आत्मकथा/स्व-जीवनी
>> रविवार, 17 जून 2012
पंजाबी के एक जाने-माने लेखक प्रेम प्रकाश का जन्म ज़िला-लुधियाना के खन्ना
शहर में 26 मार्च 1932(सरकारी काग़ज़ों में 7 अप्रैल 1932) को हुआ। यह 'खन्नवी' उपनाम से
भी 1955 से 1958 तक लिखते रहे।
एम.ए.(उर्दू) तक शिक्षा प्राप्त प्रेम प्रकाश 'रोज़ाना मिलाप'
और 'रोज़ाना हिंद समाचार' अख़बारों में पत्रकारिता से जुड़े रहे। 1990 से 2010
तक साहित्यिक पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका 'लकीर'
निकालते रहे। लीक से हटकर सोचने और करने में विश्वास रखने वाले इस
लेखक को भीड़ का लेखक बनना कतई पसन्द नहीं। अपने एक इंटरव्यू में 'अब अगर कहानी में स्त्री का ज़िक्र न हो तो मेरा पेन नहीं चलता' कहने वाले प्रेम प्रकाश स्त्री-पुरुष के आपसी संबंधों की पेचीदा गांठों
को अपनी कहानियों में खोलते रहे हैं। यह पंजाबी के एकमात्र ऐसे सफल लेखक रहे हैं
जिसने स्त्री-पुरुष संबंधों और वर्जित रिश्तों की ढेरों कामयाब कहानियाँ पंजाबी
साहित्य को दी हैं। इनकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि मनुष्य मन की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर
गांठों को पकड़ने में सफल रही हैं।
कहानी संग्रह 'कुझ अणकिहा वी' पर 1992 मे
साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त यह लेखक अस्सी वर्ष की उम्र में भी पहले जैसी
ऊर्जा और शक्ति से निरंतर लेखनरत हैं। इनके कहानी संग्रह के नाम हैं - 'कच्चघड़े'(1966), 'नमाज़ी'(1971), 'मुक्ति'(1980), 'श्वेताम्बर ने कहा था'(1983),
'प्रेम कहानियाँ'(1986), 'कुझ अनकिहा वी'(1990),
'रंगमंच दे भिख्सू'(1995), 'कथा-अनंत'(समग्र कहानियाँ)(1995), 'सुणदैं ख़लीफ़ा'(2001),
'पदमा दा पैर'(2009)। एक कहानी संग्रह 'डेड लाइन' हिंदी में तथा एक कहानी संग्रह अंग्रेजी
में 'द शॉल्डर बैग एंड अदर स्टोरीज़' (2005)भी प्रकाशित। इसके अतिरिक्त एक उपन्यास 'दस्तावेज़'
1990 में। आत्मकथा 'बंदे अंदर बंदे'
(1993) तथा 'आत्ममाया'( 2005) में प्रकाशित। कई पुस्तकों का संपादन जिनमें 'चौथी
कूट'(1996), 'नाग लोक'(1998),'दास्तान'(1999),
'मुहब्बतां'(2002), 'गंढां'(2003) तथा 'जुगलबंदियां'(2005) प्रमुख
हैं। पंजाबी में मौलिक लेखक के साथ साथ ढेरों पुस्तकों का अन्य भाषाओं से पंजाबी
में अनुवाद भी किया जिनमें उर्दू के कहानीकार सुरेन्द्र प्रकाश का कहानी संग्रह 'बाज़गोई' का अनुवाद 'मुड़ उही
कहाणी', बंगला कहानीकार महाश्वेता देवी की चुनिंदा कहानियाँ,
हिंदी से 'बंदी जीवन'- क्रांतिकारी
शुचिंदर नाथ सानियाल की आत्मकथा, प्रेमचन्द का उपन्यास 'गोदान', 'निर्मला', सुरेन्द्र
वर्मा का उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' तथा
काशीनाथ सिंह की चुनिंदा कहानियाँ आदि प्रमुख अनुवाद कृतियाँ हैं।
सम्मान : पंजाब साहित्य अकादमी(1982),
गुरूनानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर द्वारा भाई
वीर सिंह वारतक पुरस्कार(1986), साहित्य अकादमी, दिल्ली(1992), पंजाबी अकादमी, दिल्ली(1994),
पंजाबी साहित्य अकादमी, लुधियाना(1996),
कथा सम्मान,कथा संस्थान, दिल्ली(1996-97), सिरोमणि साहित्यकार, भाषा विभाग, पंजाब(2002) तथा
साहित्य रत्न, भाषा विभाग, पंजाब(2011)
सम्पर्क : 593, मोता
सिंह नगर, जालंधर-144001(पंजाब)
फोन : 0181-2231941
ई मेल : prem_lakeer@yahoo.com
आत्म माया
प्रेम प्रकाश
हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव
बेनाम रिश्ते
खन्ना में रहते
हुए मुझे इस बात का कोई अहसास नहीं था कि स्त्री के साथ पुरुषों के क्या संबंध होते
हैं। पर काम की तृप्ति के बारे में मेरे दिमाग में धुआँ-सा भरा रहता था। पालतू पशुओं, जानवरों और पक्षियों के जो भी कामुक व्यवहार मैं देखता था,
घर, गली, पड़ोस के घरों में,
बाहर खेतों, कुओं और गड्ढ़ों पर स्त्रियों के जो
अंग मुझे दिख जाते थे, वे सब उस धुएँ में तस्वीरें-सी बना देते
थे। उन तस्वीरों में हरकत उन कहानियों और झूठी-सच्ची बातों से पैदा होती थी,
जो मैं अपनी उम्र से बड़े लड़कों की ढाणी से इस ढंग से सुनता था कि ध्यान
मेरा उनकी बातों की ओर होता था और प्रकट मैं यूँ करता था कि मुझे इसमें कोई दिलचस्पी
नहीं।
1. बड़ा
अज़ाब : दूसरे लड़कों की भाँति मेरे मन में भी बहुत सारी ख्वाहिशें पैदा होती रहतीं।
शरीर की भूख भी जागती थी। उसको कभी जगाया भी जाता था। भाग सिंह द्वारा खोले में से
लाये हुए आक के पत्ते और उनके ऊपर पड़ी तरल-सी चीज़ अक्सर याद आती थी। कई अन्य कामों
के साथ अपने आप को मर्दों में शामिल करने की तमन्ना होती थी। पुराने इश्किया किस्सों
से लेकर फिल्मों की नई कहानियों तक के नायक अपने अन्दर खोजता था, पर करने-कराने को
कुछ नहीं था। हर कार्रवाई अपने तक ही सीमित होकर रह जाती थी। घर का वातावरण बहुत अनुशासन
वाला था। मुँह से बात निकालने से पहले सोचना पड़ता था। रामायण के मर्यादा पुरुषोत्तम
राम और लक्ष्मण आदर्श पात्र बनाकर सिर पर बिठाये गए थे। सब औरतों को माता या बहन समझना
होता था। आँख मैली करना वर्जित था। भाभी चाहे सगी हो या पड़ासियों की, वह माँ समान होती थी। हर सोच पर बंधन था। यह बंधन पालना ही महाजनी समाज की
मर्यादा थी। इसके अलावा, स्वामी दयानंद सरस्वती के 'सत्यार्थ प्रकाश' और अन्य धर्म ग्रंथों ने यह भ्रम मन
में दृढ़ कर दिया था कि ब्रह्मचर्य ही जीवन की शक्ति है। मेरा मन बार बार यह दोहराता
रहता था कि एक मन अन्न से लहू की एक बूंद बनती है। मन भर लहू से एक बूंद मज्जा बनती
है और मन भर मज्जा से एक बूंद वीर्य की बनती है।... रात में जब अनगिनत बूंदों की पिचकारी
कपड़े भिगो देती थी तो लगता था कि कई वर्षों का खाया-पिया व्यर्थ बह गया है। इसके साथ
दिल में भय समाने लगता और ऐसा महसूस होता जैसे शरीर में से जान-सी निकल गई हो। नाखून
सफ़ेद हो गए हैं... घुटनों पर दाग पड़ गए है... लगता कि यदि यह सिलसिला जारी रहा तो बन्दे
का भविष्य खत्म!... इतने बड़े नुकसान की दहशत कई दिन रहती। जिसे पूरा करने के लिए भरपेट
खुराक खाता। बड़े लड़कों द्वारा बताई गई दवाइयाँ चोरी-छिपे खाता। सोने से पहले परमात्मा
की प्रार्थना और गायत्री मंत्र का जाप करता। परन्तु सब व्यर्थ जाता। रात को वही कुछ
होता जिसका डर रहता।
मैं जब तक घर में रहा,
मर्यादा का पालन करता रहा। बाहर आया तो इस मर्यादा के संस्कार मेरे साथ
थे। एक छोटा-सा रास्ता निकलता था। वह था अपने, अपने दोस्तों और
दूसरों के जिस्मों के साथ खेलना। इसके साथ मर्यादा भंग होने का जोख़िम कम था। सुन्दर
लड़कों की तरफ खिंचाव भी महसूस होता था। मन पर उर्दू शायरी का भी प्रभाव था,
जिसमें 'साकी' के साथ ही
इश्क किया जाता था। औरत का ज़िक्र बहुत बाद में शुरू हुआ। यह भावना कुदरती भी थी। करीब
चार साल की उम्र में हमउम्र लड़के के साथ किए गए खेल से जो मुझे सुख मिला था,
उसकी याद अब तक मेरे मन में बसी हुई है।
जालंधर जब मैं छड़ों की मार्केट
में रहा करता था तो मेरे साथ वाले कमरे में
शिमला से आया एक एंग्लो-इंडियन शक्ल वाला नौजवान रहता था। वह मेरे साथ स्कूल में अस्थाई
टीचर था। लोग उसकी सुन्दरता, ख़ास तौर पर उसकी आँखें देखकर, उसको देखते ही रह जाते थे।
वह भी इस बात पर खुश होता था। मुझे इस बात पर बहुत शर्म आती थी। वह मेरे साथ भी कई
अजीब तरह की हरकतें किया करता था, जो दिल से तो मुझे अच्छी लगती
थीं, पर ऊपरी तौर पर मैं नाराज़गी प्रकट किया करता था। मैं किसी
को भी दिल की बात नहीं बता सकता था। कभी-कभी छुट्टी वाले दिन वह मेरे कमरे में आ घुसता।
अन्दर से कुंडी लगाकर मेरे साथ लेट जाता। मुझे इस तरह मनाता जैसे कोई प्रेमिका अपने
रूठे यार को मनाती है। वह मेरे साथ लिपटता-लिपटता अर्द्धनग्न हो जाता और फिर मुझे भी
कर लेता था। मैं बहुत डर जाता था। घबरा कर मैं गुस्सा होता। पर वह इसकी परवाह किए बगैर
मुझे शांत कर देता था और फिर बहुत खुशी से मेरे चेहरे को प्यार से देखता रहता था। मुझे
उसकी इस हरकत का कारण समझ में न आता था। मैं
तो घबराया ही रहता था। औरतों के विषय में भी मेरा रवैया कुछ ऐसा ही था। मैं मिलने
के पश्चात उसकी तस्वीर मन में बिठा लेता था। दूसरे सभी खेल-तमाशे और वार्तालाप मेरे
अन्दर ही होते थे।
खानदानी इज्ज़त और मर्यादा के साथ-साथ
मुझे क्रांतिकारी बनने की लगन लगी हुई थी। उस ज़माने में कम्युनिस्ट वर्करों का बहुत
बड़ा आदर्श 'क्रांति' होता था। जो काम गरीब
आदमी नहीं कर सकते थे, वे उन कामों से बचते थे। जैसे फिल्में
देखना, शराब पीना और एय्यासी करना। स्त्रियों को लेकर बातें करना
और उनके बारे में साहित्य रचना भी ऐसी ही एय्यासी मानी जाती थी। पर बहुत से कामरेड
अकेले रहा करते थे इसलिए उनके एकाकी जीवन में पार्टी के अन्दर और आस पास घूमती-फिरती
औरतें ही कामपूर्ति का साधन बनती थीं। कई बचे-खुचे कामरेड लौंडेबाज़ी भी करते थे,
पर लुक-छिप कर। क्योंकि इसे बुरा और असामाजिक काम माना जाता था।
मुझे इश्क करना फ़िजूल-सी बात लगती
थी। बड़ी सच्चाई शारीरिक भूख थी। मुझे रोमांटिक कविता और कहानियाँ अच्छी नहीं लगती थीं।
मेरे अन्दर बहुत बार पशु काम-भावना जागती रहती थी। ये बातें मैं अपनी कहानियों में
भी बयान कर देता था, जिससे कामरेड साथी बहुत दुखी होते थे। ये
कुछ ऐसी बातें थीं जिन्हें मैं जीवन की बुनियाद समझता था। पर इस कारण मैं स्वयं बहुत
तंग रहता था। अन्त में, विवश होकर मैंने अपने बाई जी को मामा जी से कहलवाकर विवाह करवाया
था। विवाह के बिना ज़िन्दगी बड़ी ज़लील-सी लगती थी। स्त्रियों के बारे में मेरे अनुभव
बहुत सीमित थे। जब कुछ अनुभव हुए तो मुझे महसूस हुआ था कि मैंने जो कुछ पढ़ रखा था,
वह अधिकतर ठीक नहीं था। मुझे स्त्रियों के बारे में अनुभव तेज़ी से होने
लग पड़े थे। नित्य नये रहस्य खुलते जाते थे। पर उनके बारे में कहानियाँ लिखना प्रगतिशील
साहित्यिक लहर के नेताओं की ओर से वर्जित था। मुझे लगा था कि संगठन की यह सत्ता यहाँ
के साहित्यकारों के साथ वैसा सलूक करना चाहती है, जैसा रूस की
राजसी सत्ता अपने साहित्यकारों के साथ करती है। मैं उसके विरोध में खड़े होकर कहानियाँ
लिखने लग पड़ा था।
एक स्त्री ने तो मेरी सोच का रुख
ही बदल दिया था। उसके साथ मेरी संगत ढाई-तीन साल रही। करीब तीन-चौथाई साल मैंने खींचतान
के निकाला था। पर प्रभाव सबसे अधिक पड़ा था। वह बहुत धार्मिक और पति को खुश रखने वाली
और उसकी रज़ा में राज़ी रहने वाली स्त्री थी। मेरे साथ उसके व्यवहार के कुछ अन्दाज़ मुझे
इस तरह अच्छे लगे कि वह मेरे दिमाग में गड़-सी गई थी। कुछ बातें उसकी ऐसी थीं कि मुझे
उसके साथ नफ़रत भी हो गई थी। मुझे खीझ भी होती थी और गुस्सा भी आता था। मुहब्बत और नफ़रत
की बड़ी खींचतान के बाद हम अलग हो गए थे। इस बीते समय ने मुझसे सबसे अधिक कहानियाँ लिखवाईं।
2. स्कूल
में : जब मैं गवर्नमेंट प्राइमरी स्कूल,
रंधावा मसंदा में टीचर लगा तो कुआंरा ही था। स्कूल लड़कों का था। पाँच
टीचर थे। मैं सबसे छोटा और अधिक पढ़ा हुआ था - दसवीं पास और जे.बी.टी. की हुई। स्कूल
में लड़कियाँ भी पढ़ती थीं। चौथी-पाँचवी में लड़कियों की उम्र कुछ बड़ी थी। शायद उन्होंने
काफी बाद में पढ़ाई शुरू की होगी।
मुझे पता चला कि कुछ साल पहले
यह स्कूल लड़कों का ही था। तब लड़कियों का कोई स्कूल नहीं था। फिर उन्हें लड़कों वाले
स्कूल में दाख़िला दिलाने का फैसला हो गया। बड़ी उम्र की लड़कियाँ दाख़िल हो गईं। सभी अध्यापकों
को उनके साथ बात करते हुए चौकस रहना पड़ता था। मुझे अधिक कठिनाई इसलिए होती थी कि मैं
सबसे छोटी उम्र का था और कुआंरा था। मुझे औरतों से शर्म आती थी। कोई बात होती थी तो
बच्चों की माँएँ भी स्कूल में आ जाती थीं। नया-नया आदर्शवादी अध्यापक होने के कारण
पढ़ाई को लेकर किसी भी बच्चे को न मारने की मैंने सौगंध खाई हुई थी। लड़कियों को डिसीप्लिन
के पीछे भी झिड़कने से डरता था। मेरे इस रवैये के कारण दो चार लड़कियाँ कुछ अधिक ही लाड़
में आ जाती थीं। फिर उन्हें संभालना कठिन हो जाता था।
3. भा जी
की बहनें : मुझे उस लड़की का नाम याद नहीं
है। उसकी इच्छा मुझे भा जी अर्थात 'भाई साहब' कहने की थी। वह किसी न किसी तरीके से अपनी यह इच्छा पूर्ण कर लेती थी। कभी
लड़की की शिकायत के जवाब में कहती, ''हाँ, मैंने भाई जी कहा है।'' और कभी अपने मुँह में कहते-कहते हल्की आवाज़ में ही कह जाती। उसके देखादेखी एक अन्य लड़की भी यह हौसला करने
लग पड़ी थी। मुझे वे दोनों अच्छी लगतीं। कभी-कभी मेरा मन बहन के
प्रेम से सराबोर हो जाता था। जब भी मैं कभी पंडित जी (ओम प्रकाश पनाहगीर के पिता जी,
जो मेरे साथ टीचर थे) के घर से खट्टी लस्सी मंगवाता था तो वे लड़कियाँ
चाहती थी कि लस्सी वे अपने घर से ला दिया करें। पर मैं किसी के घर की चीज़ लेकर नहीं
खाता-पीता था। सिर्फ़ पंडित जी के घर की खाता था।
उनमें से एक लड़की सबसे आगे बैठने
का यत्न करती थी। ताकि मेरे अधिक करीब बैठ सके।... स्कूल में चमारों के बच्चे एक अलग
टाट पर बैठते थे। मैंने इसका विरोध भी किया था, पर यह गाँव के
दोनों धड़ों को मंजूर था। उस अलग टाट पर बैठने वाली एक लड़की मुझसे प्रेम प्रकट किया
करती थी। वह पढ़ाई में होशियार थी। मैं उस पर ध्यान देता था। मेरा ऐसा करना जट्टों और
ब्राह्मणों की लड़कियों को बुरा लगता था। जट्टों की एक लड़की एक बार मेरे लिए किसी विवाह
की मिठाई लेकर आई थी। मैंने कुछ खा ली थी। उसकी देखादेखी में एक बार चमारों की लड़की
भी मिठाई ले आई थी। वह उसे बार-बार निकालती और छिपाती रही थी, पर मुझे देने का हौसला नहीं कर सकी थी। मेरे अन्दर मांगने का हौसला नहीं था।
वह मिठाई वापस ले गई थी। मुझे उसके दुख का अहसास था। मैं कई दिनों तक उससे पानी मंगवा
कर पीता रहा था।... वह लड़की भी जट्टों की लड़कियों जैसी सुन्दर और सेहतमंद थी। उसका
माथा ऊँचा था, पर कपड़ों से गरीबी दिखाई दे जाती थी। मैं उसकी
आर्थिक मदद भी करना चाहता था। पर डरते हुए करता नहीं था। एक बार उसका बाप स्कूल में
आया था। मैंने उसे ज़ोर देकर कहा था कि वह लड़की की पढ़ाई को जारी रखे। वह बहुत ज़हीन है।
एक दिन स्कूल में बैठे हुए मुझे
कहानी सूझ गई। मैंने एक ही बैठक में कहानी 'मुरब्बियाँ वाली'
लिख ली थी। वह एक ही बैठक में लिखी गई मेरी चार-पाँच कहानियों में से
एक है। कहानी में मैंने उसे सरसों का बना साग लाते हुए दिखाया है। मेरे कहानी संग्रह
'कच्चकड़े' में जहाँ कहीं भी बहन आई है,
वह उस 'भा जी' कहने वाली
लड़की का ही कोई रूप है।
(जारी)
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