पंजाबी उपन्यास
>> गुरुवार, 13 सितंबर 2012
बलबीर मोमी
अक्तूबर 1982 से कैनेडा में प्रवास कर रहे
हैं। वह बेहद सज्जन और मिलनसार इंसान ही नहीं, एक सुलझे हुए समर्थ लेखक भी हैं।
प्रवास में रहकर पिछले 19-20 वर्षों से वह निरंतर अपनी
माँ-बोली पंजाबी की सेवा, साहित्य सृजन और पत्रकारिता के माध्यम से कर रहे हैं। पाँच कहानी संग्रह [मसालेवाला घोड़ा(1959,1973),
जे मैं मर जावां(1965), शीशे दा समुंदर(1968), फुल्ल खिड़े हन(1971)(संपादन), सर दा
बुझा(1973)],तीन उपन्यास [जीजा जी(1961), पीला गुलाब(1975) और इक फुल्ल मेरा
वी(1986)], दो नाटक [नौकरियाँ ही नौकरियाँ(1960), लौढ़ा वेला (1961) तथा कुछ एकांकी
नाटक], एक आत्मकथा - किहो जिहा सी जीवन के अलावा अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी
हैं। मौलिक लेखन के साथ-साथ मोमी जी ने पंजाबी
में अनेक पुस्तकों का अनुवाद भी किया है जिनमे प्रमुख हैं – सआदत
हसन मंटो की उर्दू कहानियाँ- टोभा टेक
सिंह(1975), नंगियाँ आवाज़ां(1980), अंग्रेज़ी नावल ‘इमिग्रेंट’ का पंजाबी अनुवाद ‘आवासी’(1986), फ़ख्र जमाल के उपन्यास ‘सत गवाचे लोक’ का लिपियंतर(1975), जयकांतन की तमिल कहानियों का
हिन्दी से पंजाबी में अनुवाद।
देश –विदेश के अनेक
सम्मानों से सम्मानित बलबीर मोमी ब्रैम्पटन (कैनेडा) से प्रकाशित होने वाले पंजाबी
अख़बार ‘ख़बरनामा’ (प्रिंट व नेट एडीशन) के संपादक हैं।
आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास ‘पीला गुलाब’ भारत-पाक विभाजन की कड़वी यादों को समेटे हुए है। विस्थापितों द्बारा नई
धरती पर अपनी जड़ें जमाने का संघर्ष तो है ही, निष्फल प्रेम की कहानी भी कहता है। ‘कथा पंजाब’ में इसका धारावाहिक प्रकाशन करके हम प्रसन्नता अनुभव
कर रहे हैं। प्रस्तुत है इस उपन्यास की आठवीं किस्त…
- सुभाष नीरव
पीला गुलाब
बलबीर सिंह
मोमी
हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव
9
आठवीं कक्षा पास
होने की खुशी में मेरी माँ ने देसी घी का कड़ाह बनाकर आस-पड़ोस में बाँटा। मालवे के इस
गाँव में जहाँ हमें ज़मीन अलॉट हुई थी और तेलियों का घर रहने के लिए मिला था, आस पास कोई आठवीं जमात तो क्या, चार
जमात पास भी कोई नहीं था। अड़ोसिनें-पड़ोसिनें मेरी माँ को बधाई देने आईं। मैं भी काफ़ी
खुश था।
इस आठवीं कक्षा पास करने की सबसे
बड़ी प्रतिक्रिया हमारे पड़ोसियों के घर में हुई। हमारे पड़ोस में करम सिंह नाम का शरणार्थी
बहावलपुर रियासत से उजड़कर हमारी ही तरह यहाँ आ बसा था। तेलियों का जो घर हमें अलॉट
हुआ था उसके दो हिस्से थे। एक हिस्से में वो रहते थे और दूसरे में हम। बीच में करीब
छह फीट ऊँची दीवार की ओट थी जिसमें एक दरवाजे क़े बराबर खिड़की थी, जिस पर तख्ते नहीं थे। आगे बड़ा दरवाज़ा था जो दोनों घरों का साझा था। इस दरवाज़े
में मैं दिन के समय बैठकर पढ़ा करता था और पड़ोसी करम सिंह के बेटी मुक्ति अपनी सहेलियों
के संग फुलकारियों पर फूल-बूटे काढ़ा करती थी। वे लड़कियाँ फूल-बूटे काढ़ते हुए ससुराल
से मायके आई अड़ोस-पड़ोस की लड़कियाँ, जो नई नई दुल्हनें बनी होती
थीं, से उनके साथ बीती घटनाओं की कहानियाँ सुना करती थीं। कभी
ये लड़कियाँ चरखे कातते हुए लम्बी टेर में गीत छेड़ बैठतीं। और जब कभी बारिश होती तो
ये गिद्धा डालतीं और नाचतीं भी। सबसे बड़ी हैरानी वाली बात यह थी कि यह सब कुछ मेरी
उपस्थिति में होता था। या तो ये मुझे लड़का नहीं समझती थीं, या
समझ कर अनदेखा कर देती थीं। मेरी पढ़ाई में इनकी बातों से विघ्न ज़रूर पड़ता था,
परन्तु सच बात तो यह थी कि इनकी बातों में एक स्वाद सा मुझे भी आने लग
पड़ा था। अक्सर लड़कियाँ मुक्ति का नाम ले लेकर मुझे छेड़ा करतीं। एक बार मैं सो रहा था
तो इनमें से एक लड़की ने मेरे सिर में मुट्ठी भर कर रेत डाल दी थी। इस लड़की का नाम संती
था और उसका विवाह कुछ महीने पहले एक दुहाजू से हुआ था जिसके कई खेत थे और लम्बी-चौड़ी
जायदाद थी। विवाह से पहले यह लड़की जो अपने आप को बहुत सुन्दर समझती थी, कई बार हमारे घर मुझसे आँखों में दारू डलवाने आया करती थी, परन्तु सबसे सुन्दर और लम्बी मुक्ति ही थी। नाचने, गाने,
दौड़ने और सिर पर पानी के भरे तीन घड़े उठा लाने में वह सबसे आगे थी। गाँव
के आवारा लोग पेड़ों की ज़ड़ों पर बैठकर उसका राह तका करते थे और आती-जाती पर भद्दे मज़ाक
किया करते थे। पर वह किसी को अपनी जूती बराबर भी नहीं समझती थी। यही लोग मुझे गली-बाज़ार
में से गुज़रते देख मुक्ति का नाम लेकर ऊल-जुलूल फब्तियाँ कसते थे परन्तु मैं शरमा कर
गर्दन झुका वहाँ से गुज़र जाता था। मुझे इन बातों में दूर तक कोई दिलचस्पी नहीं थी।
मैंने कई बार देखा था कि खिड़की या बड़े दरवाज़े की दरारों में से मुक्ति की दो मोटी आँखें
मेरी तरफ़ घूरती रहती थीं और इन आँखों को मैंने बाज़ार में गुज़रते वक्त अपनी पीठ पर भी
महसूस किया था। ये पीठ में से आर पार होकर अक्सर मेरी छाती के बायीं ओर भी महसूस होती
थीं। लेकिन मैं तब भी इन आँखों के गहरे अन्दर झाँकने का कभी साहस नहीं किया था। यह
मुझे कुछ पाप जैसा लगता था। गुरद्वारे में बैठ कर बुरी बात की ओर ध्यान जाने जैसा।
अब मेरे पास हो जाने पर पड़ोसी
करम सिंह जिसका खेत भी हमारे घर की तरह ही हमारे खेत के साथ ही लगता था, मेरे बापू से कहने लगा, ''सरदारा ! तेरा लड़का बड़ा लायक
है। पाकिस्तान में मेरी लड़की साववीं में पढ़ती थी। इधर आकर हिम्मत ही नहीं पड़ी आगे पढ़ाने
की।''
''गाँव में स्कूल है, आठवीं तो करा ले लड़की को।''
''जवान-जहान लड़की ने अब क्या पढ़ना
है। और साल-छमाही कोई लड़का देखकर दूसरों की अमानत उनके घर भेज देंगे। धीयों का क्या
मान है।''
''अब तो मुल्ख़ आज़ाद हो गया है।
तू क्या सोचता है। मेरे पूछे तो लड़की को आठवीं ज़रूर करवा दे।''
''पता नहीं, अब चलेगी भी कि नहीं। साल हो चला है पढ़ाई छोड़े हुए। और फिर इस गाँव में ज्यादा
लड़कियाँ स्कूल जाती ही कहाँ हैं।''
''ले, शाह
की लड़की भी पढ़ती ही है।''
''वो तो तक़दीरवाला है,
उसका क्या कहना।''
''तालीम में तकदीर का क्या मतलब,
लड़की उसने हैडमास्टर को डरा-धमका कर पास करवाई है। कल मेरे लड़के गुलाब
को बुलाकर शाह ने सौ रुपया ईनाम दिया। फर्स्ट जो आया है मेरा गुलाब। और साथ ही शाह
ने कहा है कि अब से उसकी लड़की को आकर पढ़ाया करे। दोनों मिलकर पढ़ेंगे तो लड़की भी दसवीं
कर जाएगी। करम सिंह, शाह का मतलब है कि लड़की दस पढ़ गई तो शाह
किसी बड़े अफ़सर से उसे ब्याह देगा। आजकल के अफ़सर जायदाद की इतनी परवाह नहीं करते,
जितनी पढ़ी-लिखी लड़की की मांग करते हैं।''
''अच्छा, तू कहता है तो फिर डाल देते हैं मुक्ति को भी पढ़ने। गुलाब खुद उसको भी पढ़ा
दिया करेगा।''
''ले उसने कभी मना किया है,
जब कहे वो तैयार है। इल्म तो जितना किसी को बाँटें, उतना ही बढ़ता है।''
मुक्ति को स्कूल की सातवीं कक्षा
में दाख़िला दिला दिया गया। यह बात सारे गाँव में आग की तरह फैल गई। बूढ़ी स्त्रियों
ने नाक-मुँह सिकोड़े। अधेड़ों ने चर्चा की। हमउम्रों ने ईर्ष्या और पेड़ की जड़ों
में बैठने वालों के दिलों पर आरियाँ फिर गईं। स्कूल के लड़के मुक्ति के लम्बे कद, तीखे नक्श, गोरे रंग पर कलियों जैसे
दाँतों की बातें करने लगे। मास्टर एक-दूसरे को घूरने लगे, पर
सबसे अधिक असर इस घटना का मोहनी पर पड़ा। मोहनी के कपड़े बेशक पूरे स्कूल में सबसे सुन्दर
और कीमती होते थे, परन्तु रंग-रूप और कदकाठी में वह मुक्ति के
मुकाबले में सिफ़र थी। मोहनी मुक्ति को देखकर जलने लगी और जलकर राख होने लगी। उसके सांवले
चेहरे पर माता के दाग और भी ज्यादा गहरे दिखाई देने लगे। मानो राख पर बारिश की बूँदें
पड़ी हों और इस राख की ढेरी पर मुझे बिठा दिया गया हो। स्कूल से निकलकर मैं शाह और हैडमास्टर
के हुक्म के अनुसार एक घंटा मोहनी की हवेली के बड़े मकान की तीसरी मंज़िल पर मोहनी को
पढ़ाने जाता। उसके पास पढ़ने के लिए तो जैसे समय ही नहीं था। वह मुझे सबसे पहले मुक्ति
के विरुद्ध बातें सुनाती और फिर मुझसे कहती, ''तुझे मेरी सौगंध
अगर तू मुक्ति के साथ बोले।''
मैं उसको एलजबरे का सवाल निकालने
के लिए कहता, वह मुझे हीर का किस्सा सुनाने के लिए कहती। मैं
उसको ज्योमेट्री की थ्यौरियाँ याद करने को कहता तो वह प्रत्युत्तर में गाँव के लड़के-लड़कियों
के प्रेम–किस्से सुनाने लग पड़ती। पर एक मुक्ति थी जो एक बार अंग्रेजी
का सबक लेकर, फिर जुबानी ही सुना सकती थी। जिसके कपड़े मेरी तरह
ही गन्दे और पुराने थे, पर दिमाग उतना ही अधिक तेज़ था। मैं मोहनी
और मुक्ति का मुकाबला न करना चाहते हुए भी करने से नहीं रह सकता। मुक्ति को मैं जैसा
कहता, वह वैसा ही करती थी। उसके अन्दर पढ़ाई की लगन थी,
पर मोहनी तो मुझे पढ़ाना चाहती थी।
इस सबका परिणाम यह निकला कि नौंवी
कक्षा में मोहिनी फेल थी, लेकिन परिणाम घोषित करते समय उसे पास
बताया गया। मैं आठवीं कक्षा की भाँति नौंवी कक्षा में भी प्रथम आया। मुक्ति सातवीं
में प्रथम आई। मोहिनी ने शाह के कान भरे कि मुक्ति स्कूल के लड़कों और मास्टरों को खराब
करती थी। उसको स्कूल से उठा लिया गया। शाह ने करम सिंह को बुलाकर बस एक इशारा ही किया
और करम सिंह तो पहले ही शाह के कई तरह के अहसानों और कर्ज़ों में दबा हुआ था। मुक्ति
का स्कूल जाना तो बन्द हो गया पर उसको पढ़ने से कोई न रोक सका। मेरे कहने पर उसने सीधे
आठवीं की प्राइवेट परीक्षा की तैयारी प्रारंभ कर दी। मैं स्वयं दसवीं की तैयारी करता।
बेमन से मोहिनी की हाज़िरी भी भरता और बच-बचकर चलते हुए मुक्ति को भी पढ़ाता। दसवीं की
परीक्षा से पहले ही मैंने बागी होकर मोहिनी की तरफ़ जाना छोड़ दिया और मेरा सारा मोह
मुक्ति की झोली में आ गिरा। शाह चुप था। इस चुप के पीछे पता नहीं क्या छिपा हुआ था।
परीक्षा देने के लिए हमें बठिंडा जाना पड़ा। नतीजा निकला तो मेरी थर्ड-डिवीज़न थी और
मोहिनी जिसे 'वह जाता है' की अंग्रेजी भी
नहीं आती थी, फर्स्ट डिवीज़न में पास थी। काफ़ी समय बाद पता चला
कि वह अपनी कापी पर मेरा रोल नंबर लिखती रही थी और मेरी उत्तर कापी पर दिया गया रोल
नंबर उसके रोल नंबर में बदल दिया जाता था। लेकिन हैरानी वाली बात यह थी कि मैं फिर
भी पास था। शायद इसलिए कि नकल आधार पर उसने थर्ड डिवीज़न में पास होने योग्य परचे कर-करा
लिए थे।
इन्हीं दिनों में एक और भूचाल
आ गया। इस गाँव में से हमें अस्थायी रूप से अलॉट हुई ज़मीन के बदले फीरोजपुर में दरिया
के किनारे एक गाँव में स्थायी ज़मीन अलॉट कर दी गई। यह गाँव फीरोजपुर से बीस मील दूर
था। इस गाँव की अधिकांश आबादी राय सिक्ख, कंबो सिक्ख,
लाहौरिये जट्ट, छोटी जाति के सिक्ख और भिन्न-भिन्न
तरह के लोगों की थी। सभी पाकिस्तान से उजड़कर आए थे। सभी गरीब थे और सभी पुन: पैरों
पर खड़े होने का यत्न कर रहे थे। गाँव में न कोई पक्का मकान था और न ही कच्चा। लोग सरकंडों
के छप्परों तले और झुग्गियों में रहते थे। राय सिक्ख यह छप्पर इस कारीगिरी से बाँधते
थे कि बारिश की एक बूँद भी अंदर नहीं जा सकती थी। दरिया हर वर्ष मार करता था और मकान
ढह जाते थे। इसलिए लोग सरकंडों की झुग्गियों में ही रहते थे।
इस गाँव में हमें बहुत सारी बंजर,
चाही(कुएँ के पानी से सींची जाने वाली ज़मीन) और नहरी पैली अलॉट हो गई।
जो काश्तकार पहले ही इस ज़मीन को जोत-बो रहे थे, हमें उनसे कोई
एतराज़ नहीं था। हमारे रहने के लिए उन्होंने कच्चा कोठा और तीन-चार सरकंडों की झुग्गियाँ
कुछ दिनों में ही खड़ी कर दीं। बापू जी वहाँ ज़मीन की देखभाल के लिए चले गए और मालवे
के इस गाँव में मैं, मेरी माँ और छोटी दो बहनें रह गईं। मुक्ति
के घरवालों की ज़मीन भी बदलकर तहसील फ़रीदकोट में दूर एक बीकानेर नहर के किनारे बसे गाँव
में अलॉट हो गई थी। यह गाँव हमारे नए अलॉट हुए गाँव से कोई दस-बारह मील की दूरी पर
था। मुक्ति का पिता उस गाँव में ज़मीन का दख़ल लेने गया, शीघ्र
ही लौट आया। गाँव को दस-बारह मील तक न कोई सड़क थी और न ही कोई स्टेशन। ज़मीन बहुत घटिया
थी और बीच में आक, जौ और ऊँचा घास उगा हुआ था। कई वर्षों से वहाँ
कुछ बोया ही नहीं गया था। और जब बोया ही नहीं गया तो उगना क्या था। मुक्ति का पिता
आँखों में घुसन्न देकर रोता रहा था। पाकिस्तान से उजड़कर आए अभी तीन साल ही हुए थे और
रोटी मिलने ही लगी थी कि पुन: उजड़ना पड़ गया। उसे कौन बताता कि जब एक बार घोंसले टूट
जाते हैं तो नए सिरे से पेड़ तलाश कर, तीले-तिनके इकट्ठे करके
घोंसले बनाने कितने कठिन होते हैं। जिनके घोंसले सदियों से बन-बनाये हैं, वे क्या जाने कि घोंसले जब ढह जाते हैं तो फिर बड़ी मुश्किल से बनते हैं।
मलवई लोगों की मसखरियों की ताब
अभी झेलने लायक हुए ही थे कि सरकार का फिर से कूच का हुक्म हो गया था। इधर की ज़मीन
दूसरे शरणार्थियों को अलॉट हो गई थी और वे कब्ज़ा लेने के लिए आ भी गए थे। वे तो घर
भी खाली करवाने को कह रहे थे। हालांकि मुसलमानों के कई घर गाँव की दूसरी पत्ती में
खाली पड़े थे, परन्तु वे कुएँ से दूर पड़ते थे। वहाँ से पानी ढोकर
लाना एक कठिन काम था। चक्कर आने लग पड़ते थे। कई कमज़ोर देह वाली औरतों के घड़े राह में
ही गिरकर टूट जाते। तीसरे दिन झीवर आता तो लोग बीस-बीस घड़े पानी के भरवा कर रख लेते
और तीन दिन पीते रहते। कई बार फिटकरी घोलकर पोखर का पानी पीना पड़ता। मलवई स्त्रियाँ
छह-छह महीने सिर न धोतीं। उनके सिरों में से बू आने लगती। बेशक गुंदे हुए बालों में
ऊपर फूल बना रखे होते, पर नीचे जूएँ सरकती रहतीं।
एक दिन एक पड़ोसिन मेरी माँ से
बोली, ''री अम्मा, जल्दी से कंघी दे,
छह महीने हो गए नहाये, कहीं जाते-जाते पानी ठंडा
न हो जाए।''
मेरी माँ हँसकर कहने लगी,
''छह महीने तो तुझे देर नहीं हुई, अब पल भर में
देर हो जाएगी।''
फिर उस औरत ने लस्सी डालकर सिर
धोया, पर सिर निखरा नहीं। फिर सोडा डालकर सिर धोया, फिर भी न निखरा। फिर रीठे डालकर सिर धोया, पर सिर था
कि जमता ही गया। फिर छट्टियों की राख में दही और तेल डालकर धोया, पर बालों की जटायें बकरी की बालों या डेरे के साधू की जटाओं जैसी बनती गईं
और सिर नहीं निखरा। गर्दन अकड़ गई और चीखती-चिल्लाती औरत के जमे हुए बाल कैंची से काटने
पड़ गए।
मुक्ति के पिता ने शाह से हिस्से
पर लेकर ज़मीन जोतनी-बोनी शुरू कर दी और अपनी ज़मीन-जायदाद होते हुए भी वह काश्तकार बन
गया।
उसकी नज़रों में अब बेटी जवान हो
गई थी और हाथ पीले कर देने के योग्य भी। गाँव में पेड़ों के नीचे बैठने वाले लोगों की
नज़रों में तो वह सब कुछ ही थी। बच्ची भी थी, जवान भी थी और दोस्त
भी थी। दु:ख-सुख बाँटने वाली भी। मेरे जज्बों, हावों-भावों को
समझती भी थी। मेरे चेहरे के भावों को पढ़कर बात करती और जब कभी मैं उदास होता तो घबरा
जाती। एक साथ जीने-मरने की कसमें खाती और अक्सर विवाह के लिए कहा करती, पर मैं उसको समझा देता था कि विवाह और प्रेम दो अलग-अलग
बातें हैं। कम से कम इस समय तो दो अलग बातें ही हैं। परन्तु हो सकता है कि कोई समय
ऐसा आए कि दोनों बातें चलते-चलते एक हो जाएँ। पर तू यह न समझना कि यदि हमारा विवाह
नहीं हो सकता तो हमारा प्यार यूँ ही भूल-भुलैया की खेल था। ये बातें क्या सारी उम्र
भूल सकती हैं, या भुला दिए जाने वाली हैं। अभी तो मुझे कालेज
में उच्च विद्या की प्राप्ति के लिए दाख़िला लेना है।
फिर, सारी
दुनिया को अपना घर समझना है। अभी तो वहाँ पहुँचना है जहाँ धरती-आकाश के मिलने का भ्रम
होता है और जब मैं कामयाबी की स्थिति में पहुँच गया, फिर तुझे
दुनिया की सैर के लिए ले चलूँगा। हमारे दो खूबसूरत बच्चे होंगे, शो-केसों में रखे जापानी खिलौनों की तरह। पर ये तो रेत के महल थे, और करम सिंह शाह से कर्ज़ा उठा कर मुक्ति के विवाह की सोच रहा था। वर जैसा भी
मिल जाए, अच्छा या बुरा। रोटी-पानी और कपड़ों की लड़की को तंगी
न हो, बस।
करम सिंह की घरवाली की जिद्द के
आगे हमने भी एक वर्ष और उसी गाँव में रहने का निश्चय कर लिया और अब तो अगली पढ़ाई के
लिए खर्चे की भी कोई तंगी नहीं थी। नई अलॉट हुई ज़मीन से अच्छी आमदनी होने लग पड़ी थी।
कई बार मैं सोचा करता कि सौ रुपये
का नोट जो शाह ने मुझे हकीर समझ कर दिया था, वह मैं उसको सूद
सहित लौटा आऊँ। ऐसे नोटों की कई झलकियाँ उसके बाद भी मोहिनी मुझे दिखाती रही थी। अपनी
छब्बीस-छब्बीस पन्नों की ऊल-जुलूल किस्म की लिखी चिट्ठियों में रखकर।
(जारी…)
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