आत्मकथा/स्व-जीवनी
>> रविवार, 21 अक्तूबर 2012
पंजाबी के एक जाने-माने लेखक प्रेम प्रकाश का जन्म ज़िला-लुधियाना के खन्ना
शहर में 26 मार्च 1932(सरकारी काग़ज़ों में 7 अप्रैल 1932) को हुआ। यह 'खन्नवी' उपनाम से
भी 1955 से 1958 तक लिखते रहे।
एम.ए.(उर्दू) तक शिक्षा प्राप्त प्रेम प्रकाश 'रोज़ाना मिलाप'
और 'रोज़ाना हिंद समाचार' अख़बारों में पत्रकारिता से जुड़े रहे। 1990 से 2010
तक साहित्यिक पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका 'लकीर'
निकालते रहे। लीक से हटकर सोचने और करने में विश्वास रखने वाले इस
लेखक को भीड़ का लेखक बनना कतई पसन्द नहीं। अपने एक इंटरव्यू में 'अब अगर कहानी में स्त्री का ज़िक्र न हो तो मेरा पेन नहीं चलता' कहने वाले प्रेम प्रकाश स्त्री-पुरुष के आपसी संबंधों की पेचीदा गांठों
को अपनी कहानियों में खोलते रहे हैं। यह पंजाबी के एकमात्र ऐसे सफल लेखक रहे हैं
जिसने स्त्री-पुरुष संबंधों और वर्जित रिश्तों की ढेरों कामयाब कहानियाँ पंजाबी
साहित्य को दी हैं। इनकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि मनुष्य मन की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर
गांठों को पकड़ने में सफल रही हैं।
कहानी संग्रह 'कुझ अणकिहा वी' पर 1992 मे
साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त यह लेखक अस्सी वर्ष की उम्र में भी पहले जैसी
ऊर्जा और शक्ति से निरंतर लेखनरत हैं। इनके कहानी संग्रह के नाम हैं - 'कच्चघड़े'(1966), 'नमाज़ी'(1971), 'मुक्ति'(1980), 'श्वेताम्बर ने कहा था'(1983),
'प्रेम कहानियाँ'(1986), 'कुझ अनकिहा वी'(1990),
'रंगमंच दे भिख्सू'(1995), 'कथा-अनंत'(समग्र कहानियाँ)(1995), 'सुणदैं ख़लीफ़ा'(2001),
'पदमा दा पैर'(2009)। एक कहानी संग्रह 'डेड लाइन' हिंदी में तथा एक कहानी संग्रह अंग्रेजी
में 'द शॉल्डर बैग एंड अदर स्टोरीज़' (2005)भी प्रकाशित। इसके अतिरिक्त एक उपन्यास 'दस्तावेज़'
1990 में। आत्मकथा 'बंदे अंदर बंदे'
(1993) तथा 'आत्ममाया'( 2005) में प्रकाशित। कई पुस्तकों का संपादन जिनमें 'चौथी
कूट'(1996), 'नाग लोक'(1998),'दास्तान'(1999),
'मुहब्बतां'(2002), 'गंढां'(2003) तथा 'जुगलबंदियां'(2005) प्रमुख
हैं। पंजाबी में मौलिक लेखक के साथ साथ ढेरों पुस्तकों का अन्य भाषाओं से पंजाबी
में अनुवाद भी किया जिनमें उर्दू के कहानीकार सुरेन्द्र प्रकाश का कहानी संग्रह 'बाज़गोई' का अनुवाद 'मुड़ उही
कहाणी', बंगला कहानीकार महाश्वेता देवी की चुनिंदा कहानियाँ,
हिंदी से 'बंदी जीवन'- क्रांतिकारी
शुचिंदर नाथ सानियाल की आत्मकथा, प्रेमचन्द का उपन्यास 'गोदान', 'निर्मला', सुरेन्द्र
वर्मा का उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' तथा
काशीनाथ सिंह की चुनिंदा कहानियाँ आदि प्रमुख अनुवाद कृतियाँ हैं।
सम्मान : पंजाब साहित्य अकादमी(1982),
गुरूनानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर द्वारा भाई
वीर सिंह वारतक पुरस्कार(1986), साहित्य अकादमी, दिल्ली(1992), पंजाबी अकादमी, दिल्ली(1994),
पंजाबी साहित्य अकादमी, लुधियाना(1996),
कथा सम्मान,कथा संस्थान, दिल्ली(1996-97), सिरोमणि साहित्यकार, भाषा विभाग, पंजाब(2002) तथा
साहित्य रत्न, भाषा विभाग, पंजाब(2011)
सम्पर्क : 593, मोता
सिंह नगर, जालंधर-144001(पंजाब)
फोन : 0181-2231941
ई मेल : prem_lakeer@yahoo.com
आत्म माया
प्रेम प्रकाश
हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव
बदलती साहित्यिक सोच
2. दूसरा चरण - 'दस्तावेज़'
लिखने के बाद मेरा जेहन खाली-सा हो गया था। इस दौरान एक स्त्री से चली
आ रही मेरी मित्रता में दरार-सी आने लग पड़ी थी। ज़ाहिरा तौर पर यह रिश्ता तिड़क रहा था,
पर कहीं अंदर जड़ें भी पकड़ रहा था। मेरी सोच के लिए एक नया और पेचीदा
संसार खुल रहा था। इस दौरान कुछ ऐसे अनुभव हुए जो मुझे बहुत रहस्यमय लगे। जब कोई रहस्य
खुलता तो मुझे लगता कि गल्प की नदी बह चली है। मेरा अधिकतम समय स्त्री और पुरुष के
संबंधों की गांठों को खोलने में बीतने लगा। कभी लगता मानो कोई आत्मिक ज्ञान या सिद्धि
प्राप्त हो रही है। जिसे योग-साधक लोग 'ज्ञान पात' अथवा 'प्रकाश पात' कहा करते हैं।
मैंने उन अनुभवों को आधार बनाकर कहानियाँ लिखनी शुरू कीं। जब मैं एक कहानी लिख लेता
था और वह छप जाती थी तो मेरे अंदर कुछ और अनखुली गांठें रड़कने लग पड़ती थीं। उन्हें
खोलते दो ही महीने होते थे कि मुझे लगता था कि मेरे अंदर नई कहानी लिखने के लिए और
कितना सारा मसाला पड़ा है। वह उसी तरह इस्तेमाल न किया गया लगता था जैसे पहली कहानी
लिखने से पहले बहुत कुछ हमारे अंदर यूँ ही पड़ा होता है, ठीक उसी
प्रकार यह मसाला भी मुझे लगता था। इसका कारण अनुभवों और उनके बारे में चिंतन की बहुलता
और अंतर्मुखता थी। अनुभवों के भिन्न-भिन्न पहलुओं के कपाट दिन रात खुलते रहते थे। जो
मेरे लिए संभालने कठिन हो जाते थे। कहानी की घटनाओं का सारा जोड़-तोड़ भी नया बनकर खड़ा
हो जाता था।
जब कोई लेखक अपनी
कहानी सुनाकर यह कहता कि यह एक सच्ची घटना है, यह उसके गाँव या
उसके साथ बीता है तो मैं समझता हूँ कि उस कहानीकार को साहित्य की कतई समझ नहीं। या
वह अपनी कमज़ोर कहानी को तगड़ी मनवाने के लिए जतन कर रहा है। इसके उलट मैं कोई बात छिपाने
के लिए और कोई बताने के लिए कहता हूँ कि मेरी यह कहानी बिलकुल मनघडंत है। मेरे सारे
पात्र कल्पित हैं। मेरा सारा कहानी जगत मेरी कल्पना का घड़ा हुआ है। यहाँ तक कि मेरी
कहानियाँ जिनमें 'मैं' पात्र कहानी बयान
करता है, या कहानी उसकी कल्पना या सोच में से गुज़रती है,
वह भी मेरा कल्पित पात्र है। मेरे कई भोले पाठक मेरे उस पात्र 'मैं' को ग़लती से लेखक समझ लेते हैं। मेरे ये पात्र अन्य
पात्रों की तरह कहानी में अपने तौर पर बढ़ते-घटते रहते हैं। उनका विकास और विस्तार होता
है।
जब मेरी कहानी 'मुक्ति-1' छपी तो मैं अपना दूसरा साहित्यिक बनवास सह
चुका था। पहले तब झेला था जब मैं प्रगतिवादियों का विरोध करके 'नमाज़ी', 'ताश' और 'ऐस जनम विच' जैसी कहानियाँ लिखने लग पड़ा था। दूसरा तब
झेला जब 'दस्तावेज़' लिखने पर मार्क्सवादियों
ने मेरे पर गालियों के हमले किए थे। दूसरे बनवास के बाद मैंने पहली कहानी लिखी थी
- 'माड़ा बंदा'। जो मेरे मार्क्सवादी दोस्त
अमरजीत चंदन ने अपने संपादन में निकल रहे परचे 'दिशा'
के प्रवेश अंक में छापी थी। कहानी उसको पसंद नहीं थी, पर क्या करता, उसने चिट्ठी लिखकर मंगवाई थी। मेरी वह
कहानी प्रगतिवादियों ने 'फ़िजूल' कह कर नष्ट
कर दी थी। अपने तौर पर मैं अब भी उसको अपनी ही नहीं, अपितु पंजाबी
कथा जगत की सोच में नया मोड़ समझता हूँ। जहाँ से हमने व्यक्तियों को वर्ग-भेद की संकीर्ण
लकीर से परे होकर देखना शुरू किया। जिसको मैं साक्षी भाव से देखना और समझना कहता हूँ।
जो आधी सदी साहित्यकार को यही पूछते रहे कि वह किसका पक्ष लेता है। जैसे उनकी बात मेरी
समझ में नहीं आई थी, उसी प्रकार मेरी बात उनकी समझ में नहीं आती।
जब 1970 से करीब दो वर्ष पहले मेरी कहानी 'ताश' अमृता प्रीतम की बदनाम या मशहूर पत्रिका 'नागमणि'
में छपी थी तो गैर-मार्क्सवादी हलकों ने उसकी बड़ी तारीफ़ की थी। अमृता
प्रीतम उसको कई वर्ष उठाये फिरती रही थी। पर मेरे मार्क्सवादी मित्र आलोचकों ने बहुत
विरोध किया था। वह बार बार यही प्रश्न पूछते थे, ''यह कहानी लिखने
का तेरा मकसद क्या है ?'' उनकी सोच के अनुसार हर रचना की कोई
सियासत होती है। कोई उनकी लहर के हक में खड़ा होता है और कोई विरुद्ध। मेरी कहानी विरोध
में खड़ी होने वाली थी। उनके लिए यह सवाल दूसरे दर्जे का होता है कि कोई रचना साहित्य
है या नहीं?
फिर जब कहानी 'मुक्ति-2' छपी थी तो हालात ज़रा बदल गए थे। नक्सली लहर
बिलकुल दब चुकी थी। बहुत से कामरेड इंग्लैंड भाग गए थे या सरकारी और गैर-सरकारी संस्थानों
या अख़बारों में फिट होने की कोशिशें कर रहे थे। कुछ कारोबार करने और धन को दुगना करने
लग पड़े थे। कुछ अभी अपने नाम सरकार के बस्ता 'बे' में से कटवाने के चक्कर में थे। कुछ अपना भविष्य बरबाद करके बहुत निराश हो
चुके थे। कइयों के लिए ज़िन्दगी बेअर्थ हो कर रह गई थी।
जो नक्सली कामरेड
नौकरियों में फिट हो गए थे, उनकी साहित्यिक सोच भी बदलने लग पड़ी
थी। कई कामरेड साहित्यिकारों ने 'मुक्ति-2' की तारीफ मुझे ख़त लिख कर की थी। 'मुक्ति-2' के छपने से एक-डेढ़ वर्ष बाद 'डेड लाइन' 'सिरजणा' में छपी थी। यह कहानी 'सिरजणा' के संपादक रघबीर सिंह को भी पसंद नहीं थी। यह
उसके दृष्टिकोण के विरुद्ध थी। फिर उसने पता नहीं किस मज़बूरी में इसे छाप लिया था।
पर अगले अंक में उसके विरुद्ध किसी का ख़त छाप दिया था कि 'यह
क्या बकवास कहानी छाप दी गई है?' उसके बाद मैंने 'सिरजणा' को एक भी कहानी छपने के लिए नहीं भेजी। बहुत
वर्षों बाद एक कहानी 'गढ़ी' भेजी थी। पर
भेजने के बाद ही मुझे अपनी ग़लती का अहसास हो गया था। मैंने तुरन्त उसे न छापने के लिए
चिट्ठी लिख दी। वापस मंगवाने का एक कारण यह भी था कि मुझे वह कहानी किसी और रूप में
सूझने लग पड़ी थी। मैंने उसे पुन: लिखा था। मेरे पास उसके दोनों रूप मौजूद हैं। पर छपा
दूसरा ही है।
कहानी 'डेड लाइन' के विरुद्ध लेखक की हतक करने वाली चिट्ठी के
छपने से ज़ाहिर था कि यह मार्क्सवादी संपादक और पाठक की संकीर्ण सोच थी। मेरे पर इस
बात का असर कम इसलिए होता था कि मैं मार्क्सवादियों के हमले लगातार बर्दाश्त कर चुका
था और मार्क्सवादी आलोचकों, लेखकों और पाठकों का मज़ाक उड़ाया करता
था। मुझे लगता था कि यह सब 'वाद' के अंधे
किए हुए लोग हैं। दूसरी तरफ़ इस सुख का अहसास था कि गैर-मार्क्सवादी आलोचकों ने मेरी
कहानियों की तारीफ़ करते हुए उनमें से नये नये गुण खोजने शुरू कर दिए थे। उनकी देखा
देखी मार्क्सवादी आलोचकों ने भी अपना रुख बदलना शुरू कर दिया था। जिससे मेरी नई सोच
और अधिक प्रौढ़ हो गई थी। वे मेरे हक में बात करते थे, इसके बावजूद
मैं उनके विरुद्ध बोलता था। मैं संत सिंह सेखों के खिलाफ़ बोलता था तो सेखों साहिब का
भांजा और मेरा दोस्त डा. तेजवंत सिंह गिल मुझे 'मुतसबी' कहता और लिखा करता था। मुझे उसका यह फतवा मंजूर होता था।
समय बीतने पर मार्क्सवादियों
का दृष्टिकोण जहाँ साहित्य के बारे में खुले दिल वाला होने लग पड़ा था, वहीं मेरी कहानी के बारे में सोच भी बहुत बदल गई थी। पर मेरा स्वभाव उनके प्रति
उसी तरह रहा। मुझे संत सिंह सेखों की नियत पर भी गुस्सा रहा है। यद्यपि मुझे पता चल
गया था कि जब मैंने अपनी पुस्तक 'मुक्ति' के लिए भाषा विभाग, पंजाब को लिखा तो उसके बारे में सेखों
से राय मांगी गई थी। उन्होंने मेरी किताब की वकालत करते हुए पूरा पन्ना लिखकर भेजा
था। फिर जब मुझे 'मुक्ति' पर पंजाब साहित्य
अकादमी ने सम्मान दिया तो उसके पीछे कुलवंत सिंह विर्क और संत सिंह सेखों का हाथ था।
उस समय सेखों अध्यक्ष थे और विर्क महा सचिव। दो बैठकों में वे मेरी कहानी कला के हक
में बोला भी था और कहीं लिखा भी था। फिर 1992 में साहित्य अकादमी
का सम्मान भी सेखों ने जबरन दिलवाया था। फिर भी मैं उससे नाराज़ था। उसके द्वारा की
गई मेरी प्रशंसा की बात भी मुझे तंग करती थी और मैं हमेशा उसके विरुद्ध ज़हर उगलता रहा
हूँ। क्योंकि मुझे उसकी ईमानदारी पर शक रहता था। यद्यपि मैं उसकी समझदारी और विद्ववता
को मानता था। उस जैसा ज़हीन जट्ट कहीं विरला ही पैदा होता है।
किसी भी साहित्यिक
संगठन से दूर रह कर और आम तौर पर होने वाली साहित्यिक बैठकों और कांफ्रेंसों में न
जाकर मुझे अकेले रहने और अकेले होकर सोचने और लिखने में आनन्द आने लग पड़ा था। इस तरह
मेरी सोच अन्य कहानीकारों से पृथक-सी हो गई थी। यह भी ठीक नहीं कि मैं निरा अकेला ही
रहता, सोचता और लिखता था। मेरी संगत तो थी, पर बहुत सीमित से लोगों के साथ। मैं सुरजीत हांस, मीशा,
दिलजीत सिंह, मोहन भंडारी, भूषण और सुरजीत कौर की संगत करता रहा था। अंदर से इच्छा ज़ोर मारती तो अन्य
लेखक मित्रों और कामरेडों से भी मिलता था। जालंधर के साहित्यिक रसिये मित्रों ओमप्रकाश
और प्रिय व्रत के साथ भी संगत रहती थी। ओम प्रकाश तो बाद में अपनी आत्मकथा 'पनाहगीर' लिखकर एक बढ़िया साहित्यकार बन गया। आधुनिक और
प्रगतिशील कवि मोहन सिंह मीशे के साथ मुलाकातें तो बहुत होती थीं, पर हमारे बीच कोई लकीर-सी खिंची रहती थी। वह दूसरों के सामने रस्में निभाने
वाला और शराफ़त का दिखावा करने वाला अच्छा व्यक्ति था। जब तक विर्क जालंधर में रहा,
उसके साथ बहुत लंबी बैठकें होती थीं। उसके लुधियाना और फिर चंडीगढ़ चले
जाने से ये कम होती गई थीं। उसके जैसा अच्छा, सच्चा और हीरा व्यक्ति
खोज पाना बहुत कठिन होता है।
मैं यदि कभी किसी
साहित्यिक सभा में जाता था, उसका कारण यूँ ही मौज-मस्ती सा होता
था। या फिर मैं उनकी बैठकों में जाता था, जहाँ मुझे कहानी पढ़ने
के पैसे मिलते थे। पैसे तो मिल जाते थे, पर मैं होता परेशान ही
था, क्योंकि वहाँ आए हरेक लल्लू-पंजू की आलोचना सुननी पड़ती थी।
छपी कहानी पढ़ कर कोई आलोचना करता घूमे, मुझे क्या। पर यदि कोई
मुझे खड़ा करके कहानी की आलोचना करने लग पड़े तो मुझे वह मूर्ख लगता है। मैं चले जाते
पाठकों से अपनी कहानी के बारे में उनकी राय नहीं पूछता।
जब मैंने 'मुक्ति-1' लिखी थी तो मुझे नहीं पता था कि मैं स्त्री
और पुरुष संबंधों के बारे में इतनी कहानियाँ लिखूँगा। पर वह सिलसिला इतना खिंचता चला
गया कि पच्चीस-तीस कहानियाँ और लिखी गईं। हरेक कहानी लिखने के बाद मैं कहता था कि यह
अन्तिम होगी, पर तीसरे-चौथे महीने एक और कहानी पैदा होने लग पड़ती
थी। यह सिलसिला 'श्वेतांबर ने कहा था'(1983) पर आकर खत्म हुआ प्रतीत होता था। परन्तु खत्म 'सुणदैं
खलीफ़ा'(2001) तक भी नहीं हुआ। आम पाठक और आलोचक मेरी उन कहानियों
का ही ज़िक्र करते थे, जिनमें स्त्री और पुरुष के संबंधों की बारीकियाँ
हों। हालांकि मैंने इस किस्म की कहानियाँ तब कम लिखी थीं। यह बात बताने के लिए मैंने
ऐसी कहानियों को एक पुस्तक 'प्रेम कहानियाँ' शीर्षक के संग्रह में एकत्र कर दिया था। फिर 'मुक्ति
रंग' से बाहर की कहानियों की पुस्तक सन् 2000 में छपवाई थी।
मुझे गिला था कि
मेरी अन्य अच्छी कहानियाँ भी है, जिन पर अब उतना ध्यान नहीं दिया
जा रहा, जितना पहले दिया गया था। शायद ये कहानियाँ मेरी दूसरी
कहानियों को दिखने ही नहीं देतीं या पाठक और आलोचक ऐसी कहानियों में इतना डूबते हैं
कि उनके जेहन में यही फंसी रह जाती हैं। तभी वे कुछ अधिक शौक से इन्हें पढ़ते हैं।
(जारी)
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