रेखाचित्र/संस्मरण

>> मंगलवार, 6 जुलाई 2010


पंजाबी के प्रख्यात कहानीकार - कवि संतोख सिंह धीर का जन्म पटियाला ज़िला के बस्सी पठाना में 2 दिसम्बर 1920 में हुआ था और निधन 8 फरवरी 2010 को चंडीगढ़ में। वर्ष 1996 में कहानी संग्रह ''पाखी'' के लिए साहित्य अकादमी अवार्ड, और वर्ष 2004 में शिरोमणि साहित्यकार अवार्ड, पंजाबी से भी सम्मानित संतोख सिंह धीर ने अपनी माँ-बोली पंजाबी भाषा की झोली में 50 से अधिक पुस्तकें डाली हैं। कोई एक सवार, सांझी कंध, सवेरे होण तक और मंगो उनकी मास्टरपीस कहानियाँ हैं। छह कहानी संग्रह, चार उपन्यास, एक यात्रा संस्मरण के साथ-साथ उन्होंने 'कबीर वचनावली' का वर्ष 1967 में पंजाबी में अनुवाद भी किया। पंजाबी के इस महान लेखक पर उनके ही समकालीन पंजाबी कथाकार प्रेम प्रकाश ने एक रेखा-चित्र लिखा है जो पंजाबी की त्रैमासिक पत्रिका 'कहाणी धारा' के अप्रेल-जून 2010 के अंक में प्रकाशित हुआ है। 'कथा पंजाब' में हम उसी का हिंदी अनुवाद अपने पाठकों के सम्मुख रख रहे हैं...
संपादक
कथा पंजाब

कलम का सिपाही : संतोख सिंह धीर
-प्रेम प्रकाश

सन् 1956 या 57 के आसपास मैंने जालंधर में संतोख सिंह धीर से पूछा था, ''बड़े भाई, अगर कहे तो मैं तेरा रेखा-चित्र भापा प्रीतम सिंह की पत्रिका 'आरसी' के लिए लिख दूँ ?''
''लिख ले, यदि तेरा दिल करता है।''
''पर तेरे सिगरेट पीने का जिक्र मैं ज़रूर करूँगा।''
''तो भाई, तू न ही लिख। इसके बिना मेरे किरदार में क्या और कुछ नहीं?''
मैंने नहीं लिखा। उन दिनों मुझे बहुत ही यथार्थवादी होकर लिखने का जुनून सवार था। फिर अपनी आत्मकथा 'आत्म माया' लिखने के समय पता चला कि व्यक्ति को बहुत सारे बुरे सच छिपाने भी पड़ते हैं और कुछ बुरे सच बताकर भी पवित्र ही रहा जा सकता है।
'आरसी' में उन दिनों 'समकालीन' कॉलम के अधीन साहित्यकारों के व्यक्ति-चित्र छपा करते थे। मैं जालंधर के मुहल्ला गोबिंद गढ़ के एक कमरे में अकेला किराये पर रहा करता था। धीर, प्रो. मोहन सिंह के 'पंज दरिया' का काम करने और नौकरी के लिए जालंधर आया हुआ था। वह भी मेरे कमरे में ही रहने लग पड़ा था। मैं कमरे में ताला नहीं लगाया करता था। मेरे पीछे जसवंत सिंह विरदी और गुरदर्शन सिंह उर्फ़ महिरम यार को जब भी ज़रूरत होती, वे मेरे कमरे में आ बैठते थे। मैंने स्टोव रखा हुआ था। जिसका दिल करता, आकर चाय बनाकर पीता और बातें कर जाता। उस समय कम्युनिस्ट कामरेडों और हमदर्दों को धर्म का विरोध करने का भूत सवार रहता था। वे केश कटवाये जा रहे थे और साथ ही, बग़ैर तलब और स्वाद के सिगरेटें पिया करते थे। पीते क्या, फूंका करते थे। मेरा कमरा ऐसे कामों के लिए ठीक था क्योंकि वह गली के सिरे पर था। एकमात्र था। किसी आदमी का उधर आना-जाना नहीं होता था। पीछे की ओर बहुत खुला आँगन और एक कोने में रसोई थी। कमरे में मेरी बाण की खाट, उस पर बिछा बिस्तरा। कुछ कपड़ों वाली सन्दूकची एक कोने में पड़ी होती और एक छोटा मेज गुरदर्शन ने लाकर रखा हुआ था। वह और विरदी नज़दीक ही रहते थे। विरदी टब्बरदार था और गुरदर्शन छड़ा। उस कमरे ने हमारी बहुत सारी करतूतें देखी थीं।
जब मैंने धीर से पूछा था तो उस वक्त मेरे कमरे में सिगरेट-शराब पीने के अलावा औरतों को लेकर लुकी- छिपी बातें भी हुआ करती थीं। हम दो-दो रुपये मिलाकर सस्ती शराब की बोतल खरीद लाते और मिलकर पीते थे। यह वो ज़माना था जब मैं, महिरम यार और विरदी स्कूल में टीचर हुआ करते थे। जब मैं स्कूल से लौटता तो वह और जसवंत सिंह विरदी किसी दोस्त को लेकर मेरे कमरे में बैठे साहित्य पर बहस कर रहे होते या दूसरों की निंदा कर रहे होते। कभी 'नवां जमाना' के न्यूज डेस्क से उठकर सुरजन ज़ीरवी भी शामिल हो जाता था। हम स्टोव पर चाय बनाते, पीते और सिगरेटें फूंकते हुए कहानियों के विषय में बहस करते रहते। प्राय: झगड़ भी पड़ते। मैं फौजियों वाली बड़ी सख्त सिगरेट चार-मीनार पिया करता था। जब संतोख सिंह धीर प्रोफेसर मोहन सिंह के घर से शाम को आता तो लगता कि बहुत थका हुआ है और दुखी है। वह आते ही अपने सिर पर से पगड़ी उतार कर एक तरफ रख देता और अपने गाँव डडहेड़ी के खास लहजे में 'हाय' पर ज़ोर डालते हुए कहता, ''ये उतर गया मोहन सिंह और उसका दफ्तर, मेरे सिर पर से। आह, मार लिया। धीर जी, तुम ऐसा कर लो। नहीं ऐसा नहीं, ऐसा करो। बस, यही गुलामी...। '' कहकर वह मेरी पीली डिब्बी में से नई सिगरेट निकालकर सुलगा लेता और धुआँ इस तरह फेंकता जैसे मोहन सिंह को परे धकेल रहा हो।
धीर वैसे मोहन सिंह की इज्ज़त शायर के तौर पर, खास तौर पर प्रोग्रेसिव शायर के तौर पर बहुत करता था। खीझ तो उसके दफ्तर में बंध कर बैठने और प्रो. साहिब की हर बात में 'हाँ जी, हाँ जी' करने के कारण थी। इसके बाद वह और हम वे सारे लक्षण करते जिन्हें छड़े आदमी बातचीत में किया करते हैं। हमारे ऊपर किसी बुजुर्ग़ की पहरेदारी नहीं थी। धीर मेरे से उम्र में बारह साल बड़ा था। वह हमारी बातें सुनता और अपने समय की बातें करते हुए बागोबहार हो जाता। उस कमरे में अन्य लेखक भी आ जाया करते थे। जिसे भी हममें से किसी को ढूँढ़ना होता था, वह 'नवां ज़माना' में सुरजन ज़ीरवी को मिलता और फिर हमारा कमरा खोज लेता। कभी कभी हम पैसे मिलाकर ठेके की अच्छी दारू भी पी लिया करते थे। उन दिनों में पार्टी वर्करों को दारू पीने और फिल्में देखने की मनाही थी। पर मेरे ऊपर कोई पाबंदी नहीं थी। मैं सभी वर्जित काम कर लेता था। मेरे साथ महिरम यार, विरदी, ज़ीरवी और कामरेड हरदयाल सिंह उर्फ़ 'नेता जी' भी शामिल हो जाते थे। हम दारू पीते और फिल्म देखने चले जाते।
एक दिन धीर थका हुआ आया। उस वक्त मैं गुरदर्शन को मोहन सिंह के दफ्तर में काम करते एक अन्य वर्कर की ओर से कोई लड़का लाकर कुकर्म करने की बात बता रहा था। तभी धीर आ गया और पूछने लगा, ''क्या बातें कर रहे थे? मेरे आने पर चुप क्यों हो गए ?''
असल में, मैं जब कमरे में आया तो वो वर्कर कमरे में ही था। वह मुझे अपनी बहादुरी वाले काम की बात बताता हुआ सुबूत भी पेश कर रहा था। मुझे उस पर गुस्सा आ गया। मैंने उसे झिड़क कर भगा दिया। तभी गुरदर्शन आ गया। मैं उसे वही बात बता रहा था। धीर मेरी दोहराई गई बात ध्यान से सुनता रहा। फिर उसने भी उस कुकर्म की ख्वाहिश का इज़हार कर दिया। हमें बहुत शर्म आई। ख्वाहिश तो हमारी भी थी। पर हम संकोच कर जाते क्योंकि धीर से हम उम्र में छोटे थे।
मैंने धीर का स्कैच लिखा। आधी सदी से अधिक का समय बीत चुका है। अब मेरा बुजुर्ग़ दोस्त और मुझसे उम्र का एक बड़ा हिस्सा नाराज़ रहने वाला इस दुनिया को छोड़कर जा चुका है। अब उससे पूछने की ज़रूरत नहीं। मैं लिख रहा हूँ। मुझे अहसास है कि मेरे सहित हर व्यक्ति की ज़िन्दगी का कोई न कोई हिस्सा गुप्त और छिपाने वाला भी होता है। जिसके उधड़ने से हर कोई डरता है। पर जिसे आम लोगों का बड़ा हिस्सा अपना समझने लग पड़ता है, उसका सबकुछ अपना नहीं रहता, लोगों का हो जाता है। उसका कुछ भी कहा और किया माफ़ भी किया जा सकता है और लिखा भी जा सकता है। जैसे महात्मा गांधी और पंडित जवाहर लाल नेहरू के विषय में कोई किसी भी किस्म की यादें लिख रहा है।
धीर जीवित होता तो उसके बारे में लिखना फिर भी संकोच का काम होता। क्योंकि जीवित बुजुर्ग़ व्यक्ति को अपनी अच्छी-बुरी बातों का जवाब सारे समाज और विशेष तौर पर अपने घरवालों, संबंधी-रिश्तेदारों को देना होता है। मुझे उसकी इस भावना का अदब रहा है।
धीर ने मोहन सिंह के यहाँ अधिक समय काम नहीं किया। जल्दी ही छोड़कर गाँव चला गया। जहाँ तक मुझे ख़बर लगती रही, उसकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी। मैं एक बार अपने गाँव बडगुजरां से साइकिल पर उसके गाँव डडहेड़ी गया, उसकी खैर-ख़बर लेने। वह ठीक था। लेकिन उसकी माली हालत ठीक नहीं थी। कई बच्चे हो गए थे। उसके पास साइकिल भी नहीं था। मेरे साइकिल को देखकर बोला, ''हम अजनेर के कोटले चलें ?'' वहाँ उसकी मौसी या बुआ अस्वस्थ थी। हम साइकिल पर चले गए। लौट कर आए तो पानी बरसने लगा। मैं अँधेरा होने के समय बारिश में अपने गाँव पहुँचा।
असल में, संतोख सिंह धीर मुझे तब अधिक अच्छा लगा करता था, जब मैं आठवीं या नौंवी कक्षा में पढ़ता था। खन्ने में अंग्रेज सरकार के खिलाफ कांग्रेस या कम्युनिस्ट पार्टी के जलसे हुआ करते थे। जिनमें बड़े लीडर के आने से पहले लोगों को इकट्ठा करने के लिए धीर स्टेज पर बिना माइक के ऊँची और मीठी आवाज़ में गाया करता था- ''कालिया हरना, बागी चरना...'' या ''निक्की निक्की कणी दा मींह बरसेंदा, भिज्ज गया लाल पंघूड़ा।'' अगर धीर न होता तो उससे भी सुरीली आवाज़ में गाने वाला शायर देवकी नंदन ख़ार होता। वह नेहरू जाकेट और गांधी टोपी पहनकर आजादी के गीत गाता। उसकी टोपी से नीचे लम्बे बाल दिखाई देते।
फिर मैंने स्कूल की पढ़ाई के दौरान उर्दू साहित्य की बहुत सारी किताबें पढ़ ली थीं। मुझे गीत, ग़ज़ल, आज़ाद नज्म के फर्क का पता लग गया था। अच्छे अफ़साने के गुणों को तकनीकी नज़र से देखने की थोड़ी-बहुत अक्ल आ गई थी। फिर मैं तीन-चार साल खन्ना, बड़गुजरां और खरड़ से होता हुआ जालंधर आ गया। यहाँ अच्छी संगत के कारण संतोख सिंह धीर की शायरी और कहानियाँ पढ़ीं। उनमें मुझे अपने इलाके के गाँवों के लोगों का अक्स दिखाई देता। पर जब मुझे कहानी की अधिक समझ आई तो कहता, ''धीर की कहानी ठीक है, पर यह सब कुछ नहीं। कहानी तो विरक(कुलवंत सिंह विरक) लिखता है।''
उन दिनों में धीर की कविता 'निक्की सलेटी, सड़क दा टोटा' और कहानी 'कोई इक सवार' बहुत मशहूर हो गई थीं। उन्हें पढ़ते हुए मुझे खन्ने और मंडी के गोबिंद गढ़ के बीच वाली सड़क का वह टुकड़ा बहुत याद आता जिस पर मैं लाखों बार साइकिल पर घूमता रहा था।
जब धीर जालंधर में मेरे कमरे पर आया तो उसकी किताब 'सांझी कंध'(साझी दीवार) छपी थी। उसने मुझे फरमे इकट्ठे करके प्रूफ वाली कॉपी दी और बोला, ''ले, इसकी जिल्द बंधवा लेना।'' मैंने रस्मी तौर पर वह कॉपी ले ली, पर उसके जाने के बाद किसी अन्य को दे दी। धीर रोटी ढाबे पर खाता था। मैं भी ज़रा साफ़-सुथरे ढाबे पर रोटी खाया करता था। धीर कभी बताता कि फलाने ढाबे पर दो आने में भरपेट रोटी मिलती है। दाल चाहे दुबारा मांग लो। मैं भी वहाँ जाकर रोटी खाकर देखता। उस भाई ने नया ढाबा खोला था और खुद ही मालिक था, खुद ही वर्कर।
लेकिन प्रो. मोहन सिंह से धीर एक महीने में ही ऊब कर नौकरी छोड़ गया। फिर गाँव से आकर कुछ दिन वह पार्टी के अख़बार 'नवां ज़माना' में भी काम करने जाता रहा। क्योंकि वह पार्टी का होल टाइमर कारकुन था। जब मैं जालंधर आया तो होल टाइमर वर्कर को 30 रुपये महीने के मिला करते थे। लेकिन धीर का अख़बार में भी दिल नहीं लगा। वह चला गया। फिर वह गहरी निराशा डूब गया।
फिर धीर डिप्रेसन का इलाज करवाने के लिए डा. नेकी के पास भी हो आया था। पर वह पूरी तरह ठीक नहीं हुआ। एक बार फिर वह जालंधर आ गया। मुझे बहुत ही प्यार से मिला। उसे अपने इलाके के गाँवों के स्थानों और आदमियों से मोह अधिक था। उसने 'नवां ज़माना' में सब-एडिटर का काम करना शुरू कर दिया। मैं शाम के वक्त नित्य नियम की तरह 'नवां ज़माना' के दफ्तर जाया करता था। जहाँ ज़ीरवी और अन्य कामरेड दोस्तों के साथ बैठकर चाय पिया करता था। वहीं गुरदर्शन भी आ जाता था। उस दफ्तर की चाय और ज़ीरवी की लतीफ़ेबाजी का अपना ही आनन्द था। अख़बार में काम की मारामारी नहीं थी। सब आराम से काम करते थे। क्योंकि किसी अन्य अख़बार से इस अख़बार का कोई मुकाबला ही नहीं था।
धीर का काम सिर्फ़ इतना था कि वह डाक में आई उर्दू ख़बरों का पंजाबी में अनुवाद कर देता था। ख़बर छांटने का काम कोई दूसरा कर देता था। एक दिन मैं छुट्टी वाले दिन तीसरे पहर 'नवां ज़माना' के दफ्तर में चला गया। देखा तो धीर उर्दू ख़बर का अनुवाद कर रहा था। मैं उसके पास जाकर हालचाल पूछने लगा। मेरे प्यार भरे बोल सुनकर धीर ने ऐनक उतार ली। फिर उसकी आँखों में आँसू आ गए। उसने दोनों हाथों से अपना चेहरा ढक लिया। हिचकियाँ लेकर रोता हुआ बोला, ''मेरा यह काम है कोई करने वाला...मैं यह क्या कर रहा हूँ ?''
उसकी बात सुनकर मैं सुन्न हो गया। मैंने उसे समझाया कि देख भाई, दूसरे लोग भी तो करते ही हैं। मैं छह घंटे लगातार ख़बरें बनाता हूँ। जहाँ सिर उठाने की भी फुरसत नहीं। हम भी दूसरे लोगों जैसे मज़दूर हैं। पर मानसिक तौर पर बीमार धीर मेरी बात समझ नहीं सका था। वह जल्द से जल्द यह काम छोड़कर अपने गाँव डडहेड़ी जाकर कवि और कहानीकार बनकर खाली बैठना चाहता था। उसे जालंधर के अख़बार की हवा रास नहीं आ रही थी। ख़ैर, मैं उसे दिलासा देकर अपने घर लौट आया। मेरे सिर में दर्द रहने लग पड़ा था। यह दर्द सूरज ढलने के साथ उठा करता था। मैंने आमलेट के साथ तेज पत्ती वाली चाय पी और लेट गया। फिर भी मैं धीर के बारे में सोचता रहा। मुझे उस पर खीझ-सी आई। नहाते समय का उसका नंगा बदन याद आ गया। फिर अपने बाप की कम्युनिस्टों को निकाली गालियाँ याद हो आईं। वे कहा करते थे कि ये कम्युनिस्ट तो चाहते हैं कि काम कोई करना न पड़े और ये लोगों की जायदादों पर कब्ज़ा कर लें। मुझे धीर की भी यही जेहनीयत दिखाई दी।
एक बार हम 'नवां ज़माना' के दफ्तर में चाय पीते हुए इंकलाब के सपने देख रहे थे तो धीर उठकर दो अल्मारियों के आगे खड़ा हो गया और बांहें फैलाकर बोला, ''मैं तो किसी लाइब्रेरी की अल्मारियों पर कब्ज़ा करके घर ले जाऊँगा।''
यह बात एक तरह से तो अच्छी थी कि इससे उसकी किताबों की भूख जाहिर होती थी। पर भारतीय व्यक्ति की मानसिकता में 'धर्मी डाकू' की भांति लूटने, मारने और कब्ज़ा करने का रोमांस भी था। वह काम करने के बदले मुफ्त में प्राप्त करना चाहता था। मुझे उसका शरीर देखकर भी गुस्सा आया करता था कि देख, दूधधारी साधू की तरह बदन इसका। इसने ज़िन्दगी भर वो काम नहीं किया होगा जिसके कारण बदन से पसीना बहा हो। उसने कहीं चढ़ती जवानी के समय सिलाई की मशीन चलाई थी। अब वह कोई काम करना ही नहीं चाहता था। काला हिरन जो था। मुझे कभी खीझ उठती कि यह होल टाइमर कामरेड मज़दूरों और मेहनतकशों की बात करता है, पर स्वयं काई काम करने के लायक नहीं। कम्युनिस्ट विरोधी इसीलिए इनकी निंदा किया करते हैं। मेरा बाप अगर मुझे भी यही ताना मारा करता था तो वह ठीक ही था। मैं खेती का काम करता रहा था, पर ज्यादा सख्त काम नहीं कर सकता था। मेरे भाई मुझे डेरे का अफीम-खाणा साधू कहा करते थे।
मुझे धीर द्वारा यह सवाल 'यह काम मेरा है भला ?'' पूछने पर, दिल्ली के मेरे शराबी यार वेद प्रकाश शर्मा जो खन्ने के करीब के गाँव का रहने वाला था, की वह बात याद हो आती जो उसने शराब पीते हुए कही थी। वह जालंधर के ब्लिस होटल में ठहरा हुआ था। कई दोस्त शराब पी रहे थे कि शराब की बोतल और मंगवाने की ज़रूरत पड़ गई। किसी ने कहा कि प्रेम ले आएगा। तब वेद प्रकाश शर्मा ने कहा, ''नहीं, तू लेकर आ। साले, हिरनों पर घास की गठरी लादता है।'' मुझे लगा कि धीर तो काला हिरन है। वह सब-एडिटरी के काम की गठरी कैसे उठा सकता है।
कई वर्ष बाद एक बार समराला में एक साहित्यिक बैठक में हम एकत्र हुए। बहस के दौरान हमारे विचार भिड़ गए। धीर उंगली उठा उठाकर बार बार अपनी बात कहता गया। मुझे वह आयु में बड़ा होने के कारण दबाता। उन दिनों मेरी कहानी का भी सिक्का चल पड़ा था। फिर भी मुझे बुजुर्ग़ से भिड़ना अच्छा न लगा। यह उन दिनों की बात है जब कम्युनिस्ट पार्टी दोफाड़ हो चुकी थी और रूसी क्रांति को लेकर नये सवाल पैदा हो रहे थे। जालंधर जो कि कम्युनिस्टों का गढ़ था, में विचारों की टक्कर तीखी थी। मैं तो पार्टी के दोफाड़ होने से भी पहले साहित्य में वामपंथियों के दख़ल का विरोध किया करता था। वे मेरी कहानियों पर लामबंद होकर हमले भी करते थे। मैं खीझकर लड़ता रहता था।
जब मीटिंग खत्म हुई तो चाय-पानी पीकर मैं और धीर दोनों एकसाथ ही खन्ने वाली बस में बैठ गए। वहाँ बातें करते हुए फिर हमारे सींग आपस में भिड़ गए। आधे घंटे के सफ़र में हम बहुत गरमी खा गए। शब्दों के गरम और तल्ख़ होने के साथ ही आँखें भी निकालने लग पडे। खन्ना से पहले अड्डे पर बस रुकने को हुई तो धीर बड़े गुस्से में बोला, ''अब तू मुझे मारेगा ?''
मेरे मुँह से निकल गया, ''हाँ, तू बस से बाहर निकलकर तो देख।''
मैं उतरा और बस चल पड़ी। मैं शांत हुआ और सोचता रहा कि यह हमें क्या हो गया था। मुझे लगा कि कई बार विचारधारा भी धर्म-सी कट्टर और अंधविश्वास वाली हो जाती है। उन दिनों पश्चिम बंगाल में नक्सली सी.पी.आई. और सी.पी.आई.(एम) के वर्कर एक दूसरे पर भी हमले करने से गुरेज नहीं करते थे। यह हमारे देश के लिए नई बात हुई थी।
कुछ वर्षों बाद पता चला कि धीर डिप्रेसन में है। फिर पता चला, नहीं अब ठीक हो गया है। उधर मैं भी सरकारी नौकरी छोड़कर गाँव में जाकर फिर से खेती करने की बातें किया करता था। मेरे पर भी जुनून का असर दिखाई देने लग पड़ा था। फिर जालंधरियों ने यह लतीफ़ा घुमा दिया कि धीर और प्रेम ने खन्ना में साइकिल मरम्मत की दुकान खोल ली है। प्रेम आए हुए साइकिलों के पंक्चर किए जाता है और धीर लगाये जाता है। वे एक ही पहिये में तीन-तीन पंक्चर लगा कर हटते हैं।
डिप्रेसन में आए धीर को भी मैंने उस वक्त ठीक ही मान लिया था, जब मुझे भी इसकी कसर बढ़ गई थी। मैंने कुलवंत सिंह विरक से अपनी बिगड़ी मानसिक हालत की बात की तो वह बोला, ''चल, हम भी डा. नेकी को मिल आते हैं।'' हमने अमृतसर के अस्पताल में डा. नेकी के चपरासी के हाथ चिट भेजी तो उसने तभी बुला लिए। मरीजों की बाहर बैठी कतार को रोक दिया गया। जो लोग अब्नार्मल हरकतें करते, उन्हें देखकर मुझे बड़ा तरस आता। पर विरक को खीझ उठती। एक जवान लड़का बार बार फर्श पर पटक कर अपना पैर मारता था। उसकी माँ उसे बमुश्किल रोक रही थी। अन्दर डा. नेकी ने अपने चपरासी को कॉफी बनाने का हुक्म दे दिया था। वह स्वयं ही हमसे बातें करने लग पड़ा। इससे पहले कि विरक मेरी मानसिकता के बिगड़ने की बात करता, मैं डा. नेकी को बताने लगा कि मैं विरक को लेकर आया हूँ। इन्हें एक बीमारी बढ़ती जा रही है। ये जब बस में सफ़र करते हैं तो अपने पास खड़ी औरत के कहीं न कीं उंगली लगाने को उतावले हो जाते हैं। कई बार उंगली लग भी जाती है।
विरक बहुत हँसा। बोला, ''असल में, मैं प्रेम को लाया हूँ। यह मालिकों के साथ लड़ता रहता है। गालियाँ बकता रहता है। इसका अपने काम में दिल नहीं लगता। नौकरी छोड़ने को फिरता है।''
फिर मैं हँसता रहा। डा.नेकी ने पता नहीं किसे मरीज समझा। वह भी हँसता रहा। कॉफी पीकर विरक बोला, ''अच्छा, हम चलते हैं।'' जब हम डा. नेकी के कमरे में से बाहर निकले तो विरक उसे गालियाँ बकने लगा, ''ले, ये डॉक्टर बना फिरता है मन का। साला, हमारी मेहमाननवाज़ी करता रहा। बाहर इसके बाप कतार में बैठे इसको रो रहे हैं।''
मुझे लगा कि डा. नेकी ठीक ही होगा। उसका रोज़ का मानसिक रोगियों से वास्ता पड़ता था। हमने पहली बार देखे थे, इसलिए घबरा गए थे। हमें महसूस हुआ था कि ये रोगी बहुत तकलीफ़ में हैं। पर वे होते नहीं। उन्हें दुख-तकलीफ़ का कोई अहसास नहीं होता। मुझे इस बात का अच्छी तरह पता था। क्योंकि मैं खन्ना के अपने एक दोस्त प्रेम सागर को मेंटल अस्पताल में इलाज करवाने के लिए लाया करता था। उसे बिजली लगती थी तो वह बहुत तड़फता था। पर होश में आने पर वह मुझे बताया करता था कि उसे नहीं पता कि क्या हुआ था उसके साथ।
धीर मानसिक तौर पर रोगी बनकर डा. नेकी की दी गई दवाइयाँ खाता रहा था। फिर ठीक भी हो गया था। पर वह पुन: जालंधर नहीं आया। कभी आता तो गुरुद्वारा कलगीधर के कवि सम्मेलन के निमंत्रण पर आता। संग में उसके गुरचरन रामपुरी और सुरजीत रामपुरी हुआ करते। वे गुरुद्वारे में कविताएँ पढ़ते। पैसे लेते और गुरुद्वारे का लंगर छकते। और रात में विश्राम करने के लिए किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश करते, जो उन्हें रात भर के लिए आसरा दे सके। वह ठिकाना खोजकर बड़े खुश होकर, एक दूजे को आँखें मार कर कहते, ''अपना तो टुल्ल लग गया... नया भेडू (बकरा) फंस गया।'' फिर वे लिफाफे खोलकर रुपये गिनते कि गाँव जाकर कितने पैसे बच जाएँगे। इस व्यवहार ने इन प्रगतिवादियों को मंगता बना दिया था।
धीर कबीलदार था। बच्चे छोटे थे, और कोई आमदनी नहीं थी। उसके अन्दर अधिक भूख बोलती थी। तभी उसे पाश ने अपनी डायरी में 'मंगता' लिखा है। एक बार मेरे मित्र प्रेम सिंह चट्ठे ने कहानी गोष्ठी करवाई। मैंने कइयों को पैसे देने का वायदा भी किया था। गोष्ठी दो दिन और एक रात चली। जब दूसरे दिन लेखक विदा होने लगे तो मैंने कइयों को बन्द लिफाफे पकड़ाए। इन लिफाफों में दो दो सौ रुपये थे। धीर को लिफाफा दिया तो उसने कहा, ''देख, मेरा और कोई साधन नहीं। मुझे एक और दे।'' मैंने एक लिफाफा और दे दिया। मुझे देना अच्छा लगा, पर उसका मांगना खराब।
फिर हमारी मुलाकात किसी पंजाबी कान्फ्रेंस पर लुधियाना में हुई। हम फिर भिड़ गए। वह रूठकर दूर चला गया। फिर कभी मेरे साथ बात नहीं की। फिर उसके मंगते स्वभाव के कारण तीन संस्थाओं से उसे वज़ीफे मिलने लगे। यह कोई खराब बात नहीं थी। उसने 70 साल पंजाबी साहित्य के लिए काम किया था। वह हकदार था मान-सम्मानों का। वह खाता-पीता होकर भी उसी जोश और होश के साथ कविताएँ और कहानियाँ लिखता रहा।
एक बार खालसा कालेज, जालंधर में कहानी गोष्ठी हुई। धीर छड़ी और निंदर घुग्गियाणवीं के कंधे का सहारा लेकर आया। मैं उसे कहना चाहता था कि बड़े भाई, अब तो गुस्सा छोड़ दे। अब हम दोनों बूढ़े हो गए हैं। पर जब वह मेरी तरफ आने लगा तो निंदर ने उससे कहा, ''वो देखो, सामने प्रेम प्रकाश खड़ा है।'' इस पर धीर ने कहा, ''एक तरफ होकर निकल चल।''
धीर सच्चा इंसान था। उसका ईमान कभी नहीं डोला। आतंकवाद के समय भी नहीं। जब सेखों, कंवल और दलीप कौर टिवाणा जैसे डोल गए थे। जवानी के समय उसका उंगली खड़ी करके बात करने का जो अंदाज था, वह मरते दम तक कायम रहा। वह सच्चा 'नर' लेखक था- कलम का सिपाही।
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प्रेम प्रकाश
पंजाबी के सुपरिचित कथाकार
संपर्क : 593, मोता सिंह नगर,
जालंधर (पंजाब)
मोबाइल : 094632-20319

2 टिप्पणियाँ:

Pran Sharma 6 जुलाई 2010 को 11:22 pm बजे  

Santokh Singh Dheer par Prem
Prakash ne achchha likha hai.
Lekin unke baare mein likhe ye
antim panktiyan mujhe " bhartee"
kee lagtee hain -" dheer sachcha
insaan tha .uskaa eemaan kabhee
nahin dolaa ". Paese ke peechhe
bhaagne waale mein sachaaee aur
eemaan kahan?
jo rekhaa chitra Manto,
Upendra Nath Ashk, Devendra Sayaarthee, Krishna Chandra likh
gaye hain ,unkaa jawaab nahin.
Roop Singh Chandel bhee achchhe
rekha chitra likh rahe hain.

रूपसिंह चन्देल 12 जुलाई 2010 को 9:51 am बजे  

अच्छा संस्मरण है, लेकिन पंजाबी लेखकों के साथ कुछ गड़बड़ है. वे संस्मरण और रेखाचित्र को अलग नहीं कर पा रहे. बल्कि शायद वे संस्मरण को ही रेखाचित्र कहने लगे हैं. जबकि वह बिल्कुल ही भिन्न विधा है. धीर पर यह रचना भी संस्मरण ही है.

चन्देल

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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शुभम प्रकाशन, एन-10, उलधनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032, मूल्य : 120 रुपये

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव

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यूनीस्टार बुक्स प्रायवेट लि0, एस सी ओ, 26-27, सेक्टर 31-ए, चण्डीगढ़-160022, मूल्य : 400 रुपये

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव
नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्या नगर सोसायटी, पटपड़गंज, दिल्ली-110032, मूल्य : 150 रुपये

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह) संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह)  संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नेहरू भवन, 5, इंस्टीट्यूशनल एरिया, वसंत कुंज, फेज-2, नई दिल्ली-110070, मूल्य :60 रुपये।

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, वर्ष 1998, 2004, मूल्य :35 रुपये

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-1100-6, मूल्य : 125 रुपये

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

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'अनुवाद घर'

समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

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