज़
में कहा-
''कब लौटेगा तू ?''
इसका उत्तर देने के बजाय मैं तब
तक उसकी झील सी गहरी आँखों में देखता ही रहा था जब तक उसके प्रश्न का उत्तर मुझे मिल
न गया।
''शाम की गाड़ी से उतरती सवारियाँ
मुझे तेरा भ्रम दिया करेंगी। याद है, एक दिन जब तू शाम की गाड़ी
से आया था तो दौड़ी-दौड़ी तुम्हारे घर आ गई थी और...।''
''और दौड़ते हुए तुझे ठोकर लगी
थी।''
''तू भी दौड़कर मुझे उठाने आया
था।''
''हाँ, और
मैं भी ठोकर खाकर गिर पड़ा था।''
''तेरे घुटनों की चपनियों का माँस
छिल गया था।''
''तेरी भी कुहनियों में से खून
रिस रहा था।''
''मैं दिल ही दिल में कहती थी,
मेरे घुटनों पर से ही माँ छिल जाता।''
''और मैं सोचता था कि मेरी कुहनियाँ
भी ज़ख्मी हो जातीं।''
''मैं सारा-सारा दिन खिड़की में
खड़ी होकर तुझे देखा करती थी।''
''कोई साया हिलता हुआ मुझे भी
दिखाई देता था।''
''कभी-कभी मैं तुझे देखकर रुक
जाती, मेरे पैरे स्थिर हो जाते। मेरी जीभ सुन्न हो जाती। कान
सांय-सांय करने लगते और आँखों के आगे चक्कर-से आ जाते और मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने
लगता।''
''ऐसा ही मेरे संग होता,
पत्ता तक हिलता तो मैं डर जाता।''
''मुझे भी बहुत डर लगता,
पता नहीं तू क्या कहे। पर फिर भी मैं तेरी तरफ देखा करती, देखती ही रहती।''
''मैं तुझे कुछ कहने से झिझकता,
पता नहीं तू क्या समझे।''
''फिर यह सब आहिस्ता आहिस्ता कम
होने लगा।''
''एक दिन तेरी मुस्कान मुझे यूँ
लगी मानो कोई कली चाँदनी में खिल उठे।''
''और तू भी मेरी तरफ देख कर धीरे
से मुस्कराया।''
''यह मुस्कराहट कितनी प्यारी-प्यारी
होती। कितनी सुन्दर लगती। मेरे मन में उस मुस्कराहट के नक्श उतर गए हैं। मैं इन मुस्कराहटों
को भूल ही नहीं सकता। इनकी बड़ी महानता है।''
''इन मुस्कानो का मूल्य पवित्र
प्यार की रौशनी है, गुलाब।''
''लाखों-करोड़ों रुपया इसके आगे
तुच्छ है, मुक्ति।''
''प्रेम रौशनी है।''
''ज़िन्दगी के लिए।''
''तू मेरी ज़िन्दगी है।''
''और तू मेरी।''
''जब तक जीवन रहेगा, प्रेम का दीपक दिल की तपिश से जलता रहेगा।''
''कहीं भूल तो नहीं जाएगी ?''
''उत्तर अपने दिल से पूछकर देख।''
''दिल तो तेरे पास है।''
''और मेरा तेरे पास।''
यह कहते हुए फूल की टहनी मेरी बांहों पर झुक आई।
मैंने फूल को सूंघा, चूमा और तोड़ा इसलिए नहीं कि तुझे फूल तोड़ने अच्छे नहीं लगते। टहनी पर खिले
फूल को देख जो खुशी होती है, वह उसको तोड़कर या हासिल करके नहीं
होती।
झुकी हुई टहनी फिर ऊपर उठ गई।
फूल फिर चमकने लगा। आसमानी चाँद की तरह।
धीरे-धीरे हम जज्बों की दुनिया
से बाहर आ गए।
''आज शाम पोखर वाले पीपल पर तीजें
लगेंगी। आएगा न तू ?''
''मैं ज़रूर आऊँगा।''
''तीजों में गिद्धा नृत्य होगा
और मैं नाचूँगी।''
''मैं खुश होऊँगा देखकर।''
''फिर हम दोनों पींगे चढ़ाएँगे,
ऊँची... बहुत ऊँची।''
''ऐसा लगेगा जैसे हम आकाश के वासी
हों।'' यह कहते हुए मैंने मुक्ति की आँखों में आँखें गड़ा दीं।
मुक्ति ने मुस्करा कर नज़रें झुका
लीं।
''मुक्ति... मैं दिन-ब-दिन तेरी
तरफ खिंचता चला जा रहा हूँ।''
''यही हाल मेरा है। मैं तेरे बग़ैर
कैसे जी सकूँगी, कैसे रह सकूँगी।''
''मन करता है, मैं तुझे लेकर कहीं दूर चला जाऊँ।''
''ऐसा ही मेरा मन करता है,
तेरे साथ कहीं दूर चले जाने को। जहाँ हर वक्त तू मुझे दिखता रहे। मुझे
तेरी हर अदा से प्यार है, हर बात से।''
''तेरा अस्तित्व मेरी ज़िन्दगी
है।'' मैं फिर भावुक हो गया था।
''तेरा न होना मेरी मौत...।''
मुक्ति प्यार का रूप बन निखर गई।
बाहर दरवाज़े पर किसी के कदमों
की आहट हुई। हमारे दिल धड़के और चेहरे मुरझा गए। आँखों ही आँखों में एक दूजे को संदेशे
देकर हम अपने-अपने घरों की ओर दौड़ गए।
उतरती दोपहर तक सारा आसमान बादलों
से भर गया। वायुमंडल किसी हद तक ठंडा हो गया। सावन के अन्तिम दिन थे। पूरा महीना सूखा
ही निकल गया था और पानी नहीं बरसा था।
आज के बादलों ने फिर आस की तानी
तान दी थी। मैं और माड़ू लंबी रस्सी लेकर पोखर वाले पीपल पर आ गए। हमें रस्सियाँ लाते
देख अन्य लोग भी रस्सियाँ ले आए। पल में ही पोखर के करीब वाले सभी पीपल, बरगद, जंड और शीशम के वृक्षों की टहनियाँ झूलों से भर
उठीं। गाँव की लड़कियों-लड़कों का भारी मेला लग गया। झूले झूले जाने लगे। बादलों के गरजने
पर मोर प्रसन्न हो चहकने लगे। बादलों का गरजना और तेज़ हो उठा। फिर देखते ही देखते तेज़ बौछारें पड़ने
लगीं। सूखी हुई धरती भीगी हुई शक्कर की तरह हो गई। परनाले चल पड़े। घरों में पूड़े पकाने
की तैयारियाँ होने लगीं। अलबेली, अल्हड़
स्त्रियाँ पीपल के वृक्षों तले गिद्धा नृत्य करने लगीं। सभी को मस्ती चढ़ी हुई थी। बारी-बारी
से जवान स्त्रियाँ 'बोलियाँ' डाल रही थीं
और धरती पर ऐड़ी की धमक बज रही थी।
मेरी नज़रें जिसकी तलाश में थीं,
वह अभी नहीं आई थी। जब वह गिद्धे में आकर घुसी तब तक तीजें ज़ोर पकड़ चुकी
थीं। सभी भूंडों की तरह उससे लड़ने - झगड़ने लगीं। कोई कुछ कहती और कोई कुछ। कोई नाचने
के लिए कहती और कोई बोली डालने के लिए। परन्तु मुक्ति सबकुछ ऊपरी मन से सुन और देख
रही थी। कभी-कभी वह इधर-उधर नज़रे उठाकर देख भी लेती। मैं माड़ू की ओट में छिपा सब कुछ
देख रहा था। एक लड़की ने ऊँची आवाज़ में बोली डाली -
जिहड़े पाणी पत्तण लंघ जांदा,
फेर न लंघदा भलके।
बेड़ी दा पूर, त्रिझंण दीयां कुड़ियाँ फेर न बैठण रलके।
नच के विखा मेलणें, जाईं ना गिद्धे विचों टल के...।
मुक्ति ने एकबार मुड़कर लड़कियों
के झुंड की ओर देखा और उसके अधरों पर व्यंग्यमयी मुस्कान उतर आई। वह कंधे लटकाती झूलों
की ओर बढ़ गई। उसके करीब आते देख कइयों ने झूले खाली कर दिए और एक तरफ होकर खड़ी हो गईं।
लड़कियों ने मुक्ति को पींग चढ़ाने के लिए कहा, पर उसने अपनी बारी पीछे करके दो अन्य
लड़कियों को झूले पर चढ़ा दिया।
''हूटा तो दे ज़रा मुक्ति !''
एक सहेली ने मुक्ति से अनुनय की।
''बिना हूटे के चढ़ाकर दिखाओ।''
मुक्ति ने जवाब दिया।
झूले पर चढ़ी दोनों लड़कियों ने
अपने दम पर ही झूले को ऊपर उठाने की कोशिश करने लगीं। ऐसा करते हुए दोनों लड़कियों के
पेटों की अंतड़ियाँ इकट्ठी हो गईं, परंतु वे अपना पूरा ज़ोर लगाकर
झूले को ऊपर उठाने में लगी रहीं। जैसे-जैसे झूला ऊपर उठता गया,
मुक्ति को दिल डूबने लगा। वह चक्कर खाकर गिरने को हुई। मैं एकदम माड़ू
के पीछे से निकलकर मुक्ति के सामने आ गया। उसने मुस्करा कर गर्दन झुका ली।
झूला धीरे-धीरे नीचे आ रहा था।
जैसे ही झूला नीचे आया, मुक्ति झपटकर झूले पर चढ़ गई और पीपल की
पत्तियों को छूने लगी।
झूले से उतर कर मुक्ति गिद्धा
नृत्य में जा घुसी और इतना नाची कि उसको कोई सुध-बुध ही नहीं रही।
अगली सवेर में शहर आ गया।
(जारी…)
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