पंजाबी उपन्यास
>> रविवार, 21 अक्तूबर 2012
बलबीर मोमी
अक्तूबर 1982 से कैनेडा में प्रवास कर रहे
हैं। वह बेहद सज्जन और मिलनसार इंसान ही नहीं, एक सुलझे हुए समर्थ लेखक भी हैं।
प्रवास में रहकर पिछले 19-20 वर्षों से वह निरंतर अपनी
माँ-बोली पंजाबी की सेवा, साहित्य सृजन और पत्रकारिता के माध्यम से कर रहे हैं। पाँच कहानी संग्रह [मसालेवाला घोड़ा(1959,1973),
जे मैं मर जावां(1965), शीशे दा समुंदर(1968), फुल्ल खिड़े हन(1971)(संपादन), सर दा
बुझा(1973)],तीन उपन्यास [जीजा जी(1961), पीला गुलाब(1975) और इक फुल्ल मेरा
वी(1986)], दो नाटक [नौकरियाँ ही नौकरियाँ(1960), लौढ़ा वेला (1961) तथा कुछ एकांकी
नाटक], एक आत्मकथा - किहो जिहा सी जीवन के अलावा अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी
हैं। मौलिक लेखन के साथ-साथ मोमी जी ने पंजाबी
में अनेक पुस्तकों का अनुवाद भी किया है जिनमे प्रमुख हैं – सआदत
हसन मंटो की उर्दू कहानियाँ- टोभा टेक
सिंह(1975), नंगियाँ आवाज़ां(1980), अंग्रेज़ी नावल ‘इमिग्रेंट’ का पंजाबी अनुवाद ‘आवासी’(1986), फ़ख्र जमाल के उपन्यास ‘सत गवाचे लोक’ का लिपियंतर(1975), जयकांतन की तमिल कहानियों का
हिन्दी से पंजाबी में अनुवाद।
देश –विदेश के अनेक
सम्मानों से सम्मानित बलबीर मोमी ब्रैम्पटन (कैनेडा) से प्रकाशित होने वाले पंजाबी
अख़बार ‘ख़बरनामा’ (प्रिंट व नेट एडीशन) के संपादक हैं।
आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास ‘पीला गुलाब’ भारत-पाक विभाजन की कड़वी यादों को समेटे हुए है। विस्थापितों द्बारा नई
धरती पर अपनी जड़ें जमाने का संघर्ष तो है ही, निष्फल प्रेम की कहानी भी कहता है। ‘कथा पंजाब’ में इसका धारावाहिक प्रकाशन करके हम प्रसन्नता अनुभव
कर रहे हैं। प्रस्तुत है इस उपन्यास की आठवीं किस्त…
- सुभाष नीरव
पीला गुलाब
बलबीर सिंह
मोमी
हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव
10
गुलाब बहुत उदास
और कमज़ोर हो गया था और अपने बीते हुए दिनों को याद कर रहा था।
अभी मेरी मसें नहीं फूटी थीं और
ये वो दिन थे जब मैं हाई स्कूल की शिक्षा प्राप्त कर चुका था और कालेज में प्रवेश लेने
वाला था। दुनिया की दृष्टि में बेशक अभी मैं कुछ भी नहीं था, पर अपने भीतर मुझे एक ''मैं'' का
अहसास होने लगा था। अपनी राय को अहमियत दिलाने का ख़याल मुझे सूझता था और मैं कई बार
अपने आप को एक बेताज बादशाह की तरह समझा करता था। मुझे इस बात का भी पता था कि बादशाही
का ताज प्राप्त करने के लिए मुझे भारी तपस्या की ज़रूरत थी और यह तपस्या मेरी उच्च शिक्षा
की प्राप्ति थी। अब मुझे दु:ख भी सुख जैसे प्रतीत होते थे। क्योंकि घर में मेरी कोई
जिम्मेदारी नहीं थी, या फिर मैं दु:ख-सुख के अंतर को समझने की
कोशिश ही नहीं करता था।
माँ प्राय: मेरे विवाह की बात
छेड़ लेती और चरखा कातते हुए मेरे विवाह के गीत गाती रहती।-
पाणी वार बन्ने दिए माँए
नीं बन्ना तेरे बार खड़ा।
वह मांगने आईं स्त्रियों को दरवाजे
में बिठाकर अक्सर मेरी घोड़ी का गीत सुनाती। मेरी माँ बड़ी भावुक औरत थी। ख़ास तौर पर
वह मेरे और मेरे भविष्य को लेकर तो वह बहुत ही जज्बाती थी। माँ के जज्बे और पिता के
आशावादी नज़रिये के अधीन मेरा पालन-पोषण बड़ी उपासना के साथ हो रहा था। अब जब मैं हाई
स्कूल की शिक्षा पूरी करने के बाद कालेज जाने को था तो मेरे माता-पिता की नज़रों में
मैं जीवन के ऐसे मोड़ पर खड़ा था जहाँ मेरी ज़िन्दगी एक दोराहे पर खड़ी परिवर्तन के शिखर
को भांप रही थी। कारण यह था कि हाई स्कूल तक की शिक्षा मैंने अपने गाँव के विद्यालय
में प्राप्त की थी। अपने माता-पिता के प्रभाव और उनकी निगरानी के नीचे, और अब मुझे अगली विद्या के लिए ज़रूरी तौर पर शहर जाना था।
शहर की पढ़ाई में और गाँव की पढ़ाई
से बहुत अन्तर था। शहर के कालेजों में लड़कियाँ लड़के इकट्ठे पढ़ते थे। गाँवों के पढ़े
मेरे जैसे विद्यार्थियों के लिए शहरों में लड़कों के संग लड़कियों के पढ़ने का ख़याल ही
शरीर में एक सिहरन-सी दौड़ा देता था और मैं तो इस विचार में बहुत ही आशावादी था। शायद
बहुत आशावादी होने का कारण मैं अपनी सुन्दरता को समझता था। मुझे एक तरह से अपने तीखे
नयन-नक्शों, प्रभावकारी वार्तालाप और गाँव के अच्छे तंदरुस्त
शरीर पर गर्व था। सिर्फ़ शहरी लड़कों के मुकाबले मेरा लिबास अच्छा नहीं था और मुझे कपड़े
पहनने और मटकने का पूरा शहरी ढंग भी सीखना था। इसलिए कालेज के दाख़िले के समय सबसे पहले
घरवालों से अच्छे कपड़े सिलवाने की शर्त मैंने मंजूर करवा ली थी। पगड़ी अभी मुझे अच्छी
तरह बाँधनी नहीं आती थी और मैं इसे भी सीख लेना चाहता था।
स्कूल और कालेज के दाख़िले के मध्य
के दिन मैंने बड़े सुनेहरी सपनों के तले झूम झूम कर बिताए।
हमें नई अलॉट हुई ज़मीन के करीब
ही शहर के किसी कालेज में मेरे दाख़िले का प्रबंध किया गया। उस शहर में मेरे ताया का
एक लड़का भी रहता था जो एक सरकारी अफ़सर था और यही एक कालेज था जो उसके घर से दो फर्लांग
की दूरी पर था।
मेरे इस भाई ने अपनी सारी शिक्षा
प्रथम श्रेणी में पास की थी और साथ-साथ सरकारी वजीफा भी लिया था। ताया उन दिनों आर्थिक
तौर पर कमज़ोर था और भाई अपने पैरों पर खड़ा होकर पढ़ा था। पढ़ा भी लायलपुर और लाहौर के
अच्छे कालेजों में था जहाँ उसने टेकनीकल विद्या प्राप्त करके सरकारी उच्च पदवी प्राप्त
की थी। एक लखपति की बेटी से विवाह करवाया था जिनके यू.पी. में दो सिनेमा और राजस्थान
में साठ मुरब्बों का फार्म था और अब वो भारत के किसी बड़े शहर में लोहे का कारखाना लगाने
की योजना बना रहे थे।
भाभी खुद बी.ए. पास और बहुत सुलझी
हुई औरत थी। यद्यपि वह बड़े घर की थी, पर उसमें अकड़ नहीं थी। इतनी
प्रभावशाली थी कि मैं पहली बार उससे मिलने पर उसके प्यार से सम्मोहित हो गया था। भाभी
की जबरदस्त ख्वाहिश थी कि मैं दसर्वी में मैरिट लिस्ट में आऊँ। कालेज की पढ़ाई में भी
मैं अपनी योग्यता का प्रदर्शन करूँ। और जब मैं पढ़-लिखकर बड़ा अफ़सर बन जाऊँ तो फिर वह
किसी किसान की स्थायी ज़मीन पर किसी शाह द्वारा कब्ज़ा किए जाने की तरह अपने खानदान में से एक अमीर पढ़ी-लिखी सुन्दर
लड़की लाकर मेरी अफ़सरी, मेरी कोठी, मेरी
कार, मेरे बैंक-बैलेंस और मेरी आज़ादी पर उसका कब्ज़ा करवा दे।
लेकिन ये सब तो अभी बहुत दूर की
बातें थीं। अभी तो मैंने पहले पायदान पर पैर रखा ही था। सुन्दर भविष्य का सपना तो अँधेरे
में तीर छोड़ने वाली बात थी।
विषय चुनने के समय भी फिर वही
मुश्किल पेश आई। पिता का विचार था कि मैं डॉक्टर बनूँ। भविष्य में डॉक्टरी का काम बहुत
उज्जवल था और समूचे समाज की सेवा वाला भी। भाभी और भाई का विचार था कि मैं इंजीनियरिंग
की पढ़ाई के लिए नान-मेडिकल का विषय चुन लूँ। परन्तु हैरानी वाली बात यह थी कि मैं इन
दोनों विषयों में अपने आप को चला नहीं सकता था। पर मेरी इच्छा और मेरी रुचि को वहाँ
पूछने वाला ही कोई नहीं था। परिणामस्वरुप मुझे पहले मेडिकल और फिर नान-मेडिकल और फिर
कुछ दिन काम न चलता देख आर्ट्स के विषय लेने पड़े। भाभी के ईष्ट को चोट लगी। उसका सपना
कुचला गया, पर भाई और मेरी माँ बड़े आशावादी रहे। आर्ट्स में उच्च
विद्या प्राप्त करके भी अच्छी नौकरी की आस हो सकती थी।
पिता मेरा दाख़िला भरकर और हॉस्टल
की फीस और सिक्युरिटी जमा करवाकर, किताबें दिलवा कर, काफी सारा रुपया मुझे आने वाले खर्चों की पूर्ति के लिए देकर और बहुत सारी
आशीषों और नसीहतों का ढेर लगाकर गाँव लौट गए और इन नसीहतों को याद करके कई दिनों तक
मेरी आँखें भर आती रहीं। फिर मुझे उस पहलवान की तरह अखाड़े की याद आने लगी जिसने बड़ी
कुश्तियों में लड़ने के लिए अपने आपको तैयार करना था।
(जारी…)
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