पंजाबी उपन्यास
>> रविवार, 12 फ़रवरी 2012
बलबीर मोमी अक्तूबर 1982 से कैनेडा में प्रवास कर रहे हैं। वह बेहद सज्जन और मिलनसार इंसान ही नहीं, एक सुलझे हुए समर्थ लेखक भी हैं। प्रवास में रहकर पिछले 19-20 वर्षों से वह निरंतर अपनी माँ-बोली पंजाबी की सेवा, साहित्य सृजन और पत्रकारिता के माध्यम से कर रहे हैं। पाँच कहानी संग्रह [मसालेवाला घोड़ा(1959,1973), जे मैं मर जावां(1965), शीशे दा समुंदर(1968), फुल्ल खिड़े हन(1971)(संपादन), सर दा बुझा(1973)],तीन उपन्यास [जीजा जी(1961), पीला गुलाब(1975) और इक फुल्ल मेरा वी(1986)], दो नाटक [नौकरियाँ ही नौकरियाँ(1960), लौढ़ा वेला (1961) तथा कुछ एकांकी नाटक], एक आत्मकथा - किहो जिहा सी जीवन के अलावा अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मौलिक लेखन के साथ-साथ डॉ.मोमी ने पंजाबी में अनेक पुस्तकों का अनुवाद भी किया है जिनमे प्रमुख हैं – सआदत हसन मंटो की उर्दू कहानियाँ- टोभा टेक सिंह(1975), नंगियाँ आवाज़ां(1980), अंग्रेज़ी नावल ‘इमिग्रेंट’ का पंजाबी अनुवाद ‘आवासी’(1986), फ़ख्र जमाल के उपन्यास ‘सत गवाचे लोक’ का लिपियंतर(1975), जयकांतन की तमिल कहानियों का हिन्दी से पंजाबी में अनुवाद।
देश –विदेश के अनेक सम्मानों से सम्मानित डॉ. बलबीर मोमी ब्रैम्पटन (कैनेडा) से प्रकाशित होने वाले पंजाबी अख़बार ‘ख़बरनामा’ (प्रिंट व नेट एडीशन) के संपादक हैं।
आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास ‘पीला गुलाब’ भारत-पाक विभाजन की कड़वी यादों को समेटे हुए है। विस्थापितों द्बारा नई धरती पर अपनी जड़ें जमाने का संघर्ष तो है ही, निष्फल प्रेम की कहानी भी कहता है। ‘कथा पंजाब’ में इसका धारावाहिक प्रकाशन करके हम प्रसन्नता अनुभव कर रहे हैं। प्रस्तुत है इस उपन्यास की अगली किस्त…
- सुभाष नीरव
पीला गुलाब
बलबीर सिंह मोमी
हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव
2
गुलाब शहर से बहुत दूर आ चुका था। वर्षों बाद वह पैदल चल रहा था। जूते पैरों को काट रहे थे। उसने उतारकर दूर फेंक दिए। उसको याद आया कि बचपन में वह नंगे पैर कोसों तक दौड़ सकता था।
एक बार ताया ने शराब निकालनी थी। घड़े तैयार थे। मुझे पता था कि ताया के घड़े ईंख के खेत में पड़े थे। एक मैं था जो खेत की एक-एक मेंड़ पर घूम आता था और मुझे यहाँ तक पता था कि किस टहनी पर कितने आम लगे थे।
ताया का मेरे संग बहुत प्रेम था। मैं उसका आज्ञाकारी भी बहुत था। ताया ने मुझे लक्कड़-बालण चुगने और आग जलाने के काम पर लगा दिया और खुद नलियाँ जोड़कर उसने गागर को आग पर रख दिया। कुछ देर बाद ताया बाहर भी झांककर आ जाता। ताया कोई इतना बड़ा शराबी तो था नहीं, पर पीता ज़रूर था और पीता भी घर की निकाली हुई ही। निकालता वह खुद ही था। किसी दूसरे की निकाली हुई वह नहीं पीता था। उसका कहना था कि उसने आज तक मोल की नहीं पी थी और न ही बेची थी। उन दिनों में अंगूर बहुत सस्ता हुआ करता था। कुछ बेलें ताया की अपनी भी थीं। घड़ों में शक और गुड़ के अलावा अंगूर, संतरे, माल्टे आदि भी ज़रूर डाले जाते थे। एक बार ताया ने बिन बांग वाले मुर्गे डालकर भी शराब निकाली थी।
शराब से ताया का रंग और ज्यादा चमकने लग पड़ा था। देह से तगड़ा और कदकाठी का भरपूर ताया कुश्ती करने, कबड्डी खेलने, कलाई पकड़ने, डुबकी मारने और दौड़ने में अभी ही अपने हमउम्रों से आगे था। रंग लाल होने के कारण ताये का चेहरा तांबे की तरह चमकता रहता था। ताया में एक गुण और भी था। वह लाल मिर्चें बादामों की तरह चबाकर खा जाता था, मजाल कि उफ्फ भी कर जाए। एक बार ताया शर्त लगाकर पावभर मिर्चें बादामों की तरह चबा गया था और जीते हुए पाँच रुपयों में से एक रुपये का सेर घी छन्ने में डालकर ठंडाई की तरह पी गया था। एक भैंस का दूध ताया धार निकालते समय पी जाता था।
एक और गुण था ताया में। उसको ततैये, बर्र, मधुमक्खी और बिच्छू आदि नहीं काटता था। कई बार ताया चलते-चलते ततैये को उठाकर अपनी हथेली पर रख लेता था और यदि ततैया डंक मारता था तो उस डंक का ताये पर कोई असर नहीं होता था। ताया साँप को भी पूंछ से पकड़कर हवा में घुमाते हुए धरती पर पटक कर मार देता था और इस तरह कई साँप उसने पूंछ से पकड़कर दूर फेंक दिए थे।
ताया को मधुमक्खी का छत्ता उतारने का भी बहुत शौक था और मुझे शहद खाने का। ताया मुझे लेकर खतानों में घुस जाता। इन खतानों में मधुमक्खियों के बहुत छत्ते हुआ करते थे। वह मक्खियों को हटाकर छल्ली तोड़कर बाकी छत्ता वही लगा रहने देता। ऐसा ताज़ा शहद खाकर मैं ताया का और अधिक प्यारा भतीजा बनता गया।
एक बार हमारे गाँव में बंदरों वाले आए। बंदरिया का नाम सुंदरी था और बंदर का सुंदर। उनके तमाशे दिखाकर बंदरवाला घरों से रोटी, कपड़ा, आटा-दाल आदि मांग कर गुजारा करता था।
रात में बंदरवाले का बंदर खुल गया और भाग गया। गाँव भर में शोर मच गया। लोग बंदर को पकड़ने के लिए उसके पीछे भागने लगे पर बंदर छलांग लगाकर अगले कोठे पर जा चढ़ता। बंदरवाला रोने लगा। बड़े कष्टों से तो उसने इस बंदर को पाला था और नाचना-कूदना सिखलाया था। उसके रोजगार का सवाल था। पर आदमी को पकड़ना आसान है, बंदर को नहीं। एक बात याद आ गई। एक बार हमारे गाँव में पुलिस आ गई। बन्दे पकड़े नहीं जा सके। जो एक आदमी पकड़ा गया, उसने थानेदार को धक्का मार कर गिराया और बोला, ''ओए तू तो बिल्ली नहीं पकड़ सकता, मुझे क्या पकड़ेगा।'' और वह तेजी से भागते हुए यह गया और वो गया।
दिन चढ़ते तक बंदर नहीं पकड़ा गया और जब सब लोग घरों में से जाग उठे तो बंदर दौड़ते-दौड़ते हमारे खेत में आ गया। ताया उसको पकड़ने लगा तो वह शहतूत के पेड़ पर चढ़ गया। शहतूत का वृक्ष बहुत सघन और बड़ा था। जैसे-जैसे ताया पेड़ पर चढ़ता, बंदर और ऊँचे चढ़ जाता। बंदर का दुर्भाग्य था कि उसके गले में बंधी संगली उसके गले में ही थी जिसे वह खोल कर निकाल नहीं सकता था। यह संगली एक टहनी के साथ फंस गई। ताया ने संगली का कुंडा अपने हाथ में पकड़ लिया और बंदर को अपनी ओर खींचा। बंदर समझ गया कि अब छुटकारा कठिन है। कभी तो बंदर घुड़कियाँ देकर, दांत दिखाकर ताया को डराये और कभी उसके आगे हाथ जोड़े।
आख़िर ताया ने बंदर को पेड़ पर से नीचे उतार लिया। ताया का पैग गिलास में पड़ा था। उसने बंदर की संगली शहतूत के पेड़ की जड़ों से बांध कर आधा पैग गले से नीचे उतारा और खुद 'मिट्ठे'(एक फल) तोड़ने चला गया। जब ताया लौटकर आया तो बंदर ने बाकी का आधा गिलास पी लिया था और ताया के बार-बार गले लग रहा था।
जब बंदर के मालिक को पता चला तो वह लगा आकर ताया की मिन्नतें करने। पर ताया बंदर देने का नाम नहीं लेता था। उधर, बंदर भी मस्त हुआ पड़ा था और जाने का नाम नहीं लेता था।
बंदरवाले में गाँव में जाकर पंचायत इकट्ठी कर ली, पर पंचायत के कहने पर भी ताया ने बंदर नहीं दिया। बंदर को ताया ने अपने खेत के शहतूत के पेड़ से पकड़ा था। बंदर अब ताया का था। बाजीगर ने बहुत वास्ता डाला और जब कुछ दिन बाद बाजीगर पाँच गाँवों की और पंचायत लेकर आया, जिसमें साथ वाले गाँव का सफेदपोश और जैलदार भी था, तो ताया ने बंदर उसको वापस कर दिया।
ताया अब अपने पीने के लिए शराब निकाल रहा था। मैं आग जला रहा था। अब तक बूँद-बूँद करके बढ़िया पहले तोड़ की बोतलें भर चुकी थीं।
तभी पता चला कि घोड़ियों वाले सिपाही इधर आ रहे थे। ताया ने लात मारकर नलियों को अलग कर दिया। बलटोही आग में उंडेल दी और एक बोतल लेकर भाग गया। मेरी समझ में नहीं आया कि अब क्या करूँ। पुलिस वाले सिर पर आ गए थे। उन्होंने आते ही गालियाँ देनी आरंभ कर दीं और एक घुड़सवार ताया के पीछे लग गया। मैं दूसरी बोतल हाथ में पकड़े उन्हें गचका देकर हवेली के पीछे से होकर शहतूत के पेड़ पर चढ़ गया। पता नहीं, उस समय मेरे अन्दर इतनी फुर्ती और ज़ोर कहाँ से आ गया था। जब तक सिपाही हवेली का चक्कर काटकर शहतूत के नीचे आए तो मैं गिलहरी की तरह बहुत ऊँचे जाकर एक डाली से चिपटकर बैठा था और नीचे चलते-फिरते और गालियाँ बकते पुलिसवालों को देख रहा था। वे इतने सघन शहतूत के पेड़ में से मुझे देख नहीं सकते थे और हैरान थे कि मैं किधर छिप्पन-छू हो गया था।
हार कर पुलिस चली गई। ताया कई दिन गाँव में नहीं घुसा। मैंने ताया की बोतल शहतूत पर ही तीन डालियों की जड़ में छिपा दी और मक्की के तुक्के का डाट कसकर लगा दिया।
बाद में बापू ने थानेदार को पसेरी(पाँच सेर) घी देकर मुखबरी करने वाले के ही जूतियाँ पड़वा दी और जब ताया लौटा तो रंग ही बदल चुके थे। मौसम ही बदल चुके थे। दंगल, सौंचियां, कुश्तियों और कबड्डियों की रुत थी। हमारे गाँव से आधा मील दूर एक जंगल था। एक मील से भी लम्बा और चौड़ा। सघन करीरों, मल्हियों (छोटे बेरों का जंगली वृक्ष), पुराने वनों के इतने घने पेड़ थे कि दिन में भी रात जैसा भ्रम पैदा होता था। इस जंगल में पशुओं को चराने की मनाही थी। इसलिए घास भी बहुत उगा हुआ था। इस जंगल का नाम 'पक्का डल्ला' था। यहाँ हर वर्ष मुसलमानों का बड़ा भारी मेला लगा करता था। इस मेले की सिर्फ मुसलमान ही नहीं, हर कौम के लोग बड़े उत्साह से प्रतीक्षा करते और इसे मनाया करते थे। इस मेले पर जो तीन दिन चलता, दूर दूर से कव्वालों की गाने वाली टोलियाँ ज़ियारत के लिए आतीं। इलाके भर के मशहूर पहलवानो की कुश्तियाँ होतीं। बंसरी बजाने वालों का मुकाबला होता। अलगौजे की जोड़ियाँ मुसलमान नौजवान गाले फुला फुलाकर एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हुए बजाया करते। इस पक्के डल्ले के छोटे-से सघन जंगल में जहाँ छाया, आराम और ठंडक ही ठंडक थी, गरमियों की तपती रुत में मेला देखने आए लोगों को कोई धूप न लगती। इसी मेले पर सिक्खों और मुसलमानों के सियासी लीडर भी अपनी दीवान सजाते। हर वर्ष इस मेले में कम से कम पचीस हज़ार लोगों की भीड़ जुड़ती थी। मैं अपने दोस्तों के साथ यहाँ पीलां खाने और पेझू (पीलां और पेझू दोनों ही जंगली फल) तोड़ने जाया करता था। कब्रें होने के कारण हमें यहाँ डर भी लगता रहता था।
इस जंगल के एक तरफ नहर बहती थी, दूसरी तरफ आधा मील की दूरी पर हमारा गाँव था। बगल में एक अन्य छोटा-सा गाँव चोर कोट था जो हमारे गाँव में से ही निकल कर बना था।
चोर कोट वाली बाही पर छोटी नहर के पुल से एक छोटा-सा बैलगाड़ियों का रास्ता इस जंगल के साथ-साथ जाता था। हमारे गाँव में इस राह से आने पर घुमाव पड़ता था। इसलिए राही जंगल में से ही छोटी-छोटी पगडंडियों के रास्ते आ जाया करते थे, पर रात-बेरात उधर से कोई कम ही गुजरता था।
जिस तरफ चोर कोट वाला राह था, उस तरफ पीरों का डेरा था।
ये पीर असल में मुसलमान थे। क्योंकि हमारा सारा गाँव सिक्खों का था, इसलिए इन पीरों से हमें डर-सा ही लगता रहता था। ये पीर लम्बे काली सूफ़ के या हरे चोगे पहनते और सिर के बाल पीछे की ओर बहाते थे। थोड़ी-थोड़ी कटी हुई दाढ़ी रखते और जी भरकर हुक्के पीते रहते, और मुझे इनसे डर-सा लगता रहता। इनकी आँखें सदा चढ़ी-चढ़ी सी रहती थीं।
मेले के समय इन पीरों की ख़ास मान्यता होती। चढ़ावे चढ़ते और हलवा तैयार होता रहता। इनके डेरों में दूर-दूर से खेलने, नाचने, गाने और कव्वालियों के मुकाबले में हिस्सा लेने के लिए आई पार्टियाँ अपना रंग जमाये रखतीं। इन नाचने-गाने वाली पार्टियों में कुछ स्त्रियाँ भी होतीं। कई कहते, ये कंजरियाँ थी और मुझे यह बात समझ में न आती कि कंजरियाँ क्या होती हैं।
जब मेला खत्म हो जाता तो साथ वाले गाँवों के जट्ट इन टोलियों को नाचने के लिए बुला लेते और रात को मशालें जला कर ये पार्टियाँ नाचने-गाने का प्रोग्राम पेश करतीं।
बाद में मुझे पता चला कि ये कंजरियाँ नहीं थीं, बल्कि ये खुसरे थे जो जनाना कपड़ों में रहते थे। और खुसरे क्या थे ? यह एक और सवाल मेरे सामने पहले से भी बड़ा बनकर खड़ा हो गया। खुसरे हमारे गाँव में किसी घर में लड़का पैदा होने पर मांगने आया करते थे और नखरे करते, आँखें मटका कर, ताने-उलाहने देकर अपनी झोली में खैर डलवाते थे और उनकी आवाज़ न तो स्त्रियों जैसी होती और न ही मर्दों जैसी। कुछ समय बाद फिर मुझे पता चला कि ये रासधारिये थे। रात में भेष बदलकर, गाँव में अखाड़ा बनाकर जो उस समय का रंगमंच था, बहुओं वाले कपड़े पहनकर, चेहरे पर पाउडर मलकर, ये बहुत चमक-दमक जाते थे और गाँव के लड़कों का मोह जीत लेते थे। जब कोई इनके करतब से खुश होकर इन्हें पैसे देता तो ये उसकी 'वेल' करते और फिर नाटक आगे शुरू हो जाता। मुझे यह बात बड़ी बुरी लगती थी। एक तो 'वेल' करते समय वक्त लगता था और कहानी का स्वाद फीका पड़ जाता था। दूसरे लोग जिद्द करके अपनी वेलें रासधारियों से करवाने लग पड़ते थे।
एक दिन रात में इसी तरह रासधारिये आए हुए थे। गाँव वालों ने फैसला किया कि गाँव में रास नहीं होने देंगे। इससे समय खराब होता था, पैसा-धेला भी बर्बाद होता था और स्त्रियों पर बुरा असर पड़ता था और कई बार गाँव में लड़ाई-झगड़े भी हुए थे। गाँव के नौजवानों ने गाँव में रास न होने देने को अपनी हेठी समझा, और वे रासधारियों का तम्बू उठाकर गाँव से बाहर कुम्हारों के घरों के पास ले गए। रसद-पानी भी उन्होंने वहीं पहुँचा दिया। वहीं अच्छी-खासी भीड़ जुट गई। साथ वाले गाँवों के लोग भी देखने के लिए आ जुटे थे।
रासधारिये ने ढोलकी पर थाप मारी और बाजे वाले ने सुरों में उंगलियाँ हिलाईं, और मिनट भर में ही सब रंगीन हो गया। नौजवानों की आँखें गुलाबी होने लगीं।
सोहणी-महीवाल का ड्रामा शुरू हो गया। कैसे सोहणी से बर्तन खरीदने आया महीवाल उस पर मोहित हो गया था। सोहणी की भूमिका करने वाला रासधारिया कोई कच्ची उम्र का लड़का था जो शरमाता भी था, मुस्कराता भी था और उसकी आँखों में हया की लकीरें भी थीं। वह मुझे अब लड़का कम, और लड़की अधिक लगता था। जैसे-जैसे नाटक आगे बढ़ता गया, वह मुझे लड़की और सिर्फ़ लड़की ही लगता रहा। यहाँ तक की दूसरे देखने वाले जवान लड़के जो मेरे से काफी बड़ी उम्र के थे, उसके काम से खुश होकर पहले तो 'ओए, पार्ट सोहणा करता है!'' कहते, फिर ''काम सोहणा करती है !'' ही कहने लग पड़े।
मुझे पर भी उस सोहणी का इतना असर पड़ा कि मेरे मन में एक आग-सी जल उठी। मुझे लगने लगा मानो मेरे ग्यारह-बारह साल के लड़के का खून भी गरम हो गया था। मेरा मन करता था कि मैं इन रासधारियों के साथ ही जा मिलूँ और महीवाल का पार्ट करने लग पड़ूँ। सिर्फ़ इसलिए कि सोहणी मुझे बहुत सोहणी लगी थी।
नाटक चलते-चलते अब पक्के घड़े की जगह कच्चे घड़े बनाने तक पहुँच गया था। रात के बारह बज गए थे। लोगों में रास देखने का चाव मद्धम नहीं हुआ था। जब सोहणी की ननद घड़ा बदलने के लिए आई तो एक जवान लड़के से रहा नहीं गया। वह यह बर्दाश्त नहीं कर सकता था कि सोहणी पक्के घड़े के भुलावे में कच्चे घड़े पर तैरने लगे और डूब जाए। उसने आगे बढ़कर लाठी हवा में लहराई और घड़े पर दे मारी, पर लाठी घड़े पर बजने से पहले सोहणी की ननद के सिर पर जा बजी। सारे अखाड़े में हड़कंप मच गया। पता तभी चला जब किसी और ने लाठी मारने वाले के सिर में लाठी मारते-मारते मशाल वाले का सिर फोड़ दिया। मशाल गिरकर बुझ गई। चारों ओर अँधेरा हो गया और इस अँधेरे में किसने किसको मारा और किसने किसका सिर फोड़ा, कुछ पता नहीं लगा।
(जारी…)
हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव
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गुलाब शहर से बहुत दूर आ चुका था। वर्षों बाद वह पैदल चल रहा था। जूते पैरों को काट रहे थे। उसने उतारकर दूर फेंक दिए। उसको याद आया कि बचपन में वह नंगे पैर कोसों तक दौड़ सकता था।
एक बार ताया ने शराब निकालनी थी। घड़े तैयार थे। मुझे पता था कि ताया के घड़े ईंख के खेत में पड़े थे। एक मैं था जो खेत की एक-एक मेंड़ पर घूम आता था और मुझे यहाँ तक पता था कि किस टहनी पर कितने आम लगे थे।
ताया का मेरे संग बहुत प्रेम था। मैं उसका आज्ञाकारी भी बहुत था। ताया ने मुझे लक्कड़-बालण चुगने और आग जलाने के काम पर लगा दिया और खुद नलियाँ जोड़कर उसने गागर को आग पर रख दिया। कुछ देर बाद ताया बाहर भी झांककर आ जाता। ताया कोई इतना बड़ा शराबी तो था नहीं, पर पीता ज़रूर था और पीता भी घर की निकाली हुई ही। निकालता वह खुद ही था। किसी दूसरे की निकाली हुई वह नहीं पीता था। उसका कहना था कि उसने आज तक मोल की नहीं पी थी और न ही बेची थी। उन दिनों में अंगूर बहुत सस्ता हुआ करता था। कुछ बेलें ताया की अपनी भी थीं। घड़ों में शक और गुड़ के अलावा अंगूर, संतरे, माल्टे आदि भी ज़रूर डाले जाते थे। एक बार ताया ने बिन बांग वाले मुर्गे डालकर भी शराब निकाली थी।
शराब से ताया का रंग और ज्यादा चमकने लग पड़ा था। देह से तगड़ा और कदकाठी का भरपूर ताया कुश्ती करने, कबड्डी खेलने, कलाई पकड़ने, डुबकी मारने और दौड़ने में अभी ही अपने हमउम्रों से आगे था। रंग लाल होने के कारण ताये का चेहरा तांबे की तरह चमकता रहता था। ताया में एक गुण और भी था। वह लाल मिर्चें बादामों की तरह चबाकर खा जाता था, मजाल कि उफ्फ भी कर जाए। एक बार ताया शर्त लगाकर पावभर मिर्चें बादामों की तरह चबा गया था और जीते हुए पाँच रुपयों में से एक रुपये का सेर घी छन्ने में डालकर ठंडाई की तरह पी गया था। एक भैंस का दूध ताया धार निकालते समय पी जाता था।
एक और गुण था ताया में। उसको ततैये, बर्र, मधुमक्खी और बिच्छू आदि नहीं काटता था। कई बार ताया चलते-चलते ततैये को उठाकर अपनी हथेली पर रख लेता था और यदि ततैया डंक मारता था तो उस डंक का ताये पर कोई असर नहीं होता था। ताया साँप को भी पूंछ से पकड़कर हवा में घुमाते हुए धरती पर पटक कर मार देता था और इस तरह कई साँप उसने पूंछ से पकड़कर दूर फेंक दिए थे।
ताया को मधुमक्खी का छत्ता उतारने का भी बहुत शौक था और मुझे शहद खाने का। ताया मुझे लेकर खतानों में घुस जाता। इन खतानों में मधुमक्खियों के बहुत छत्ते हुआ करते थे। वह मक्खियों को हटाकर छल्ली तोड़कर बाकी छत्ता वही लगा रहने देता। ऐसा ताज़ा शहद खाकर मैं ताया का और अधिक प्यारा भतीजा बनता गया।
एक बार हमारे गाँव में बंदरों वाले आए। बंदरिया का नाम सुंदरी था और बंदर का सुंदर। उनके तमाशे दिखाकर बंदरवाला घरों से रोटी, कपड़ा, आटा-दाल आदि मांग कर गुजारा करता था।
रात में बंदरवाले का बंदर खुल गया और भाग गया। गाँव भर में शोर मच गया। लोग बंदर को पकड़ने के लिए उसके पीछे भागने लगे पर बंदर छलांग लगाकर अगले कोठे पर जा चढ़ता। बंदरवाला रोने लगा। बड़े कष्टों से तो उसने इस बंदर को पाला था और नाचना-कूदना सिखलाया था। उसके रोजगार का सवाल था। पर आदमी को पकड़ना आसान है, बंदर को नहीं। एक बात याद आ गई। एक बार हमारे गाँव में पुलिस आ गई। बन्दे पकड़े नहीं जा सके। जो एक आदमी पकड़ा गया, उसने थानेदार को धक्का मार कर गिराया और बोला, ''ओए तू तो बिल्ली नहीं पकड़ सकता, मुझे क्या पकड़ेगा।'' और वह तेजी से भागते हुए यह गया और वो गया।
दिन चढ़ते तक बंदर नहीं पकड़ा गया और जब सब लोग घरों में से जाग उठे तो बंदर दौड़ते-दौड़ते हमारे खेत में आ गया। ताया उसको पकड़ने लगा तो वह शहतूत के पेड़ पर चढ़ गया। शहतूत का वृक्ष बहुत सघन और बड़ा था। जैसे-जैसे ताया पेड़ पर चढ़ता, बंदर और ऊँचे चढ़ जाता। बंदर का दुर्भाग्य था कि उसके गले में बंधी संगली उसके गले में ही थी जिसे वह खोल कर निकाल नहीं सकता था। यह संगली एक टहनी के साथ फंस गई। ताया ने संगली का कुंडा अपने हाथ में पकड़ लिया और बंदर को अपनी ओर खींचा। बंदर समझ गया कि अब छुटकारा कठिन है। कभी तो बंदर घुड़कियाँ देकर, दांत दिखाकर ताया को डराये और कभी उसके आगे हाथ जोड़े।
आख़िर ताया ने बंदर को पेड़ पर से नीचे उतार लिया। ताया का पैग गिलास में पड़ा था। उसने बंदर की संगली शहतूत के पेड़ की जड़ों से बांध कर आधा पैग गले से नीचे उतारा और खुद 'मिट्ठे'(एक फल) तोड़ने चला गया। जब ताया लौटकर आया तो बंदर ने बाकी का आधा गिलास पी लिया था और ताया के बार-बार गले लग रहा था।
जब बंदर के मालिक को पता चला तो वह लगा आकर ताया की मिन्नतें करने। पर ताया बंदर देने का नाम नहीं लेता था। उधर, बंदर भी मस्त हुआ पड़ा था और जाने का नाम नहीं लेता था।
बंदरवाले में गाँव में जाकर पंचायत इकट्ठी कर ली, पर पंचायत के कहने पर भी ताया ने बंदर नहीं दिया। बंदर को ताया ने अपने खेत के शहतूत के पेड़ से पकड़ा था। बंदर अब ताया का था। बाजीगर ने बहुत वास्ता डाला और जब कुछ दिन बाद बाजीगर पाँच गाँवों की और पंचायत लेकर आया, जिसमें साथ वाले गाँव का सफेदपोश और जैलदार भी था, तो ताया ने बंदर उसको वापस कर दिया।
ताया अब अपने पीने के लिए शराब निकाल रहा था। मैं आग जला रहा था। अब तक बूँद-बूँद करके बढ़िया पहले तोड़ की बोतलें भर चुकी थीं।
तभी पता चला कि घोड़ियों वाले सिपाही इधर आ रहे थे। ताया ने लात मारकर नलियों को अलग कर दिया। बलटोही आग में उंडेल दी और एक बोतल लेकर भाग गया। मेरी समझ में नहीं आया कि अब क्या करूँ। पुलिस वाले सिर पर आ गए थे। उन्होंने आते ही गालियाँ देनी आरंभ कर दीं और एक घुड़सवार ताया के पीछे लग गया। मैं दूसरी बोतल हाथ में पकड़े उन्हें गचका देकर हवेली के पीछे से होकर शहतूत के पेड़ पर चढ़ गया। पता नहीं, उस समय मेरे अन्दर इतनी फुर्ती और ज़ोर कहाँ से आ गया था। जब तक सिपाही हवेली का चक्कर काटकर शहतूत के नीचे आए तो मैं गिलहरी की तरह बहुत ऊँचे जाकर एक डाली से चिपटकर बैठा था और नीचे चलते-फिरते और गालियाँ बकते पुलिसवालों को देख रहा था। वे इतने सघन शहतूत के पेड़ में से मुझे देख नहीं सकते थे और हैरान थे कि मैं किधर छिप्पन-छू हो गया था।
हार कर पुलिस चली गई। ताया कई दिन गाँव में नहीं घुसा। मैंने ताया की बोतल शहतूत पर ही तीन डालियों की जड़ में छिपा दी और मक्की के तुक्के का डाट कसकर लगा दिया।
बाद में बापू ने थानेदार को पसेरी(पाँच सेर) घी देकर मुखबरी करने वाले के ही जूतियाँ पड़वा दी और जब ताया लौटा तो रंग ही बदल चुके थे। मौसम ही बदल चुके थे। दंगल, सौंचियां, कुश्तियों और कबड्डियों की रुत थी। हमारे गाँव से आधा मील दूर एक जंगल था। एक मील से भी लम्बा और चौड़ा। सघन करीरों, मल्हियों (छोटे बेरों का जंगली वृक्ष), पुराने वनों के इतने घने पेड़ थे कि दिन में भी रात जैसा भ्रम पैदा होता था। इस जंगल में पशुओं को चराने की मनाही थी। इसलिए घास भी बहुत उगा हुआ था। इस जंगल का नाम 'पक्का डल्ला' था। यहाँ हर वर्ष मुसलमानों का बड़ा भारी मेला लगा करता था। इस मेले की सिर्फ मुसलमान ही नहीं, हर कौम के लोग बड़े उत्साह से प्रतीक्षा करते और इसे मनाया करते थे। इस मेले पर जो तीन दिन चलता, दूर दूर से कव्वालों की गाने वाली टोलियाँ ज़ियारत के लिए आतीं। इलाके भर के मशहूर पहलवानो की कुश्तियाँ होतीं। बंसरी बजाने वालों का मुकाबला होता। अलगौजे की जोड़ियाँ मुसलमान नौजवान गाले फुला फुलाकर एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हुए बजाया करते। इस पक्के डल्ले के छोटे-से सघन जंगल में जहाँ छाया, आराम और ठंडक ही ठंडक थी, गरमियों की तपती रुत में मेला देखने आए लोगों को कोई धूप न लगती। इसी मेले पर सिक्खों और मुसलमानों के सियासी लीडर भी अपनी दीवान सजाते। हर वर्ष इस मेले में कम से कम पचीस हज़ार लोगों की भीड़ जुड़ती थी। मैं अपने दोस्तों के साथ यहाँ पीलां खाने और पेझू (पीलां और पेझू दोनों ही जंगली फल) तोड़ने जाया करता था। कब्रें होने के कारण हमें यहाँ डर भी लगता रहता था।
इस जंगल के एक तरफ नहर बहती थी, दूसरी तरफ आधा मील की दूरी पर हमारा गाँव था। बगल में एक अन्य छोटा-सा गाँव चोर कोट था जो हमारे गाँव में से ही निकल कर बना था।
चोर कोट वाली बाही पर छोटी नहर के पुल से एक छोटा-सा बैलगाड़ियों का रास्ता इस जंगल के साथ-साथ जाता था। हमारे गाँव में इस राह से आने पर घुमाव पड़ता था। इसलिए राही जंगल में से ही छोटी-छोटी पगडंडियों के रास्ते आ जाया करते थे, पर रात-बेरात उधर से कोई कम ही गुजरता था।
जिस तरफ चोर कोट वाला राह था, उस तरफ पीरों का डेरा था।
ये पीर असल में मुसलमान थे। क्योंकि हमारा सारा गाँव सिक्खों का था, इसलिए इन पीरों से हमें डर-सा ही लगता रहता था। ये पीर लम्बे काली सूफ़ के या हरे चोगे पहनते और सिर के बाल पीछे की ओर बहाते थे। थोड़ी-थोड़ी कटी हुई दाढ़ी रखते और जी भरकर हुक्के पीते रहते, और मुझे इनसे डर-सा लगता रहता। इनकी आँखें सदा चढ़ी-चढ़ी सी रहती थीं।
मेले के समय इन पीरों की ख़ास मान्यता होती। चढ़ावे चढ़ते और हलवा तैयार होता रहता। इनके डेरों में दूर-दूर से खेलने, नाचने, गाने और कव्वालियों के मुकाबले में हिस्सा लेने के लिए आई पार्टियाँ अपना रंग जमाये रखतीं। इन नाचने-गाने वाली पार्टियों में कुछ स्त्रियाँ भी होतीं। कई कहते, ये कंजरियाँ थी और मुझे यह बात समझ में न आती कि कंजरियाँ क्या होती हैं।
जब मेला खत्म हो जाता तो साथ वाले गाँवों के जट्ट इन टोलियों को नाचने के लिए बुला लेते और रात को मशालें जला कर ये पार्टियाँ नाचने-गाने का प्रोग्राम पेश करतीं।
बाद में मुझे पता चला कि ये कंजरियाँ नहीं थीं, बल्कि ये खुसरे थे जो जनाना कपड़ों में रहते थे। और खुसरे क्या थे ? यह एक और सवाल मेरे सामने पहले से भी बड़ा बनकर खड़ा हो गया। खुसरे हमारे गाँव में किसी घर में लड़का पैदा होने पर मांगने आया करते थे और नखरे करते, आँखें मटका कर, ताने-उलाहने देकर अपनी झोली में खैर डलवाते थे और उनकी आवाज़ न तो स्त्रियों जैसी होती और न ही मर्दों जैसी। कुछ समय बाद फिर मुझे पता चला कि ये रासधारिये थे। रात में भेष बदलकर, गाँव में अखाड़ा बनाकर जो उस समय का रंगमंच था, बहुओं वाले कपड़े पहनकर, चेहरे पर पाउडर मलकर, ये बहुत चमक-दमक जाते थे और गाँव के लड़कों का मोह जीत लेते थे। जब कोई इनके करतब से खुश होकर इन्हें पैसे देता तो ये उसकी 'वेल' करते और फिर नाटक आगे शुरू हो जाता। मुझे यह बात बड़ी बुरी लगती थी। एक तो 'वेल' करते समय वक्त लगता था और कहानी का स्वाद फीका पड़ जाता था। दूसरे लोग जिद्द करके अपनी वेलें रासधारियों से करवाने लग पड़ते थे।
एक दिन रात में इसी तरह रासधारिये आए हुए थे। गाँव वालों ने फैसला किया कि गाँव में रास नहीं होने देंगे। इससे समय खराब होता था, पैसा-धेला भी बर्बाद होता था और स्त्रियों पर बुरा असर पड़ता था और कई बार गाँव में लड़ाई-झगड़े भी हुए थे। गाँव के नौजवानों ने गाँव में रास न होने देने को अपनी हेठी समझा, और वे रासधारियों का तम्बू उठाकर गाँव से बाहर कुम्हारों के घरों के पास ले गए। रसद-पानी भी उन्होंने वहीं पहुँचा दिया। वहीं अच्छी-खासी भीड़ जुट गई। साथ वाले गाँवों के लोग भी देखने के लिए आ जुटे थे।
रासधारिये ने ढोलकी पर थाप मारी और बाजे वाले ने सुरों में उंगलियाँ हिलाईं, और मिनट भर में ही सब रंगीन हो गया। नौजवानों की आँखें गुलाबी होने लगीं।
सोहणी-महीवाल का ड्रामा शुरू हो गया। कैसे सोहणी से बर्तन खरीदने आया महीवाल उस पर मोहित हो गया था। सोहणी की भूमिका करने वाला रासधारिया कोई कच्ची उम्र का लड़का था जो शरमाता भी था, मुस्कराता भी था और उसकी आँखों में हया की लकीरें भी थीं। वह मुझे अब लड़का कम, और लड़की अधिक लगता था। जैसे-जैसे नाटक आगे बढ़ता गया, वह मुझे लड़की और सिर्फ़ लड़की ही लगता रहा। यहाँ तक की दूसरे देखने वाले जवान लड़के जो मेरे से काफी बड़ी उम्र के थे, उसके काम से खुश होकर पहले तो 'ओए, पार्ट सोहणा करता है!'' कहते, फिर ''काम सोहणा करती है !'' ही कहने लग पड़े।
मुझे पर भी उस सोहणी का इतना असर पड़ा कि मेरे मन में एक आग-सी जल उठी। मुझे लगने लगा मानो मेरे ग्यारह-बारह साल के लड़के का खून भी गरम हो गया था। मेरा मन करता था कि मैं इन रासधारियों के साथ ही जा मिलूँ और महीवाल का पार्ट करने लग पड़ूँ। सिर्फ़ इसलिए कि सोहणी मुझे बहुत सोहणी लगी थी।
नाटक चलते-चलते अब पक्के घड़े की जगह कच्चे घड़े बनाने तक पहुँच गया था। रात के बारह बज गए थे। लोगों में रास देखने का चाव मद्धम नहीं हुआ था। जब सोहणी की ननद घड़ा बदलने के लिए आई तो एक जवान लड़के से रहा नहीं गया। वह यह बर्दाश्त नहीं कर सकता था कि सोहणी पक्के घड़े के भुलावे में कच्चे घड़े पर तैरने लगे और डूब जाए। उसने आगे बढ़कर लाठी हवा में लहराई और घड़े पर दे मारी, पर लाठी घड़े पर बजने से पहले सोहणी की ननद के सिर पर जा बजी। सारे अखाड़े में हड़कंप मच गया। पता तभी चला जब किसी और ने लाठी मारने वाले के सिर में लाठी मारते-मारते मशाल वाले का सिर फोड़ दिया। मशाल गिरकर बुझ गई। चारों ओर अँधेरा हो गया और इस अँधेरे में किसने किसको मारा और किसने किसका सिर फोड़ा, कुछ पता नहीं लगा।
(जारी…)
1 टिप्पणियाँ:
आदरणीय भाई मोमी जी की शैली तो रोचक है ही ,लेकिन अनुवाद कला में माहिर नीरव जी ने उसे और भी जीवन्त कर दिया है ।
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