पंजाबी कहानी : आज तक
>> रविवार, 15 जुलाई 2012
पंजाबी कहानी : आज तक(10)
अमृता प्रीतम ( 31 अगस्त 1919 - 31 अक्तूबर 2005)
पंजाबी की प्रख्यात कवयित्री, कहानीकार
व उपन्यासकार अमृता प्रीतम का जन्म 31 अगस्त 1919 में गुजरांवाला, पंजाब(अब पाकिस्तान में) में हुआ।
सोलह वर्ष की आयु में इनका पहला संग्रह प्रकाशित हुआ। सन् 1947 में भारत-पाक विभाजन के समय मुस्लिम, हिन्दू और
सिक्खों के हुए क़त्लेआम से क्षुब्ध होकर उन्होंने अपनी विश्वप्रसिध्द कविता लिखी -''अज्ज आक्खां वारिस शाह नूं, कितों कब्रां विचों बोल/ ते अज किताबे इश्क दा कोई अगला वरका फोल/ इक रोई सी धी
पंजाब दी, तू लिख लिख मारे वैण/ अज्ज लक्खां धीयां रोन्दियाँ, तैनू वारिस शाह नूं कहिण..।'' अपनी पुस्तक ''सुनेहे'' पर वर्ष 1956 में साहित्य अकादमी अवार्ड से सम्मानित
होने वाली प्रथम महिला। वर्ष 1982 में ''कागज़ ते कैनवास'' पुस्तक पर भारतीय ज्ञानपीठ अवार्ड
तथा पदमभूषण सम्मान से सम्मानित अमृता प्रीतम जी के आठ उपन्यास - 'पिंजर', 'डॉक्टर देव', 'कोरे कागज़, उनचास दिन', 'सागर और सीपियाँ', 'रंग का पत्ता' , 'दिल्ली की गलियाँ', 'तेरहवाँ सूरज' और 'यात्री', एक कविता
संग्रह और तीन कहानी संग्रह - '26 वरे'(1943), 'कुंजियां'(1944) और 'नेडे-नेड़े'(1946)
तथा एक आत्मकथा की पुस्तक ''रसीदी टिकट''
प्रकाशित। इसके अतिरिक्त पंजाबी साहित्यिक पत्रिका ''नागमणि'' का प्रकाशन भी किया। 'शाह दी कंजरी' और 'एक
ज़ब्तशुदा किताब' इनकी न भुलाई जाने वाली कहानियों में शुमार
हैं।
शाह की कंजरी
अमृता प्रीतम
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
उसे अब नीलम कोई नहीं कहता था, सब
शाह की कंजरी कहते थे।
नीलम को लाहौर हीरामंडी के एक चौबारे में जवानी चढ़ी थी। और वहाँ ही एक रियासती
सरदार के हाथों पूरे पाँच हज़ार में उसकी नथ उतरी थी। और वहीं उसके हुस्न ने आग जलाकर
सारा शहर झुलसा दिया था। पर फिर एक दिन वह हीरामंडी का सस्ता चौबारा छोड़कर शहर के सबसे
बड़े होटल फ्लैटी में आ गई थी।
वही शहर था, पर सारा शहर जैसे रातोंरात उसका नाम भूल गया हो, सबके मुँह से सुनाई देता था - शाह की कंजरी।
गज़ब का गाती थी। कोई गानेवाली उसकी तरह मिरजे की टेर नहीं लगा सकती थी। इसलिए लोग
चाहे उसका नाम भूल गए थे, पर उसकी आवाज़ नहीं भूल सके। शहर में जिसके घर भी तवेवाला बाजा था, वह उसके भरे हुए तवे ज़रूर
खरीदता था। पर सब घरों में तवे की फरमाइश के वक्त हर कोई यही कहता था, ''आज शाह की कंजरीवाला तवा
ज़रूर सुनना है।''
लुकी-छिपी बात नहीं थी, शाह के घरवालों को भी पता था। सिर्फ़ पता ही नहीं था, उनके लिए बात भी पुरानी
हो गई थी। शाह का बड़ा लड़का जो अब ब्याहने लायक था, जब गोद में था तो सेठानी ने ज़हर खाकर मरने की धमकी दी
थी, पर शाह ने उसके गले में मोतियों का हार डालकर उसे कहा था, ''शाहनिये ! वह तेरे घर की
बरकत है। मेरी आँख की जौहरी है। तूने नहीं सुना कि नीलम ऐसी चीज़ होता है जो लाखों को
खाक कर देता है और खाक को लाख कर देता है। जिसे उल्टा पड़ जाए, उसके लाख के खाक बना देता
है। पर जिसे सीधा पड़ जाए, उसे खाक से लाख बना देता है। वह भी नीलम है, हमारी राशि से मिल गया है। जिस दिन से साथ बना है, मैं मिट्टी में हाथ डालूँ
तो वह सोना हो जाती है...।''
''पर वही एक दिन घर उजाड़ देगी, लाखों को खाक कर देगी,'' शाहनी ने छाती के पत्थर को सहकर उसी तरफ़ से दलील दी थी, जिस तरफ़ से शाह ने बात
चलाई थी।
''मैं तो बल्कि डरता हूँ कि इन कंजरियों का क्या भरोसा, कल किसी और ने सब्ज़बाग
दिखाए, और जो यह हाथों से निकल गई, तो लाख से खाक हो जाएगा।'' शाह ने फिर अपनी दलील दी थी।
और शाहनी के पास कोई और दलील नहीं रह गई थी। सिर्फ़ वक्त क़े पास रह गई थी और वक्त
चुप था। कई बरसों से चुप था। शाह सचमुच जितने रुपये नीलम पर बहाता, उससे कई गुना ज्यादा पता
नहीं कहाँ-कहाँ से बहकर उसके घर आ जाते थे। पहले उसकी छोटी-सी दुकान शहर के छोटे से
बाज़ार में होती थी, पर अब सबसे बड़े बाज़ार में लोहे के जंगलेवाली सबसे बड़ी दुकान उसकी थी। घर की जगह
पूरा मुहल्ला ही उसका था, जिसमें बड़े खाते-पीते किरायेदार थे। और जिसमें तहखाने वाले घर को शाहनी एक दिन
के लिए भी अकेला नहीं छोड़ती थी।
बहुत बरस हुए, शाहनी ने एक दिन मोहरों वाले ट्रंक को ताला लगाते हुए शाह से कहा था, ''उसे चाहे होटल में रखो
और चाहे उसे ताजमहल बनवा दो, पर बाहर की बला बाहर ही रखो। उसे मेरे घर ना लाना। मैं उसके माथे नहीं लगूँगी।''
और सचमुच शाहनी ने अभी तक उसका मुँह नहीं देखा था। जब उसने यह बात कही थी, उसका बड़ा लड़का स्कूल में
पढ़ता था, और अब जब वह ब्याहने लायक हो गया था, शाहनी ने न उसके गानेवाले तवे घर में आने दिए, और न घर में किसी को उसका
नाम लेने दिया था।
वैसे उसके बेटों ने दुकान-दुकान पर उसके गाने सुन रखे थे और जने-जने से सुन रखा
था - 'शाह की कंजरी'।
बड़े लड़के का ब्याह था। घर पर चार महीने से दर्जी बैठे हुए थे। कोई सूटों पर सलमा
काढ़ रह था, कोई तिल्ला, कोई किनारी, और कोई दुपट्टे पर सितारे जड़ रहा था। शाहनी के हाथ भरे हुए थे - रुपयों की थैली
निकालती, खोलती, फिर दूसरी थैली भरने के लिए तहखाने में चली जाती।
शाह के यार-दोस्तों ने शाह की दोस्ती का वास्ता डाला कि लड़के की शादी पर कंजरी
ज़रूर गवानी है। वैसे बात उन्होंने बड़े तरीके से कही थी ताकि शाह कभी बल न खा जाए। ''वैसे तो शाह जी नाचने-गाने
वालियाँ बहुतेरी हैं, जिसे चाहे बुलाओ... पर वहाँ मल्लिका-ए-तरन्नुम ज़रूर आए, चाहे मिरजे की एक ही तान
लगा जाए।''
फ्लैटी होटल आम होटलों जैसा नहीं था। वहाँ अधिकतर अंग्रेज लोग ही आते और ठहरते
थे। उसमें अकेले-अकेले कमरे भी थे, पर बड़े-बड़े तीन कमरों वाले सैट भी। ऐसे ही एक सैट में
नीलम रहती थी। और शाह ने सोचा - दोस्तों-यारों का दिल खुश करने के लिए वह एक दिन नीलम
के यहाँ रात की महफ़िल रख लेगा।
''वह तो चौबारे पर जाने वाली बात हुई,'' एक ने उज्र किया तो सारे बोल पड़े, ''नहीं, शाहजी ! वह तो सिर्फ़ तुम्हारा
ही हक बनता है। पहले कभी इतने बरस हमने कुछ कहा है ? उस जगह का भी नाम नहीं लिया। वह जगह तुम्हारी अमानत है।
हमें तो भतीजे के ब्याह की खुशी मनानी है। उसे खानदानी घरानों की तरह अपने घर बुलाओ, हमारी भाभी के घर...।''
बात शाह के मन भा गई। इसलिए कि वह दोस्तों-यारों को नीलम की राह दिखाना नहीं चाहता
था(यद्यपि उसके कानों में भनक पड़ती रहती थी कि उसकी गैर-हाज़िरी में कोई-कोई अमीरजादा
नीलम के पास आने लगा था)। दूसरा इसलिए भी वह यह चाहता था कि नीलम एक बार उसके घर आकर
उसके घर की तड़क-भड़क देख जाए। पर वह शाहनी से डरता था, दोस्तों को हामी न भर सका।
दोस्तों-यारों में से दो ने राह निकाली और शाहनी के पास जाकर कहने लगे, ''भाभी, तुम लड़के की शादी के गीत
नहीं गवाओगी ? हम तो सारी खुशियाँ मनाएँगे। शाह ने सलाह की है कि एक रात यारों की महफ़िल नीलम
की तरफ़ हो जाए। बात तो ठीक है, पर हज़ारों उजड़ जाएँगे। आख़िर घर तो तुम्हारा है, पहले उस कंजरी को क्या कम खिलाया है ? तुम सयानी बनो। उसे गाने-बजाने
के लिए एक दिन यहाँ बुला लो। लड़के के ब्याह की खुशी भी हो जाएगी और रुपया उजड़ने से
बच जाएगा।''
शाहनी पहले तो गुस्से में भरकर बोली, ''मैं उस कंजरी के माथे नहीं लगना चाहती।'' परन्तु जब दूसरों ने धीरज
से कहा, ''यहाँ तो भाभी तुम्हारा राज है। वह बाँदी बनकर आएगी, तुम्हारे हुक्म में बँधी
हुई, तुम्हारे बेटे की खुशी मनाने के लिए। हेठी तो उसकी है, तुम्हारी काहे की ? जैसे कमीन-कुमने आए, डोम-मिरासी, तैसी वह...।''
बात शाहनी के मन भा गई। वैसे तो कभी सोते-बैठते उसे ख़याल आता था - एक बार देखूँ
तो सही कैसी है ?
उसने उसे कभी देखा नहीं था, पर कल्पना ज़रूर की थी - चाहे डरकर, सहमकर, चाहे एक नफ़रत से। और शहर में से गुज़रते हुए अगर किसी
कंजरी को तांगे में बैठी देखती तो न सोचते हुए ही सोच जाती - क्या पता, वही हो ?
'चलो, एक बार मैं भी देख लूँ,' वह मन में घुल-सी गई, 'उसको जो भी मेरा बिगाड़ना था, बिगाड़ लिया। अब वो और क्या कर लेगी ! एक बार चंदरी को
देख तो लूँ।'
शाहनी ने हामी भर दी। लेकिन एक शर्त रखी, ''वहाँ न शराब उड़ेगी, न कबाब। भले घरों में जिस तरह गीत गाये जाते हैं, उसी तरह गीत करवाऊँगी।
तुम मर्द-मानस भी बैठ जाना। वह आए और सीधी तरह गाकर चली जाए। मैं वही चार बताशे उसकी
झोली में भी डाल दूँगी जो दूसरी बन्ने, सेहरे गाने वाली लड़कियों को दूँगी।''
''यही तो भाभी, हम कहते हैं।'' शाह के दोस्तों ने फूँक दी, ''तुम्हारी समझदारी से ही तो घर बना है। नहीं तो क्या ख़बर क्या हो गुज़रना था।''
वह आई। शाहनी ने खुद अपनी बग्घी भेजी थी। घर मेहमानों से भरा हुआ था। बड़े कमरे
में सफेद चादरें बिछाकर, बीच में ढोलक रखी हुई थी। घर की औरतों ने बन्ने-सेहरे गाने शुरू कर रखे थे।
बग्घी दरवाज़े पर आकर रुकी, तो कुछ उतावली औरतें दौड़कर खिड़की की ओर चली गईं और कुछ सीढ़ियों की तरफ़ भागीं…
''अरी बदसगुनी क्यों करती हो, सेहरा बीच में ही छोड़ दिया,'' शाहनी ने एक डाँट-सी लगाई। पर उसकी आवाज़ खुद को ही धीमी-सी लगी। जैसे उसके दिल
पर एक धमक-सी हुई हो।
वह सीढ़ियाँ चढ़कर दरवाजे तक आ गई थी। शाहनी ने अपनी गुलाबी साड़ी का पल्ला सँवारा, जैसे सामने देखने के लिए
वह साड़ी के शगुनवाले रंग का सहारा ले रही हो।
सामने उसने हरे रंग का बाँकड़ीवाला गरारा पहना हुआ था, गले में लाल रंग की कमीज़
थी और सिर से पैर तक ढलकी हुई हरे रंग की रेशम की चुनरी। एक झिलमिल-सी हुई। शाहनी को
एक पल यही लगा मानो हरा रंग सारे दरवाजे में फैल गया हो !
फिर हरे काँच की चूड़ियों की छनछन हुई, तो शाहनी ने देखा - एक गोरा-गोरा हाथ झुके हुए माथे को
छूकर आदाब बजा रहा है, और साथ ही एक झनकती हुई-सी आवाज़, ''बहुत बहुत मुबारिक शाहनी ! बहुत बहुत मुबारिक !''
वह बड़ी नाजुक-सी, पतली-सी थी। हाथ लगते ही दोहरी होती थी। शाहनी ने उसे गाव-तकिये के सहारे हाथ के
इशारे से बैठने को कहा, तो शाहनी को अपनी माँसल बाँह बड़ी ही बेडौल –सी लगी।
कमरे के एक कोने में शाह भी था। दोस्त भी थे, कुछ रिश्तेदार मर्द भी। उस नाजनीन ने उस कोने की तरफ़
देखकर भी एक बार सलाम किया और फिर परे गाव-तकिये के सहारे ठुमककर बैठ गई। बैठते वक्त
क़ाँच की चूड़ियाँ फिर छनकी थीं, शाहनी ने एक बार फिर उसकी बाँहों को देखा, हरे काँच की चूड़ियों को और फिर स्वाभाविक ही अपनी बाँह
में पड़े हुए सोने के चूड़े को देखने लगी।
कमरे में एक चकाचौंध-सी छा गई थी। हरेक की आँखें जैसे एक ही तरफ़ उलट गई थीं, शाहनी की अपनी आँखें भी, पर उसे अपनी आँखों को छोड़कर
सबकी आँखों पर एक गुस्सा-सा आ गया।
वह फिर एक बार कहना चाहती थी - 'अरी, बदसगुनी क्यों करती हो ? सेहरे गाओ ना...' पर उसकी आवाज़ गले में घुटती-सी
गई थी। कमरे में एक ख़ामोशी छा गई थी। वह बीचोंबीच रखी हुई ढोलक की तरफ़ देखने लगी और
उसका जी किया कि वह बड़ी ज़ोर से ढोलक बजाए।
ख़ामोशी उसने ही तोड़ी जिसके लिए ख़ामोशी छायी थी। कहने लगी, ''मैं तो सबसे पहले घोड़ी
गाऊँगी। लड़के का सगुन करूँगी, क्यों शाहनी ?'' और शाहनी की तरफ ताकती, हँसती हुई घोड़ी गाने लगी, ''निक्की-निक्की बूँदी निकिया मींह वे वरे, तेरी माँ वे सुहागन तेरे शगन करे...।''
शाहनी को अचानक तसल्ली-सी हुई, शायद इसलिए कि गीत के बीच की माँ वही थी, और उसका मर्द भी सिर्फ
उसका मर्द था, तभी तो माँ सुहागिन थी...
शाहनी हँसते-से मुँह से उसके बिल्कुल सामने बैठ गई - जो उस वक्त उसके बेटे के सगुन
कर रही थी...
घोड़ी ख़त्म हुई तो कमरे की बोलचाल फिर से लौट आई। फिर कुछ स्वाभाविक-सा हो गया।
औरतों की तरफ़ से फरमाइश की गई, ''ढोलकी रोड़ेवाला गीत''। मर्दों की तरफ से फरमाइश की गई, ''मिरजे दियाँ सद्दाँ !''
गानेवाली ने मर्दों की फरमाइश सुनी-अनसुनी कर दी और ढोलकी को अपनी तरफ़ खींचकर उसने
ढोलकी से अपना घुटना जोड़ लिया। शाहनी कुछ रौ में आ गई, शायद इसलिए कि गानेवाली
मर्दों की फरमाइश पूरी करने के बजाय औरतों की फरमाइश पूरी करने लगी थी।
मेहमान औरतों में से शायद कुछ एक को पता नहीं था। वह एक-दूसरे से कुछ पूछ रही थीं
और कोई उनके कान के पास कह रही थी, ''यही है, शाह की कंजरी...।''
कहने वालियों ने शायद बहुत धीमे स्वर में कहा था, फुसफुसाकर, पर शाहनी के कान में आवाज़
पड़ रही थी, कानों से टकरा रही थी- शाह की कंजरी...शाह की कंजरी... और शाहनी के मुँह का रंग
फिर फीका पड़ गया।
इतने में ढोलक की आवाज़ ऊँची हो गई और साथ ही, गानेवाली की आवाज़ भी, ''सूह वे चीरे वालिया मैं कहनी हाँ....'' और शाहनी का कलेगा थम-सा
गया - यह सूहे चीरे वाला मेरा ही बेटा है, सुख से आज घोड़ी पर चढ़ने चला मेरा बेटा।
फरमाइशों का अन्त नहीं था। एक गीत ख़त्म होता तो दूसरा शुरू हो जाता। गानेवाली कभी
औरतों की तरफ़ की फरमाइश पूरी करती, कभी मर्दों की। बीच-बीच में कह देती, ''कोई और भी गाओ न, मुझे थोड़ा दम लेने दो...'' पर किसकी हिम्मत थी उसके
सामने होने की, उसकी खनकती आवाज़... वह भी शायद कहने को ही कह रही थी, पर एक के पीछे झट दूसरा
गीत छेड़ देती थी।
गीतों की बात और थी, पर जब उसने मिरजे की हेक लगाई, ''उठ नी साहिबा सुत्तीये ! उठ के दे दीदार...'' हवा का कलेजा हिल गया।
कमरे में बैठे मर्द बुत बन गए थे। शाहनी को फिर घबराहट-सी हुई, उसने बड़े गौर से शाह के
मुँह की ओर देखा। शाह भी और बुतों सरीखा बुत बना हुआ था, पर शाहनी को लगा, वह पत्थर का हो गया था।
शाहनी के कलेजे में एक हौल-सा उठा, और उसे लगा अगर यह घड़ी छिन गई तो वह आप भी हमेशा के लिए
बुत बन जाएगी... वह करे, कुछ करे, कुछ भी करे, पर मिट्टी का बुत न बने।
काफ़ी शाम हो गई, महफ़िल ख़त्म होने वाली थी।
शाहनी का कहना था, आज वह उसी तरह बताशे बाँटेगी, जिस तरह लोग उस दिन बाँटते हैं जिस दिन गीत बिठाये जाते
हैं, पर जब गाना ख़त्म हुआ तो कमरे में चाय और कई तरह की मिठाई आ गई।
और शाहनी ने मुट्ठी में लपेटा हुआ सौ का नोट निकालकर, अपने बेटे के सिर पर से
वारा, और फिर उसे पकड़ा दिया, जिसे लोग शाह की कंजरी करते थे।
''रहने दे, शाहनी, आगे भी तेरा ही खाती हूँ।'' उसने जवाब दिया और हँस पड़ी। उसकी हँसी उसके रूप की तरह झिलमिल कर रही थी।
शाहनी के मुँह का रंग फीका पड़ गया। उसे लगा, जैसे शाह की कंजरी ने आज भरी सभा में शाह से अपना सम्बन्ध
जोड़कर उसकी हतक कर दी थी। पर शाहनी ने अपना आप थाम लिया और मन में ठाना कि आज उसको
हार नहीं खानी है। और वह ज़ोर से हँस पड़ी। नोट पकड़ाती हुई बोली, ''शाह से तूने नित लेना है, पर मेरे हाथ से तूने फिर
कब लेना है। चल, आज ले ले...।''
और शाह की कंजरी, सौ के नोट को पकड़ती हुई, एक ही बार में गरीब-सी हो गई।
कमरे में शाहनी की साड़ी का सगुनवाला गुलाबी रंग फैल गया।
1 टिप्पणियाँ:
'शाह की कंजरी' कहानी कई बार पढ़ चुकी हूँ, फिर से पढ़ना बहुत अच्छा लगा. मन और रिश्ते अजीब रंग के होते हैं, कभी कोई मात खाता तो कभी कोई जीत कर भी हार जाता और ज़िंदगी इन रंगों को ताकती रह जाती है. अमृता प्रीतम को पढ़ना जैसे ज़िंदगी को समझना है. बहुत अच्छा अनुवाद किया है आपने. शुभकामनाएँ.
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