आत्मकथा/स्व-जीवनी
>> मंगलवार, 3 अप्रैल 2012
पंजाबी के एक जाने-माने लेखक प्रेम प्रकाश का जन्म ज़िला-लुधियाना के खन्ना शहर में 26 मार्च 1932(सरकारी काग़ज़ों में 7 अप्रैल 1932) को हुआ। यह 'खन्नवी' उपनाम से भी 1955 से 1958 तक लिखते रहे। एम.ए.(उर्दू) तक शिक्षा प्राप्त प्रेम प्रकाश 'रोज़ाना मिलाप' और 'रोज़ाना हिंद समाचार' अख़बारों में पत्रकारिता से जुड़े रहे। 1990 से 2010 तक साहित्यिक पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका 'लकीर' निकालते रहे। लीक से हटकर सोचने और करने में विश्वास रखने वाले इस लेखक को भीड़ का लेखक बनना कतई पसन्द नहीं। अपने एक इंटरव्यू में 'अब अगर कहानी में स्त्री का ज़िक्र न हो तो मेरा पेन नहीं चलता' कहने वाले प्रेम प्रकाश स्त्री-पुरुष के आपसी संबंधों की पेचीदा गांठों को अपनी कहानियों में खोलते रहे हैं। यह पंजाबी के एकमात्र ऐसे सफल लेखक रहे हैं जिसने स्त्री-पुरुष संबंधों और वर्जित रिश्तों की ढेरों कामयाब कहानियाँ पंजाबी साहित्य को दी हैं। इनकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि मनुष्य मन की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर गांठों को पकड़ने में सफल रही हैं।
कहानी संग्रह 'कुझ अणकिहा वी' पर 1992 मे साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त यह लेखक अस्सी वर्ष की उम्र में भी पहले जैसी ऊर्जा और शक्ति से निरंतर लेखनरत हैं। इनके कहानी संग्रह के नाम हैं - 'कच्चघड़े'(1966), 'नमाज़ी'(1971), 'मुक्ति'(1980), 'श्वेताम्बर ने कहा था'(1983), 'प्रेम कहानियाँ'(1986), 'कुझ अनकिहा वी'(1990), 'रंगमंच दे भिख्सू'(1995), 'कथा-अनंत'(समग्र कहानियाँ)(1995), 'सुणदैं ख़लीफ़ा'(2001), 'पदमा दा पैर'(2009)। एक कहानी संग्रह 'डेड लाइन' हिंदी में तथा एक कहानी संग्रह अंग्रेजी में 'द शॉल्डर बैग एंड अदर स्टोरीज़' (2005)भी प्रकाशित। इसके अतिरिक्त एक उपन्यास 'दस्तावेज़' 1990 में। आत्मकथा 'बंदे अंदर बंदे' (1993) तथा 'आत्ममाया'( 2005) में प्रकाशित। कई पुस्तकों का संपादन जिनमें 'चौथी कूट'(1996), 'नाग लोक'(1998),'दास्तान'(1999), 'मुहब्बतां'(2002), 'गंढां'(2003) तथा 'जुगलबंदियां'(2005) प्रमुख हैं। पंजाबी में मौलिक लेखक के साथ साथ ढेरों पुस्तकों का अन्य भाषाओं से पंजाबी में अनुवाद भी किया जिनमें उर्दू के कहानीकार सुरेन्द्र प्रकाश का कहानी संग्रह 'बाज़गोई' का अनुवाद 'मुड़ उही कहाणी', बंगला कहानीकार महाश्वेता देवी की चुनिंदा कहानियाँ, हिंदी से 'बंदी जीवन'- क्रांतिकारी शुचिंदर नाथ सानियाल की आत्मकथा, प्रेमचन्द का उपन्यास 'गोदान', 'निर्मला', सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' तथा काशीनाथ सिंह की चुनिंदा कहानियाँ आदि प्रमुख अनुवाद कृतियाँ हैं।
सम्मान : पंजाब साहित्य अकादमी(1982), गुरूनानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर द्वारा भाई वीर सिंह वारतक पुरस्कार(1986), साहित्य अकादमी, दिल्ली(1992), पंजाबी अकादमी, दिल्ली(1994), पंजाबी साहित्य अकादमी, लुधियाना(1996), कथा सम्मान,कथा संस्थान, दिल्ली(1996-97), सिरोमणि साहित्यकार, भाषा विभाग, पंजाब(2002) तथा साहित्य रत्न, भाषा विभाग, पंजाब(2011)
सम्पर्क : 593, मोता सिंह नगर, जालंधर-144001(पंजाब)
फोन : 0181-2231941
ई मेल : prem_lakeer@yahoo.com
आत्म माया
प्रेम प्रकाश
हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव
बढ़इयों का मुहल्ला
मैंने अभी स्कूल जाना प्रारंभ नहीं किया था कि मेरे दादा जी ने दो मुहल्ले छोड़कर बढ़इयों के मुहल्ले में खोला लेकर नया मकान छत लिया। इस काम में सारी लक्कड़ हमारी ज़मीनों से आई थी और काम मुज़ारों (खेतिहरों) या असामियों ने किया था। नक्शा मेरे दादा लाला नौराता राम का था और सलाह मिस्त्री सरधा राम की थी। दोनों हुक्का पीते हुए बातें किया करते। इस पर लोगों ने एक कहावत ही बना ली थी - ''क्यों भाई सरधा राम ?'', ''हाँ भाई नुराता राम।''
हमारे अधिकांश मुज़ारे मुसलमान जट्ट होते और असामियाँ भी अधिकतर मुसलमान थीं। मेरे दादा जी कहा करते थे कि सिक्ख जट्ट से मुसलमान जट्ट अधिक वचन का पालन करता है। फ़सल की चोरी कम करता है। पर सच्चाई यह थी कि मुसलमान जट्ट बिना रुलाये चमड़ी उतरवा लेता था।
जब से होश संभाला, मैंने देखा कि मेरे दादा जी कोई काम नहीं करते थे। अपनी सेहत और चुस्ती कायम रखने के लिए वह डंगरों का बाँधना-खोलना कर लेते और कभी कभार जब दमे से उनकी सेहत ठीक होती तो बदीनपुर, गलबड्ढ़ी और बडगुज्जरां जाकर ज़मीनों पर फेरा लगा आते। असल में, उन्होंने मेरे बाई जी(पिता) को 'मुख्तार-ए-आम' बना रखा था अर्थात सारे काम करने के अधिकार उन्हें दे रखे थे। पर वह उन्हें बेअक्ल और पैसे लुटाने वाला समझते थे। जैसा कि मेरे पिता मुझे मूर्ख और उल्टी खोपड़ी वाला समझते रहे।... बात यह थी कि मेरे पिता ग़रीबों के साथ हमदर्दी करते थे और फ़सल की बंटाई लेने या सूद की उगाही के समय नरम पड़ जाते थे। जब मैं जवान हुआ तो मैं उन्हें बुरा और मूर्ख इसलिए लगने लग पड़ा कि मैं दसवीं पास करने से पहले ही नास्तिक हो गया था। परमात्मा और धर्मों के विरुद्ध बोलता था। धार्मिक रीतियाँ और रस्में मार खाकर भी नहीं पालता था।
जब मुझे पुन: स्कूल में डालने के यत्न किए गए तो मैं मार खाकर बहुत ढीठ हो गया था। जब कभी मेरे पिता मुझे कहीं छिपे हुए को पकड़ लेते तो थक हार कर हँस पड़ते और मुझे पकड़ कर सरधा राम मिस्त्री के कारख़ाने में बिठा कर कहते, ''लो मिस्त्री जी, इसने पढ़ना नहीं, इसे अब गुल्लियाँ घड़ना सिखा दो।'' बाबा मुझे एक गुल्ली और रंदा पकड़ा देता और मंद-मंद मुस्कराते हुए हुक्का पीते अपना काम किए जाता। जब पिता चले जाते तो वह मुझे धीमे से कहता, ''ले, गया तेरा बाप। भाग जा, पीर भोले के पीछे चला जा।''
मेरे पिता अक्सर पेशियाँ भुगतने अमलोह और नाभा साइकिल पर जाते रहते थे। राह में भादसों मेरी बुआ राम प्यारी थी। उसके पास विश्राम करते थे। उस बुआ को मेरे से बहुत प्यार था। मेरे फूफा जी वहाँ पोस्ट मास्टर थे। उनके बड़े बेटे जोग ध्यान (जिसका नाम बदल कर रामेश्वर दास पुरी रख दिया गया था) से मेरा प्यार पड़ गया था। मैं उससे एक कक्षा आगे था। हम दस बरस एक साथ एक ही बिस्तर पर सोते रहे थे।
एक बार जब बुआ ने मुझे पढ़ने के डर से रोता हुआ देखा तो वह मुझे अपने संग भादसों ले गई। जहाँ मुझे पढ़ाई में रुचि जाग्रत हुई और मैंने वहीं चार कक्षाएँ पास कीं।
भादसों में चार बरस
सरकारी प्राइमरी स्कूल, भादसों के अध्यापक मुझे पहले तो बुच्चड़ ही लगे जिनके हाथों में डंडे, दिमाग में इल्म की गरमी और आँखों में क़हर होता था, पर बाद में वे अच्छे हो गए। परन्तु वहाँ के अध्यापक और अन्य सरकारी अधिकारी मेरे फूफा जी बाबू मोहन लाल की इज्ज़त करते थे और हमारा लिहाज़। एक अध्यापक श्री गोरा लाल समीप के गाँव तंदे बद्धे के थे। वे हमारे दूर के रिश्तेदार भी थे। मैं उनके घर के काम करके खुश होता था। मुझे वे भी प्यारे लगते थे। उनकी पत्नी भी और उनका बच्चा भी। उनका विवाह हुए कुछ ही वर्ष हुए थे। लेकिन, स्कूल में ऐसे अध्यापक भी थे जो ज़रा-ज़रा-सी बात पर डंडे मारते, कान पकड़वाते और पीठ पर ईंटे रखवा कर पुट्ठों पर ठोकर मारा करते थे। पर बड़ी बात यह कि भादसों के स्कूल में कोई टीका लगाने वाला नहीं आता था।
स्कूल में पढ़ाने का माध्यम उर्दू थी और नाभा रियासत का भूगोल पढ़ाया जाता था। खन्ना में यद्यपि मैं स्कूल में जाने नहीं लगा था, पर कट्टर आर्य समाजी मेरे पिता जी और माता जी ने थोड़ी-बहुत देवनागरी लिखना सिखा दी थी। भादसों में भी मेरे पिता ने मुझे हिंदी पढ़ाने का प्रबंध कर दिया था। वहाँ के कच्चे किले के पिछवाड़े उजड़े टीलों से परे एक काफ़ी बड़ा मंदिर था। जिसके मालिक उदासी सम्प्रदाय के सन्यासी स्वामी जी थे। वह पाँवों में खड़ाऊँ, कमर में भगवा अंगोछा पहनते थे और शेष बदन नंगा रखते थे। कड़वे स्वभाव के स्वामी जी अपनी डाक लेने डाकखाने आते तो मेरे पिता से अक्सर धार्मिक बहस छेड़ बैठते। सोच दोनों की हालांकि भिन्न हो, पर वे घूमती हिंदुओं के कल्याण के इर्दगिर्द ही थी। पिता ने मुझे उनके सुपुर्द कर दिया। मैं और भाई जोग धियान उनके डेरे पर जाते। तोतों द्वारा टूंगी हुई इमली की फलियाँ उठाकर खाते और फिर कुएँ में से डोल द्वारा पानी भरकर सारी मूर्तियों को नहलाने में स्वामी जी की सहायता करते और फूल-बूटों को पानी देकर हाँफने लग पड़ते। फिर, स्वामी जी हमारे हाथ-पैर धुलाकर पास बिठाकर वे मूर्तियाँ दिखलाते जो हर किसी को दिखाई नहीं जाती थीं। वे गाँव के लोगों को मंदिर में माथा भी टेकने नहीं देते थे।
वह मिट्टी पर लिखकर देवनागरी सिखलाते और फिर रामायण और महाभारत की छोटी-छोटी कथाएँ सुनाते। मैं इस काम में तेज़ निकला। मैंने देवनागरी भी सीख ली और मुझे पुराणों की सुनाई गई हरेक कहानी ज़बानी याद हो जाती थी। उन कहानियों के पात्र मेरे सपनों में भी आने लग पड़े थे। उन पात्रों के धुंधले नक्श पहले भी मेरे मन में थे। मैंने वे कहानियाँ अपनी माँ से भी सुनी थीं।
भादसों कस्बा तीन हिस्सों में बँटा था। एक हिस्सा, नाभा वाली सड़क की ओर जट्टों की पत्ती था, जिसका नाम राम गढ़ लिखा जाता था। बीच में टीले पर ब्राह्मणों, बनियों, साधुओं और कहीं-कहीं काम-धंधा करने वालों के घर थे जिनमें कुछ दर्जियों और पंडितों ने भी केश रखे हुए थे। पश्चिम दिशा की ओर वाले हिस्से में मुसलमान गूजर और अन्य मुसलमान जातियों के लोग रहते थे। स्कूल के बाद हमारे खेलने का केन्द्र बीच वाली पत्ती थी या गूजरों की पत्ती। वे खेती करते, तांगे चलाते और भेड़-बकरियाँ पालते थे। ये जानवर ही थे जो मुझे आकर्षित करते थे। मैं उनके आस पास घूमता रोटी खाना भी भूल जाता था। शाम होती तो धूल वाले बहुत चौड़े रास्ते में कोई व्यक्ति अपना नया घोड़ा साध रहा होता। उसके पीछे एक घसीटा-सा घिसटता रहता। कभी घोड़ा गर्दन ऊपर उठाकर कहना न मानता तो संटी की मार खाता। मैं तब तक खड़ा रहता, जब तक यह काम चलता रहता। फिर जब बकरियों के गले में बंधी घंटियाँ बजतीं, धूल उड़ती, बाड़ों में मेमने शोर मचाते तो मैं दौड़कर बाबा गौंस मुहम्मद उर्फ़ गौंसू के बाड़े में जा घुसता। उनके साथ हमारे फूफा जी की बहुत सांझ थी। वे हमें अपने जानवरों के साथ खेलता देखकर खुश होता। अपनी मेंहदी रंगी दाढ़ी से इतनी ज़ोर से हँसता कि उसकी गूंज दूर तक सुनाई दिया करती थी।
बाबा गौंस मुहम्मद कभी कभी हमें पुचकार कर घर भेज देता था। पर हमें पता लग जाता था कि अब बाड़े में जानवरों (बकरियों, भेड़ों और घोड़ों) का वह खेल होने वाला है जिसे देखने की हमें मनाही थी। पर वही खेल हम बाहर खुले मैदानों और उजाड़ से बरोटे के नीचे बंधे अथवा टीले पर बैठे जानवरों के झुंड में देख लेते थे। गूजर बड़े सुन्दर नर घोड़े पालते थे। वे जब बाहर से आई घोड़ियों के लिए घोड़ों को बाहर निकालते तो हमें भगा देते। लेकिन हम जानवरों के पैदा होने से लेकर मरने तक उनकी सारी क्रियाओं से परिचित हो गए थे। जानवरों की इन क्रियाओं से हमने बहुत कुछ सीखा। फिर भी, यह गुप्त बातें मेरे लिए रहस्य का संसार बनी रहीं।
भादसों के साथ बरसाती नाला बहता था जिसकी गहराई से हम डरते थे। उसे पक्के पुल से पार करने पर जंगल शुरू हो जाता था जो चहिल से लेकर रोहटी तक जाता था। ग़रीबों के बच्चे वहाँ लकड़ियाँ चुनने जाया करते और हम उनके संग 'घोड़ा-घोड़ा' खेलते रहते। झाड़ियों के बेर, इमली, सरींह की फलियाँ और जंगली बिल तोड़ने चले जाते। जंगल में भेड़ियों, गीदड़ों, नीलगायों और राम गऊओं का हर समय भय सताता रहता। फिर भी, हम पता नहीं किस हौसले के साथ जंगल के अन्दर मील भर जा घुसते। प्यास लगती तो छोटे छोटे पोखरों का पानी ढाक के पत्तों के डोने बनाकर पी लेते। कोई खतरनाक जानवर आता तो दरख्तों पर चढ़ जाते। मैं अब हैरान होता कि प्राइमरी की कक्षाओं के बच्चे जानवरों के ख़तरे के बावजूद जंगल में जाने से रुकते क्यों नहीं थे ? हालांकि जब भी जाते घरवालों की डांट-फटकार सुननी पड़ती। जंगली जानवरों का हौसला तो इतना था कि जब घरों के दीये बुझ जाते तो गीदड़ भी कुत्तों से निडर होकर हमारे घरों की दीवारों से लगकर ‘हुआं-हुआं’ करते थे।
उन दिनों में ही नहीं, अब तक मेरे दिल में जानवरों और पशुओं, ख़ासतौर पर कुत्तों के लिए बड़ा प्रेम रहा है। कुत्ता रखने की इच्छा सारी उम्र तंग करती रही है। यह इच्छा क्यों थी ? मुझे पता नही चलता। भादसों में दो-तीन बार रखा तो फूफा जी ने कोई न कोई बहाना बनाकर घर से भगा दिया। फिर, खन्ना में गली के कुत्ते पालता रहा। जालंधर भी कई कुत्ते रखे, पर इस बात से पत्नी दुखी रही।
भादसों कई टीलों पर बसा हुआ था। टीलों के नीचे से पिछली आबादी के चिह्नों के तौर पर बर्तन, कोयला, कौड़ियाँ, सीपियाँ और मन्सूरी पैसे-धेले खोजा करते थे। मुझे धरती खोदने पर यदि शंख भी मिल जाता तो मैं उसको छिपा कर घर में रख लेता। मैं जंगल में से बेलों के नीचे से वीर-बहूटियाँ भी चुग लाता था। जब कभी मेरी बुआ देख लेती तो वह बहुत-सी चीज़ें बाहर फेंक देती। वह वीर-बहूटियों को काले मुँह वाली कहा करती थी। बारिश होने पर टीलों के इधर-उधर पड़ती पानी की धाराएँ मुझे अच्छी लगतीं। उनमें से निकल कर बाहर आती वस्तुएँ और बरसाती पानी से भरकर बहता चौ मुझे अच्छा लगता। मिट्टी का बना वह किला अच्छा लगता जिसकी चौड़ी दीवारें भुरभुराती रहती थीं। मुझे उन स्थानों के स्वप्न अब भी आते हैं। मेरी कई कहानियों का सृजन इन्हीं सपनों में हुआ है।
आर्य हाई स्कूल
भादसों में चार कक्षाएँ पास करके मैं खन्ना आकर आर्य स्कूल में पाँचवी कक्षा में दाख़िल हो गया। वह स्कूल मेरी कल्पना से कहीं बड़ा था। साथ के विद्यार्थी, अध्यापक सभी अनजान थे। प्रिंसीपल नंद लाल का खा जाने वाले शेर जैसा भय था। उसको देखकर ही दिल धक धक करने लगता था। जो मास्टर जानते थे, वे मुझे अपने दुश्मन लगते थे। अब भी दुश्मन ही लगते हैं। मुझे गुरु-शिष्य वाली भारतीय परम्परा कभी भी अच्छी नहीं लगी। मुझे यह मनुष्य के स्वतंत्र विकास में बाधा डालने वाली लगती है।
मैं खन्ना का रहने वाला था, पर जब मेरे शहरी सहपाठी फिल्मों और नाटकों की बातें करते तो मुझे लगता था कि किसी पिछड़े इलाके में से आया हूँ। भादसों के चार वर्षों ने मुझे दूसरे लड़कों के सामने उज़बक-सा बना दिया था। मुझे उनके सामने बात ही नहीं सूझती थी। जब किसी की बात मुझे कड़वी लगती थी, मैं उसको पकड़कर ढाह लेता था, पर कूटने से डरता था। वे प्रिंसीपल नंद लाल के पास चले जाते थे। कुछ दिनों बाद ही मेरी शिकायत प्रिंसीपल के पास हो गई थी। जब चपरासी बुलाने आया तो मुझे इतना डर लगा था कि मैं ठीक से चल नहीं पा रहा था। जब मैं प्रिंसीपल के कमरे में गया तो उन्होंने देखते ही पूछा, ''तू वेद प्रकाश का भाई है, राम प्रसाद का लड़का है ?''
वह मुझे जानते हैं, यह सोचकर मेरा डर कुछ कम हो गया। मेरे पिताजी और बड़ा भाई दोनों उनसे पढ़े हुए थे। फिर, उन्होंने पूछा, ''तूने इसे क्यों मारा ?'' मैंने कहा, ''इसने मुझे हिड़कें मारी थीं।'' वह मेरी बात नहीं समझ पाए। भादसों में बेरों की गुठलियों या गिटकों को 'हिड़कां' कहते थे। प्रिंसीपल लाहौर से पढ़कर आए थे। उन्होंने मुझे वार्निंग देकर छोड़ दिया। पर मेरे अन्दर एक भय-सा बैठ गया। स्कूल मुझे थाना लगता था। मैं स्कूल के अन्दर किसी से नहीं लड़ता था। गुस्सा अन्दर ही अन्दर पी जाता था।
भादसों से आकर मैंने अपने घर का जो माहौल देखा, वह मुझे तंग करने वाला था। दादी और माँ का बहुत प्यार मिलता था, पर पिता से दहशत होती थी। शायद ही कभी मैंने उनके और उन्होंने मेरे जिस्म को छुआ हो। एक बार मैं बीमार होने के कारण उनकी पीठ पर चढ़ा था और कुछ बार माँ के कहने पर मैंने बीमारी में उनकी टांगे या सिर दबाया था। मुझे उनके सिर को हाथ लगाते हुए भी डर लगता था।
उन्होंने मुझे सिर्फ़ एकबार जफ्फी में लिया था, जब मैं दसवीं पास करके टेलीग्राफी की ट्रेनिंग लेने मुरादाबाद गया था। वहाँ मेरा दिल नहीं लगा था और मैं रोता रोता वापस लौट आया था। कस्बे में रहने वाले अपरिपक्व लोगों की तरह मैं परदेश में रह नहीं सका था। जब मैं घर आया था तो पिता जी ने मुझे अपनी बांहों में भर लिया था। पर उन्होंने कभी मुझे अपनी उंगली पकड़ाकर अपने साथ नहीं चलाया था।
घर में मेरा चाचा ओम प्रकाश उर्फ़ 'चिब्हड़' मेरे से चार बरस बड़ा था। पढ़ाई में पिछड़ने के कारण वह मुझसे पढ़ा करता था। एक बड़ा भाई था- वेद प्रकाश, जिसके कारण मैं सारी उम्र परेशान रहा हूँ। उसके साथ मेरी लड़ाई एकतरफा थी। वह मुझे जब चाहे पीट लेता था। चीज़ें छीन लेता था। खेलों में रौंद मारता था। मैं खूब दुहाई देता था। सभी उसको समझाते और थोड़ा-सा झिड़कते भी थे। पर जो इस बेइंसाफी को देखकर मुझे बचाते नहीं थे, मेरे मन में उनके लिए नफ़रत पलने लगी थी। सबसे अधिक नफ़रत अपने पिता से थी। जिसकी दहशत और पिटाई सिर्फ़ मेरे लिए थी। हो सकता है कि उनके दिल में भी मेरे लिए नफ़रत हो या लगाव ही न हो। कोई भी पिता अपने सभी बच्चों को एक-सा प्यार नहीं करता। अब मैं स्वयं बाप से भी आगे दादा और नाना हो गया हूँ। मेरे मन में भी सारे बच्चों के लिए एक-सा प्यार नहीं है। ईसाई भाई जब यसू मसीह या परमात्मा को 'पिता' कहते हैं तो मुझे अच्छा नहीं लगता। मैं सोचता हूँ कि परमेश्वर पक्षपात नहीं करता होगा। बाप सारी उम्र करता है।
(जारी)
प्रेम प्रकाश
हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव
बढ़इयों का मुहल्ला
मैंने अभी स्कूल जाना प्रारंभ नहीं किया था कि मेरे दादा जी ने दो मुहल्ले छोड़कर बढ़इयों के मुहल्ले में खोला लेकर नया मकान छत लिया। इस काम में सारी लक्कड़ हमारी ज़मीनों से आई थी और काम मुज़ारों (खेतिहरों) या असामियों ने किया था। नक्शा मेरे दादा लाला नौराता राम का था और सलाह मिस्त्री सरधा राम की थी। दोनों हुक्का पीते हुए बातें किया करते। इस पर लोगों ने एक कहावत ही बना ली थी - ''क्यों भाई सरधा राम ?'', ''हाँ भाई नुराता राम।''
हमारे अधिकांश मुज़ारे मुसलमान जट्ट होते और असामियाँ भी अधिकतर मुसलमान थीं। मेरे दादा जी कहा करते थे कि सिक्ख जट्ट से मुसलमान जट्ट अधिक वचन का पालन करता है। फ़सल की चोरी कम करता है। पर सच्चाई यह थी कि मुसलमान जट्ट बिना रुलाये चमड़ी उतरवा लेता था।
जब से होश संभाला, मैंने देखा कि मेरे दादा जी कोई काम नहीं करते थे। अपनी सेहत और चुस्ती कायम रखने के लिए वह डंगरों का बाँधना-खोलना कर लेते और कभी कभार जब दमे से उनकी सेहत ठीक होती तो बदीनपुर, गलबड्ढ़ी और बडगुज्जरां जाकर ज़मीनों पर फेरा लगा आते। असल में, उन्होंने मेरे बाई जी(पिता) को 'मुख्तार-ए-आम' बना रखा था अर्थात सारे काम करने के अधिकार उन्हें दे रखे थे। पर वह उन्हें बेअक्ल और पैसे लुटाने वाला समझते थे। जैसा कि मेरे पिता मुझे मूर्ख और उल्टी खोपड़ी वाला समझते रहे।... बात यह थी कि मेरे पिता ग़रीबों के साथ हमदर्दी करते थे और फ़सल की बंटाई लेने या सूद की उगाही के समय नरम पड़ जाते थे। जब मैं जवान हुआ तो मैं उन्हें बुरा और मूर्ख इसलिए लगने लग पड़ा कि मैं दसवीं पास करने से पहले ही नास्तिक हो गया था। परमात्मा और धर्मों के विरुद्ध बोलता था। धार्मिक रीतियाँ और रस्में मार खाकर भी नहीं पालता था।
जब मुझे पुन: स्कूल में डालने के यत्न किए गए तो मैं मार खाकर बहुत ढीठ हो गया था। जब कभी मेरे पिता मुझे कहीं छिपे हुए को पकड़ लेते तो थक हार कर हँस पड़ते और मुझे पकड़ कर सरधा राम मिस्त्री के कारख़ाने में बिठा कर कहते, ''लो मिस्त्री जी, इसने पढ़ना नहीं, इसे अब गुल्लियाँ घड़ना सिखा दो।'' बाबा मुझे एक गुल्ली और रंदा पकड़ा देता और मंद-मंद मुस्कराते हुए हुक्का पीते अपना काम किए जाता। जब पिता चले जाते तो वह मुझे धीमे से कहता, ''ले, गया तेरा बाप। भाग जा, पीर भोले के पीछे चला जा।''
मेरे पिता अक्सर पेशियाँ भुगतने अमलोह और नाभा साइकिल पर जाते रहते थे। राह में भादसों मेरी बुआ राम प्यारी थी। उसके पास विश्राम करते थे। उस बुआ को मेरे से बहुत प्यार था। मेरे फूफा जी वहाँ पोस्ट मास्टर थे। उनके बड़े बेटे जोग ध्यान (जिसका नाम बदल कर रामेश्वर दास पुरी रख दिया गया था) से मेरा प्यार पड़ गया था। मैं उससे एक कक्षा आगे था। हम दस बरस एक साथ एक ही बिस्तर पर सोते रहे थे।
एक बार जब बुआ ने मुझे पढ़ने के डर से रोता हुआ देखा तो वह मुझे अपने संग भादसों ले गई। जहाँ मुझे पढ़ाई में रुचि जाग्रत हुई और मैंने वहीं चार कक्षाएँ पास कीं।
भादसों में चार बरस
सरकारी प्राइमरी स्कूल, भादसों के अध्यापक मुझे पहले तो बुच्चड़ ही लगे जिनके हाथों में डंडे, दिमाग में इल्म की गरमी और आँखों में क़हर होता था, पर बाद में वे अच्छे हो गए। परन्तु वहाँ के अध्यापक और अन्य सरकारी अधिकारी मेरे फूफा जी बाबू मोहन लाल की इज्ज़त करते थे और हमारा लिहाज़। एक अध्यापक श्री गोरा लाल समीप के गाँव तंदे बद्धे के थे। वे हमारे दूर के रिश्तेदार भी थे। मैं उनके घर के काम करके खुश होता था। मुझे वे भी प्यारे लगते थे। उनकी पत्नी भी और उनका बच्चा भी। उनका विवाह हुए कुछ ही वर्ष हुए थे। लेकिन, स्कूल में ऐसे अध्यापक भी थे जो ज़रा-ज़रा-सी बात पर डंडे मारते, कान पकड़वाते और पीठ पर ईंटे रखवा कर पुट्ठों पर ठोकर मारा करते थे। पर बड़ी बात यह कि भादसों के स्कूल में कोई टीका लगाने वाला नहीं आता था।
स्कूल में पढ़ाने का माध्यम उर्दू थी और नाभा रियासत का भूगोल पढ़ाया जाता था। खन्ना में यद्यपि मैं स्कूल में जाने नहीं लगा था, पर कट्टर आर्य समाजी मेरे पिता जी और माता जी ने थोड़ी-बहुत देवनागरी लिखना सिखा दी थी। भादसों में भी मेरे पिता ने मुझे हिंदी पढ़ाने का प्रबंध कर दिया था। वहाँ के कच्चे किले के पिछवाड़े उजड़े टीलों से परे एक काफ़ी बड़ा मंदिर था। जिसके मालिक उदासी सम्प्रदाय के सन्यासी स्वामी जी थे। वह पाँवों में खड़ाऊँ, कमर में भगवा अंगोछा पहनते थे और शेष बदन नंगा रखते थे। कड़वे स्वभाव के स्वामी जी अपनी डाक लेने डाकखाने आते तो मेरे पिता से अक्सर धार्मिक बहस छेड़ बैठते। सोच दोनों की हालांकि भिन्न हो, पर वे घूमती हिंदुओं के कल्याण के इर्दगिर्द ही थी। पिता ने मुझे उनके सुपुर्द कर दिया। मैं और भाई जोग धियान उनके डेरे पर जाते। तोतों द्वारा टूंगी हुई इमली की फलियाँ उठाकर खाते और फिर कुएँ में से डोल द्वारा पानी भरकर सारी मूर्तियों को नहलाने में स्वामी जी की सहायता करते और फूल-बूटों को पानी देकर हाँफने लग पड़ते। फिर, स्वामी जी हमारे हाथ-पैर धुलाकर पास बिठाकर वे मूर्तियाँ दिखलाते जो हर किसी को दिखाई नहीं जाती थीं। वे गाँव के लोगों को मंदिर में माथा भी टेकने नहीं देते थे।
वह मिट्टी पर लिखकर देवनागरी सिखलाते और फिर रामायण और महाभारत की छोटी-छोटी कथाएँ सुनाते। मैं इस काम में तेज़ निकला। मैंने देवनागरी भी सीख ली और मुझे पुराणों की सुनाई गई हरेक कहानी ज़बानी याद हो जाती थी। उन कहानियों के पात्र मेरे सपनों में भी आने लग पड़े थे। उन पात्रों के धुंधले नक्श पहले भी मेरे मन में थे। मैंने वे कहानियाँ अपनी माँ से भी सुनी थीं।
भादसों कस्बा तीन हिस्सों में बँटा था। एक हिस्सा, नाभा वाली सड़क की ओर जट्टों की पत्ती था, जिसका नाम राम गढ़ लिखा जाता था। बीच में टीले पर ब्राह्मणों, बनियों, साधुओं और कहीं-कहीं काम-धंधा करने वालों के घर थे जिनमें कुछ दर्जियों और पंडितों ने भी केश रखे हुए थे। पश्चिम दिशा की ओर वाले हिस्से में मुसलमान गूजर और अन्य मुसलमान जातियों के लोग रहते थे। स्कूल के बाद हमारे खेलने का केन्द्र बीच वाली पत्ती थी या गूजरों की पत्ती। वे खेती करते, तांगे चलाते और भेड़-बकरियाँ पालते थे। ये जानवर ही थे जो मुझे आकर्षित करते थे। मैं उनके आस पास घूमता रोटी खाना भी भूल जाता था। शाम होती तो धूल वाले बहुत चौड़े रास्ते में कोई व्यक्ति अपना नया घोड़ा साध रहा होता। उसके पीछे एक घसीटा-सा घिसटता रहता। कभी घोड़ा गर्दन ऊपर उठाकर कहना न मानता तो संटी की मार खाता। मैं तब तक खड़ा रहता, जब तक यह काम चलता रहता। फिर जब बकरियों के गले में बंधी घंटियाँ बजतीं, धूल उड़ती, बाड़ों में मेमने शोर मचाते तो मैं दौड़कर बाबा गौंस मुहम्मद उर्फ़ गौंसू के बाड़े में जा घुसता। उनके साथ हमारे फूफा जी की बहुत सांझ थी। वे हमें अपने जानवरों के साथ खेलता देखकर खुश होता। अपनी मेंहदी रंगी दाढ़ी से इतनी ज़ोर से हँसता कि उसकी गूंज दूर तक सुनाई दिया करती थी।
बाबा गौंस मुहम्मद कभी कभी हमें पुचकार कर घर भेज देता था। पर हमें पता लग जाता था कि अब बाड़े में जानवरों (बकरियों, भेड़ों और घोड़ों) का वह खेल होने वाला है जिसे देखने की हमें मनाही थी। पर वही खेल हम बाहर खुले मैदानों और उजाड़ से बरोटे के नीचे बंधे अथवा टीले पर बैठे जानवरों के झुंड में देख लेते थे। गूजर बड़े सुन्दर नर घोड़े पालते थे। वे जब बाहर से आई घोड़ियों के लिए घोड़ों को बाहर निकालते तो हमें भगा देते। लेकिन हम जानवरों के पैदा होने से लेकर मरने तक उनकी सारी क्रियाओं से परिचित हो गए थे। जानवरों की इन क्रियाओं से हमने बहुत कुछ सीखा। फिर भी, यह गुप्त बातें मेरे लिए रहस्य का संसार बनी रहीं।
भादसों के साथ बरसाती नाला बहता था जिसकी गहराई से हम डरते थे। उसे पक्के पुल से पार करने पर जंगल शुरू हो जाता था जो चहिल से लेकर रोहटी तक जाता था। ग़रीबों के बच्चे वहाँ लकड़ियाँ चुनने जाया करते और हम उनके संग 'घोड़ा-घोड़ा' खेलते रहते। झाड़ियों के बेर, इमली, सरींह की फलियाँ और जंगली बिल तोड़ने चले जाते। जंगल में भेड़ियों, गीदड़ों, नीलगायों और राम गऊओं का हर समय भय सताता रहता। फिर भी, हम पता नहीं किस हौसले के साथ जंगल के अन्दर मील भर जा घुसते। प्यास लगती तो छोटे छोटे पोखरों का पानी ढाक के पत्तों के डोने बनाकर पी लेते। कोई खतरनाक जानवर आता तो दरख्तों पर चढ़ जाते। मैं अब हैरान होता कि प्राइमरी की कक्षाओं के बच्चे जानवरों के ख़तरे के बावजूद जंगल में जाने से रुकते क्यों नहीं थे ? हालांकि जब भी जाते घरवालों की डांट-फटकार सुननी पड़ती। जंगली जानवरों का हौसला तो इतना था कि जब घरों के दीये बुझ जाते तो गीदड़ भी कुत्तों से निडर होकर हमारे घरों की दीवारों से लगकर ‘हुआं-हुआं’ करते थे।
उन दिनों में ही नहीं, अब तक मेरे दिल में जानवरों और पशुओं, ख़ासतौर पर कुत्तों के लिए बड़ा प्रेम रहा है। कुत्ता रखने की इच्छा सारी उम्र तंग करती रही है। यह इच्छा क्यों थी ? मुझे पता नही चलता। भादसों में दो-तीन बार रखा तो फूफा जी ने कोई न कोई बहाना बनाकर घर से भगा दिया। फिर, खन्ना में गली के कुत्ते पालता रहा। जालंधर भी कई कुत्ते रखे, पर इस बात से पत्नी दुखी रही।
भादसों कई टीलों पर बसा हुआ था। टीलों के नीचे से पिछली आबादी के चिह्नों के तौर पर बर्तन, कोयला, कौड़ियाँ, सीपियाँ और मन्सूरी पैसे-धेले खोजा करते थे। मुझे धरती खोदने पर यदि शंख भी मिल जाता तो मैं उसको छिपा कर घर में रख लेता। मैं जंगल में से बेलों के नीचे से वीर-बहूटियाँ भी चुग लाता था। जब कभी मेरी बुआ देख लेती तो वह बहुत-सी चीज़ें बाहर फेंक देती। वह वीर-बहूटियों को काले मुँह वाली कहा करती थी। बारिश होने पर टीलों के इधर-उधर पड़ती पानी की धाराएँ मुझे अच्छी लगतीं। उनमें से निकल कर बाहर आती वस्तुएँ और बरसाती पानी से भरकर बहता चौ मुझे अच्छा लगता। मिट्टी का बना वह किला अच्छा लगता जिसकी चौड़ी दीवारें भुरभुराती रहती थीं। मुझे उन स्थानों के स्वप्न अब भी आते हैं। मेरी कई कहानियों का सृजन इन्हीं सपनों में हुआ है।
आर्य हाई स्कूल
भादसों में चार कक्षाएँ पास करके मैं खन्ना आकर आर्य स्कूल में पाँचवी कक्षा में दाख़िल हो गया। वह स्कूल मेरी कल्पना से कहीं बड़ा था। साथ के विद्यार्थी, अध्यापक सभी अनजान थे। प्रिंसीपल नंद लाल का खा जाने वाले शेर जैसा भय था। उसको देखकर ही दिल धक धक करने लगता था। जो मास्टर जानते थे, वे मुझे अपने दुश्मन लगते थे। अब भी दुश्मन ही लगते हैं। मुझे गुरु-शिष्य वाली भारतीय परम्परा कभी भी अच्छी नहीं लगी। मुझे यह मनुष्य के स्वतंत्र विकास में बाधा डालने वाली लगती है।
मैं खन्ना का रहने वाला था, पर जब मेरे शहरी सहपाठी फिल्मों और नाटकों की बातें करते तो मुझे लगता था कि किसी पिछड़े इलाके में से आया हूँ। भादसों के चार वर्षों ने मुझे दूसरे लड़कों के सामने उज़बक-सा बना दिया था। मुझे उनके सामने बात ही नहीं सूझती थी। जब किसी की बात मुझे कड़वी लगती थी, मैं उसको पकड़कर ढाह लेता था, पर कूटने से डरता था। वे प्रिंसीपल नंद लाल के पास चले जाते थे। कुछ दिनों बाद ही मेरी शिकायत प्रिंसीपल के पास हो गई थी। जब चपरासी बुलाने आया तो मुझे इतना डर लगा था कि मैं ठीक से चल नहीं पा रहा था। जब मैं प्रिंसीपल के कमरे में गया तो उन्होंने देखते ही पूछा, ''तू वेद प्रकाश का भाई है, राम प्रसाद का लड़का है ?''
वह मुझे जानते हैं, यह सोचकर मेरा डर कुछ कम हो गया। मेरे पिताजी और बड़ा भाई दोनों उनसे पढ़े हुए थे। फिर, उन्होंने पूछा, ''तूने इसे क्यों मारा ?'' मैंने कहा, ''इसने मुझे हिड़कें मारी थीं।'' वह मेरी बात नहीं समझ पाए। भादसों में बेरों की गुठलियों या गिटकों को 'हिड़कां' कहते थे। प्रिंसीपल लाहौर से पढ़कर आए थे। उन्होंने मुझे वार्निंग देकर छोड़ दिया। पर मेरे अन्दर एक भय-सा बैठ गया। स्कूल मुझे थाना लगता था। मैं स्कूल के अन्दर किसी से नहीं लड़ता था। गुस्सा अन्दर ही अन्दर पी जाता था।
भादसों से आकर मैंने अपने घर का जो माहौल देखा, वह मुझे तंग करने वाला था। दादी और माँ का बहुत प्यार मिलता था, पर पिता से दहशत होती थी। शायद ही कभी मैंने उनके और उन्होंने मेरे जिस्म को छुआ हो। एक बार मैं बीमार होने के कारण उनकी पीठ पर चढ़ा था और कुछ बार माँ के कहने पर मैंने बीमारी में उनकी टांगे या सिर दबाया था। मुझे उनके सिर को हाथ लगाते हुए भी डर लगता था।
उन्होंने मुझे सिर्फ़ एकबार जफ्फी में लिया था, जब मैं दसवीं पास करके टेलीग्राफी की ट्रेनिंग लेने मुरादाबाद गया था। वहाँ मेरा दिल नहीं लगा था और मैं रोता रोता वापस लौट आया था। कस्बे में रहने वाले अपरिपक्व लोगों की तरह मैं परदेश में रह नहीं सका था। जब मैं घर आया था तो पिता जी ने मुझे अपनी बांहों में भर लिया था। पर उन्होंने कभी मुझे अपनी उंगली पकड़ाकर अपने साथ नहीं चलाया था।
घर में मेरा चाचा ओम प्रकाश उर्फ़ 'चिब्हड़' मेरे से चार बरस बड़ा था। पढ़ाई में पिछड़ने के कारण वह मुझसे पढ़ा करता था। एक बड़ा भाई था- वेद प्रकाश, जिसके कारण मैं सारी उम्र परेशान रहा हूँ। उसके साथ मेरी लड़ाई एकतरफा थी। वह मुझे जब चाहे पीट लेता था। चीज़ें छीन लेता था। खेलों में रौंद मारता था। मैं खूब दुहाई देता था। सभी उसको समझाते और थोड़ा-सा झिड़कते भी थे। पर जो इस बेइंसाफी को देखकर मुझे बचाते नहीं थे, मेरे मन में उनके लिए नफ़रत पलने लगी थी। सबसे अधिक नफ़रत अपने पिता से थी। जिसकी दहशत और पिटाई सिर्फ़ मेरे लिए थी। हो सकता है कि उनके दिल में भी मेरे लिए नफ़रत हो या लगाव ही न हो। कोई भी पिता अपने सभी बच्चों को एक-सा प्यार नहीं करता। अब मैं स्वयं बाप से भी आगे दादा और नाना हो गया हूँ। मेरे मन में भी सारे बच्चों के लिए एक-सा प्यार नहीं है। ईसाई भाई जब यसू मसीह या परमात्मा को 'पिता' कहते हैं तो मुझे अच्छा नहीं लगता। मैं सोचता हूँ कि परमेश्वर पक्षपात नहीं करता होगा। बाप सारी उम्र करता है।
(जारी)
2 टिप्पणियाँ:
बढिया प्रस्तुति...प्रतीक्षा रहेगी
प्रेम प्रकाश जी की आत्माकथा पढ़ने में आनन्द आ रहा है…
एक टिप्पणी भेजें