>> गुरुवार, 16 अगस्त 2012
पंजाबी कहानी : आज तक(11)
महिन्दर सिंह सरना (1923 - 2001)
पंजाबी साहित्य के शुरुआती दौर के एक बहुत ही सशक्त लेखक। बारह कहानी संग्रह, चार उपन्यास, चार कविता संग्रह
और एक आत्मकथा। पहला कहानी संग्रह 'पत्थर दे आदमी'
1949 में छपा। इसके पश्चात् 'शगनां भरी सवेर(1951),
सुपनियां दी सीमा(1958),' 'वंझली ते विलकणी'(1959),
छवियाँ दी रुत'(1961), 'कलिंगा'(1968),
'सुंदरघाटी दी सौंह'(1980), 'सूहा सालू सूहा
गुलाब'(1980), 'काला बद्दल, कूली
धुप्प'(1984), 'नवें युग दे वारिस'(1991), 'औरत ईमान'(1993), 'मेरियाँ चौणवियाँ कहाणियाँ'(1993)। पहला उपन्यास 1954 में 'पीरन मले राह' छपा और उसके बाद 'कंगन ते कंडे'(1956), 'नीला गुलाब'(1977)
और 'सूहा रंग मजीठ दा'( 1988)। अनेक सम्मानों से सम्मानित जिनमें साहित्य अकादमी पुरस्कार(नये युग दे
वारिस- कहानी संग्रह पर 1994 में मिला), साहित्य कला परिषद् अवार्ड(1981), बलराज साहनी
ट्रस्ट अवार्ड(1993), नानक सिंह फिक्शन अवार्ड तथा पंजाब सरकार
के शिरोमणी पंजाबी साहित्यकार अवार्ड प्रमुख हैं। भारत पाक विभाजन पर उनकी कहानी 'छवियां दी रुत' (फरसों का मौसम) एक अविस्मरणीय
कहानी है।
फरसों का मौसम
महिन्दर सिंह सरना
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
दहकते कोयलों से भरी भट्ठी पर झुके दीने लुहार का लोहे के रंग जैसा शरीर ताँबे
की भाँति चमकने लग पड़ा था। उसके बदन का आकार ताँबे में ढले एक तन्दुरुस्त मेहनती मजदूर
को मूर्तिमान करता एक बुत-सा प्रतीत होता था। हाथों में पकड़े हथौड़े को एक तेज़ झटके
से उसने अपने सिर के ऊपर घुमाया तो उसके कसरती बदन की मछलियाँ फड़क उठीं और एक जबरदस्त
चोट तपते हुए लोहे के अंगार पर बजी।
चोट निरंतर गूँजती रही। काम में मगन दीना दीन-दुनिया को तब तक भुलाये बैठा रहा, जब तक खिड़की के रास्ते
भादों की भठियारी धूप ने उसकी हड्डियों को चाटना शुरू नहीं कर दिया। हड़बड़ाकर उसने खिड़की
से बाहर देखा। सूरज शिखर पर था। दोपहर इतनी जल्दी हो गई और अभी उसका आधा काम भी नहीं
हुआ। धूप के सेक से बचने के लिए उसने खिड़की बन्द कर दी, मगर खिड़की के बन्द होने
पर उसकी साँस घुटने लगी और माथे पर चिपचिपा पसीना उभर आया। कल रात खूब बारिश हुई थी।
आकाश में से परनाले बह उठे थे। सवेरे भी बूँदाबाँदी होती रही थी। लेकिन अब सूरज चढ़ने
के बाद से बड़ी उमस हो गई थी। उसने खिड़की खोल दी और फिर से भट्टी पर झुक गया। पसीना
उसके कानों से होता हुआ अब उसकी गर्दन पर धारियाँ बनाता बह रहा था। बाँह से उसने अपने
माथे का पसीना निचोड़ा। मोटी बूँदें अंगीठी में गिरीं, 'सूँ' की आवाज़ हुई और क्षण मात्र
को ही सही, एक कोयले की ज़िन्दगी ने भी राहत महसूस की।
धूप और भट्ठी के मिलेजुले सेक ने उसके शरीर को बहुत तपा दिया था। वह आग उसके रक्त
में घुल गई प्रतीत होती थी। यह तपिश उसकी हड्डियों के भीतरी गूदे को भी भून रही थी।
भट्ठी के सुर्ख अंगारे अकस्मात् उसकी आँखों में जल उठे थे। अपने बदन का एक-एक रोम उसे
एक पलीता प्रतीत हो रहा था। उसे साफ़ दिखाई दे रहा था कि अभी कोई पलीता आग पकड़ लेगा
और उसका शरीर किसी एक बड़े पटाखे की भाँति फट जाएगा।
सहसा, वह सन्द नीचे रखकर उठा और खिड़की के आगे जा खड़ा हुआ। बाहर पूरे आकाश में भादों की
चिलचिलाती धूप तनी हुई थी। उसकी आँखें चुंधिया गईं। जब उसकी दृष्टि साफ़ हुई तो उसने
अपने सामने दूर-दूर तक फैले खेतों की ओर देखा और फिर उस रेतीली पगडंडी की ओर जो खेतों
क बीचोंबीच सफ़ेद लकीर की भाँति क्षितिज तक चली गई थी। पगडंडी के दायीं ओर कपास के खेत
थे और कहीं-कहीं ईख के खेत में पानी चाँदी-सा चमकता था। पगडंडी के बायीं ओर जुती और
पाटा फिरी क्यारियाँ बुआई के इन्तज़ार में थीं। ताज़ा बरसात से नम हुई मिट्टी की सोंधी
महक उसके नथुनों को बड़ी प्यारी लग रही थी। उसका मन हुआ कि वह खुली खिड़की में से बाहर
कूद जाए, खेतों में लेट लेट जाए और गीली मिट्टी की नमी अपने रोम-रोम में भर ले।
उसे खेतों से मोह था। बुआई और कटाई के दिनों में उसका खूब मन लगता था। वह मजबूत
कदकाठी का व्यक्ति था - गाँव का लुहार, पर गाँव में लुहारी का काम भला होता ही कितना है। अधिकतर
समय वह खेतों में किसानों का हाथ बँटाता था। उसके जैसी कटाई सात गाँवों में कोई नहीं
कर सकता था। न ही उसके बराबर कोई पूली उठा सकता था। एकाएक, उसके हाथ दराती की हत्थी
के लिए उतावले हो उठे।
चाँदनी रात में झूमती ईंखें, मीलों तक सुनहरी बालियों की 'सरर-सरर' और धरती की कोख से जन्मे
गीतों की टेर... और वह भूल गया कि उसकी पीठ पीछे नरक जैसी भट्ठी तप रही थी और पिछले
बीस दिनों से उसने फरसे, गंडासे और बल्लम बनाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं किया था। हाँ, दरातियों और हँसियों का
मौसम जा चुका था। वह फरसों और बल्लमों का ज़माना था। और कैसे दिन आए थे, कटाई के इस बार कि गेहूं
के स्थान पर गेहूं बोने और काटने वाले खुद कट गए थे।
यह कैसी आफत मोल ले बैठा था वह। यह कैसी बेगार उसने अपने गले बाँध ली थी ! उसकी
व्यस्तता से ऐसा प्रतीत होता था मानो नए बने पाकिस्तान के कुल-मुजाहिदों के लिए हथियार
बनाने की सारी जिम्मेदारी उसी के सिर पर पड़ गई हो! पाकिस्तान तो बन गया था मगर पाकिस्तान
की तकमील के लिए पाकिस्तान में रह रहे हिन्दुओं-सिक्खों का नाश करना ज़रूरी था। बेशक
यह बात दीने की समझ में अभी तक नहीं आई थी लेकिन कह सभी यही रहे थे। गाँवों के चौधरियों
से लेकर मस्जिदों के इमामों तक सबके सब यही कह रहे थे। और यह जेहाद तभी पूरा हो सकता
था जब उसकी भट्ठी तपती रहे और बल्लमों-फरसों की शक्ल में मौत की जीभें उगलती रहे।
उसने मुड़कर भट्ठी की ओर देखा। कोयलों के बीच टिकाये लोहे के तीखे टुकड़े अंगारों
से भी अधिक लाल हो गए थे। उनकी ओर देखकर उसे चक्कर-सा आ गया। उसने अपनी कमर को कसकर
पकड़ लिया। कोई तेज़ और गर्म चीज़ उसकी कमर को चीर रही थी। अकस्मात् उसे याद आया कि उसे
बहुत तेज़ भूख लगी हुई थी। सवेरे से उसने पानी का घूँट भी नहीं पिया था। और अब भूख उसकी
अंतड़ियों को काट रही थी और उसके होंठ सूखकर लक्कड़ हो गए थे।
''बशीरे की माँ !'' उसने घर के अन्दर झाँकते हुए ऊँचे स्वर में पुकारा, ''पानी देना। जल्दी।''
करीब पैंतालीस वर्षीय औरत ताँबे के कटोरे में पानी लेकर आई। उसके नाक में नथ थी
और कानों में चाँदी के बुन्दे। उसने अपने घरवाले की ओर देखा जो प्यास के कारण हाँफ
रहा था। सुबह से तीन बार वह उसे रोटी-पानी के लिए पूछकर जा चुकी है, पर उसने तो उसकी बात पर
गौर ही नहीं किया था और भट्ठी झोंकता रहा था। और अब अचानक जाने कैसे उसे अपनी भूख-प्यास
याद हो आई थी। औरत ने भट्ठी की नारकीय आग की ओर देखा, लोहे के उन टुकड़ों की ओर
देखा जो काले कोढ़ की भाँति चारों तरफ फर्श पर बिखरे पड़े थे। उसने एक गूँठ में फरसों
और बल्लमों के पड़े कलमुँहे ढेर को भी देखा और फिर कितनी ही देर तक उसकी नजरें अपने
घरवाले के चेहरे पर भटकती रहीं जैसे वे उसे पहचानती न हों।
दीने ने पानी का कटोरा एक ही घूँट में खत्म कर दिया।
''और...'' वह हाँफता हुआ बोला।
वह और पानी ले आई और उसे पीते हुए देखने लगी।
''बस...'' वह बोला। उसके मस्तक और गर्दन की तनी हुई नसें कुछ ढीली हो गईं। उसका हाँफना भी
कम हो गया लेकिन ठीक उसी क्षण एक झेंप, एक घबराहट उसके चेहरे पर झलकी और वह बोल उठा, ''मेरी ओर ऐसे क्यूँ देख
रही है ? और मेरे साथ बोलती क्यूँ नहीं ? दूर हटकर क्यूँ खड़ी है ? क्या मुझे प्लेग हो गया
है ?''
औरत ने कोई उत्तर न दिया और चुपचाप अन्दर से रोटी डालकर ले आई।
''अरी, मैं तुझे कह रहा हूँ,'' दीने ने उसका कन्धा पकड़कर हिलाया, ''कुछ फूटती क्यूँ नहीं ? मुँह में कुछ उबलने के
लिए रखा हुआ है क्या ?''
औरत अभी भी कुछ न बोली।
दीने ने रोटी मरोड़कर कुछ मोटे ग्रास मुँह में डाले। जब रोटी के मोटे ग्रास गले
से नीचे उतरने से इनकार करने लगे, पानी के कुछ घूँट भरे और रोटियों वाली टोकरी एक ओर सरकाते
हुए बोला, ''मेरे साथ बोलती नहीं। बस, देखे जा रही है मानो मुझसे जिन्न चिपटे हों।''
''अल्लाह न करे...'' औरत बोली, ''पर मुझे तो यही लगता है।''
दीना अवाक् रह गया। उसे उम्मीद नहीं थी कि बशीरे की माँ बोलेगी, कि इतने दिनों की हठीली
चुप को आज वह अचानक इस तरह तोड़ देगी।
कुछ देर तक हैरानी ने उसे संभलने न दिया।
''मैं जानता हूँ, तेरे दिल में क्या है। पर मैं क्या करूँ ? तेरे बेटे ही मुझे जीने नहीं देते, अब बशीरा कल शाम तक पचास
फरसे तैयार करके रखने को बोल गया था। अगर मैंने काम पूरा नहीं किया तो वह मेरे गले
पड़ जाएगा। मैं तो कहता हूँ, अगर मैं ज़रा भी उनकी बात से इनकार करूँ तो वे मेरे टुकड़े कर दें।''
''बेटे वो तेरे हैं या किसी और के ?'' बशीरे की माँ ने पूछा और फिर अपने इस प्रश्न पर खुद ही
शर्मसार हो उठी।
''मेरे ही हैं,'' दीने ने मूर्खों की भाँति कहा।
''फिर डरना उन्हें तुझसे चाहिए कि तुझे उनसे ?''
''तेरे लिए बातें बनाना आसान है,'' वह बोला, ''जैसे तू तो अपने बेटों को जानती ही नहीं। कितने निर्दयी
हैं ! मेरी क्या मजाल कि मैं उनसे कुछ कह सकूँ। मेरी चमड़ी उधेड़कर न फेंक देंगे।''
''बेटे तो वे मेरे भी हैं,'' औरत का लहजा कुछ नरम हो गया, ''तू देखता नहीं, कैसे हर समय मुझे काटने को दौड़ते हैं, कैसे बात-बात पर मुझसे
लड़ते हैं, पर मैं उनके लिए फरसे नहीं बनाती।''
''फिर क्या हुआ ?'' वह बोला, ''मैं सिर्फ़ बनाता ही तो हूँ, लोगों को काटता तो नहीं हूँ।''
''यह काटने से भी बुरा है,'' औरत ने कहा, ''काटने वाला तो एक दो या हद से हद पाँच को काटता है, पर तेरे हाथ का बनाया एक-एक
फरसा बीसियों को काटता है।''
एक कँपकँपी दीने की रीढ़ में से गुज़र गई। फिर एक कँपकँपाहट उसके रोम-रोम में फैल
गई। कितनी ही देर तक वह कुछ न बोल सका। जब उसकी आवाज़ लौटी तो वह बोला, ''मुझसे कह रही है, बेटों को नहीं रोकती जो
सलार बने घूमते हैं। एक-एक रात में दो-दो गाँव फूँक डालते हैं।''
''मेरी वे सुनते हैं ? तू सुनता है ?'' औरत का लहजा और नरम हो गया था, ''मैं किसी को क्या कहने लायक हूँ। हर किसी ने अपने-अपने
गुनाहों का जवाब देना है। मुझे क्या ज़रूरत पड़ी है कुछ कहने की !''
कुछ देर तक दोनों चुपचाप फर्श को ताकते रहे।
एकाएक औरत बोली, ''और तू रोटी क्यूँ नहीं खा रहा ? भूखा रहकर सूखना है क्या ?'' रोटियों वाली टोकरी खींचकर
उसने दीने के सम्मुख रख दी।
बाहरी दरवाज़े पर हुए महीन खड़के ने दीने को चौंका दिया। वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। वह
जानता था, बशीरे या उसके साथियों को छोड़कर और कोई नहीं हो सकता। हाँ, वे उसे चेताने आए थे। कुंडे
पर पड़ा उसका हाथ दुविधा में पड़ गया। उसने भट्ठी की ओर देखा। वह भभक रही थी। सब ठीकठाक
और यथास्थान था। उसने कुंडा खोल दिया। सावन-भादों की बरसात में सीले हुए दरवाजे क़ी
चूल चीखी।
घबराकर दीना अन्दर की ओर दौड़ पड़ा और भट्ठी से ठोकर खाते-खाते बमुश्किल बचा। उसकी
घरवाली का रंग पूनी जैसा हो गया और एक चीख़ अकस्मात् उसके मुख से निकल पड़ी। दरवाज़े में
ठाकुरद्वारे वाली बूढ़ी पुरोहिताइन खड़ी थी। उसके हल्दी जैसे पीले चेहरे पर झुर्रियों
का जाल बिछा था और उसकी सफेद लटों वाला सिर काँप रहा था। भयभीत आँखों से दीना और उसकी
घरवाली बुढ़िया की ओर देखते रहे। वह बिलकुल वैसी ही थी जैसी जीते-जी हुआ करती थी, पर अब वह भूत बन चुकी थी।
आख़िर, दीने की घरवाली ने हौसला किया और पूछा, ''चाची, तू अभी जिन्दा है?''
बुढ़िया ने कोई उत्तर न दिया। तभी दीने की घरवाली को याद आया कि पुरोहिताइन तो ऊँचा
सुनती थी। शायद, मरने के बाद भी उसका बहरापन ठीक नहीं हुआ था। बुढ़िया के और नज़दीक होकर उसने अपनी
बात दुहराई।
बुढ़िया की आँखें चमकीं, वह बोली, ''तुम्हें दिखाई नहीं देता, मैं अभी जिन्दा हूँ। सात दिन मुझे मुहरका ताप चढ़ता रहा। अन्दर कोठरी में पड़ी मैं
अकेली जान भुनती रही। किसी ने मुझे पानी का घूँट नहीं पूछा। तुलसी बहुत दिनों से साथ
वाले गाँव में गया हुआ है। शायद, मैं उसके पीछे मर ही जाती और फिर बन्दे का भरोसा ही क्या
है। आज मेरा ताप उतरा। मुझसे उठकर खड़ा नहीं हुआ जाता था, पर मैंने अपने अन्दर हिम्मत
पैदा की और यहाँ तक आ गई। तुम दोनों इतने भौंचक क्यूँ हो ?''
बोलने के कारण बुढ़िया पसीने से भीग गई थी। वह हाँफ रही थी। कनपटियों को दबाते हुए
वह पैरों के बल वहीं फर्श पर बैठ गई। उसकी आँखों की पुतलियाँ बेजान हुई जाती थीं और
हर साँस उसकी अन्तिम साँस प्रतीत होती थी।
बड़े धैर्य के साथ दीने और उसकी घरवाली ने एक-दूजे की ओर देखा। यह सच था कि वह पुरोहिताइन ही थी, पुरोहिताइन का प्रेत नहीं
था। मुहरके ताप ने उसे उस होनी से बचा लिया था जो गाँव के लोगों के साथ बीती थी। उसके
बहरेपन ने उसके कानों में उस दुखान्त की भनक नहीं पड़ने दी थी जो परसों जुमेरात को इस
गाँव में खेला गया था। वह अभी तक नहीं जानती थी कि उसका गाँव पाकिस्तान में आ गया था, और गाँव के हिन्दुओं-सिक्खों
में से एक भी जीवित नहीं बचा था। केवल कुछ लड़कियों के जिन्हें फसादियों ने रख लिया
था।
सहसा, पुरोहिताइन बोली, ''अरे ओ दीने, मेरी बकरी तो नहीं देखी कहीं ?''
बकरी ! दीने ने सोचा, इन दिनों जब फसादियों के टोलों ने हथियाये मवेशी पकाकर डकार लिए थे, पुरोहिताइन ने अपनी बकरी
की भली पूछी।
''न जाने कहाँ दौड़ती फिरती है ?'' बुढ़िया कहती गई, ''और अब तो वह ब्याने वाली है। मुझसे तो अब खुद को नहीं
संभाला जाता, उसे कहाँ खोजती फिरूँ। और उसने कौन सी बख्शीश दे देनी है ! रब्ब तेरा भला करे, अगर कहीं नज़र आ जाए तो
पकड़कर बाँध लेना। देखो न, ब्याने वाली जो है। मैं तो डरती हूँ, कहीं बाहर ही न ब्या जाए।''
दीना बोला, ''माई, कोई नहीं रही तेरी बकरी। वह खा-पी ली गई है। लोगों को तो उसकी डकारें भी आ रही
हैं।''
लेकिन बूढ़ी को कुछ सुनाई न दिया। वह अपनी बात ऊँची आवाज़ में दोहराने ही लगा था
कि उसकी घरवाली ने उसे इशारे से रोक दिया।
''और देख न,'' पुरोहिताइन बोली, ''यह संगली मुझे ठाकुर दुआरे की दहलीज़ के पास मिली है। पता नहीं पगली संगली कैसे
तुड़ा बैठी। देख तो सही, यह तो छल्ला ही कट गया है जिसमें कुंडी फंसाते हैं। मैंने भी सोचा, चलो चलकर दीने से कहती
हूँ कि संगली जोड़ दे।''
दीने ने देखा, बूढ़ी ने अपने हाथ में बकरी को बाँधने वाली संगली जो बीच में से टूट गई थी, पकड़ रखी थी। बकरी की गर्दन
पर पड़े किसी तेज़ गंडासे के वार ने संगली को भी काट दिया था।
बहुत देर से दीने की घरवाली बूढ़ी पुरोहिताइन को एकटक देख रही थी। उसके अन्दर कोई
उथल-पुथल मची हुई थी, ऐसा लगता था। आख़िर, उसकी सोच के अन्तिम मुहाने पर कोई झरोखा खुलता-सा लगा और वह बोली, ''चाची, ठाकुर दुआरे तू एकदम अकेली
पड़ी रहती है, तू यहीं हमारे घर में रह। यहीं अपना बना-पका लेना, भांडे-टींडे भी अपने यहीं
ले आ, तेरा हिन्दू धर्म है न, इसलिए। तुलसी पड़ोसी गाँव से लौट आए, फिर तू चली जाना।''
पुरोहिताइन तो कुछ अधिक ही बहरी लगती थी। शायद, मुहरके के ताप ने उसके कानों को बन्द कर दिया था। इतनी
लम्बी बात में से उसने केवल तुलसी का नाम ही सुना।
''मैं जो तुझे बता रही हूँ कि तुलसी पड़ोस के गाँव गया है। रामे शाह की लड़की का शगुन
लेकर नए चक्क समधियों के घर गया है। अस्सू की पहली को प्रीतो की शादी निकली है। शाह
से मैंने कहा है कि अबकी मुझे एक गाय मणस देना। और क्या, शाहों के घर कोई रोज-रोज
ऐसे मौके आते हैं। फिर तू तो खुद सियानी है। तुलसी की खुश्क जान है, घर में दूध-दही की मौज
रहेगी।'' बूढ़ी की बात अनसुनी करती हुई दीने की घरवाली, दीने की नज़रों की ओर देख रही थी। वह कुछ कहना चाहती थी, कुछ मशवरा करना चाहती थी, पर उसके बोलने से पहले
ही दीना बोल उठा, ''तेरे दिल में क्या है, मैं जानता हूँ। पर यह बात हम पूरी नहीं कर सकते। मुझे कोई उज्र नहीं पर, इसे किसी भड़ोले में डालकर
रखेगी। अभी वो तेरे पेट के जाये आदम-बो, आदम-बो करते हुए आएँगे और तू जानती है, उनसे कोई बात छुपी नहीं
रहती। उन्हें आज ही पता चल जाएगा। और फिर वे हमारा वो हाल करेंगे जो कभी किसी ने नहीं
करा होगा।''
''बूढ़ी जान है,'' दीने की घरवाली ने विनती की, ''अपने गाँव के खत्रियों की इकलौती निशानी है। ठाकुर-दुआरे
की पुरोहिताइन अल्ला का नाम लेने वाली है। दो-चार दिन की बात है, इसका बेटा पड़ोस के गाँव
से लौट आए, फिर इन्हें किसी दूसरे गाँव में भेज देंगे।''
''कौन से गाँव में भेजेगी इन्हें ?'' दीने ने चीख़कर कहा, ''कौन सा गाँव रह गया है जहाँ यह बची रहेगी। और इसका बेटा, वह अब नहीं लौटने वाला।
वह अबकी उस गाँव गया है, जहाँ से कोई नहीं लौटता। नए चक्क के सभी खत्री मारे गए हैं। कोई बीज डालने लायक
भी नहीं बचा।''
औरत का मुँह उतर गया। काँपनी हुई अँगुली उसने अपने होंठों से लगाई और बोली, ''धीरे नहीं बोल सकता तू। अब इसे सुनाकर ही मानेगा कि तेरा
बेटा मारा गया है।''
अभी तक अधिकतर बातें उन्होंने कानाफूसी में ही की थीं, पर यह कानाफूसी बिल्कुल
ही बेज़रूरत थी। वे कितनी ही ऊँची आवाज़ में बात क्यों न करते, बूढ़ी के कान में कुछ भी
नहीं पड़ने वाला था।
बूढ़ी ने ताप में तपती आँखें उनके चेहरों पर गाड़ दीं और खीझकर बोली, ''तुम दोनों ने यह क्या घुसुर-फुसुर
लगा रखी है। और तू तो दीने, मेरी तरफ देखता ही नहीं। ओ निकम्मे ! जरा संगली ही जोड़ देता। यह भी कोई काम है, भला।''
''कल आना माई,'' अपना मुँह बूढ़ी के कान से सटाकर दीना बोला, ''आज मुझे फुर्सत नहीं है। तू अब जा भी घर को।''
''अच्छा'', घुटनों पर हाथ रखती हुई बूढ़ी कराही, ''उठूँ। तू कल के लिए बोलता है तो कल ही सही। पर, मेरी बकरी का ध्यान रखना।
ले, मैं अब तुझे कह जा रही हूँ, दिखाई दे तो बाँध लेना। पता नहीं कमबख्त कहाँ दौड़ी फिरती है।''
इससे पहले कि दीने की घरवाली उसे रोकती, लड़खड़ाती हुई बूढ़ी बाहर गली में निकल गई।
इस बुढ़िया ने कितना वक्त ख़राब कर दिया था। काम में हुए हर्ज का दीने को पछतावा
हो रहा था। इतनी देर में तो वह पाँच फरसे तैयार कर लेता। और बशीरा यह तो पूछने से रहा
कि वह कौन सी बेकार की सिर-खपाई में लगा रहा। उसने तो पचास फरसे गिनकर रखवा लेने थे।
उसने काम में डूब जाना चाहा पर, वह डूब न सका। एक धुकधुकी उसके दिल में लग गई थी। काँपती
सफ़ेद लटों के पीछे उन बुखार की मारी आँखों की याद बार-बार उसके अन्दर आ खड़ी होती। आग
के दो मोटे शोलों की तरह वो आँखें उसके दिमाग में धंसती चली गईं।
जो बात उसे सबसे अधिक परेशान कर रही थी, वह बूढ़ी की अज्ञानता थी। वह कुछ नहीं जानती थी। वह नहीं
जानती थी कि तुलसी को कभी पड़ोस के गाँव से लौटकर नहीं आना था। न ही प्रीतो की कभी शादी
होनी थी। प्रीतो को तो उसके बाप की हवेली समेत बशीरे ने संभाल लिया था।
बशीरे ने यह बहुत बुरा किया था। बहन-बेटियों की इज्ज़त सबकी साझा थी। पराई बेटियों
की इज्ज़त अपनी बेटियों जैसी थी और कौन था जो अपनी बेटियों की बेइज्ज़ती को अच्छा काम
कहता।
अकस्मात् एक भयानक दृश्य दीने की आँखों के आगे उभर आया। प्रीतो दहाड़ें मार-मार
रोती हुई अपने पिता की लाश से लिपट रही थी। और बशीरा उसे चुटिया से पकड़कर खींचता हुआ
ले गया था। चीखती-चिल्लाती, मिन्नतें करती वह उसके पीछे-पीछे घिसटती चली गई थी। फिर अचानक वह चुप हो गई थी
जैसे हलाल होने से पहले भेड़ चुप हो जाती है।
और वह, बशीरे का बाप, दहलीज़ में खड़ा-खड़ा चुपचाप यह नारकीय दृश्य देखता रहा था। उसने बशीरे को नहीं रोका
था। उसे गर्दन से पकड़कर नीचे नहीं गिराया था। अपनी बेटी की आबरू बचाने का कोई यत्न
नहीं किया था।
प्रीतो के पीले जर्द चेहरे के धुँधले से दृश्य दीने की आँखों के सामने नाचने लगे
और उसकी चीख-पुकार उसके कानों में गूँजने लगी। अचानक वह काँपने लग पड़ा, बहुत ज़ोर की कंपकंपी उठी
जो लगता था, ठंडी बर्फ़-सी मौत का संदेश थी। उसे लगा, इस कंपकंपी को कम करने का एक ही तरीका था कि वह भट्ठी
में तपते लोहे के टुकड़े उठाकर अपनी छाती में दबा ले।
उसे लगा, वह पागल हो जाएगा। कुछ कर बैठेगा। उसे भाग जाना चाहिए था, दूर, इस सबसे दूर। अचानक ही
उसने खिड़की खोली और बाहर कूद गया। कितनी ही देर वह बेतहाशा खेतों में दौड़ता रहा।
तीसरा पहर शाम में बदल रहा था। क्षितिज में किसी ने सूरज का क़त्ल कर दिया था। मासूमों
के लहू से सारा आसमान रंग गया था। यह लहू खेत की नालियों के पानी में भी घुल गया था।
यह गन्ना किसने चूसना था जिस पर लहू के छींटे पड़े थे। यह कपास किसने इस्तेमाल करनी
थी जिसकी सिंचाई लहू से हुई थी। और लहू से सींची गई उन क्यारियों में कैसी गेहूं की
फ़सलें उगनी थीं। चारों ओर लहू का छिड़काव उसके खुद के हाथों बनाए गए फरसों से किया गया
था। हड्डियों और माँस की फ़सल उसके अपने हाथों तैयार किए गए बल्लमों और गंडासों से बोई
गई थी और जो दो चार गाँव बच गए थे, उनके लिए फरसे वह तैयार करके हटा था। कल रात तक उनका
भी सफाया हो जाना था।
वह गुनहगार था, घोर गुनहगार ! बशीरे की माँ ने सच कहा था - कम से कम नए बनाए हुए फरसों को उसे
बशीरे के हाथ नहीं लगने देना चाहिए। ऐसा करने पर उसके गुनाहों का प्रायश्चित नहीं होने
वाला था, पर अब वह और कर भी क्या सकता था।
वह बेतहाशा गाँव की ओर दौड़ पड़ा। बशीरे के आदमियों के पहुँचने से पहले वह घर पहुँच
जाना चहाता था। फरसों-गंडासों को किसी कुएँ या नाले में फेंक देना चाहता था, जहाँ उनका अता-पता न चल
सके।
जब वह गाँव के करीब पहुँचा तो रात पड़ चुकी थी और चाँद की मद्धम रोशनी गली में घरों
के धुँधले साये फेंक रही थी। रात की बरसात से गलियों में कीचड़ हो गया था। बार-बार उसके
पैर कीचड़ में फँस जाते थे, पर वह तेज़-तेज़ चलता रहा। अचानक वह काँप कर रुक गया। कुछ ही दूरी पर आवाज़ें सुनाई
दीं। ये आवाज़ें तो उसके ही घर से आ रही थीं। तो क्या वे लोग आ पहुँचे थे ? उसे देर हो गई थी। बशीरे
की लचर हँसी अब उसे स्पष्ट सुनाई दे रही थी।
घर के बाहर किसी भारी चीज से उसे ठोकर लगी और वह मुँह के बल गिर पड़ा। उसने उठने
की कोशिश की, पर उठ न सका। कोई ठंडी बर्फ़-सी पीड़ा उसके पैरों से लिपट गई थी। उसने अपने पैर छुड़ाने
का यत्न किया किन्तु वे और भी बुरी तरह जकड़े गए थे। एक भय ने उसके दिल में प्रवेश किया
और उसके माथे पर पसीने की ठंडी बूँदें उभर आईं। जिस्म की पूरी ताकत लगाकर उसने पीछे
मुड़कर देखा। चाँद की चाँदनी में कुछ सफ़ेद लटें हिल रही थीं। फरसे का एक लम्बा कट बूढ़ी
के माथे पर था और उसकी पथराई आँखें फटकारती प्रतीत होती थीं। उसने अपने पैरों की ओर देखा। बूढ़ी की बाहों में उलझी
संगली ने उसके पैरों को जकड़ रखा था।
एक चीख़ उसके मुख से निकली और वह बेहोश हो गया। उस रात उसे बहुत तेज़ बुखार चढ़ा।
सारी रात वह चारपाई पर करवटें बदलता रहा। पूरी रात उसके बड़बड़ाने की आवाज़ गाँव की सुनसान
चुप में गूँजती रही, ''मुझे न मारो, मुझे फरसों ने न मारो... यह संगली मेरी गर्दन से हटाओ... हाय, मेरी बेटी ! मेरी बेटी
को कुछ न कहो... प्रीतो को कुछ न कहो... हाय, यह संगल ! अल्लाह का वास्ता, मुझे फरसों से न मारो...
मुझे न मारो !''
3 टिप्पणियाँ:
apne samay ko byaan karti yeh kathaa man ko dehlaa jati hai.
बहुत ही दर्दनाक सच...बहुत ही दर्दनाक कहानी...
बहुत ही दर्दनाक सच...बहुत ही दर्दनाक कहानी...
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