पंजाबी उपन्यास
>> रविवार, 15 जुलाई 2012
बलबीर मोमी
अक्तूबर 1982 से कैनेडा में प्रवास कर रहे
हैं। वह बेहद सज्जन और मिलनसार इंसान ही नहीं, एक सुलझे हुए समर्थ लेखक भी हैं।
प्रवास में रहकर पिछले 19-20 वर्षों से वह निरंतर अपनी
माँ-बोली पंजाबी की सेवा, साहित्य सृजन और पत्रकारिता के माध्यम से कर रहे हैं। पाँच कहानी संग्रह [मसालेवाला घोड़ा(1959,1973),
जे मैं मर जावां(1965), शीशे दा समुंदर(1968), फुल्ल खिड़े हन(1971)(संपादन), सर दा
बुझा(1973)],तीन उपन्यास [जीजा जी(1961), पीला गुलाब(1975) और इक फुल्ल मेरा
वी(1986)], दो नाटक [नौकरियाँ ही नौकरियाँ(1960), लौढ़ा वेला (1961) तथा कुछ एकांकी
नाटक], एक आत्मकथा - किहो जिहा सी जीवन के अलावा अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी
हैं। मौलिक लेखन के साथ-साथ मोमी जी ने पंजाबी
में अनेक पुस्तकों का अनुवाद भी किया है जिनमे प्रमुख हैं – सआदत
हसन मंटो की उर्दू कहानियाँ- टोभा टेक
सिंह(1975), नंगियाँ आवाज़ां(1980), अंग्रेज़ी नावल ‘इमिग्रेंट’ का पंजाबी अनुवाद ‘आवासी’(1986), फ़ख्र जमाल के उपन्यास ‘सत गवाचे लोक’ का लिपियंतर(1975), जयकांतन की तमिल कहानियों का
हिन्दी से पंजाबी में अनुवाद।
देश –विदेश के अनेक
सम्मानों से सम्मानित बलबीर मोमी ब्रैम्पटन (कैनेडा) से प्रकाशित होने वाले पंजाबी
अख़बार ‘ख़बरनामा’ (प्रिंट व नेट एडीशन) के संपादक हैं।
आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास ‘पीला गुलाब’ भारत-पाक विभाजन की कड़वी यादों को समेटे हुए है। विस्थापितों द्बारा नई
धरती पर अपनी जड़ें जमाने का संघर्ष तो है ही, निष्फल प्रेम की कहानी भी कहता है। ‘कथा पंजाब’ में इसका धारावाहिक प्रकाशन करके हम प्रसन्नता अनुभव
कर रहे हैं। प्रस्तुत है इस उपन्यास की पाँचवीं किस्त…
- सुभाष नीरव
पीला गुलाब
बलबीर सिंह
मोमी
हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव
7
गुलाब को याद आया
कि उसका एक मामा फौज में सूबेदार था। यह मामा उनके पास ही रहा था और पढ़ा था। इसलिए
उसका उसके बापू और माँ से प्यार भी बहुत था। यदि वह पढ़ा न होता तो शायद फौज में सूबेदार
न होता। खेती करता या डाके डालने लगता। बचपन से लेकर बड़े होने तक वह कभी किसी से मार
खाकर नहीं आया था, अपितु दूसरे को पीटकर ही आया
था। फौजी जीवन उसके अन्दर कुछ एकसारता-सी ले आया था और वह हर वर्ष उन्हें गाँव में
मिलने अवश्य आता और उसकी प्रतीक्षा भी घर में बड़े चाव के साथ हुआ करती थी।
जब हम मरते-खपते सच्चा सौदा कैम्प
में पहुँच गए थे तो वह हमारा मामा बावर्दी फौजी सिपाहियों के साथ मशीन गनें और बन्दूकें
लेकर हमें गाँव में से ले जाने के लिए आया था। लेकिन स्टेशन पर उतरते ही उसे पता चल
गया था कि गाँव तो कई दिनों का खाली हो चुका था। घरबार लूटे जा चुके थे और गुरुद्वारा
ढाह दिया गया था और कई घरों को भी आग लगाकर राख कर दिया गया था।
महीना भर हम सच्चा सौदा कैम्प
में भटकते रहे। यहाँ करीब छह लाख हिंदू-सिक्ख बैठा था जिसके रसद-पानी का किसी सरकार
की ओर से कोई प्रबंध नहीं था। रात-बेरात हथियारबंद होकर लोग समीप के गाँवों में जाते
और गेहूं आदि उठाकर कैम्प में आ घुसते। कई लोग मुसलमान मिलिट्री की गोलियों का निशाना
बन गए। मुसलमान मिलिट्री के अनुसार वे अपने बाल-बच्चों के लिए अन्न-पानी का प्रबंध
करने के लिए नहीं जाते थे, अपितु वारदात करने जाते थे। अधिकांश
लोग भूखे ही सो रहते।
जीवन के इन बहुत कठिन पलों में
भी कभी-कभी कोई बात रंगीन बनकर घटित हो जाती।
जिन लोगों की बहन-बेटियों को मुसलमान
उठाकर ले गए थे, या जो काट-पीट दी गई थीं, उन दुर्घटनाओं की वजह से कई लोगों ने अपनी जवान बेटियों और बहनों के विवाह
कैम्प में ही कर दिए।
ये विवाह भी कैसे विवाह थे ! कोई
बारात नहीं चढ़ती थी, कोई शहनाई नहीं बजती थी, कोई जयमाला नहीं होती थी, कोई मिलनी भी नहीं। कोई सेहरा
नहीं पढ़ा जाता था, कोई शिक्षा नहीं दी जाती थी। कोई सेहरा नहीं
बांधता था। कोई दहेज नहीं देता था। कोई द्वार पर तेल नहीं चुआता था। सिर पर से न्योछावर
करने की कोई रस्म नहीं होती थी। कोई मजाक नहीं होता था, सालियाँ
कोई छंद नहीं सुनती थीं। कोई गीत नहीं गाता था और फिर भी विवाह हो जाते थे। कोई सेज
नहीं होती थी, न कोई सुहागरात। कोई कड़ाह-पूरी नहीं था और माँ-बाप
समझते थे कि उन्होंने अपनी जवान बेटी की चिंता गले से उतार कर किसी जवान के गले में
डाल दी थी !
इन कैम्पों में विवाह-शादियों
के साथ-साथ चोरियाँ भी हो जाती थीं। परन्तु इन चोरियों का फ़ैसला
कोई पंचायत नहीं कर सकती थी। कोई रपट-पर्चा थाने नहीं पहुँचता था। लोग कहते थे कि पाकिस्तान
बनने से धर्म-ईमान का सत्यानाश हो गया था।
ज़मीन पर सोने से, कई-कई दिनों तक न नहाने से सिरों में जुएँ पड़ गई थीं।
कहीं से सिर धोने के लिए साबुन और पानी नहीं मिलता था। बाल संवारने के लिए कंघी नहीं
मिलती थी। अक्सर मैं अपनी छोटी बहन को बगल में उठाये खिलाता रहता और गाँव लौट जाने
की बातें सोचता रहता। पर दु:खों की इस लम्बी कहानी का कोई अन्त नहीं था। छह लाख लोगों
को गाड़ियों, ट्रकों के द्वारा रातोंरात हिंदुस्तान पहुँचा देना
कोई सरल बात नहीं थी। कई बार बलौच मिलिट्री की वहाँ से गुज़रती गाड़ियों ने मनमाने ढंग
से कैम्पों में बैठे शरणार्थियों पर अंधाधुंध गोलियाँ बरसाईं और सैकड़ों, हज़ारों को मौत की गोद में सुला दिया।
एक रात हम करीब चौदह लोग रेलगाड़ी
के इंजन के अगले बढ़े हुए छज्जे पर बैठकर दो रातों और दो दिनों में भारत की सरहद के
अन्दर पहुँच गए। सच्चा सौदा रेलवे स्टेशन पर शेखूपुरा, शाहदरा,
लाहौर, मुगलपुरा और कसूर तक हमें चार बार गाड़ी
बदलनी पड़ी। कई बच्चे पानी के अभाव में प्यासे मर गए। जब फ़ीरोजपुर छावनी के कैम्प में
पहुँचे तो वहाँ हैजा फैला हुआ था। हैजे के साथ ही बाढ़ का प्रकोप और कैम्प ढह गए। इस
बाढ़ ने धकेल कर हमें बठिंडा पहुँचा दिया, जहाँ मैंने पहली बार
बड़ा किला देखा और देखे - गहरे कुएँ। इसके बाद नित्य नए दु:खों के किले और मुसीबतों
के कुएँ देखना आम जीवन का एक हिस्सा बन गया था। छह महीने की भटकन के बाद बठिंडा ज़िला
के एक गाँव में कच्ची ज़मीन अलॉट हो गई। इन छह महीनों में घरवाले मुझे एक जूती तक न
लेकर दे सके। और इसमें कोई हैरानी की बात नहीं थी कि मैंने पौह माह की ठंड के दिनों
में नंगे पैर ही जाड़ा बिता लिया। कभी-कभी माँ नंगे पैरों को अपनी
गालों से लगाकर रोने लग पड़ती। मेरी कमीज़ भी पूरी तरह फट गई थी और पगड़ी तार तार हो गई
थी।
शायद हुकूमत हमारे फटे कपड़े और
भूखे पेटों का इलाज करने के लिए कुछ कर रही थी। माँ अक्सर बापू को क्लेम भरने और कुछ
करने के लिए कहती रहती और बापू चुपचाप सुनता रहता। जब वह फिर भी कहने से न हटती तो
बापू की आँखों में गुस्सा आ जाता। उसके होंठ फड़कने लगते और नाक सिकुड़-सी जाती। वह करवट
बदलकर धीमे स्वर में कहने लगता, ''अगर हकूमत हमारे टुकड़े टुकड़े
हुए दिलों को नहीं सी सकती और हमारे बीते हुए दिन नहीं लौटा सकती तो क्लेम करके भी
क्या करना है ?''
(जारी…)
1 टिप्पणियाँ:
is upanyaas ansh men vibhajan ke samay kii trasdee ko achchhi tarah se varnan karke prastut kiya hai,jo
hame unke dukh ko kareeb se mehsoos karaa jata hai,aur unki chhatptahat hamare andar paith kar vayathit kar jati hai.
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