लेखकों में पढ़ने की रुचि का ह्रास
हिन्दी में ही
नहीं, मुझे लगता है कि पंजाबी में भी लेखकों में पठन-रूचि का अभाव पिछ्ले डेढ़-दो
दशकों से तेज़ी से बढ़ा है। पुराने और स्थापित लेखक नये लेखकों की बात छोड़िये, वे अब
अपने समकालीनों की रचनाओं को भी यदा-कदा ही पढ़ते हैं, वह भी तब जब उसे पढ़ने के लिए
उनसे विशेष अनुरोध किया जाता है यानी किसी पत्रिका में रिव्यू अथवा किसी गोष्ठी
आदि में पर्चा आदि पढ़ने के लिए जब उनपर दबाव बनता है, तब। इस रोग से नये लेखक भी
मुक्त हों, ऐसा नहीं है। वे भी पुराने और अपने अग्रज लेखकों की नई आई रचनाओं को
पढ़ना और उनपर बात करना पसन्द नहीं करते। यही नहीं, पंजाबी के नये लेखकों में
हिन्दी की तरह यह प्रवृति तेज़ी से ज़ोर पकड़ती दीखती है, कि वे यह तो इच्छा रखते हैं
कि उनकी हर रचना को नया-पुराना लेखक अवश्य पढ़े, पर वे पुराने लेखकों की बात छोड़ें,
अपने समकालीनों की रचना को भी पढ़ना नहीं चाहते। पुराने लेखकों में बहुत कम लेखक
हैं जो नये लेखकों को स्वयं आगे बढ़कर पढ़ते हों… उन पर बात करते हों… यही स्थिति
नयी पीढ़ी के लेखकों में भी है… साहित्य के
विकास और संवर्द्धन में यह एक खतरनाक प्रवृति है जिसके चलते अच्छे साहित्य के
प्रकाश में आने की संभावना क्षीण होती है। एक-दूसरे को पढ़ने से पढ़ने वाला न केवल
अपडेटिड होता है, वरन अपनी साहित्यिक विकास यात्रा को भी अद्यतन और पुख्ता करता
है। ऐसा नहीं है कि पुराने लेखकों को नये लेखकों की किताबें उपलब्ध नहीं होतीं,
अथवा नये लेखकों को अपने पुराने और अग्रज लेखक की नई किताब मुहैया नहीं होती… होती
हैं, और खूब होती हैं- चाहे वे भेंट-स्वरूप प्रदान हुई हों, पुस्तकालयों से
प्राप्त होती हों अथवा पुस्तक मेलों से… कहने का अर्थ यह है कि अब शनै: शनै:
लेखकों के भीतर एक-दूसरे को पढ़ने की रुचि का ह्रास होता जा रहा है जो साहित्य के
विकास और संवर्द्धन के लिए स्वास्थवर्धक बात नहीं है, इस प्रवृति पर अंकुश लगना
चाहिए…
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इस अंक में आप पढ़ेंगे –
-‘संपादकीय’ में ‘लेखकों की पढ़ने की रुचि
में ह्रास’
आप के सुझावों, आपकी प्रतिक्रियाओं की हमें प्रतीक्षा
रहेगी…
सुभाष नीरव
संपादक - कथा पंजाब
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