आत्मकथा/स्व-जीवनी
>> गुरुवार, 13 सितंबर 2012
पंजाबी के एक जाने-माने लेखक प्रेम प्रकाश का जन्म ज़िला-लुधियाना के खन्ना
शहर में 26 मार्च 1932(सरकारी काग़ज़ों में 7 अप्रैल 1932) को हुआ। यह 'खन्नवी' उपनाम से
भी 1955 से 1958 तक लिखते रहे।
एम.ए.(उर्दू) तक शिक्षा प्राप्त प्रेम प्रकाश 'रोज़ाना मिलाप'
और 'रोज़ाना हिंद समाचार' अख़बारों में पत्रकारिता से जुड़े रहे। 1990 से 2010
तक साहित्यिक पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका 'लकीर'
निकालते रहे। लीक से हटकर सोचने और करने में विश्वास रखने वाले इस
लेखक को भीड़ का लेखक बनना कतई पसन्द नहीं। अपने एक इंटरव्यू में 'अब अगर कहानी में स्त्री का ज़िक्र न हो तो मेरा पेन नहीं चलता' कहने वाले प्रेम प्रकाश स्त्री-पुरुष के आपसी संबंधों की पेचीदा गांठों
को अपनी कहानियों में खोलते रहे हैं। यह पंजाबी के एकमात्र ऐसे सफल लेखक रहे हैं
जिसने स्त्री-पुरुष संबंधों और वर्जित रिश्तों की ढेरों कामयाब कहानियाँ पंजाबी
साहित्य को दी हैं। इनकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि मनुष्य मन की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर
गांठों को पकड़ने में सफल रही हैं।
कहानी संग्रह 'कुझ अणकिहा वी' पर 1992 मे
साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त यह लेखक अस्सी वर्ष की उम्र में भी पहले जैसी
ऊर्जा और शक्ति से निरंतर लेखनरत हैं। इनके कहानी संग्रह के नाम हैं - 'कच्चघड़े'(1966), 'नमाज़ी'(1971), 'मुक्ति'(1980), 'श्वेताम्बर ने कहा था'(1983),
'प्रेम कहानियाँ'(1986), 'कुझ अनकिहा वी'(1990),
'रंगमंच दे भिख्सू'(1995), 'कथा-अनंत'(समग्र कहानियाँ)(1995), 'सुणदैं ख़लीफ़ा'(2001),
'पदमा दा पैर'(2009)। एक कहानी संग्रह 'डेड लाइन' हिंदी में तथा एक कहानी संग्रह अंग्रेजी
में 'द शॉल्डर बैग एंड अदर स्टोरीज़' (2005)भी प्रकाशित। इसके अतिरिक्त एक उपन्यास 'दस्तावेज़'
1990 में। आत्मकथा 'बंदे अंदर बंदे'
(1993) तथा 'आत्ममाया'( 2005) में प्रकाशित। कई पुस्तकों का संपादन जिनमें 'चौथी
कूट'(1996), 'नाग लोक'(1998),'दास्तान'(1999),
'मुहब्बतां'(2002), 'गंढां'(2003) तथा 'जुगलबंदियां'(2005) प्रमुख
हैं। पंजाबी में मौलिक लेखक के साथ साथ ढेरों पुस्तकों का अन्य भाषाओं से पंजाबी
में अनुवाद भी किया जिनमें उर्दू के कहानीकार सुरेन्द्र प्रकाश का कहानी संग्रह 'बाज़गोई' का अनुवाद 'मुड़ उही
कहाणी', बंगला कहानीकार महाश्वेता देवी की चुनिंदा कहानियाँ,
हिंदी से 'बंदी जीवन'- क्रांतिकारी
शुचिंदर नाथ सानियाल की आत्मकथा, प्रेमचन्द का उपन्यास 'गोदान', 'निर्मला', सुरेन्द्र
वर्मा का उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' तथा
काशीनाथ सिंह की चुनिंदा कहानियाँ आदि प्रमुख अनुवाद कृतियाँ हैं।
सम्मान : पंजाब साहित्य अकादमी(1982),
गुरूनानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर द्वारा भाई
वीर सिंह वारतक पुरस्कार(1986), साहित्य अकादमी, दिल्ली(1992), पंजाबी अकादमी, दिल्ली(1994),
पंजाबी साहित्य अकादमी, लुधियाना(1996),
कथा सम्मान,कथा संस्थान, दिल्ली(1996-97), सिरोमणि साहित्यकार, भाषा विभाग, पंजाब(2002) तथा
साहित्य रत्न, भाषा विभाग, पंजाब(2011)
सम्पर्क : 593, मोता
सिंह नगर, जालंधर-144001(पंजाब)
फोन : 0181-2231941
ई मेल : prem_lakeer@yahoo.com
आत्म माया
प्रेम प्रकाश
हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव
बदलती साहित्यिक सोच
1. पहला चरण - सितम्बर 1947
के बाद मैं नास्तिक और स्वयंमेव कम्युनिस्ट बन गया था। मैंने मार्क्सवादी
विचारधारा की कोई पुस्तक न तब पढ़ी थी और न ही बाद में कभी पढ़ी। अपितु मैं इसके उलट
साहित्य और धर्मग्रंथ बहुत पढ़ता रहा हूँ। एक तरफ़ कामरेडों और दूसरी तरफ़ साधू-संतों
की संगत करता रहा हूँ। परन्तु सामाजिक असमानता और धर्म से रहित होने के विचार मेरे
मन में शुरू से ही रहे हैं। मेरा रवैया रहा है कि मैं किसी भी वाम पंथी सोच वाले व्यक्ति
को मिलकर उसको दस नंबर अधिक दे देता रहा हूँ। शायद यह भी बात ठीक ही हो कि मेरे मन
में गरीबों के साथ सहानुभूति इतनी न हो, जितनी अमीरों के साथ
नफ़रत हो। इसी तरह धर्मों के साथ इतनी नफ़रत न हो जितनी अधार्मिक आचरण वाले धार्मिक लोगों
के साथ हो। नफ़रत की भावना मेरे अन्दर बचपन में ही पैदा हो गई थी, जब मेरा बड़ा भाई मुझे मारा करता था और मेरा बापू न उसको रोकता था और न ही मुझे
दिलासा देता था। इस प्रकार नफ़रत और नफ़रतें पैदा करती रही थी।
1953 में जब मैं
जालंधर आया तो पंजाबी साहित्य और साहित्यकारों के साथ मेरा वास्ता पड़ा। उस समय कोई
भी व्यक्ति प्रगतिवादियों के संग चले बगैर समझदार या कलाकार कहला ही नहीं सकता था।
उनकी सोच से ज़रा-सा भी इधर-उधर होने पर लेखक मूर्ख या पागल समझा जाता था। साहित्यिक
हस्तियों के साथ-साथ राजनैतिक हस्तियाँ भी पूजी जाती थीं। बेशक वो पंजाब की हों,
भारत के किसी भी प्रांत की या अन्य किसी भी समाजवादी देश की हों। लेकिन
मेरे अंदर पड़ी नफ़रत मुझे बुतपरस्त होने की बजाय बुतशिकन बनने पर मज़बूर करती थी। उन्हीं
दिनों मेरे साथी महिरम यार, जसवंत सिंह विरदी, सुरजन ज़ीरवी और कामरेड हरदयाल सिंह जब भी बहस करते थे तो उनकी दलील के अन्त
में मार्क्स, लेनिन, स्टालिन, माओ जे तुंग,
गोर्की, चैखोव और टालस्टाय के हवाले होते थे। उससे
आगे किसी की भी दलील नहीं सुनी जाती थी और मुझे किसी के भी हवाले से बहस करना मूर्खतापूर्ण
लगता था।
मैंने उनसे साहित्य
और समाज के बारे में बहुत सी बातें समझी थीं। पर मेरे अंदर कोई जुनूनी व्यक्ति बैठा
था, जो सारे लीडरों और दोस्तों को रद्द कर देता था। मुझे अंतर
यह लगता था कि वे सियासत और समाज को पहल देते हैं और मैं साहित्य और समाज को। बहसों
में कई बार मैं जब किसी तर्क का जवाब नहीं दे पाता था तो बौखलाहट में कम्युनिस्ट लीडरों
को गालियाँ भी बक देता था।
मैं इस बात के विरुद्ध
था कि केन्द्रीय पंजाबी लेखक सभा के विषय में फैसले कम्युनिस्ट नेताओं की रहनुमाई में
पार्टी के दफ्तर में हों। हालांकि मुझे पता था कि यह साहित्यिक संगठन कम्युनिस्ट पार्टी
का लेखक विंग था। इन बातों के पता चलने पर मैंने लेखक सभा की सदस्यता से इस्तीफ़ा दे
दिया था। मुझे इस बात पर खीझ आया करती थी कि सभा की मीटिंग में कम्युनिस्ट नेता या
उनके पाले हुए लेखक आकर बताएँ कि साहित्य क्या है ? वह पार्टी
के आदेशानुसार हमारे लिए स्कूल लगाया करते थे। जिन्हें स्टडी सर्किल भी कहा जाता था।
जो विचार राष्ट्रीय नेता देते थे, वे सारी दुनिया की पार्टी इकाइयों
तक पहुँच जाते थे। धीरे-धीरे नीचे उतरते हुए वे हरेक विंग में पहुँच जाते थे। केन्द्रीय
पंजाबी लेखक सभा भी कम्युनिस्ट पार्टी का एक विंग थी, जहाँ वही
पुरानी चबाये हुए विचार दुहराये जाते थे।
मैं अकेला पड़ जाने
का दु:ख और सुख भोगता रहा था। जिसे मैं बनवास का तप-त्याग समझता हूँ। इसी ने मुझे कहानी
लिखने की शिक्षा दी। जो कहानियाँ मैंने संगठन की विचारधारा के अधीन लिखीं, उन्हें मैंने रद्द कर दिया था।
मेरे पहले कहानी
संग्रह 'कच्चकड़े' के छपने से पहले ही साहित्यिक
जगत में मेरी कहानियों की भिन्न पहचान मान ली गई थी। इसका कारण यह भी था कि मेरी विरासत
में सिर्फ़ पंजाबी साहित्य ही शामिल नहीं था, बल्कि उर्दू और हिंदी
साहित्य के अलावा पंजाब की लोक कथाएँ, देखे गए नाटक, रासलीलाएँ, किस्सों की कहानियाँ, पौराणिक कथाएँ, रामायण और महाभारत भी मेरी इस विरासत
में शामिल थे। पर मार्क्सवादी धार्मिक ग्रंथों को विरासत नहीं मानते थे।
1967-68 के समय में हिंदी और पंजाबी साहित्य में ऊल-जुलूलवाद का ज़ोर था। अमूर्त साहित्य
रचा जाने लग पड़ा था। अमृता प्रीतम की पत्रिका 'नागमणि'
में ऐसा साहित्य अधिक छपता था। उनमें मेरी कहानियाँ भी शामिल थीं। पर
मैं किसी भी वाद या समूह की सोच से चलने के विरुद्ध था। परन्तु ऊपर लिखे वाद का प्रभाव
मेरे दूसरे कहानी-संग्रह 'नमाज़ी' पर पड़
चुका था। उन विषयों और उस कथा-शैली के बारे में सोचते हुए मैं अंतर्मुखी होने लग पड़ा
था। उसने मुझे मनुष्य के अवचेतन और अचेतन में विचरते अहसासों को समझने का ढंग बताया।
पर यदि एक बात सिद्ध होती थी तो दूसरी उलझ जाती थी। इससे मुझे घटनाओं को उनके भिन्न-भिन्न
पहलुओं से देखने का ढंग आया और उन्हें कहानी में लाकर फिट करने का तरीका भी।
ज़िन्दगी से उदासीन
होने वाले दौर के बाद जब मैं स्त्री और पुरुष के संबंधों की कहानियाँ लिखने लग पड़ा
तो इन रिश्तों की परतों की परतें मेरे सामने रोज़ खुलने लग पड़ी थीं।
मेरी सोच के बदलने
का एक बड़ा कारण शायद दूसरा भी हो। वह यह कि राजसी हालात तेज़ी से बदल रहे थे। तेलंगाना
की हथियारबंद क्रांति की असफलता के बाद पश्चिमी बंगाल के नक्सल इलाके में ज़मीनों से
बेदख़ली के मामले में काश्तकारों ने हथियारबंद युद्ध छेड़ दिया था। जिसका प्रभाव उसके
आसपास के क्षेत्रों के बाद उड़कर पंजाबी में आ गया था। इस वजह से दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों
में से असंतुष्ट कामरेड पार्टी को दोफाड़-तिफाड़ करते रहे थे। आम लोगों का विश्वास कम्युनिस्ट
पार्टी से टूटने लग पड़ा था। दुआबा के नौजवान भूख के मारे विलायत को भाग रहे थे। पंजाब
में लाल पार्टी के बचे-खुचे लोगों के साथ मिलकर पढ़े-लिखे बेकार नौजवानों, जो कि पार्टी से निराश हो चुके थे, ने नक्सली लहर खड़ी
कर दी थी। क्योंकि ये लहर पढ़े-लिखों की थी, इसलिए इसमें साहित्यकार
भी शामिल थे। मेरा दोस्त सुरजीत हांस विलायत में बैठा था। उसने देश के लोगों के जीवन
को सियासी, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक तौर पर खूब अच्छी तरह
समझा था। वह स्वयं कम्युनिस्ट पार्टी में रह चुका था। उसने नक्सली लहर के साथ जुड़ने
और 'बीमार रुचियों वाले साहित्य' का मुकाबला
करने के लिए साहित्यिक पत्रिका निकालने की योजना बनाई। जो पढ़े-लिखे लोग विलायत जाते
हैं, वे मानसिक तौर पर गोरों के दबाव में आकर अधिक कट्टर मार्क्सवादी
बन जाते हैं।
1970 में हमने 'लकीर' निकाला। इससे पहले अमरजीत चंदन एक गुप्त परचा 'दस्तावेज़' निकालता था। उसने दो अंक ही
निकाले थे कि उसके हालात बिगड़ गए। 'लकीर' के बाद कई अन्य परचे भी क्रांतिकारी बन गए थे, जिन्होंने
पंजाबी साहित्य का दिशा और रूप बदल दिया था। ऊल-जुलूलवाद की जगह नक्सली साहित्य पैदा
होना शुरू हो गया था। बहुत शीघ्र इसने 'जुझारूवाद' का रूप धारण कर लिया था। उस समय मेरा यह विश्वास बन गया था कि राजसी क्रांति
के सहायक के तौर पर साहित्य को हथियारों के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। मैं
'लकीर' में ऐसा साहित्य छापता था और यही
प्रचार करता था। जालंधर के कॉफ़ी हाउस में नित्य इकट्ठा होते साहित्यकार भाँति-भाँति
के साहित्य की बातें करने से हट गए थे। हरेक एक-दूजे से शक करने लग पड़ा था। कोई किसी
को नक्सली समझता था और कोई किसी को पुलिस का एजेंट। नये ग्रुप बनने लग पड़े थे।
चौतरफ़ सियासी माहौल
गरम था। नक्सली पकड़े और पुलिस मुकाबलों में मारे जा रहे थे। मैं 'लकीर' में बहुत सारी कच्ची-पक्की कविताएँ उन कवियों की
भी लिहाज से छाप देता था, जो नौजवान जेलों से भागते थे। पर मैंने
स्वयं इस सारे समय में कोई ऐसी कहानी नहीं लिखी जिसमें क्रांति के नारे और प्रचार हो।
मैंने सिर्फ़ कहानियाँ लिखीं...'तपीआ' और
'ख़ून-बहा'। इन दोनों कहानियों को मैं अब
भी अच्छा साहित्य मानता हूँ। 'तपीआ' एक
अंडरग्राउंड क्रांतिकारी लेखक की कहानी है, जो साधू के रूप में
छिपता-छिपाता अपने कुएँ पर बने कोठे में चला जाता है। जहाँ उसका बाप मिलता है,
पर वह उसको पहचानता नहीं। कामरेड अपने चित्त में घूमते विचारों के माध्यम
से अपने बारे में, अपने मिशन, अपने घर और
अपने बूढ़े होते जाते किसान बाप के विषय में सोचता है। वह कहानी किसी को सुनाई नहीं
जाती। उसके मन में लिखी जाती है। वह रात अपने पिता के पास बिताकर तड़के उठकर चला जाता
है। दूसरी कहानी 'खून बहा' कई बिम्बों के
माध्यम से उभरती है। एक चौक है। उसके करीब एक चौबारे में नौजवान रहता है। अँधेरे -से माहौल
में बैठा नौजवान सीन नाम की लड़की की प्रतीक्षा कर रहा है ताकि वह उसको लेकर चौक से
परे कहीं चला जाए। वह न तो खुद चौक के इधर रहना चाहता है, न चौक के मध्य और न ही चौक पार कर जाने की उसमें हिम्मत है।
यह अमूर्त-सी कहानी नक्सली बुद्धिजीवियों को पसंद आई थी और हिंदी में अनुवाद होकर 'पहल' में बड़े सम्मान के साथ छापी गई थी।
फिर नक्सली लहर
का पतन होने लग पड़ा था। मेरी सेहत भी खराब रहने लग पड़ी थी। मैं दफ्तर में काम करता
दो बार बेहोश होकर गिर पड़ा था। डॉक्टर के मशवरे पर मैंने सिगरेट, चाय और शराब पीना बिलकुल छोड़ दी थी। साहित्य और नक्सली लहर के बारे में सोचते
हुए मेरी सोच जबरन अपनी सेहत की ओर चली जाती थी। मैं पाकिस्तानी उर्दू कवि 'आबिदी' का शे'र गुनगुनाया करता
था -
आबिदी परवरिशे जां
का ख़याल आता है
परवरिशे लौह ओ कलम
से पहले॥
मैं तड़के उठकर सैर
करने जाने लग पड़ा था। फिर भी मन टिकता नहीं था। उन्हीं दिनों में पत्रकारों की सोसायटी
ने इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट से मुझे प्लॉट दिलवा दिया था। बस, सबब
ऐसा बना गया कि मैं घरवालों और रिश्तेदारों से मिले पैसों से शहर से बाहर की तरफ़ निर्मित
नई आबादी में मकान बनाने लग पड़ा था। और 'लकीर' निकालना बंद कर दिया था। घरवालों ने मेरी खराब सेहत देखकर नई ब्याई भैंस भेज
दी थी। फिर घर से अनाज भी आने लग पड़ा था। मेरी सेहत ठीक होने लग पड़ी थी।
मकान की अभी चारदीवारी
हो रही थी कि नक्सली लहर से संबंधित कुछ यादों को लिखने को मेरा दिल हो आया। नये मकान
में सेहत ठीक होने लग पड़ी थी। पर घर में बिजली नहीं आई थी। मैं दिन में ईंटें-रोडे
इधर-उधर करता था और रोड़ी कूटता था। दोपहर को अख़बार के दफ्तर जाता था। शाम को फिर घर
को संवारता था और रात को जब बच्चे सो जाते तो मैं लैम्प जला कर उसे अपने सिरहाने रखकर
'दस्तावेज़' के चार पाँच पृष्ठ हर रोज़ लिख
लेता था। पिछले कई वर्ष नक्सली कामरेडों, सूझवान नेताओं और साहित्यिक
लोगों में रह कर मुझे जो अनुभव हुए थे, उन्होंने मेरी सोच को
ही बदल दिया था। मैं तीन दिन जेल में भी रहा था। अंडर ग्राउंड रहने वाले साथी मेरे
घर आते जाते थे। इससे पहले जालंधर के हर किस्म के कामरेडों से मेरी मित्रता रही है।
जो अब भी चलती है। मैं साहित्यिक तौर पर उनका चाहे कितना भी विरोधी होऊँ, पर मैं बैठता-उठता उनके साथ ही हूँ। वे चाहे जितने भी मूर्ख हों, पर उनमें एक खूबी तो होती है कि वे फ़िरकापरस्त नहीं होते।... पर यह बात 1980
से 1992 तक के पंजाब के बिगड़े हालात ने रद्द कर
दी थी, क्योंकि पचास-पचास वर्ष कम्युनिस्ट रहने वाले साहित्यकार
भी फ़िरकापरस्त हो गए थे। जिनमें साहित्य में मार्क्सवाद की जडें लगाने वाले अग्रज संत
सिंह सेखों, जसवंत सिंह कंवल और अन्य कई शामिल थे। इससे पहले
भी मार्क्सवादी साहित्यकारों में रंग बदलने वाली रुचि देखने को मिला करती थी। किसी
की बुद्धि खराब हो जाए, इसके बारे में क्या कहा जा सकता है ?
मुझे नहीं पता था
कि मैं जो कुछ लिख रहा था, वह कोई नावल होगा या बिखरी-सी कहानी
अथवा राजसी और साहित्यिक लहर को लेकर एक दस्तावेज़। इसलिए मैंने इसका नाम 'दस्तावेज़' रखा था। पर मुझे इस बात की समझ थी कि मैं जो
कुछ लिख रहा हूँ, वह कम्युनिस्ट कल्चर के विरुद्ध है। उनके कल्चर
में यही बात थी कि समाज के उन लोगों को नंगा किया जाए, जो तुम्हारी नज़र में बुरे हैं। पर अपने आप को और अपने तथा
अपने नेताओं और कामरेडों की बुराइयों को वैसे ही छिपा कर रखना चाहिए, जैसे राजसी नेता और धर्म-स्थानों के पुजारी करते हैं।... इसीलिए मैं समझता
था कि जो लेखक अपनी रचना के प्रति ईमानदार नहीं, वह समाज के साथ
ईमानदार कैसे हो सकते हैं ?
मेरा दूसरा कहानी
संग्रह 'नमाज़ी' छपा था तो प्रगतिवादियों
ने मेरी सोच और मेरी कला की निंदा करते हुए इसे पतन की ओर जाता कहा था। जब नक्सली लहर
के बारे में मेरे अनुभवों और यादों पर आधारित 'दस्तावेज़'
तपा के सी.मार्कंडा द्वारा निकाली जा रही पत्रिका 'किंतु' (1976) में छपा तो हर तरह का कामरेड चीख़ पड़ा था।
उसमें नक्सली लहर से जुड़े कामरेडों की 'बल्ले-बल्ले' नहीं की गई थी। मैंने उनके कारनामों के यथार्थ को बयान करने के यत्न किए थे।
यह कम्युनिस्ट विचारधारा का उल्लंघन था। नक्सली संगठनों ने अपने कामरेडों पर 'दस्तावेज़' पढ़ने पर पाबंदी लगा दी थी। कई जगहों पर पत्रिका
की होली जलाई गई थी। उन्होंने अपने परचों में मेरे लिए अश्लील
गालियाँ प्रकाशित कीं और दोष लगाया था कि मैंने यह नावल अमेरिका से पैसा खाकर लिखा
है। यह आरोप कम्युनिस्ट कल्चर के ऐन मुताबिक था। सी.पी.आई. वालों ने फ़ैसला करके नावल
की शेष प्रतियाँ अपने बुक-स्टालों पर से उठवा दी थीं। विरोधी सुर में बोलने या लिखने
वाले पर गंदे से गंदे दोष लगाना कम्युनिस्ट पार्टियों का कल्चर है। जब दोनों पार्टियों
में से नक्सली निकले थे तो उन पर भी इसी प्रकार के आरोप लगाए गए थे।
पत्रिका के संपादक
सी. मार्कंडा को इतनी धमकियाँ दी गई थीं कि उसको माफ़ी मांगनी पड़ी और मेरे विरुद्ध कहना पड़ा कि प्रेम
प्रकाश ने मुझे पढ़ाये बगैर ही इसे अपनी मर्जी से छाप लिया है। इसमें काफ़ी सच्चाई भी
थी। उसको मैंने अपनी इस रचना के बारे में जुबानी सब कुछ बता दिया था, पर उसने इसे पढ़ा नहीं था। उसके साथ नक्सलियों द्वारा किए गए
सलूक का मुझे बड़ा अफसोस हुआ। बुरा यही लगा था कि उसने सारी बात मेरे पर डाल दी थी।
मेरी इस रचना की
आलोचना हर किस्म के कम्युनिस्ट ने की थी। जिसके कारणों का पता अब इस बात से लगता है
कि पंजाबी साहित्य में वामपंथियों ने अपने समाज की बुराइयों-अच्छाइयों के बारे में
तो लिखा, पर अपनी लहर के बारे में और अपने कामरेडों के जीवन के
विषय में कुछ नहीं लिखा। एक भी बढ़िया कहानी कामरेडों के बारे में नहीं मिलती। जसवंत
सिंह कंवल ने भावुक होकर 'लहू दी लौ' उपन्यास
लिखा, जो अपनी भावुकता के चलते प्रसिद्ध भी हुआ। अब भी बिक रहा
है। उसी कंवल ने खालिस्तानी आतंकवादियों के हक में भी 'एनियां
विचों उठ सूरमा' उपन्यास भी रचा। वह भी इसी तरह मकबूल हुआ। बिका
और पढ़ा गया।
कुछ समय के बाद
डॉ. अतर सिंह ने किसी अंग्रेजी अख़बार में 'दस्तावेज़' के बारे में लेख लिखा था। जिससे मेरे मन के गिले मिट गए थे। उसने इस पुस्तक
के साथ कंवल के उपन्यास 'लहू दी लौ' का
मुकाबला भी किया था।
इस उपन्यास को लिखने
में मुझे सबसे अधिक प्रेरणा कामरेड केवल कौर, अमरजीत चंदन,
लाल सिंह दिल और चित्रकार सुरजीत कौर तथा अन्य कई साथियों से मिली थी।
(जारी)
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