पंजाबी लघुकथा : आज तक
>> रविवार, 12 फ़रवरी 2012
पंजाबी लघुकथा : आज तक(9)
'पंजाबी लघुकथा : आज तक' के अन्तर्गत अब तक आप पंजाबी लघुकथा की अग्रज पीढ़ी के कथाकार भूपिंदर सिंह, हमदर्दवीर नौशहरवी, दर्शन मितवा, (स्व.)शरन मक्कड, सुलक्खन मीत, श्याम सुन्दर अग्रवाल, डॉ. श्यामसुन्दर दीप्ति और (स्व.) जगदीश अरमानी की चुनिंदा लघुकथाएं आप पढ़ चुके हैं। इसी कड़ी में प्रस्तुत हैं- हरभजन सिंह खेमकरनी की पाँच पंजाबी लघुकथाओं का हिंदी अनुवाद। खेमकरनी जी पंजाबी लघुकथा के अग्रणी एवं बहुचर्चित लेखक रहे हैं और सत्तर वर्ष की आयु में अभी भी सृजनरत हैं। पंजाबी लघुकथा में इनका नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। ‘गली का सफ़र’, ‘वेला-कुवेला’(कहानी संग्रह), ‘थिंदा घड़ा’(लघुकथा संग्रह) और ‘ठंडी-तत्ती रेत’(कविता संग्रह) छप चुके हैं और अनेक पुस्तकों का संपादन किया है। बहुत सी लघुकथाओं का हिंदी, उर्दू और अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है। देश और प्रांत के कई सम्मानों से सम्मानित। संपर्क : 4381-ए, रणजीत पुरा, पुतलीघर, अमृतसर-143002(पंजाब)
फोन : 098781-31525
-सुभाष नीरव
संपादक : कथा पंजाब
हरभजन सिंह खेमकरनी की पाँच लघुकथाएं
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
(1) वर्दी
हवेली के सामने बैठा सरपंच अपने हिमायतियों के संग मामले निपटाने के संबंध में सलाह-मशवरा कर रहा था। उनके समीप ही फौज के छुट्टी पर आया सरपंच का बेटा वर्दी कसे हुए अपनी मित्र-मंडली के बीच बैठकर फौजी किस्से चटखारे ले-लेकर सुना रहा था। तभी गाँव लौटा सूबेदार निशान सिंह आँगन में जाने के लिए हवेली के सामने से गुजरा। उसे देखते ही सरपंच के बेटे ने खड़े होकर ज़ोरदार सैल्यूट मारा। सैल्यूट का उत्तर देकर जब सूबेदार थोड़ा आगे बढ़ गया तो पीछे से किसी ने शब्दबाण छोड़े –
“आज़ादी तो इन्हें मिली है। देखो सूबेदार का रौब ! सरपंच का बेटा भी सैलूट मारता है।”
“भाऊजी, आदमी को कौन पूछता है? यह तो कंधे पर लगे फीतों की इज्जत है।”
“कोई बात नहीं, सूबेदार को संदेश भेज देते हैं कि अब से गाँव में वर्दी पहनकर न आया करे।” सरपंच ने शून्य में घूरते हुए कहा।
(2) रिश्तों का फ़ासला
एक रिश्तेदार के घर हो रहे विवाह समारोह में सम्मिलित होने के लिए वह अपने गाँव के बस-स्टैंड पर बस की प्रतीक्षा कर रहा था। उसके संग उसकी नव-विवाहिता पत्नी, जवान साली और अनब्याही जवान बहन थी। बस जैसे ही उनके पास आकर रूकी, वह फुर्ती से सीटें हथियाने के लिए बस में चढ़ गया। पिछली खिड़की के पास ही तीन सवारियों वाली सीट पर वह बैठ गया। उसके दायीं ओर उसकी पत्नी बैठ गई और बायीं ओर उसकी साली। बहन जब उसके पास आकर खड़ी हुई तो उसने बस के अंदर दृष्टि घुमाई। अगली खिड़की के पास दो सवारियों वाली सीट, जिस पर एक नौजवान बैठा था, पर नज़र पड़ते ही उसने उस सीट की ओर उंगली से इशारा करते हुए बहन के कहा- “वीरो, तू उस सीट पर जाकर बैठ जा।”
(3) चिकना घड़ा
बी.एस. गिल की नेम-प्लेट पढ़ते हुए अमरीक सिंह गिल ने बैल बजाई तो एक बुज़ुर्ग ने गेट खोला।
“गिल साहब से मिलना है, दफ़्तर से आया हूँ।” बुज़ुर्ग ने सत्कार देते हुए उसको कहा –“आ जाओ… आ जाओ…बैठक में बैठे हैं।”
वह बैठक की तरफ़ हो गया तो वह बुर्ज़ग भी आ गया। गिल साहब ने अपने पिता जी के उसका परिचय कराया, “बापू जी, ये अमरीक सिंह गिल, मेरे साथ ही अफ़सर हैं।”
“ये तो फिर अपने ही हुए।” चेहरे पर मुस्कराहट लाते हुए बुज़ुर्ग ने कहा।
दफ़्तरी मामलों से फुरसत पाकर अब वे घूंट-घूंट लगाने लग पड़े तो बुज़ुर्ग भी उनका साथी बन गया। अमरीक सिंह गिल को धर्मपाल द्वारा हवा में छोड़े गए वाक्य ‘गिल साहब का गोती अफ़सर आ गया, अब लग जाएंगे पते भई--- कहते हैं न कि एक एक ग़्यारह’ ने सवेर से ही परेशान किया हुआ था। इस अधूरे वाक्य में कड़वाहट, ईर्ष्या, डर… कितना कुछ अपने आप आ मिला था। शायद गोत भाई समझते हुए ही मुझे घर पर बुलाया हो। तीसरे पैग के खत्म होते ही वह नशे की लोर में बोला, “गिल साहब ! शायद गोत भाई होने के कारण ही आपने यह तकलीफ़ की है, पर जो बात मैं चार दिन बाद किसी ने कहनी है, वो मैं ही बता देना चाहूँगा कि मैं गिल नहीं हूँ। यह तो मेरा गाँव गिल्ल-कलां होने के कारण मेरे नाम के साथ गिल जुड़ गया है।”
“छोड़ यार इन बातों को। पचास साल हो गए हमको आज़ाद हुए, पर इस जात-गोत ने हमें अभी भी उतना जकड़ा हुआ है, जितना पाँच सौ साल पहले। तेरी इस साफ़गोई ने मेरे दिल में और इज्जत बढ़ा दी है। वैसे मुझे पहले ही पता था कि तू मज्हबी (छोटी जात का) गिल है।”
इतनी बात सुनते ही बुज़ुर्ग के माथे पर बल आ गए। अमरीक सिंह पैग खाली करते हुए उठा और इजाज़त लेकर गेट की ओर बढ़ा। अभी वह स्कूटर स्टार्ट करने ही लगा था कि उसने शीशे का गिलास टूटने की आवाज़ इस तरह सुनी जैसे गिलास को जान-बूझकर दीवार पर मारा गया हो।
(4) नज़र और नज़र
राजधानी में हो रही राजनैतिक रैली में हिस्सा लेने के लिए बेटिकट भीड़ ने गाड़ी के रिज़र्व डिब्बों पर भी कब्ज़ा कर लिया था। बड़ी कठिनाई से मीनाक्षी रिज़र्व सीट वाले डिब्बे में चढ़ तो गई, पर सीट मिलना तो क्या, खड़ा होने के लिए भी जगह नहीं थी। छोटे बच्चे के साथ अकेले रात का सफ़र आराम से करने की खातिर रिज़र्व करवाई सीट को मिन्नतें करने पर भी सवारियाँ खाली करने को तैयार न हुईं और न ही किसी को गोद में उठाई, भीड़ से घबराई बच्ची के रोने पर तरस आया। यह सोचकर कि अक्सर पुरुष सवारियाँ बच्चे पर तरस करके सीट छोड़ देती हैं, उसने बैठी हुई सवारियों के चेहरों पर प्रश्नभरी नज़रों से देखा, पर लम्बे सफ़र के कारण कोई भी सवारी सीट छोड़ने के लिए तैयार न हुई। आख़िर एक जनाना सवारी अपने पैरों में रखी गठरी पर बैठते हुए कहा, “आ जा बहन, यहाँ बैठकर बच्चे को दूध पिला ले। देख, कैसे रो-रोकर बेहाल हुए जाता है।”
सीट पर बैठते ही मीनाक्षी ने पर्स में से दूध वाली बोतल निकालने के लिए हाथ मारा तो परेशान हो गई। जल्दबाजी में बोतल घर में ही रह गई थी। सीट की टेक की तरफ़ मुँह करने लायक जगह भी नहीं थी। अब बच्चे को अपना दूध कैसे पिलाये। उसे लग रहा था कि बहुत सारी नज़रें उसी पर टिकी हुई हैं। उसकी दुविधा को भाँपते हुए समीप बैठी जनानी सवारी ने हवा में शब्द छोड़े, “बेटी, कपड़े की ओट करके बच्ची को दूध पिला ले, ये लोग भी तो माँओं के दूध पीकर बड़े हुए हैं।”
आवाज़ सुनते ही नज़रें शर्मसार हो गईं।
(5) महत्वपूर्ण दिन
महीने की पहली तारीख़ को बैंक में से पैसे निकलवाने की मज़बूरीवश मुझे भी लम्बी कतार का हिस्सा बनना पड़ा। काउंटर की तरफ़ धीरे-धीर सरक रही कतार में अधिकतर बुज़ुर्ग ही थे जो शायद पेंशन निकलवाने आए थे। समय बिताने के लिए अनजान व्यक्तियों से भी बातों को साझा किया जा रहा था। कुछ जीवन की, खट्टी-मीठी यादों को सांझा कर रहे थे और कुछ घर के हालात का रोना रो रहे थे। तभी, मुझे करीब तीन आदमियों के बाद खड़े बुज़ुर्ग के शब्द कानों में पड़े कि किस्मत वालों के बच्चे ही अपने माँ-बाप को आखिरी उम्र में पूज्यनीय समझकर सेवा करते हैं। ज्यादातर से तो हर महीने किसी न किसी बहाने पेंशन भी छीन ली जाती है और उन्हें अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए भिखारियों की तरह बेटे-बहुओं के आगे हाथ फैलाने पड़ते हैं।
“भाई साहब, आप ठीक कहते हैं। मेरा बेटा बाहर गेट के पास खड़ा है कि कब मैं बाहर आऊँ और वह मुझसे पैसे छीने।” एक अन्य ने बात आगे बढ़ाई।
“भाई मेरे बच्चे तो पेंशन को हाथ नहीं लगाते। जहाँ मर्जी खर्च कर। पहली तारीख़ को दोस्त-मित्रों से मिल जाया करते हैं और तनख्वाह की तरह पेंशन जेब में डालकर खुशी सी होती है।” एक और आदमी अपनी बात कहते हुए मुस्करा रहा था।
“घर के हालात भई सबके अपने अपने होते हैं। मेरा एक लड़का डॉक्टर है रेलवे में और एक फ़ौज में मेज़र है। खुला खर्च करने को देते हैं। बेटियाँ अपने घरों में हैं। कोई जिम्मेदारी नहीं। मैं पेंशन का एक भी पैसा घर में नहीं ले जाता। चार गरीब परिवारों की मदद हर महीने बाँध रखी है।” एक अन्य आवाज़ ने सभी को चौंकाया। सुनने वालों ने अपने अपने तीर छोड़े।
“बुज़ुर्गों को गप्प मारने की आदत लगती है।”
“दान करने वाले ढिंढ़ोरा नहीं पीटते।”
“पहली तारीख़ को क्या ज़रूरत है फिर लाइन में धक्के खाने की।”
“भाई साहब, अगर तुमने पेंशन निकलवाकर दान ही करनी है तो दस-बारह तारीख़ आया करो। धक्कों से बचाव हो जाएगा।” सोटी के सहारे खड़े बुज़ुर्ग ने कह ही दिया।
“तुम ठीक कहते हो, पर जिन परिवारों की मैं मदद करता हूँ, उनकी ज़रूरतें भी तो पहली तारीख़ से जुड़ी हुई हैं।”
लाइन में कुछ पल के लिए ख़ामोशी छा गई।
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