संपादकीय
>> गुरुवार, 16 अगस्त 2012
आज़ादी की पैंसठ
साल की यात्रा और हम
पैंसठ वर्ष पहले हमारा देश अंग्रेजों की गुलामी से
मुक्त हुआ था और भारतवासियों ने आज़ाद भारत की आज़ाद आबोहवा में सांस ली थी। खुशी के
पल थे। पर साथ ही विभाजन का दिल चीर देने वाला दुख भी हमें मिला था। भारत-पाक
विभाजन ने जो ज़ख्म हमें दिये थे, वे अभी भी चीसने लगते हैं… देश ने तरक्की की, कल
कारखाने स्थापित हुए, स्कूल-कालेजों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई, नये नये अस्पताल
खुले…सड़कें बनीं, रेल यातायात ने विस्तार पाया, बिजली उत्पादन के लिए डैम बने पर…
देश से गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा, बीमारी अभी भी ज्यों कि त्यों हैं। सरकार की
नीतियों से गरीब और गरीब होता चला गया और अमीर पहले से ज्यादा अमीर… किसानों की
ज़मीनें छिनने लगीं, कर्ज में डूबे किसान आत्महत्याएं करने लगे…मंहगाई का दैत्य
दिन-ब-दिन और बड़ा होता गया… भ्रष्टाचार ने दीमक का काम किया और जहां सही मायने में
विकास होना था, वहां विकास नहीं हुआ… पैंसठ साल की लम्बी यात्रा के बाद भी आज आम
आदमी बुरी तरह त्रस्त है। उसका जीवन नर्क बना हुआ है। वह मंहगी दवाओं के कारण अपनी
बीमारियों का इलाज नहीं करवा पाता, वह मंहगी शिक्षा के चलते अपने बच्चों को सही
शिक्षा नहीं दे पाता, वह भ्रष्टाचार के कारण न्याय से वंचित है, पानी और बिजली अभी
भी एक सपना है, कह सकते हैं कि पैंसठ साल की लम्बी यात्रा के बाद भी देश का आम
आदमी वहीं खड़ा है, जहां पहले खड़ा था। उसकी आँखों के सपने पूरे करने की किसी को
चिंता नहीं है… वह आज भी दो जून की रोटी के लिए उसी तरह मर-खप रहा है, जैसे पहले मरता-खपता
रहा था… क्या हम सही अर्थों में स्वतंत्र हुए? क्या इस आजादी से सिर्फ़ मुट्ठी भर
लोगों का ही फायदा नहीं हुआ? ये सवाल हर
संवेदनशील लेखक के दिलो-दिमाग में आज हैं, जिनके उत्तर वह साहित्य में अपनी कलम के
माध्यम से तलाश रहा है…पंजाब के कथाकार इनसे जूझ रहे हैं। यह उनकी कहानियों से
परिलक्षित होता है… वरिष्ट कथाकार गुरबचन सिंह भुल्लर की कहानी ‘वेतन, पर्क और गुलाबी पर्ची’ हो, या बलजिंदर नसराली की किसान
केन्द्रित कहानी ‘अगर
अपनी व्यथा कहूँ’,
बलविंदर सिंह बराड़ की ‘सन्नाटा’ या जतिन्दर हांस की ‘राहू-केतु’ हो…इसी प्रकार की नये-पुराने अनेक पंजाबी कथाकारों की
कहानियों में वर्तमान समय की क्रूर सचाई को रेखांकित हुआ हम पाते हैं। ये कथाकार
अपने समय और समाज के सच को पहचान रहे हैं और उसे अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त भी कर
रहे हैं।
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इस अंक में आप पढ़ेंगे –
-‘पंजाबी कहानी : आज तक’ के
अन्तर्गत पंजाबी की प्रख्यात लेखिक महिंदर सिंह सरना की भारत-पाक विभाजन के समय के
दंगों पर आधारित प्रसिद्ध कहानी ‘फरसों का मौसम’
-‘आत्मकथा/स्व-जीवनी’ के अन्तर्गत पंजाबी के वरिष्ठ लेखक प्रेम प्रकाश की आत्मकथा
‘आत्ममाया’ को अगली किस्त, और
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मित्रो, कुछ तकनीकी गड़बड़ी के कारण इस बार की पोस्ट में 'आत्मकथा' और 'उप्न्यास' की पोस्टें पुराने पोस्ट में चली गई हैं, जो मुख्यपृष्ठ पर नहीं दिखाई दे रहीं। इसके लिए या तो पोस्ट के नीचे दिए 'पुरानी पोस्ट' को क्लिक करें अथवा ऊपर दिए गए लिंक्स पर क्लिक करें।
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सुभाष नीरव
संपादक - कथा पंजाब
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