पंजाबी उपन्यास
>> गुरुवार, 16 अगस्त 2012
बलबीर मोमी
अक्तूबर 1982 से कैनेडा में प्रवास कर रहे
हैं। वह बेहद सज्जन और मिलनसार इंसान ही नहीं, एक सुलझे हुए समर्थ लेखक भी हैं।
प्रवास में रहकर पिछले 19-20 वर्षों से वह निरंतर अपनी
माँ-बोली पंजाबी की सेवा, साहित्य सृजन और पत्रकारिता के माध्यम से कर रहे हैं। पाँच कहानी संग्रह [मसालेवाला घोड़ा(1959,1973),
जे मैं मर जावां(1965), शीशे दा समुंदर(1968), फुल्ल खिड़े हन(1971)(संपादन), सर दा
बुझा(1973)],तीन उपन्यास [जीजा जी(1961), पीला गुलाब(1975) और इक फुल्ल मेरा
वी(1986)], दो नाटक [नौकरियाँ ही नौकरियाँ(1960), लौढ़ा वेला (1961) तथा कुछ एकांकी
नाटक], एक आत्मकथा - किहो जिहा सी जीवन के अलावा अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी
हैं। मौलिक लेखन के साथ-साथ मोमी जी ने पंजाबी
में अनेक पुस्तकों का अनुवाद भी किया है जिनमे प्रमुख हैं – सआदत
हसन मंटो की उर्दू कहानियाँ- टोभा टेक
सिंह(1975), नंगियाँ आवाज़ां(1980), अंग्रेज़ी नावल ‘इमिग्रेंट’ का पंजाबी अनुवाद ‘आवासी’(1986), फ़ख्र जमाल के उपन्यास ‘सत गवाचे लोक’ का लिपियंतर(1975), जयकांतन की तमिल कहानियों का
हिन्दी से पंजाबी में अनुवाद।
देश –विदेश के अनेक
सम्मानों से सम्मानित बलबीर मोमी ब्रैम्पटन (कैनेडा) से प्रकाशित होने वाले पंजाबी
अख़बार ‘ख़बरनामा’ (प्रिंट व नेट एडीशन) के संपादक हैं।
आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास ‘पीला गुलाब’ भारत-पाक विभाजन की कड़वी यादों को समेटे हुए है। विस्थापितों द्बारा नई
धरती पर अपनी जड़ें जमाने का संघर्ष तो है ही, निष्फल प्रेम की कहानी भी कहता है। ‘कथा पंजाब’ में इसका धारावाहिक प्रकाशन करके हम प्रसन्नता अनुभव
कर रहे हैं। प्रस्तुत है इस उपन्यास की आठवीं किस्त…
- सुभाष नीरव
पीला गुलाब
बलबीर सिंह
मोमी
हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव
8
इम्तिहान के दिनों में बापू मुझे गाँव के एक स्कूल में ले गए और मेरा एक
वर्ष बर्बाद न हो, इस डर से मुझे आठवीं में दाख़िल करवाने के लिए हैडमास्टर से
मिले। मेरे पास चूँकि कोई सर्टिफिकेट नहीं था और मेरा छोटा-सा कद देखकर हैडमास्टर कहने
लगा, ''तुम रिफ्यूजियों को तो झूठ बोलने की आदत ही हो गई है।
चाहे कोई उधर भीख मांगता हो, पर इधर आकर यही कहता है कि मेरे
उधर कई मुरब्बे थे। अब भला देखने वाला यह मान सकता है कि यह छोटा-सा लड़का आठवीं में
पढ़ता होगा।'' और हैडमास्टर ने अपनी सघन मूंछों में से घूर कर
मेरी फटी हुई पगड़ी, मैली कमीज़ और नंगे पैरों की ओर देखा और मेरे
पिता से बोला, ''सरदार, क्यों झूठ बोलता
है ? लड़का तेरा मुश्किल से पाँचवी में पढ़ता होगा।''
यदि यह बात आज से
छह महीने परे मेरे बापू को हमारे अपने गाँव के हाई स्कूल के हैडमास्टर ने कही होती,
जहाँ मेरा बापू स्कूल कमेटी का मेंबर और गाँव का जत्थेदार था,
तो मेरा बापू उस हैडमास्टर को शाम होने से पहले स्कूल से निकलवाकर ही
साँस लेता, पर अब तो पता नहीं क्या हो गया था। बापू ने बड़ी विनम्रता
से कहा, ''जनाव, मेरा लड़का आठवीं में ही
पढ़ता है, मैं झूठ नहीं बोलता।''
''अच्छा,
मैं इसका टैस्ट लेकर दाख़िल करूँगा। तुम टैस्ट देने के लिए तैयार हो?''
मेरे बापू ने मेरी
तरफ़ देखा। मैंने धीमे स्वर में कहा, ''पढ़ाई छोड़े छह महीने हो
गए है, पर मैं टैस्ट देने के लिए तैयार हूँ।''
हैडमास्टर ने मुझसे
कहा, '' 'हमारा स्कूल सर्दियों में दस बजे खुलता है और चार बजे
बन्द होता है' का तर्जुमा अंग्रेजी में कर के दिखा।''
मैंने उसी वक्त
क़हा, '' अवर स्कूल ओपन्ज़ एट टैन ए.एम. एंड क्लोज़ज़ एट फोर पी.एम.
इन दा विंटर।''
हैडमास्टर मेरे
द्वारा एकदम जवाब देने पर हैरान हो गया और जल्दी से चपरासी से बोला, ''जा रे, दसवीं के मॉनीटर को बुलाकर ला।''
जब चपरासी दसवीं कक्षा के मॉनीटर
को बुलाकर लाया तो हैडमास्टर ने उससे कहा, ''देख ओए, यह छोटा-सा लड़का आठवीं में पढ़ता है और तू इतना बड़ा दसवीं में। कर तो ज़रा तर्जुमा
- मुझे अपने कोट का ऊपरी बटन दिखाओ।''
मॉनीटर ने कहा, ''शो मी दा बटन ऑफ़ युअर कोट।''
मैंने हाथ ऊपर उठाकर कहा,
''मैं बताऊँ ?''
हैडमास्टर ने 'हाँ' का इशारा किया।
''शो मी दा अपर बटन आफ़ युअर कोट।''
इतना बताकर मैंने पूछा, ''जी, डायरेक्ट-इनडायरेक्ट और अनैलेसिज़ भी पूछो।''
''ओए ये तो अभी हम यहाँ दसवीं
के बच्चों को भी नहीं करवाते।'' और हैडमास्टर की आँखों में रहम-सा
आ गया और उसने मेरे पिता से कहा, ''सरदार
जी, लड़का आपका बहुत लायक है। अगर आप नौवीं में कहते तो हम इसे
नौवीं में भी दाख़िल कर लेते। अच्छा, इसको जूती और पगड़ी नई ले
देना।''
यद्यपि घरवाले मुझे नई कमीज़ और
नई जूती काफ़ी समय तक नहीं लेकर दे सके, पर कक्षा में मैं धीरे-धीरे
अपनी इज्ज़त और वक़ार बनाता चला गया। यह वक़ार मेरा कभी भी नहीं बन सकता था यदि मैं कक्षा
के लड़कों के मुकाबले होशियार न होता। यह गाँव अमीरों का था और अमीरों के लड़के स्कूल
पढ़ने के लिए नहीं अपितु समय काटने के लिए आया करते थे।
ज़िला-बठिंडा के जिस गाँव में हमको
नाम मात्र ज़मीन अलॉट हुई थी, वहीं तेलियों का कच्चा टूटा-फूटा
मकान भी अलॉट हुआ था। कुछ बर्तन गाँव वालों ने दान किए थे। एक-दो बार गेहूं भी इकट्ठा
करके दी थी, परन्तु हमारा अभी तक कोई सिलसिला नहीं बन सका था
जिससे हम अपने पैरों पर खड़े हो सकते। मुझे ये मांगी हुई वस्तुएँ को लेना बहुत चुभता
था, पर मैं क्या कर सकता था। एक बारह-तेरह वर्ष का लड़का कर भी
क्या सकता था ?
एक तरफ़ देश के पुनर्स्थापन की
गंभीर समस्या थी, दूसरी तरफ़ इस गाँव में छोटे-छोटे जमींदारों
के अलावा एक शाह भी था जो अकेला ही आधे गाँव का मालिक था। उसके सैकड़ों मुज़ारे (खेतिहर)
थे। सरकार दरबार में उसकी कही चलती थी। गाँव में भी यदि वह दिन को रात कह दे तो लोग
उसकी बात मानकर रात ही कह देते थे। उसकी सम्पत्ति का कोई सीमा नहीं थी। उसके रौब का
कोई अन्त नहीं था। उसके पास अनेक बैल, भैंसें, घोड़ियाँ, ऊँठ और दो जीपें भी थीं। अन्य बातों का क्या
कहना ?
कहते हैं, देश विभाजन हुआ तो शाह ने आस पास के सभी मुसलमानों से कहा कि यदि जीवित पाकिस्तान
पहुँचना चाहते हो तो मेरी हवेली में आ जाओ। इलाके के हज़ारों मुसलमान अपनी जवान बेटियों,
बहनों, बहुओं और बच्चों के संग शाह की हवेली में
आ एकत्र हुए। फिर शाह ने कहा, ''अपना रुपया-पैसा, नकदी, जेवर आदि मुझे पकड़ा दो। पाकिस्तान की हद के अंदर
घुसते समय तुम्हारी अमानत तुम्हारे हवाले कर दी जाएगी, नहीं तो
राह में लुटेरे लूट लेंगे।''
मुसलमानों ने अपनी जान माल के
रक्षक शाह को हाथों-कानों में पहना हुआ भी सबकुछ उतार कर उसके हाथों में थमा दिया।
जब रात हुई तो जवान बेटियों, बहनों और बहुओं को छोड़कर शाह के
कारिंदे गुंडों ने बाकी सभी को एक काफ़िला बनाकर पाकिस्तान के लिए चलता कर लिया और बेटियों,
बहनों के लिए कहा कि राह में लुटेरे-फसादी लोगों द्वारा चूंकि इन्हें
छीन-उठाकर ले जाने का खतरा है, इसलिए इन्हें सवेरे तुम्हारे पास
पहुँचा दिया जाएगा।
उस रात के बाद न तो वो सवेर ही
आई जब वो काफ़िला पाकिस्तान पहुँचता और न ही वे बेटियाँ, बहनें
और बहुएँ पुन: अपने माँ-बाप, भाइयों और ख़ाविंदों को ही देख सकीं।
और....
इस शाह जिसकी जायदाद और दौलत का
कोई अन्त नहीं था, की इकलौती बेटी मोहनी थी।
यदि शाह चाहता तो उसकी इकलौती
बेटी की खातिर स्कूल की क्लासें शाह की हवेली में लग सकती थीं, परन्तु मोहनी जिद्द करके स्कूल जाती थी। स्कूल भी वह जिसमें सारे लड़के ही थे
और वह अकेली लड़की थी। जब आठवीं कक्षा के नतीजे निकले तो मैं क्लास में प्रथम आया और
मोहनी यदि शाह की बेटी न होती तो कभी भी पास नहीं हो सकती थी।
जिस दिन मैं पास हुआ, उस शाम की ही बात है कि मुझे शाह की हवेली में बुलाया गया।
डर तो मैं बुलाये जाने पर ही गया
था, पर जब इतनी बड़ी हवेली में बने हुए इतने ही बड़े मकान की तीसरी
मंज़िल पर मुझे ले जाया गया तो मैंने देखा कि बड़े बड़े हिरणों की खालों से मढ़े हुए मूढ़ों
पर शाह, उसकी बेटी और हमारे हैडमास्टर साहब बैठे थे। फर्श पर
कीमती गलीचे बिछे हुए थे। दीवारों पर मारे गए हिरणों के सिर और शाह के बड़े-बुज़ुर्गों
की कद्दावर तस्वीरें लटक रही थी। एक तरफ पकते माँसों की गंध नाक में चढ़ रही थी। शाह
के पास वाली कुर्सी पर शराब की बोतलें और गिलास के अलावा बिना पके माँस की प्लेट पड़ी
थी।
शाह ने हुक्के की लम्बी नली में
से कश भरते हुए घूरकर मेरी ओर देखा। मेरे फटे-पुराने और मैले कमीज़ की तरफ़ देखा। मेरी
नंगी टांगों और नंगे पैरों की ओर देखा और बड़े रौब में बोला, ''खड़ा क्यों है, बैठ जा।''
मैं जहाँ खड़ा था, वहीं नीचे बैठ गया। मेरे अन्दर इतनी हीन भावना भर गई थी कि मैं घबरा कर गिरता
ही जा रहा था।
मेरे नीचे बैठने पर शायद शाह की
तसल्ली हो गई थी। उसका रवैया मेहरबानों वाला हो गया था। उसने मेरी तरफ़ देखते हुए कहा,
''तो यह लड़का है, हैडमास्टर साहिब, जो सारी जमात में फर्स्ट आया है।''
''जी लड़का बड़ा शरीफ़, होनहार, मेहनती और गरीब है।''
'गरीब' शब्द
पर आकर हैडमास्टर ने पूरा ज़ोर लगा दिया।
''हूँ...अ।'' शाह ने ऐसे हुंकारा भरा मानो सारी बात उनकी समझ में आ गई थी।
''ठीक है, पढ़ाई के लिए दिमाग की ज़रूरत है, दौलत की नहीं।''
''जी आप दुरुस्त फरमाते हैं,
पर देखो, लड़के ने ना पायजामा पहन रखा है और ना ही पैरों में जूती।''
''हूँ...अ... इधर आ बेटा मेरे पास।'' शाह ने मुझे अपने पास बुलाया। मैं धीमे कदमों में उसके मूढ़े
के पास चला गया।
शाह ने जेब में से सौ रुपये का
एक नोट निकाला और मेरे हाथ में रखते हुए कहा, ''तेरे फर्स्ट आने
की तुझे बधाई, बेटा। ये ले, कुछ कपड़े सिलवा
लेना, जूती खरीद लेना। अगली जमात की किताबें भी। और तुम और मोहनी
रोज़ यहीं पढ़ा करो। तेरे साथ लगकर यह भी दसवीं कर लेगी। तेरी पढ़ाई आदि का सारा खर्चा
आगे से हम दिया करेंगे। छुट्टी होते ही बिना किसी डर के तू हवेली में आ जाया कर।''
शाह ने यह सबकुछ इतने प्यार और
ड्रामाई अंदाज़ में कहा कि मैं सौ रुपये का नोट पकड़कर यह भूल ही गया कि शाह ने इसी इलाके
के मुसलमानों की इज्ज़त, जान और माल की रक्षा कैसे की थी।
(जारी…)
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