आत्मकथा/स्व-जीवनी
>> रविवार, 15 जुलाई 2012
पंजाबी के एक जाने-माने लेखक प्रेम प्रकाश का जन्म ज़िला-लुधियाना के खन्ना
शहर में 26 मार्च 1932(सरकारी काग़ज़ों में 7 अप्रैल 1932) को हुआ। यह 'खन्नवी' उपनाम से
भी 1955 से 1958 तक लिखते रहे।
एम.ए.(उर्दू) तक शिक्षा प्राप्त प्रेम प्रकाश 'रोज़ाना मिलाप'
और 'रोज़ाना हिंद समाचार' अख़बारों में पत्रकारिता से जुड़े रहे। 1990 से 2010
तक साहित्यिक पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका 'लकीर'
निकालते रहे। लीक से हटकर सोचने और करने में विश्वास रखने वाले इस
लेखक को भीड़ का लेखक बनना कतई पसन्द नहीं। अपने एक इंटरव्यू में 'अब अगर कहानी में स्त्री का ज़िक्र न हो तो मेरा पेन नहीं चलता' कहने वाले प्रेम प्रकाश स्त्री-पुरुष के आपसी संबंधों की पेचीदा गांठों
को अपनी कहानियों में खोलते रहे हैं। यह पंजाबी के एकमात्र ऐसे सफल लेखक रहे हैं
जिसने स्त्री-पुरुष संबंधों और वर्जित रिश्तों की ढेरों कामयाब कहानियाँ पंजाबी
साहित्य को दी हैं। इनकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि मनुष्य मन की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर
गांठों को पकड़ने में सफल रही हैं।
कहानी संग्रह 'कुझ अणकिहा वी' पर 1992 मे
साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त यह लेखक अस्सी वर्ष की उम्र में भी पहले जैसी
ऊर्जा और शक्ति से निरंतर लेखनरत हैं। इनके कहानी संग्रह के नाम हैं - 'कच्चघड़े'(1966), 'नमाज़ी'(1971), 'मुक्ति'(1980), 'श्वेताम्बर ने कहा था'(1983),
'प्रेम कहानियाँ'(1986), 'कुझ अनकिहा वी'(1990),
'रंगमंच दे भिख्सू'(1995), 'कथा-अनंत'(समग्र कहानियाँ)(1995), 'सुणदैं ख़लीफ़ा'(2001),
'पदमा दा पैर'(2009)। एक कहानी संग्रह 'डेड लाइन' हिंदी में तथा एक कहानी संग्रह अंग्रेजी
में 'द शॉल्डर बैग एंड अदर स्टोरीज़' (2005)भी प्रकाशित। इसके अतिरिक्त एक उपन्यास 'दस्तावेज़'
1990 में। आत्मकथा 'बंदे अंदर बंदे'
(1993) तथा 'आत्ममाया'( 2005) में प्रकाशित। कई पुस्तकों का संपादन जिनमें 'चौथी
कूट'(1996), 'नाग लोक'(1998),'दास्तान'(1999),
'मुहब्बतां'(2002), 'गंढां'(2003) तथा 'जुगलबंदियां'(2005) प्रमुख
हैं। पंजाबी में मौलिक लेखक के साथ साथ ढेरों पुस्तकों का अन्य भाषाओं से पंजाबी
में अनुवाद भी किया जिनमें उर्दू के कहानीकार सुरेन्द्र प्रकाश का कहानी संग्रह 'बाज़गोई' का अनुवाद 'मुड़ उही
कहाणी', बंगला कहानीकार महाश्वेता देवी की चुनिंदा कहानियाँ,
हिंदी से 'बंदी जीवन'- क्रांतिकारी
शुचिंदर नाथ सानियाल की आत्मकथा, प्रेमचन्द का उपन्यास 'गोदान', 'निर्मला', सुरेन्द्र
वर्मा का उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' तथा
काशीनाथ सिंह की चुनिंदा कहानियाँ आदि प्रमुख अनुवाद कृतियाँ हैं।
सम्मान : पंजाब साहित्य अकादमी(1982),
गुरूनानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर द्वारा भाई
वीर सिंह वारतक पुरस्कार(1986), साहित्य अकादमी, दिल्ली(1992), पंजाबी अकादमी, दिल्ली(1994),
पंजाबी साहित्य अकादमी, लुधियाना(1996),
कथा सम्मान,कथा संस्थान, दिल्ली(1996-97), सिरोमणि साहित्यकार, भाषा विभाग, पंजाब(2002) तथा
साहित्य रत्न, भाषा विभाग, पंजाब(2011)
सम्पर्क : 593, मोता
सिंह नगर, जालंधर-144001(पंजाब)
फोन : 0181-2231941
ई मेल : prem_lakeer@yahoo.com
आत्म माया
प्रेम प्रकाश
हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव
4. पानी
का गिलास : गर्मियों की छुट्टियाँ समाप्त
होने पर स्कूल खुला तो बाढ़ के कारण स्कूल का हुलिया ही बिगड़ा पड़ा था। हम कई दिन बच्चों
के साथ मिलकर गड्ढ़े भरते रहे और लीपने का काम करते रहे। लड़के गारा और पानी लाते और
लड़कियाँ लीपने का काम करती जातीं। मैं उनके साथ तसले को हाथ लगाकर उनकी सहायता करता
था। मुझे शारीरिक काम करने में बहुत आनन्द आता था। फिर लड़कों के साथ बहते बम्बे में
नहाता। मैं उनके साथ तैरता था। मैं यह काम बच्चों को बचाने के लिए भी करता था। लीपने
के काम में कई बच्चे बहुत मेहनत करते थे। उन्हें देखकर लगता था कि वे बीते दो महीनों
में कितने बड़े हो गए हैं। शीघ्र ही जवान होने वाले हैं। नौजवानों वाली निशानियाँ तेज़ी
से उभरने लग पड़ी हैं। कुछ लड़कियाँ अधिक समझदार हो गई हैं।
उन लड़कियों में से एक लड़की का
कद एकदम बढ़ गया था। वह बातें करते हुए मुझे गहरी नज़र से देखने लग पड़ी थी। जब मैं किसी
को पानी लाने के लिए कहता तो वह स्वयं दौड़ पड़ती थी। मैं सवेरे शहर से आकर अपना साइकिल
खड़ा करके हाज़िरी लगाने के लिए पहले दफ्तर में जाता था। हाज़िरी लगाकर पानी पीता था।
कभी मैं लेट हो जाता था। बच्चे बाहर कतारों में खड़े प्रार्थना कर रहे होते। मैं गिलास
लेकर खुद ही पानी पीता था। कभी-कभी वह लड़की मुझे देखते ही पानी लेने चली जाती थी। मुझे
पानी का गिलास पकड़ाकर खाली गिलास लेने के लिए वहीं खड़ी रहती थी।
एक बार दफ्तर में कोई नहीं था।
उसने मुझे पानी का गिलास थमाया तो हमारी उंगलियाँ आपस में छू गईं। मुझे कुछ भी नया
नहीं लगा, पर वह खाली गिलास पकड़कर खड़ी ही रही। मैंने देखा,
उसकी नज़र बदली हुई थी। मैं बाहर निकल गया। मैं डर गया था। कुछ दिनों
बाद वह पुन: इसी तरह आकर खड़ी हो गई। जाने का नाम न ले। मैं उठ खड़ा हुआ। वह मेरे साथ
लग गई। फिर मुझे भी कुछ हो गया। मैंने उसे पकड़कर चूम लिया। वह खुश होकर चली गई। फिर
मैं उससे डरने लग पड़ा था। मैं चाहता कि जब वह पानी लेकर आए तो मैं दफ्तर में अकेला
न होऊँ। पर कभी ऐसी स्थिति बन ही जाती। अब जल्दी-जल्दी प्यार दर्शाते और बाहर निकल
जाते।... जब भी मैं इसके बारे में सोचता तो मुझे अपने आप पर विश्वास न होता। दफ्तर
की पिछली खिड़की खुली होती थी। बाहर के रास्ते में आवाजाही रहती थी। कोई भी झांक सकता
था।... जब मुझे उसके साँसों की खुशबू, जिस्म की गंध का ख़याल आता
था तो मैं सभी डर भूल जाता था। मैं स्वयं ही सूली पर चढ़ने का तैयार हो जाता था। एक
बार सर्दियों के मौसम में हम दोनों कमरे में थे। कमरे की खिड़कियाँ-दरवाजे बन्द थे।
हम बहुत बेकाबू हो गए। मैं भी सयाना न रहा। अच्छी न लगने वाली हरकतें करते रहे। जब
हम बाहर निकले तो मैं बहुत शर्मशार था। मैं दूसरे अध्यापकों से बचता नलके पर जाकर हैंडिल
चला चलाकर पानी निकालता रहा। छींटों से मेरी पेंट भीग गई। फिर मैं कितनी देर धूप में
खड़ा उसे सुखाता रहा।
यह लड़की सीधे तौर पर मेरी किसी
भी कहानी में नहीं आई। वैसे टुकड़ा-टुकड़ा करके कई जगहों पर फिट होती रही है। या यह कह
लें कि डर और आनन्द का मिला-जुला सुख उसका था जो अन्य पात्रों के बीच में जा घुसता
था। वैसे भी ये पात्र या अनुभव बहुत निराले नहीं थे।
5. च्यूँटी
काटना : एक लड़की दर्जियों या बढ़इयों
की थी। बहुत बोलने और हँसने वाली। वह अपना दिल खुश रखने के लिए मेरे साथ हल्का मजाक
कर लेती थी। जब मेरा विवाह हो गया तो वह बहुत मचल कर बोलने लग पड़ी। वह मेरी पत्नी के
साथ मेरे प्यार की बातें इशारों में पूछा भी करती थी। पढ़ने में कमज़ोर थी। वह पाँचवी
पास करके चली गई। फिर अक्सर जालंधर के रास्ते आती-जाती मिल जाती। साइकिलों पर जाते
अक्सर हमारा सामना हो जाता। जब कभी मैं अकेला होता तो वह मुझे रोक कर बातें करती। मुझे
लगता कि वह अल्प आयु में कितनी बातें जानती है। फिर वह शहर में रहने लग पड़ी। मुझे कभी
बाज़ार शेखां में या जग्गू के चौक में मिलती तो उसकी बातों से लगता कि वह चाहती है कि
मैं उसे जहाँ चाहूँ, ले जाऊँ। पर मैं इतना साहसी नहीं था।
एकबार वह किसी बड़ी लड़की को संग
लेकर मुहल्ला बिक्रमपुरे वाले मेरे घर आ गई। मेरी पत्नी गई हुई थी। मैं उन्हें अपने
घर में न बिठा सका। उस घर में चार किरायेदार और रहते थे। मैं उनसे डर गया था। मैंने
कहीं जाने का बहाना बना दिया। वह जाते समय मुझे च्यूँटी काट कर सीढ़ियाँ उतर गई।
6. कम बोलने
वाली : मुझे उसका नाम ठीक से याद नहीं।
मिस्त्रियों या किसी अन्य जाति की वह लड़की बहुत कम बोलती थी और पढ़ने में कमज़ोर थी।
पाँचवी करके पढ़ना छोड़ दिया था। उसका छोटा भाई स्कूल में पढ़ता था। कभी कभार उसको देखने
स्कूल में आ जाती थी। कभी मैं गाँव में किसी के घर जाता तो मिल जाती और नमस्ते कह देती
थी।
एक बार मेरी पत्नी बच्चा जन्मने
अपने मायके चली गई। मैं पता नहीं किस बात पर शहर से ऊब गया था। मेरा दिल गाँव में रहने
को किया। वैसे भी जब कभी मैं गाँव में ओम प्रकाश के घर ठहरता था तो मेरा जी किसी के
कुओं-खेतों में जाने को किया करता था। खेती बाड़ी का काम करने को मन होता, पशुओं के साथ रहने को भी। मैं गाँव के एक बुज़ुर्ग जट्ट गुरदास सिंह रंधावा
के कुएँ पर चला जाता था। उसने मुझे आने के लिए कई बार कहा था। वह भूतपूर्व फौजी बहुत
सभ्य और सज्जन जट्ट था। मैं उसके कुएँ पर जाकर हल चलाकर देख लेता। कभी नाके छोड़ने की
इच्छा पूरी कर लेता था।
एक दिन मैंने निर्णय कर लिया,
गाँव में रहने का। रहने के लिए एक खाली चौबारा मिल गया। उसके आगे मुंडेरों
वाली जगह थी। मैंने चाय बनाने के लिए स्टोव रख लिया। सवेरे नाश्ता पंडित जी के घर करता
था। दोपहर में छुट्टी करके शहर चला जाता था। शाम को सूर्यास्त से पहले गाँव लौट आता
था। जहाँ एक लड़का मुझे गरम दूध की लुटिया दे जाता था और कोई एक पंडित जी के घर से लाकर
रोटी पकड़ा जाता था। यह प्रबंध स्कूल के एक टीचर ने करवाया था। हमने दोनों को पैसे देना
तय किया था। जब कभी मैं जल्दी शहर से आ जाता तो गाँव के पश्चिम दिशा की ओर चला जाता
था। उधर बरानी(वह ज़मीन जिसमें खेती केवल बारिश के सहारे की जाती है) की फ़सलें हुआ करतीं।
एक तरफ बहुत ऊँचा टीला था। उस पर रोड़ी और ठीकरे बिखरे हुए होते। निचली तरफ दरख्तों
का झुरमुट-सा था। बीच में छोटा-सा पोखर था। मैं टीले पर बैठकर सूरज को डूबते देखता
रहता था। मुझे अपने बचपन का गाँव भादसों याद आ जाता। वह भी ऊँचे टीले पर बसा हुआ था।
मैं कितनी कितनी देर वहाँ बैठा रहता। कभी कोई बात सूझती तो काग़ज़ पर लिख लेता। वातावरण
बहुत शायराना-सा लगता।
एक बार मैं सरदार गुरदास सिंह
रंधावा के साथ सूरा नुस्सी को विलायती मुर्गी के चूजे लेने चला गया। मैं भी उसकी देखा-देखी
दस चूजे ले आया। एक लड़के ने मुझे अपने घर से जाली लगा खुड्डा-सा ला दिया। जब मैं गुरदास
सिंह के घर से निकला तो किसी औरत ने मुझे मजाक में कोई बात कही। उस रात रोटी लाकर देने
वाले लड़के की जगह वह लड़की आ गई। उसने मुझे बताया कि ताई या दादी ने मखौल में कहा था,
''मास्टर ने चूजे क्या ढूए में लेने हैं ?''
मुझ पहली बार पता चला कि दुआबे
में चुत्तड़ों को 'ढूए' कहते हैं। जब तक
मैं रोटी खाता रहा, वह लड़की बोलती रही। उसने मुझे गाँव की बुरी
या बदनाम औरतों और आदमियों के बारे में भी बता दिया। जिनमें से एक औरत ने तो थोड़े समय
पहले हट्टी वाले को पकड़ लिया था। मैं 'हूँ-हूँ' करता रहा। वह बर्तन लेकर चली गई। उसका बाप स्वयं शहर में किसी टेलर मास्टर
के पास नौकरी करता था।
करीब पाँच दिन बाद वह फिर रोटी
लेकर आई। वह अपने साथ पढ़ने के लिए एक किताब भी लाई थी। मैं रोटी खा बैठा तो वह किताब
खोलकर बैठ गई। वह अंग्रेजी सीखना चाहती थी। बीच-बीच में वह मेरे बारे में बातें पूछती
रही। मुझे बुरा लगा। जब मैं अपनी किताब निकालने के लिए अल्मारी की ओर हुआ तो वह मेरे
साथ लगकर खड़ी हो गई। मैंने उसको दो बार सरसरी-सा चूमा। वह लिपटती चली गई। मैं डर गया।
मैंने उसको सीढ़ियों में किसी की पदचापों का डर दिया। उसने तभी बर्तन उठा लिए।
मैंने उसी दिन फैसला कर दिया,
गाँव में न रहने का। दूसरे दिन मैं सारे चूजे 'ढूए' कहने वाली औरत के हवाले करके शहर चला गया।
कुछ दिन बाद स्कूल में एक नया
अनट्रेंड टीचर आ गया। उसको रहने के लिए चौबारा दिया गया। वह करीब तीन महीने वहाँ रहा।
फिर शहर में किसी कम्पनी का सेल्ज़मैन लग गया। मुझे कभी-कभी मिलता। दुआ-सलाम होती। एक
दिन उसने रुक कर मुझे बताया कि उसने तीन महीनों में तीन लोक देख लिए। पहले तो वह लड़की
उसके पास पढ़ने के बहाने आकर कृपा कर जाती थी और फिर वह एक दूसरी लड़की को साथ ले आती
थी। वह लड़की इतनी निडर थी कि सारे कपड़े उतार देती थी और जब भी वह कहता, जिस भी अंग को कहता, वह नंगा कर देती थी। परमात्मा जाने
वह कितना सच कहता था और कितना झूठ।
7. गूंगा
प्यार : पहले बेटे के गुज़रने के बाद मैं थोड़ा उदास था। मुझे और मेरी
पत्नी को बच्चों का बड़ा चाव था। स्कूल में गुरदास सिंह रंधावा की दोहती चौथी कक्षा
में थी और दोहता पहली कच्ची में। उनका बाप किसी घरेलू झगड़े में मारा गया था। अब वे
अपने ननिहाल में पलते थे। मुझे वे दोनों बच्चे बड़े प्यारे लगते थे। मैं अपने प्यार
को कई गुप्त तरीकों से ज़ाहिर करता था। परन्तु मुझे लगता था कि कोई कसर रह जाती है।
उनकी बड़ी बहन कालेज में पढ़ती थी। मैं उसके साथ भी बात करके खुश होता था। एक बार वह
छोटा लड़का किसी के साथ जालंधर मेरे घर आया। मैंने उसे प्यार करते हुए छाती पर बिठा
लिया। उसके साथ आई दो लड़कियाँ हैरान-सी होकर यह सब देखती रहीं। मुझे यही लगता रहा कि
मेरे प्यार की भावना को कोई समझता नहीं। वह लड़का भी नहीं।
8. सिलाई
टीचर : हमारा स्कूल छह-साल स्कूलों
के लिए सेंटर स्कूल था। हर महीने वहाँ स्कूलों के टीचरों की बैठक होती थी। सेंटर हैड
मास्टर अध्यक्षता करता था और मैं सचिव के तौर पर बैठक की कार्रवाई पंजाबी में लिखता
था। बैठक में स्कूलों के आम मसलों के साथ-साथ कभी-कभी कोई टीचर शैक्षिक, सामाजिक या साहित्यिक लेख पढ़कर सुना देता था। चाय-पानी पर बहस की गरमा-गरमी
होती और बैठक ख़त्म हो जाती थी। उन दिनों में स्कूलों में अध्यापिकाओं की भर्ती नई-नई
होने लगी थी। वह भी बैठक में आतीं। नौजवान चुहलबाजी भी कर लेते थे। उन्हीं दिनों में
सरकार ने सिलाई टीचर्स की अस्थाई भर्ती भी की थी। गाँव में सिलाई सिखाने वाली एक टीचर
शहर से गाँव में आती-जाती मिला करती थी। कभी कहीं बातचीत भी हो जाती थी। वह हमारे तीन
टीचरों के काफ़िले के साथ जाने लग पड़ी थी। असल में उसको राह में किसी ने छेड़ दिया था।
उसे हमारे साथ की ज़रूरत थी। वह मेरे साथ बिकरमपुर, जहाँ मैं अपने
परिवार के साथ रहता था, तक आती थी। फिर आगे चरंजीत पुरे की ओर
निकल जाती थी।
एक दिन वह मेरे साथ आकर मेरा घर
भी देख गई। कहने लगी, कभी जल्दी आने पर मैं आपको बुला लिया करूँगी।
उसको मेरी पत्नी ने आदर सहित चाय पिलाई।
वह साथ आते-जाते बातें करती तो
मुझे लगता कि मैं अभी भी खन्ना का ही हूँ, और यह पूरी
जालंधरन है। वह कई खुली बातें कर जाती थी। वह स्वयं तो अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थी,
पर उसके घर में कई लोग अफ़सर थे। जिसका मेरे पर प्रभाव पड़ता था।
एक दिन हम जब टांडा रोड पर थे
तो उसको मेरी बातों से पता चल गया था कि मैं आजकल अकेला हूँ। कहने लगी, ''मुझे तुम्हारे हाथ की कॉफी पीनी है।'' मैं डर गया कि
दूसरी किरायेदार औरतें देखेंगी। पर मैं जबान न दे सका। वह मेरे साथ ही आ गई।
जब हम सीढ़ियाँ चढ़े तो नीचे वाली
सभी औरतों और लड़कियों ने हमें देखा। मैंने कमरे का ताला खोलकर उसको अन्दर बिठाया और
स्वयं दूसरी तरफ बनी रसोई में कॉफी बनाने चला गया। वह अपना पर्स मेज़ पर रखकर मेरे पास
ही आ गई। रसोई में कोई खिड़की नहीं थी। वह मेरे सिर पर खड़ी होकर बातें करती रही। बातें
कैसी, दूसरे गाँव में जाती अध्यापिकाओं और अध्यापकों की। मैं
'हूँ-हाँ' करता रहा। कॉफी का दूध मिला पानी
उबल कर बिखरने लगा तो उसने हाथ बढ़ाकर स्टोव बुझा दिया। हम इसी बात पर हँसते रहे। हँसने
पर उसके अगले दाँत दिखाई देते थे और गालों में गड्ढ़ा पड़ता था। अकस्मात् मुझे कुछ हुआ
और मैंने उसे पकड़कर उसके गालों पर चूम लिया। वह मुस्करा दी।
हम कमरे में आकर कॉफी पीते हुए
आँखों-आँखों में इस घटना पर हँसते रहे। मेरा हौसला बढ़ गया। मैं इशारों में उसको कमरे
की ओट वाली जगह पर होने को कहा और उसे पकड़ने लगा। वह हँसते हुए मुझे रोकती भी रही और
कुछ करने भी देती रही। इसी खींचतान में उसकी कमीज़ पीठ पर से फट गई। मैं डर गया। वह
एक बार घबराई और फिर नार्मल होकर बोली, ''लाओ अब सुई-धागा।''
मैं उसकी पीठ पीछे बैठकर उसकी कमीज़ को टांके भी लगाता
रहा और साथ में सोचता भी रहा कि भविष्य में उसको घर आने से रोकूँ या नहीं। मैंने कहा,
''बड़ी गलती हो गई।''
वह बोली,
''नहीं, कमीज़ बहुत पुरानी होकर घिस गई थी।...मैं
घर पहुँचकर खुद ही फाड़ दूँगी।''
जाते समय बोली,
''मुझे पैसे चाहिएँ आज।'' मैंने तनख्वाह न मिलने
की बात बताई तो वह निराश होकर चली गई। मैं भी अड्डा होशियार पुर के करीब बने खेड़ा रेस्ट्रोरेंट
की ओर चला गया। जहाँ कहानीकार दलजीत सिंह आया बैठा था। वह मेरी प्रतीक्षा कर रहा था।
मैंने उसे देर होने का कारण बताते हुए सारी बात बताई तो वह 'झूठ...झूठ'
कहता चाय पीता रहा। वह जिद्दी मेरी बात को कोरी कल्पना कहकर खारिज कर
देता था।
कुछ दिनों बाद वह
लड़की इतवार को मेरे घर फिर आ गई। उसने नीचे पड़ा मेरा साइकिल देखा होगा। उसने बहुत कीमती
साड़ी पहन रखी थी। उसमें से इत्र और पाउडर की खुशबू आ रही थी। मैं लेटे हुए किताब पढ़
रहा था। उसे देखते ही हड़बड़ाकर उठा। उसने हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ाया। मैंने पकड़ लिया।
उसने दबा दिया। उन दिनों में सिर्फ़ कामरेड लड़कियाँ ही हाथ मिलाती थीं या गले लगती थीं।
आम लड़कियाँ तो बात करने पर भी गुस्सा हो जाती थीं।
मैंने उससे चाय-कॉफी
पूछी। उसने इन्कार कर दिया। मुझे दिलजीत सिंह के आने का डर भी था और प्रतीक्षा भी।
मैं उससे इस सच को मनवाना चाहता था। आराम से बैठकर उसने मुझसे कहा कि उसे पैसों की
ज़रूरत है। पचास रुपये चाहिए। मैं हैरान था कि इतने खाते-पीते घर की लड़की को मेरे जैसे
नंग मास्टर से पैसे मांगने की क्या ज़रूरत पड़ गई। वह बोली कि उसे किसी ज़रूरतमंद सहेली
की ज़रूरत पूरी करनी है। यह बताते हुए उसने अपनी घड़ी उतार कर मेज़ पर रख दी।
मैं उसकी रहमदिली
पर पिघल गया। मैं उसी वक्त उसकी घड़ी उठाकर एक दोस्त के बडे भाई से पचास रुपये पकड़ लाया।
वह लड़की की बात सुनकर ही खुश हो गया। उसने पचास रुपयों के साथ घड़ी भी लौटा दी। मैंने
जब उस लड़की को पैसे दिए तो उसकी आँखों में आँसू आ गए। उसने मुझे प्यार से अपनी बांहों
में ले लिया। जब मैंने मुँह आगे किया तो बोली, ''मेरा मेकअप खराब
करोगे ?'' और चली गई।
सोमवार को न वह
जाती दिखी और न आती। फिर कभी भी न दिखाई दी। अपनी घड़ी लेने भी न आई। मैं उसको देखने
उनके मुहल्ले चरंजीत पुरे भी चक्कर लगाता रहा। उनके मुहल्ले के एक परिचित व्यक्ति ने
बताया कि वह इंग्लैंड चली गई है। जहाँ उसका विवाह हो जाएगा। 'रोते रहेंगे दिलों के जानी...' कहकर वह हँस पड़ा।
दिलों के जानियों
के रोने की बात तो ठीक थी उसकी। पर मुझे उसकी घड़ी के बदले पचास रुपये ले जाने वाली
बात समझ में न आई। अब ख़याल आता है कि जितना कोई अमीर होता है, उसके खर्चे भी उतने ही अधिक होते हैं। उसकी ज़रूरतें भी उतनी ही बढ़ जाती हैं।
तब मैं भी उसको एक लुच्ची लड़की समझता था। पर अब मुझे वह ठीक लगती है।
9. कोठे
वालियाँ : मुझे नहीं पता कि हमारे देश
के लोगों में औरतों की तेज़ भूख शान्त करने के लिए या उन्हें मानसिक रोगों का शिकार
बनने से बचाने के लिए क्या करना चाहिए ? वेश्याएँ होनी चाहिएँ
या नहीं ? मैं इसका उत्तर ठीक से नहीं दे सकता। पर मुझे स्वयं
लगता रहा है कि वेश्याएँ और पुरुष वेश्याएँ होनी चाहिएँ। चाहे उनका स्वरूप कुछ और हो।...
मुझे लगता है कि हमारे देश के बहुत से नौजवान लड़कों और लड़कियों की मानसिक बीमारियों
का एक कारण कामेच्छा को दबाना और हिंदू शास्त्रों का यह विश्वास है कि हमें अपने आप
को वीर्यपात से बचाना चाहिए। यदि यह स्खलन होता गया तो हमारा सबकुछ नष्ट हो जाएगा। फिर हमारे
अन्दर कुछ भी नहीं बचेगा।
मैं 25 वर्ष
की उम्र में विवाह होने तक स्त्री की संगत नहीं कर सकता था। अवसर ही नहीं मिला था।
स्त्री के पास खड़ा होने मात्र में डर लगने लग पड़ता था।... पहले अनुभव के बाद मैं वेश्याओं,
पराई औरतों और मित्र स्त्रियों से मिला।... सबसे पहले मैं हरिद्वार की
यात्रा से लौटते हुए रात को सहारनपुर के नख्खास बाज़ार में गया। तगड़ा होकर हर व्यक्ति
का जायज़ा लिया। भरे जिस्म वाली एक कंजरी के पास भी गया। सुखद अनुभव हुआ। फिर दिल्ली
और आगरा के बाज़ार भी देखे। बड़े अच्छे लगे।... परन्तु इस भूख का इलाज न हुआ।
यह बात अधिक मानने वाली नहीं,
पर मैंने धार्मिक स्थानों के साधू-आश्रमों में कामक्रीड़ा प्राय: होते
देखी और की भी। मैंने इस कार्य को पाप नहीं माना या मैंने पापबोध से कम से कम अपने
आप को मुक्त समझा। ऋषिकेश में मुझे एक साध्वी के साथ रासलीला रचने की खुशी प्राप्त
हुई। इस काम का रूप-स्वरूप हालांकि धार्मिक-सा ही था। हम दोनों को या कम से कम मुझे
भद्दा या गंदा कुछ भी नहीं लगा था। ये सारे अनुभव मेरी बहुत सारी कहानियों में किसी
न किसी रूप में बिखरे पड़े हैं।
ऐसे दूसरे कई अनुभव मैंने अपनी
दूसरी पुस्तक 'कहानी का जन्म' में लिखे
हैं, जिसमें 'अनुभव' और 'अनुभूति' के कहानी बनने की
व्याख्या दर्ज़ है।
यहाँ मैं सिर्फ़
इतना बताना चाहता हूँ कि 1969 से 1998 तक
स्त्रियों के साथ मेरी मित्रता के मुझे सुखद अनुभव हुए, जिससे
मेरी ज़िन्दगी का सारा दर्शन ही बदल गया। कहाँ मैं काम-तृप्ति के लिए शारीरिक क्रिया
को ही सब कुछ मानता था और कहाँ वे अनुभव मुझे आत्मिक शक्ति के संसारों में ले गए। आत्मिक
आनन्द कठिनाई से मिलता है।
इन अनुभवों से मेरी
सृजन का रंग ही बदल गया। उस औरत से मेरी संगत बहुत लम्बे समय के लिए रही। वह अधिक समझदार
और बंधन-मुक्त थी। उसके अन्य सुखों के अलावा मुझे एक लाभ यह मिला था कि उसकी सहेलियाँ
भी उच्च विद्या और सामाजिक रुतबे वाली थीं। वे कहानियों की अच्छी पारखी थीं। मैं हर
कहानी पहले उसको पढ़वाता था। उसकी राय मूल्यवान होती थी। मैं उसकी सलाह से अपनी कहानियाँ
संसोधित कर लेता था। उसके साथ मेरा संबंध बहुत उलझा हुआ था। उसका अपना अहं बहुत ऊँचा
था। हम बहस करते करते झगड़ भी पड़ते थे। मैं इस मोड़ पर बचने के लिए बहस छोड़ देता था।
हमारे दो तरफ़ी या
बनते-बिगड़ते संबंधों ने मुझे बहुत सी कहानियाँ दीं। पर मुझे कहानी लिखने के लिए उकसाती
वही स्त्री थी, जो कम समय के लिए मेरी ज़िन्दगी में आई थी। कभी
दोनों की टक्कर में से नया पात्र जन्म ले लेता था। कभी कई स्त्रियों का एक पात्र बन
जाता था। कोई एक स्त्री मेरे जेहन पर सवार थी। उसके इतने विराट रूप मुझे दिखाई देते
रहते थे कि कुछ ही समय बाद नई कहानी का सृजन हो जाता था। पहली दसेक कहानियों में एक
पात्र भारी रहा। फिर उसके रूप बदलते चले गए। इस काम में मेरी और मुझसे मिलने वाली स्त्रियों
की बढ़ती आयु, बदलती सोच, मानसिक शक्तियाँ
और कमज़ोरियाँ का प्रभाव भी था जो प्रभावित करता रहा। यह क्रिया कैसे चलती थी,
इसके बारे में कुछ संकेत आपको इस पुस्तक में 'मेरी
कहानियों के बीज' वाले हिस्से में मिल सकते हैं।
धार्मिक संस्कार
मेरे दादा जी और
दादी सनातन धर्मी हिंदू थे। पर मेरे पिता जी के विचार आर्य स्कूल में पढ़ते हुए बदल
गए थे। वह आर्य समाजी बन गए थे। इस हद तक कट्टर कि मेरी दादी अपना सनातनी धर्म निभाते
हुए जो भी धर्म-कर्म करती थी, मेरे पिता जी उसमें विघ्न डालकर
खुश होते थे। माँ अधबीच में थी। आधी पति के साथ और चोरी चोरी सास के साथ। मेरी ननिहाल
वाले भी आर्य समाजी थे। पर स्त्रियाँ जब माँएँ बनती हैं तो मोह की मारी वहमों-भरमों
को अधिक मानने लग पड़ती हैं।
(जारी)
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