पंजाबी उपन्यास

>> रविवार, 17 जून 2012


 




बलबीर मोमी अक्तूबर 1982 से कैनेडा में प्रवास कर रहे हैं। वह बेहद सज्जन और मिलनसार इंसान ही नहीं, एक सुलझे हुए समर्थ लेखक भी हैं। प्रवास में रहकर पिछले 19-20 वर्षों से वह निरंतर अपनी माँ-बोली पंजाबी की सेवा, साहित्य सृजन और पत्रकारिता के माध्यम से कर रहे हैं। पाँच कहानी संग्रह [मसालेवाला घोड़ा(1959,1973), जे मैं मर जावां(1965), शीशे दा समुंदर(1968), फुल्ल खिड़े हन(1971)(संपादन), सर दा बुझा(1973)],तीन उपन्यास [जीजा जी(1961), पीला गुलाब(1975) और इक फुल्ल मेरा वी(1986)], दो नाटक [नौकरियाँ ही नौकरियाँ(1960), लौढ़ा वेला (1961) तथा कुछ एकांकी नाटक], एक आत्मकथा - किहो जिहा सी जीवन के अलावा अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मौलिक लेखन के साथ-साथ मोमी जी ने पंजाबी में अनेक पुस्तकों का अनुवाद भी किया है जिनमे प्रमुख हैं सआदत हसन मंटो की उर्दू कहानियाँ- टोभा  टेक सिंह(1975), नंगियाँ आवाज़ां(1980), अंग्रेज़ी नावल इमिग्रेंट का पंजाबी अनुवाद आवासी(1986), फ़ख्र जमाल के उपन्यास सत गवाचे लोक का लिपियंतर(1975), जयकांतन की तमिल कहानियों का हिन्दी से पंजाबी में अनुवाद।
देश विदेश के अनेक सम्मानों से सम्मानित बलबीर मोमी ब्रैम्पटन (कैनेडा) से प्रकाशित होने वाले पंजाबी अख़बारख़बरनामा (प्रिंट व नेट एडीशन) के संपादक हैं।

आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास पीला गुलाब भारत-पाक विभाजन की कड़वी यादों को समेटे हुए है। विस्थापितों द्बारा नई धरती पर अपनी जड़ें जमाने का संघर्ष तो है ही, निष्फल प्रेम की कहानी भी कहता है। कथा पंजाब में इसका धारावाहिक प्रकाशन करके हम प्रसन्नता अनुभव कर रहे हैं। प्रस्तुत है इस उपन्यास की पाँचवीं किस्त…
- सुभाष नीरव
 
पीला गुलाब
बलबीर सिंह मोमी

हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव


6

सितम्बर 1947 की शायद 3 तारीख़ थी। बादल इतने बरसे थे कि गाँव के अन्दर-बाहर पानी ही पानी था। यहाँ तक कि मुर्दों को जलाने के लिए सूखी जगह खोजे नहीं मिलती थी। ज्वार काटकर पशुओं के आगे साबुत ही फेंक देते, पर पशु खाने का नाम नहीं लेते थे।
      मंडी सारी उजड़ चुकी थी और बिनौले की भरी बोरियाँ मंडी के कारखानों में से लाकर लोग पशुओं को डालते, परन्तु पशु फिर भी न खाते और उनकी आँखों में से पानी बहता रहता।
      पशुओं की आँखों में से पानी बहता रहता और लोगों के दिल रोते रहते। एक दिन फफक कर रोते हुए बापू ने भैंसों को थपथपाकर उनके रस्से खोल दिए थे और कहा था, ''जाओ, करमों वालो, हमारा-तुम्हारा रिश्ता खत्म हो गया। तुमने हमारी बड़ी सेवा की है और दूध पिलाया है। अब हमारे बिछुड़ने का समय आ गया है।''
      माँ भयभीत हो उठी और रोने लग पड़ी। हमारी एक भैंस पूरे गाँव में सबसे अधिक दूध देती थी और उस भैंस का मूल्य उन दिनों में हज़ार रुपये था। आज बापू ने उसके रस्से खोलकर कहा था, ''जा भली मानष, चली जा, जिधर तेरा दिल करता है।'' भला कोई घर में पाले पशु को भी यूँ कहता है। घर का पाला पशु तो बेटी-बेटों जैसा होता है और इस भैंस को तो माँ ने बिलांद-बिलांद नाप कर पाला था। जब यह बहुत छोटी थी तभी इसकी माँ मर गई थी।
      जब पशु हांकने पर भी बाहर न निकले और ऊँची आवाज़ में रंभाने लग पड़े तो माँ ने भैंसों के सींगों पर हाथ फेर कर उन्हें फिर से खूंटों से बांध दिया। उस दिन रात में यह फ़ैसला हुआ कि सारे गाँव का काफ़िला कल तड़के ही यह गाँव छोड़कर हिंदुस्तान जाने के लिए सच्चा सौदा कैम्प की तरफ़ चल पड़ेगा, जहाँ हिंदु-सिक्खों के कैम्प की सुरक्षा के लिए थोड़ी-सी सिक्ख मिलेट्री थी।
      भागो सुन्दरे के साथ पहले ही दिल्ली चली गई थी।
      उस रात किसी को नींद न आई। कौन-सा सामान ले जाया जाए और कौन-सा छोड़ा जाए, इसका फ़ैसला करना बहुत कठिन था। हमने अपना सामान बैलगाड़ियों पर लादा और रजाइयों, गद्दों और खेस-चादरों को भैंसों के ऊपर रस्सों से बांध दिया।
      पंजीरी का पीपा, घी का पीपा और आटा-दालें बैलगाड़ी में रख लीं। माँ की गोद में उस वक्त महीने भर की लड़की थी और उससे बड़ी जो दो-ढाई साल की थी, को मैंने उठा रखा था।
      भोर के उजास में सैकड़ों बैलगाड़ियों का काफ़िला गाँव में से चल पड़ा। चलते समय ग्रेस चूहड़ी माँ से कुछ मांगने लगी तो माँ गुस्से में उसकी ओर लपकी। बेचारी ग्रेस को इतनी भी समझ नहीं थी कि हम लोगों ने घरों में से निकलना था और हमारे भरे-भराये घर सब उनके लिए ही थे अब।
      काफ़िला दो मील से भी अधिक लम्बा था। काफ़िले के दायें-बायें गाँव के नौजवान बन्दूकें उठाये घोड़ियों पर चढ़कर आगे-पीछे घूम रहे थे कि लुटेरे न आ पड़ें। हमारे गाँव के काफ़िले के पीछे पिछले गाँवों के काफ़िले आ रहे थे। लोग बैलगाड़ियों पर बैठे थे, उनके दिल रो रहे थे और आँखें मायूस थीं। वे अन्तिम बार उन घरों की ओर देख रहे थे जिन घरों को उन्होंने एक बरस में कई कई बार लीपा-पोता था। यह घड़ी सबसे दुखदायक और कठिन थी... पानी बहुत बरसा था और जगह-जगह पर कमर तक पानी एकत्र हो गया था। जो बैलगाड़ियाँ आगे निकल गई थीं, उन्होंने राह को और अधिक खराब कर दिया था। जो पशु गारे-गङ्ढे में धंस जाते, वे दुबारा बाहर न निकल पाते। हमारी भैंसें एक ऐसे गड्ढ़े में फंस गई थीं कि उनको निकालने गया मैं स्वयं कमर तक दलदल में धंस गया था। जब एक पैर बाहर निकाला तो उस पैर का जूता गारे में ही रह गया और यही हाल दूसरे पैर के बूट के साथ भी हुआ। इतना वक्त क़हाँ था कि कपड़े उतारकर मैं गड्ढ़े-गारे में से बूट निकाल सकता। भैंसें अब दलदल में लुढ़कनियाँ ले रही थीं। रजाइयाँ, गद्दे और खेस सब कीचड़ में लथपथ हो चुके थे।
      हमले का भय हर कदम पर बढ़ रहा था। माँ ने कहा, ''अब भैंसों का ख़याल छोड़ो और बैलगाड़ी हांको, हम पीछे छूटते जा रहे हैं।''
      पर बैलगाड़ी पर इतना सामान लदा हुआ था कि गड्ढ़े-गारे में फंसी गाड़ी को बैल खींच न सके और बैलगाड़ी के पहिये पानी के नीचे धंस गए।
      दूर... हमलावर घोड़ों को सरपट दौड़ाये आते दिखाई दिए। काफ़िला हमसे आगे निकल चुका था और हम फंसी हुई बैलगाड़ी के कारण बहुत पीछे छूट गए थे। अब हमारे बचने की कोई आस नहीं थी।
      तभी, घोड़ियों वाले लुटेरों ने आकर बन्दूक की नली बापू की गर्दन पर रख दी और उसका ऊपर हवा में उठाया बरछा ऊपर उठा ही रह गया।
      एक लुटेरे ने घोड़े पर से उतर कर बापू की कमीज़ के अन्दर वाली जेब में से नोटों से भरी चमड़े की थैली निकाल ली और दूसरे को माँ ने टूमें खुद ही उतार कर पड़का दीं।
      बस, एक कोका और बालियाँ माँ के कानों में रह गई थीं। उनकी तरफ किसी ने अधिक ध्यान नहीं दिया।
      ''काफ़िरो, अगर जान की ख़ैर चाहते हो तो भाग कर काफ़िले से जा मिलो...'' कहते हुए वे 'अल्लाह-हू-अकबर' के नारे लगाने लग पड़े।
      उस रात मैं ज़िन्दगी में पहली बार नंगी ज़मीन पर नीचे सोया, और उसके बाद भूखे रहना, नंगे पांव चलना और ज़मीन पर सोना एक आम-सी बात बनकर रह गई थी।
(जारी…)

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छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

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पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

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रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव

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पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

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कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह) संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव

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कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

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काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

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ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

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372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

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