आत्मकथा/स्व-जीवनी
>> गुरुवार, 16 अगस्त 2012
पंजाबी के एक जाने-माने लेखक प्रेम प्रकाश का जन्म ज़िला-लुधियाना के खन्ना
शहर में 26 मार्च 1932(सरकारी काग़ज़ों में 7 अप्रैल 1932) को हुआ। यह 'खन्नवी' उपनाम से
भी 1955 से 1958 तक लिखते रहे।
एम.ए.(उर्दू) तक शिक्षा प्राप्त प्रेम प्रकाश 'रोज़ाना मिलाप'
और 'रोज़ाना हिंद समाचार' अख़बारों में पत्रकारिता से जुड़े रहे। 1990 से 2010
तक साहित्यिक पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका 'लकीर'
निकालते रहे। लीक से हटकर सोचने और करने में विश्वास रखने वाले इस
लेखक को भीड़ का लेखक बनना कतई पसन्द नहीं। अपने एक इंटरव्यू में 'अब अगर कहानी में स्त्री का ज़िक्र न हो तो मेरा पेन नहीं चलता' कहने वाले प्रेम प्रकाश स्त्री-पुरुष के आपसी संबंधों की पेचीदा गांठों
को अपनी कहानियों में खोलते रहे हैं। यह पंजाबी के एकमात्र ऐसे सफल लेखक रहे हैं
जिसने स्त्री-पुरुष संबंधों और वर्जित रिश्तों की ढेरों कामयाब कहानियाँ पंजाबी
साहित्य को दी हैं। इनकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि मनुष्य मन की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर
गांठों को पकड़ने में सफल रही हैं।
कहानी संग्रह 'कुझ अणकिहा वी' पर 1992 मे
साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त यह लेखक अस्सी वर्ष की उम्र में भी पहले जैसी
ऊर्जा और शक्ति से निरंतर लेखनरत हैं। इनके कहानी संग्रह के नाम हैं - 'कच्चघड़े'(1966), 'नमाज़ी'(1971), 'मुक्ति'(1980), 'श्वेताम्बर ने कहा था'(1983),
'प्रेम कहानियाँ'(1986), 'कुझ अनकिहा वी'(1990),
'रंगमंच दे भिख्सू'(1995), 'कथा-अनंत'(समग्र कहानियाँ)(1995), 'सुणदैं ख़लीफ़ा'(2001),
'पदमा दा पैर'(2009)। एक कहानी संग्रह 'डेड लाइन' हिंदी में तथा एक कहानी संग्रह अंग्रेजी
में 'द शॉल्डर बैग एंड अदर स्टोरीज़' (2005)भी प्रकाशित। इसके अतिरिक्त एक उपन्यास 'दस्तावेज़'
1990 में। आत्मकथा 'बंदे अंदर बंदे'
(1993) तथा 'आत्ममाया'( 2005) में प्रकाशित। कई पुस्तकों का संपादन जिनमें 'चौथी
कूट'(1996), 'नाग लोक'(1998),'दास्तान'(1999),
'मुहब्बतां'(2002), 'गंढां'(2003) तथा 'जुगलबंदियां'(2005) प्रमुख
हैं। पंजाबी में मौलिक लेखक के साथ साथ ढेरों पुस्तकों का अन्य भाषाओं से पंजाबी
में अनुवाद भी किया जिनमें उर्दू के कहानीकार सुरेन्द्र प्रकाश का कहानी संग्रह 'बाज़गोई' का अनुवाद 'मुड़ उही
कहाणी', बंगला कहानीकार महाश्वेता देवी की चुनिंदा कहानियाँ,
हिंदी से 'बंदी जीवन'- क्रांतिकारी
शुचिंदर नाथ सानियाल की आत्मकथा, प्रेमचन्द का उपन्यास 'गोदान', 'निर्मला', सुरेन्द्र
वर्मा का उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' तथा
काशीनाथ सिंह की चुनिंदा कहानियाँ आदि प्रमुख अनुवाद कृतियाँ हैं।
सम्मान : पंजाब साहित्य अकादमी(1982),
गुरूनानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर द्वारा भाई
वीर सिंह वारतक पुरस्कार(1986), साहित्य अकादमी, दिल्ली(1992), पंजाबी अकादमी, दिल्ली(1994),
पंजाबी साहित्य अकादमी, लुधियाना(1996),
कथा सम्मान,कथा संस्थान, दिल्ली(1996-97), सिरोमणि साहित्यकार, भाषा विभाग, पंजाब(2002) तथा
साहित्य रत्न, भाषा विभाग, पंजाब(2011)
सम्पर्क : 593, मोता
सिंह नगर, जालंधर-144001(पंजाब)
फोन : 0181-2231941
ई मेल : prem_lakeer@yahoo.com
आत्म माया
प्रेम प्रकाश
हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव
कहानी लेखन की शुरुआत
मैं 22-23 वर्ष की आयु में 1954-55
में जालंधर रहते हुए कहानी लिखने लगा था। इससे पहले मुझे साहित्य का
अधिक ज्ञान नहीं था। खन्ना में रहते हुए बेकारी, आवारगी,
घर की नित्य की डाँट-फटकार और अविश्वास के अहसास ने मुझे बेहद दु:खी
किया हुआ था। जिसके कारण मैं ख़ासा ढीठ, जिद्दी, अपने अन्दर ही घुसा रहने वाला और बदला लेने वाला बन गया था। मुझे मेरी मानसिक
स्थिति ने माता-पिता, बहन-भाइयों, अपने
शहर और अपने गाँव के लोगों, पुश्तैनी घर और बचपन की जगहों से
बेमुख और निर्मोही-सा कर दिया था। भोजन करते हुए मुझे लगता था कि मैं अपने बाप की रोटी
उसकी जूतियों में डाली गई दाल से खाए जा रहा होऊँ।
मैं कई बार स्कूल
से घर भागा था और कई बार मेरे पिता जी ने मुझे घर से बाहर निकाला था। आठवीं कक्षा के
बाद मेरे साथ कुछ ऐसी घटनाएँ बीतने लग पड़ी थीं कि मेरी समझ में नहीं आता था कि यह क्या
हो रहा था ? आठवीं कक्षा में मैं गणित के मास्टर की मार से डरता
स्कूल से भागने लग पड़ा था। उसी वर्ष 1947 में मैंने फसाद देखे
और धर्म व परमात्मा से मैं बेमुख हो गया। मेरी सोच बुरी तरह उलझ गई थी। मेरा दिल किसी
काम में नहीं टिकता था। मैं किसी अनजानी जगह भाग जाना चाहता था। मुझे खन्ना की कोई
भी जगह अच्छी नहीं लगती थी।
नवीं कक्षा में
जाकर मेरे दिमाग में पता नहीं क्या फितूर पैदा हो गया कि मैं उस शरीफ़ अध्यापक को घूंसा
मार बैठा जिसने पहले मुझे कभी नहीं मारा था। उस दिन मेरे मन में था कि मुझे किसी अध्यापक
को मारना है। इस बुरी घटना का मुझे अब भी अफ़सोस है। मैं मारने-पीटने वाले अध्यापकों
से अब भी नफ़रत करता हूँ और उन्हें कमअक्ल और कम्प्लेक्सों का मारा हुआ समझता हूँ। मुझे
गुरू-शिष्य की परम्परा अब भी अच्छी नहीं लगती।
इस घटना के कारण
मुझे स्कूल में से निकाल दिया गया था। घर में बाप की गालियों और लाठियों का डर था।
मैं रोज़ बस्ता उठाकर स्कूल चला जाता, पर स्कूल के अन्दर जाने
के बजाय मैं उसके सामने बने सरकारी पशु-अस्पताल में जा बैठता। स्वयं ही किताबें पढ़ता
और लिखता रहता। थक जाता तो पशुओं और डॉक्टरों के बीच होने वाली कुश्ती को देखता और
कभी खुद भी जानवरों को बाँधने और ढाहने में उनकी सहायता करता।
कभी-कभी मैं रेलवे
स्टेशन के गोदामों में जा बैठता। जहाँ आती-जाती गाड़ियों और सवारियों को देखता रहता
और साथ-साथ पढ़ता भी रहता। बैठने के लिए गोदामों में मूंगफली की बोरियों की कतारें लगी
होतीं। उनमें से गिरी मूंगफली खाता रहता। जब स्कूल की किताबें पढ़ने से ऊब जाता तो बाहर
की किताबें पढ़ने लग पड़ता। वे किताबें मैं आर्य समाज की लाइब्रेरी से शाम के वक्त निकलवा
लाता था। मेरे पिता जी किसी समय आर्य समाज के मंत्री और लाइब्रेरी के आजीवन सदस्य थे।
मैंने उनके दोनों कार्ड उनकी अल्मारी में से निकाल लिए थे। लाइब्रेरी से मैं उर्दू
की कविता और कहानियों की किताबें लाता था। उस लाइब्रेरी में उर्दू के आधुनिक साहित्य
की नई से नई पुस्तक आती थी। उस समय में मैंने उर्दू साहित्य की करीब दो सौ किताबें
पढ़ ली थीं, परन्तु उनके विषय में बात करने के लिए कोई नहीं मिलता
था। क्योंकि खन्ना बनियों का शहर है। कोई कोई व्यक्ति उर्दू की कविता पढ़ता या लिखता
था।
उन दिनों में स्कूलों
में पढ़ाई का माध्यम उर्दू भाषा हुआ करती थी। हिंदी और संस्कृत विषय मुझे पिता जी ने
जबरन दिलवाए थे। हिंदी मुझे शीघ्र आ गई थी, पर हिंदी साहित्य
पढ़ना मुझे अच्छा नहीं लगता था। सिर्फ़ एक हरिवंश राय बच्चन की 'मधुबाला' और 'मधुशाला' मज़ा लेकर पढ़ी थीं। पंजाबी साहित्य मैं फारसी अक्षरों में छपा पढ़ा करता था,
जिससे मेरी मोहन सिंह, दर्शन सिंह आवारा और फ़िरोज़दीन
शर्फ़ से जान-पहचान हुई थी। आवारा ने मुझे पंजाबी की ओर खींच लिया था। फिर, साधू दया सिंह आरिफ़ के 'ज़िन्दगी बिलास' ने गुरमुखी लिपि सिखा दी थी।
दसवीं करने के बाद
जब मैं गाँव बडगुज्जरां जाकर खेती करने लग पड़ा था तो घरवालों के प्रति गुस्सा और रोष
मुझे वहाँ जीने नहीं देता था। मैंने घर से भागकर खरड़ में जे.बी.टी. में दाख़िला ले लिया
था। उस स्कूल की तरफ़ से उर्दू में एक परचा निकाला जाता था। मैंने भी एक ग़ज़ल लिख दी,
जिसमें एक काल्पनिक प्रेमिका को मिलने की चाहत प्रकट की गई थी। जो प्रगतिशील
विचारों से लदी हुई थी। उसका एक मिसरा शायद कुछ इस तरह था - ''तख्ता-ए-मश्के सितम बनते रहेंगे कब तलक ?'' पर जब वह
छपी देखी तो इंचार्ज अध्यापक ने सारी की सारी इश्किया बना दी थी।
कुछ समय बाद एक
दिन खन्ना में अपने चौबारे में बैठे-बैठे मुझे एक विचार-सा आया
और मैंने उर्दू में एक कहानी लिख दी - 'दो पाट'। उसे बड़े भाई ने देख लिया तो मैंने शरम के मारे ने उसे फाड़ दिया। दुबारा यह
सोच ही बिसर गई।
सितम्बर 1953 को मुझे जालंधर के करीब सरकारी प्राइमरी स्कूल, रंधावा
में नौकरी मिल गई। मैं घर से बिस्तर लेकर यह सोच कर निकला था कि अब दुबारा उस घर में
नहीं घुसूँगा।
मैं रहता जालंधर
शहर में अपने मामा जी के पास था और साइकिल से स्कूल जाया करता थ। क्योंकि मुझे अभी
तनख्वाह मिलना शुरू नहीं हुई थी। जब तनख्वाह मिलने लग पड़ी तो मैं चौक सूदां में बर्तनों
वाले बाज़ार के करीब 'बाहरी मार्किट' में
रहने लग पड़ा था। उस मार्किट में बने चालीस के करीब कमरों में विद्यार्थी, छड़े व्यक्ति या अपने परिवारों से दूर रहने वाले मुलाज़िम रहा करते थे। वहीं
मेरी मुलाकात फ़ौजी गुरबचन चौधरी से हुई। वह उर्दू में कविता, कहानी, नाटक और नावल लिखता था। अब पंजाबी की ओर आने की
सोच रहा था। वह गुरमुखी अक्षरों में ज्ञानी कर रहा था। उसने एक दिन मुझे भी ज्ञानी
हीरा सिंह के कालेज में ला बिठाया और फार्म भरवा कर दाख़िला भिजवा दिया। मैंने मज़ाक-मज़ाक
में परीक्षा दे दी और पास हो गया। साथ ही, तेज़ी से पंजाबी लिखना
सीख गया। कुछ साहित्य भी पढ़ लिया। गुरबचन चौधरी ने ही एक दिन प्रो. मोहन सिंह के दर्शन
करवाये और कुछ दिनों बाद उनके घर में हो रही मीटिंग में ले गया। जहाँ पर ज्ञानी हीरा
सिंह दर्द, फ़िक्र तौंसवी, ताजवर सामरी,
मख़मूर जलंधरी और पंजाबी के कई नौजवान लेखक आए बैठे थे। वहाँ मेरी मुलाकात
सुरजन ज़ीरवी, गुरदर्शन सिंह उर्फ़ महिरम यार, जसवंत सिंह विरदी और अन्य प्रगतिशील लेखकों से हुई। मीटिंग में गुरबचन चौधरी
ने कहानी सुनाई थी। बहुत संजीदा बहस हुई थी। गुरबचन चौधरी ने अगली मीटिंग में कहानी
पढ़ने के लिए मेरा नाम लिखवा दिया था। उसने
मेरी लिखी पहली अधूरी कहानी देख ली थी। मैं बहुत डर गया था। मैं गाँव में खेती करने
और कूड़ा ढोनेवाला व्यक्ति बड़े शहर के बड़े लेखकों और विद्वानों के पास बोलने का हौसला
करने योग्य नहीं था।
मीटिंग वाले दिन
चौधरी मुझे बांह से पकड़कर ले गया। जब प्रो. मोहन सिंह ने मेरा नाम 'प्रेम प्रकाश खन्नवी' बोला तो मेरे दिमाग में 'सांय-सांय' होने लग पड़ी थी। पढ़ने लगा तो मुझे पता ही
नहीं था कि मैं कहाँ बैठा हूँ और मेरे इर्द-गिर्द कौन लोग हैं। कहानी समाप्त होने पर
मुझे बैठे हुए व्यक्ति नज़र आए। सब चुप थे और मेरी जान निकल रही थी। तभी फ़िक्र तौंसवी
ने मोहन सिंह की ओर देखते हुए कहा, ''लो, मैं ही बात शुरू करता हूँ।''
उन्होंने कहानी
की काफ़ी प्रशंसा की और फिर एक समझदारी की बात बताई कि लेखक को चाहिए कि वह सिच्युएशन
को जनरलाइज़ न करे। मुझे उनकी कोई भी बात समझ में नहीं आई। फिर मोहन सिंह ने नौजवान
की सरपरस्ती के अंदाज़ में सिफ्त की तो अन्य कइयों के सुर भी उनके साथ मिल गए थे।
मीटिंग ख़त्म हुई
तो सभी नौजवान दोस्त मुझे मिलकर दुबारा मिलने के इकरार ले रहे थे। मुझे लगा था कि मैं
लौटकर एक नये परिवार में आ गया हूँ। जहाँ बड़े विचार और प्रेम ही प्रेम है। जहाँ पिता
और भाई की झिड़कियाँ और मार पीट नहीं है। जहाँ मुझे लोग अपने घरों में बुलाते हैं,
घरों से बाहर नहीं निकालते।
मेरी उस पहली कहानी
का नाम था - 'उपत-खुपत'। उसे मैंने 'प्रीतलड़ी' को भेज दिया तो नवतेज सिंह ने कुछ फालतू पंक्तियाँ
काटकर उसे छाप दिया। मुझे पंक्तियाँ काटने वाली बात ठीक नहीं लगी थी। पर 'प्रीतलड़ी' में छपना एक ऐसी खुशी वाली बात थी जिसे व्यक्त
नहीं किया जा सकता। बाद में वह कहानी मुझे स्वयं को अच्छी नहीं लगी थी और मैंने उसे
रद्द कर दिया था। किसी कहानी-संग्रह में भी शामिल नहीं की थी।
दूसरी कहानी प्रो.
मोहन सिंह ने अपने परचे 'पंज दरिया' में
छाप ली थी और तीसरी ज्ञानी हीरा सिंह दर्द ने मांग कर अपनी पत्रिका 'फुलवाड़ी'(जिसका प्रकाशन पुन: शुरू हुआ था) में छापी थी।
फिर तो सभी बड़ी पत्रिकाओं में छपने के दरवाज़े मेरे लिए खुल गए थे।
1-पहला दौर - यह वो समय था जब कम्युनिस्ट
पार्टी अपने पूरे शिखर पर थी। नेताओं के भाषण सुनकर पार्टी वर्कर और हमदर्द, इंकलाब
के आने की कानाफूसी करते थे। लगता था कि एक धक्का और लगने की देर है, देश में सर्वहारा राज्य कायम हो जाएगा। मज़दूर नेता राज करेंगे और कम्युनिस्ट
दानिशवर, पत्रकार, साहित्यकार और अन्य कलाकार
बड़े-बड़े पदों को संभाल लेंगे।
स्कूल से भागते
समय मैंने प्रगतिशील विचारों का जो उर्दू साहित्य पढ़ा था, उसने
और मेरे निजी हालात ने, मुझे इस समाज को बदलने के सपने देखने वाले प्रगतिशील साहित्य
और मज़दूर आंदोलन का हमदर्द बना दिया था। मुझे पार्टी के दफ्तर क्रांति के मंदिर दिखते
थे। पर यह भ्रम कुछ समय बाद पहले साहित्य के बारे में और फिर मज़दूर किसान आंदोलनों
के बारे में टूटता चला गया था।
आम तौर पर यह होता
है कि हमने करीब बीस बरस की उम्र तक जैसा जीवन व्यतीत किया होता है और उसकी छाप हमारे
विचारों पर इतनी गहरी होती है कि हम सारी उम्र उसकी ही जुगाली करते हुए अपने लेखन में
वही टुकड़े जोड़ते रहते हैं। हमारा अतीत हमारे साथ चिपटा रहता है। पर मेरे साथ इससे ज़रा
भिन्न हुआ। क्योंकि मैं अपने माता-पिता को, अपने बहन-भाइयों को,
गाँव और शहर की धरती को और वहाँ के लोगों को छोड़कर खुश हुआ था। अतीत
की बुरी और हतक भरी यादों से पीछा छुड़ाना चाहता था। कुछ छूटने भी लग पड़ा था,
पर कुछ अरसे के बाद मैं फिर घर जाने लग पड़ा था। जिस कारण मेरा अतीत मेरे
अनुभवों का कीमती हिस्सा बन गया था। परन्तु मेरे अन्दर से मोह टूट चुका था। जिससे मैं
श्रद्धा, अंध-विश्वास और भावुकता से थोड़ा बहुत मुक्त हो गया था।
आख़िर वही अनुभव नये अनुभवों के साथ मिलकर मेरी कहानियों के आधार बने।
2-प्रारंभिक कहानियाँ - मेरी
पहली बहुत सी कहानियों में समाज की कुछ ऐसी तस्वीरें पेश होती थीं, जो या तो मैं उन्हें समाज का कोढ़ समझकर दर्शाना चाहता था या वे पाठकों की दिलचस्पी
रचना में बनाने के लिए पैदा करता था। क्योंकि प्रगतिवादी साहित्य का यही उसूल था। मैं
अधिक से अधिक अपने आप पास के माहौल की तस्वीरें खींचता था। तब मेरा अल्पज्ञान इतना
ही था कि साहित्य आपके सामाजिक माहौल का शीशा होना चाहिए। मैं उस शीशे में से व्यक्ति
के उस रूप को तो दिखाता ही था जो दूसरे मेरे समकालीन दिखलाते थे, परन्तु मैं वो रूप भी दिखलाना चाहता था, जो मेरे अन्य
समकालीन दिखलाने से डरते थे या संकोच करते थे। जिन्हें मैंने उर्दू कहानीकारों और विशेष
तौर पर सआदत हसन मंटों की कहानियों में देखा था। वो मेरे अपने कल्पित रूपों से मिलते
थे।
(जारी)
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