संपादकीय

>> गुरुवार, 1 मार्च 2012




विश्व पुस्तक मेला 2012 और किताबों के प्रेमी…


हर दो वर्ष बाद नई दिल्ली के प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेले का आयोजन होता है। यह आयोजन नेशनल बुक ट्र्स्ट की ओर से होता है। इस वर्ष 2012 में भी यह मेला अपनी शानो-शौकत से 25 फरवरी 2012 को आरम्भ हुआ जिसे 4 मार्च 2012 तक चलना है। इन नौ दिनों में दूर दराज से पुस्तक प्रेमी इस मेले में आते हैं और हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की पुस्तकों के साथ-साथ विश्व की अन्य भाषाओं की पुस्तकों के बारे में भी जानते हैं, पुस्तकों को छूकर रोमांचित होते हैं, मनपसंद की पुस्तकें खरीद कर खुश होते हैं, बच्चों की ढेरों किताबे हिंदी, अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में उपलब्ध होती हैं। नई पुस्तकों के विमोचन, सांस्कृतिक आयोजन, सेमिनार, गोष्टियाँ भी इस पुस्तक मेले का अभिन्न अंग होती हैं। पुस्तकों के बहाने नये-पुराने, परिचित-अपरिचित लेखन मित्रों से मिलना-मिलाना भी हो जाता है। नि:संदेह यह मेला हमें पुस्तकों से ही नहीं, हमें भी एक-दूसरे से मिलाता है। मेले की भीड़ दर्शाती है कि पुस्तक प्रेमियों की कमी नहीं हैं। उन्हें बस अच्छी और सस्ती पुस्तकें चाहिएँ।
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इस मेले में पंजाबी प्रकाशकों का प्रतिनिधित्व बहुत कम दिखाई दिया। ले-देकर चार-पांच प्रकाशक ही दिखाई दिए। नवयुग, आरसी, मनप्रीत, पंजाबी अकादमी आदि। भाषा विभाग का प्रकाशन, चेतना प्रकाशन, लोकगीत प्रकाशन आदि कहीं नहीं दिखे।
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इस अंक में ‘पंजाबी कहानी : आज तक’ के अन्तर्गत पंजाबी के प्रख्यात लेखक संतसिंह सेखों की बाल-मनोविज्ञान पर केंद्रित चर्चित कहानी ‘पेमी के बच्चे’, ‘पंजाबी कहानी : नये हस्ताक्षर’ के अन्तर्गत सुखजीत की कहानी ‘बर्फ़’ प्रकाशित कर रहे हैं। ‘कथा पंजाब’ में ‘आत्मकथा/स्व-जीवनी’ के अन्तर्गत पहली बार पंजाबी के वरिष्ठ लेखक प्रेम प्रकाश की आत्मकथा ‘आत्ममाया’ को धारावाहिक रूप से प्रकाशन प्रारंभ कर रहे हैं। इसके साथ ही आप पढ़ेंगे- धारावाहिक रूप से शुरू किए गए बलबीर मोमी के उपन्यास ‘पीला गुलाब’ की अगली किस्त…
आप के सुझावों, आपकी प्रतिक्रियाओं की हमें प्रतीक्षा रहेगी…
सुभाष नीरव

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पंजाबी कहानी : आज तक




पंजाबी कहानी : आज तक(7)


पेमी के बच्चे
संत सिंह सेखों
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

बीसेक साल पहले की बात है। मैं सात बरस का था और मेरी बड़ी बहन ग्यारह साल की। हमारा खेत घर से कोई मील भर की दूरी पर था। बीचोंबीच एक बड़ी सड़क गुज़रती थी जिस पर पठानों, कबाइलियों और परदेसियों का आना-जाना बहुत लगा रहता था। हम सब बच्चे जिन्हें कबाइलियों, पठानों से घर बैठे भी डर लगता था, इस सड़क पर किसी सयाने व्यक्ति के बग़ैर आते-जाते बहुत भय खाते थे। पर मुसीबत यह थी कि दिन में एक-दो बार हमें खेत पर बापू के साथ-साथ खेत-मजूरों की रोटी पहुँचाने के लिए अवश्य जाना पड़ता था और हर रोज़ हमारी दशा एक दुर्गम घाटी में से गुज़रने जैसी होती थी।
आमतौर पर हम घर से तो हिम्मत करके अकेले ही चल पड़ते थे, परन्तु जब सड़क दो तीन फर्लांग की दूरी पर रह जाती तो रजबहे को पार करते समय रुक जाने वाले मेमनों की तरह खड़े होकर इधर-उधर देखने लगते ताकि गाँव आने-जाने वाले किसी सयाने व्यक्ति की शरण लेकर हम इस भय-सागर को पार करने में सफल हो जाएँ।
हमें धार्मिक शिक्षा भी कुछ इस प्रकार की मिल रही थी कि ऐसे भय हमारे स्वभाव का हिस्सा बन गए थे। प्रतिदिन संध्या के समय हम घर पर बड़ों से स्वर्ग-नरक की कहानियाँ सुना करते। स्वर्ग तो हमें खेल के अलावा और कहीं कम ही प्राप्त होता, पर हर स्थान पर नरक अनगिनत मिलते। सबसे बड़ा नरक मदरसा था और अगर उससे किसी दिन छूट जाते तो खेत पर रोटी देने जाने का नरक सामने आ जाता। गरज यह कि हमारे अनजाने रास्ते के हर मोड़ पर नरक घात लगाए खड़ा होता। शायद, इस सड़क का भय-सागर लांघने के कारण हमें खेत की ओर जाना नरक लगता था या खेत पर रोटी ले जाते समय इस नरक को पार करना पड़ता था इसलिए यह हमें भय-सागर दिखाई देता था, मैं इस संबंध में यकीन से कुछ नहीं कह सकता। यह मुझे पता है कि खेत स्वर्ग था और रोटी ले जाने की परेशानी नरक और वह बड़ी सड़क - बीच में पड़ने वाला भय-सागर !
जाड़ों के दिन थे। हम दोनों बहन-भाई दोपहर को रोटी लेकर खेत की ओर चल पड़े। सुहानी धूप थी और हम चलते हुए भी मानो जाड़े की धूप में नींद की गरमाई ले रहे थे। लेकिन, दिल में सड़क पार करने का डर चूहे की तरह हमें कुतर रहा था।
हमने अपने भय को दबाने का एक आम तरीका प्रयोग में लाना चाहा। बहन मुझे एक कहानी सुनाने लगी, ''एक राजा था। उसकी रानी मर गई। मरते समय रानी ने राजा से कहा, तुम मुझे एक वचन दो। राजा ने पूछा - क्या ?''
मैंने कहानी की ओर से ध्यान हटा कर पीछे गाँव की ओर देखा कि कहीं कोई आदमी हमारे रास्ते से ही जाने वाला तो नहीं आ रहा।
''तू सुन नहीं रहा, भाई,'' बहन ने मेरे कंधे को हिला कर कहा।
''नहीं, मैं सुन रहा हूँ।'' मैंने भाइयों वाली गुस्ताखी के साथ जवाब दिया।
''अच्छा, जब वह रानी मरने लगी तो उसने राजा को बुला कर कहा - तुम मुझसे इकरार करो। राजा ने पूछा - क्या ? रानी ने कहा - तुम दूसरा ब्याह मत करना। सच, मैं बताना भूल गई, रानी के दो बेटे और एक लड़की थी।''
हमें राजा और रानी माता-पिता जैसे ही लगते थे। अगर हमारी माँ मरने लगे और हमारे पिता को यही वचन देने के लिए कहे, यह ख़याल हमारे अवचेतन में काम कर रहा होगा। मुझे वह लड़की अपनी बहन लगी और उसका बेटा, मैं स्वयं।
मेरी बहन गाँव की ओर देख रही थी। ''सुना भी आगे...'' मैंने उसे पहले की तरह ही सख्त लहजे में कहा।
''रानी ने कहा - मेरे बेटों और बेटी को सौतेली माँ दु:ख देगी।'' बहन ने बहुत मीठे ढंग से एक औरत की तरह कहा, ''इसलिए उसने राजा से यह वचन मांगा। राजा ने कहा- अच्छा, मैं वचन देता हूँ।''
जैसे राजा यह इकरार न करता तो रानी मरने से इन्कार कर देती।
भले ही हम दोनों को पता था कि दिन में कहानियाँ सुनाने से राही राह भूल जाते हैं, हमने एक दूसरे को यह बात स्मरण नहीं कराई और इस जानकारी का अपने दिल और दिमाग पर असर नहीं होने दिया।
''पर, राजा ने जल्दी ही दूसरा विवाह कर लिया।''
''हूँ।''
पिछले मोड़ पर हमें एक आदमी आता हुआ दिखाई दिया। हमने चैन का साँस लिया और उसे अपने साथ मिलाने के लिए रुक कर खड़े हो गए। हमारी कहानी भी रुक गई। लेकिन वह आदमी किसी दूसरी ओर जा रहा था, हमारी तरफ नहीं आया।
जिस उद्देश्य को पूरा करने के लिए हमने इस कहानी का पाखंड रचा था, वह पूरा नहीं हो सका। हमारा विचार था कि कहानी में खो कर हम अनायास ही सड़क के पार हो जाएँगे। पर अब जब सड़क कोई एक फर्लांग दूर रह गई तो हमारी कहानी भी ठिठक कर खड़ी हो गई और किसी सयाने साथी के आ मिलने की आशा भी टूट गई। हम दोनों सहमकर खड़े हो गए।
दस बीस कदम और चले तो हमारा डर और बढ़ गया। सड़क पर एक तरफ काले सूफ की बास्कट और पठानों जैसी ढीली-खुली सलवार पहने एक आदमी लेटा था।
''वह देख, पठान लेटा हुआ है।'' मैंने कहा।
उस आदमी ने करवट बदली।
''वह तो हिल रहा है, लगता है, जाग रहा है।'' मेरी बहन ने सहमकर कहा, ''अब क्या करें ?''
''यह हमें पकड़ लेगा ?''
''और क्या।'' उसने जवाब दिया।
हम रात को घर से बाहर तो कम ही निकलते थे, पर हमने यह सुना हुआ था कि अगर डर लगे तो वाहेगुरू का नाम लेना चाहिए। ऐसा करने से डर दूर हो जाता है। हमारी माँ हमें हमारे मामा की बात सुनाया करती थी। एक बार हमारे मामा और एक ब्राह्मण कहीं रात में किसी गाँव के श्मसान के पास से गुज़र रहे थे कि उनके पैरों पर बड़े-बड़े दहकते हुए अंगारे गिरने लगे। ब्राह्मण ने हमारे मामा से पूछा, ''क्या करें ?'' उन्होंने कहा, ''पंडित जी! वाहेगुरू का नाम लो।'' हमारा मामा वाहेगुरू-वाहेगुरू करने लगा और पंडित राम-राम। अंगारे गिरते तो रहे, पर उनसे दूर। हमें इस बात की वजह से अपने मामा पर बड़ा गर्व था।
''हम भी वाहेगुरू करें।''
''वाहेगुरू से तो भूत-प्रेत ही डरते हैं, आदमी नहीं डरते।'' मेरी बहन ने कहा।
मैं मान गया। सड़क के किनारे लेटा हुआ पठान तो आदमी था, वह रब से क्यों डरेगा भला ?
''तो अब फिर क्या करें ?''
हम पाँच-सात मिनट तक भयभीत-से खड़े रहे। अभी भी हमारे दिलों को यह आस थी कि कोई आदमी इस पठान को डराने के लिए हमारे संग आ मिलेगा। पर, हमें यह आशा पूरी होती दिखाई न दी।
हम एक-दूजे के चेहरे देखते रहे। लेकिन, ऐसे समय में हम उस वक्त एक-दूसरे के चेहरों में क्या ढूँढ़ रहे थे ? कुछ देर बाद मेरा रोना निकल गया।
मेरी बहन ने दुपट्टे के एक छोर से मेरे आँसू पोंछते हुए कहा, ''न भाई, रोता क्यूँ है ? हम यहीं खड़े रहते हैं। अभी गाँव से कोई न कोई आ जाएगा।''
हमने कुछ कदम आगे बढ़ाये, फिर खड़े हो गए और फिर वैसे ही पाँच कदम पीछे लौट आए।
आख़िर, मेरी बहन ने कुछ सोचकर कहा, ''हम कहेंगे, हम तो पेमी के बच्चे हैं, हमें न पकड़।''
उसके मुँह से 'पेमी' शब्द बहुत मीठा निकला करता था और अब जब वह मेरी ओर झुक कर मुझे और अपने आप को दिलासा दे रही थी, वह स्वयं पेमी बनी हुई थी।
मेरे दिल को ढाढ़स मिली। पठान को जब पता चलेगा कि हम पेमी के बच्चे हैं तो वह हमें कुछ नहीं करेगा, पकड़ेगा भी नहीं।
जैसे धकधक करता हुआ हृदय और काँपते हुए पैर 'वाहेगुरू-वाहेगुरू' करते हुए श्मसान भूमि में से गुज़र जाते हैं, जैसे हिंदू गऊ की पूँछ पकड़कर भव-सागर तर जाता है, हम दोनों पेमी का नाम लेकर सड़क पार कर गए। पठान उसी तरह वहीं पड़ा रहा।

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संतसिंह सेखों (1907 - 1997)
पंजाबी की प्रथम कथा पीढ़ी के प्रारंभिक कथाकारों में संतसिंह सेखों का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। इनका जन्म 1907 में ज़िला-लायलपुर (अब पाकिस्तमान में) में हुआ। ये अंग्रेजी और अर्थशास्त्र में एम.ए. तक शिक्षा ग्रहण करके अध्यापन में आ गए थे। इन्हें पंजाबी 'साहित्य का बाबा बोहड़' भी कहा जाता है क्योंकि इस लेखक ने पंजाबी का एक बहु-आयामी लेखक होने के साथ-साथ पंजाबी आलोचना, पंजाबी नाटक और पंजाबी उपन्यास के क्षेत्र में एक अग्रज लेखक की ऐतिहासिक भूमिका अदा की है। पंजाबी में संतसिंह सेखों पहले ऐसे लेखक हैं जिन्होंने पंजाबी कहानी को यथार्थवादी दृष्टि दी। अपनी पहली दो कहानियों -'भत्ता' और 'कीटां अन्दर कीट' द्वारा इन्होंने 'आधुनिक पंजाबी कहानी' की नींव रखी। इनके कहानी संग्रहों के नाम इस प्रकार हैं - 'समाचार' (1943), 'कामे ते योधे'(1948), 'अद्धी वाट'(1951), 'तीजा पहर'(1956), 'सियाणपां'(1980)। 'मींह जावे, हनेरी जावे', 'मुड़ विधवा, 'पेमी दे नियाणे', 'हलवाह, इनकी बहु-चर्चित और यादगार कहानियाँ हैं। नाटक 'मित्तर पियारा' के लिए इन्हें साहित्य अकादमी, दिल्ली से भी सम्मानित किया गया।

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पंजाबी कहानी : नए हस्ताक्षर



पंजाबी कहानी : नए हस्ताक्षर(4)

बर्फ़
सुखजीत
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

उसे अपनी गलती का अहसास हो गया था। जीप का इंजन हिचकोले खाने लगा था, जैसे एक या दो नोजल स्टिक हो गयी हों। चढ़ाई पर चढ़ने और इंजन के बार-बार बन्द हो जाने के कारण जीप रुक-रुक जा रही थी। कोई वश न चलता देख उसने गाड़ी को एक किनारे लगा इंजन बन्द कर दिया और स्टेयरिंग-व्हील के ऊपर एक मुक्का मारते हुए बुदबुदाया, ''व्हॉट नानसेंस!'' उसके बराबर बैठी उससे बरस भर बड़ी उसकी बहन बरखा ने उसकी ओर झुँझलाकर देखा और कहा, '' होटल वालों ने कहा भी था कि मौसम खराब है।''
''पर कपिल के रिसेप्शन में पहुँचना भी तो ज़रूरी था।'' मनीष ने जैसे सफाई देते हुए कहा।
''आखिर हुआ क्या है अब?'' बरखा ने प्रश्नसूचक नज़रों से उसकी ओर देखा।
''ठंड के कारण डीजल जम रहा है।'' कहते हुए मनीष ने निचला होंठ दाँतों तले दबाकर आँखें सिकोड़ी और सोचने के अन्दाज में सिर मारने लगा। हवा बन्द हो गयी थी। वातावरण में धुन्ध-सी परस रही थी जिससे लगता था कि बर्फ़ पड़नी शुरू हो रही है। अँधेरा गाढ़ा हो गया था जिसे जीप की रोशनी चीरने का प्रयत्न कर रही थी। मनीष ने डैश-बोर्ड में से टॉर्च निकाली और टूल-बाक्स में से पेचकश और चाभियाँ निकालकर गाड़ी से बाहर हो गया।
बोनट उठाकर फिल्टरों की हवा निकालते-निकालते वह सुन्न हो गया। जब वह फिर गाड़ी में बैठा, उसके दाँत बज रहे थे और हाथ काँप रहे थे। हीटर लगाकर उसने इंजर गर्म किया, पर इतनी जद्दोजहद के बाद स्टार्ट हुआ इंजन उसी समय बन्द हो गया, जब उसने गियर में डालकर गाड़ी को आगे बढ़ाना चाहा। उस वक्त तो उसकी जान ही निकल गयी थी, जब जरा-सा हिली हुई गाड़ी ने ब्रेक लगने के बावजूद पीछे की ओर सरकना शुरू कर दिया था। बरखा के चीख मारते हुए लपककर स्टेयरिंग पकड़ लेने से वह बरखा की तरफ घूम गया था और गाड़ी जिस तरफ बरखा बैठी थी, उस तरफ के पहाड़ से लगकर रुक गयी। पहाड़ों पर की बर्फ़ की इस फिसलन से अनजान था मनीष।
''मनीष!'' पुकारते हुए बरखा ने अन्दर की लाइट जलायी तो देखा कि इस अनहोनी दुर्घटना ने मनीष का रंग पीला जर्द कर दिया था। वह पसीना-पसीना और बेदम हुआ पड़ा था। लगभग यही हाल बरखा का था।
लेकिन, बड़ी बहन होने के कारण या मेडिकल की छात्रा होने के कारण उसने हौसले के साथ मनीष का कन्धा थपथपाया, ''मनीष...ओ मनीष...।''
मनीष ने स्वयं को सम्भाला। अपने बालों में उंगलियाँ फिराते हुए उसने सिर को झटका और एक लम्बी साँस भरते हुए कहा, ''बच गये दीदी!''
''हाँ, शुक्र मना कि इस ओर पहाड़ है, अगर खाई होती...।'' रोकते-रोकते भी बरखा का बदन काँप उठा।
''कपिल के विवाह के रिसेप्शन में जाने से तो रह गये।'' मनीष ने जैसे अपनी हार स्वीकार करते हुए अपने आप से कहा।
''उन्होंने भी तो कमाल ही कर दिया, विवाह के लिए ऐसी जगह चुनी?'' बरखा ने उन्हें ही दोषी ठहराया।
''इसी को एडवेंचर कहते हैं दीदी!'' चहकते हुए मनीष ने माहौल को हल्का करना चाहा।
''एडवेंचर...? हुंह...!'' बरखा ने नाक चढ़ाते हुए कहा, ''थोड़ी देर पहले देखा नहीं था। और सुन, सुना है बर्फ़ पड़ने के बाद रोड कई-कई दिन तक ब्लॉक रहती है।''
''ओ, डोंट वरी दीदी, सवेरे देखा जायेगा।'' मनीष अन्दर से डरा हुआ होने के बावजूद दिलेरी दिखा रहा था, शायद मर्द होने के कारण।
''कोई उन्नीस-बीस हो गयी तो सारा एडवेंचर धरा रह जायेगा।'' बरखा ने कहा और ठंड के कारण काँप उठी। फिर उसने पिछले सीट पर से कम्बल उठाये और उनकी तहें खोलने लगी। मनीष सोच रहा था कि कम्बल से ठंड तो दूर हो जाये शायद मगर भय? उसने सीटी बजाते हुए बैग में से रम की बोतल निकाल ली।
''मनीष यह क्या?'' बरखा ने टोका तो मनीष हैरान रह गया। बरखा जानती थी कि मनीष डैडी के संग अक्सर एक-दो पैग ले लेता था। वैसे भी वह नेवी के लिए सलेक्ट हो चुका था। फिर, बरखा स्वयं भी मॉडर्न लड़की थी। डॉक्टरी का आखिरी साल था उसका। उनके दादा-दादी अवश्य पुराने खयालों के थे पर, घर उनका पूरा आधुनिक था।
बरखा के टोकने पर मनीष ने हैरानी प्रकट करते हुए कहा, ''व्हॉट दीदी...क्यूँ?''
''देख मनीष, '' बरखा उसे समझाती हुई बोली, ''घर की बात और है, यहाँ हम फँस गये हैं बुरी तरह। पीकर अगर तू सो गया तो मैं क्या करूँगी?''
''फिर तो तू भी एक पैग लगा ले दीदी।'' मनीष ने शरारत में भरकर कहा तो बरखा उसे घूरते हुए बोली, ''शर्म तो नहीं आती?''
''बहुत आती है, दीदी,'' मनीष ने मुँह लटकाकर नाटक करते हुए कहा, ''पर ठंड को देखकर चली जाती है।''
बरखा कुछ कहने ही वाली थी कि मनीष की नजर जीप से बाहर चली गयी, ''दीदी...ई...'' वह चहक उठा था खुशी में, ''बाहर देखो दीदी!''
बाहर देखा तो खुद-ब-खुद बरखा के मुख से भी 'वाह' निकल गयी। हैड-लाइट के प्रकाश में जो कुछ देर पहले पानी की बूंद-सी प्रतीत होती थी, वह रुई के फाहों की भाँति धरती पर बिछ रही थी। सफेद, नरम से बर्फ़ के रेशमी फाहे रोशनी में चमकते और सड़क को दूधिया, और दूधिया बना देते। एक बार तो वे सब कुछ भूलकर स्नो-फॉल के आनन्द में खो-से गये।
यह उनका पहला अवसर था स्नो-फॉल देखने का। मनीष के दोस्त कपिल ने अपने विवाह का रिसेप्शन कुफरी में रखा था। उसने जोर देकर कहा था, ''ज़रूर आना मनीष। इस बहाने स्नो-फॉल भी देख लोगे।''
लेकिन, वे नहीं जानते थे कि स्नो-फॉल उनका स्वागत कुफरी से पहले ही करेगा और वह भी इस तरह कि वे उसे उम्रभर भूल न सकेंगे।
मनीष बोतल को भूला नहीं था। उसने कम्बल को ठीक से ऊपर लिया। बरखा को सामने गिर रही बर्फ़ के बारे में बताते हुए बातों में लगाकर कम्बल के बीच ही ढक्कन मरोड़ दिया। बरखा सामने गिर रही बर्फ़ में खोयी हुई थी। मनीष ने यह कहते हुए अन्दर की लाइट बुझा दी कि इस तरह हम अन्दर बैठे दिखाई नहीं देखें। लेकिन, बरखा ने सामने देखते हुए उसी गम्भीरता से कहा, ''पर तू नीट न पीना।''
मनीष चौंका, ''दीदी !'' उसने हैरानी में भरकर कहा तो बरखा बोली, ''हम डॉक्टर होते हैं भाई साहब !''
''फिर, डॉक्टर साहिबा, यह भी बता दो कि यहाँ पानी कहाँ है ?'' मनीष हँसकर बोला।
''वाह रे बुद्धू !'' बरखा उसका मजाक उड़ाते हुए बोली, ''कुदरत ने जो इतनी सारी बर्फ़ दी है, वह दिखाई नहीं देती ?''
मनीष ने कम्बल के अन्दर से हाथ निकालकर माथे पर मारा और लाइट जला दी। वह खाली मग लेकर गाड़ी से उतर गया। जब वह मग्गे में बर्फ़ डालकर अन्दर आया तो काँप रहा था मगर ताजी बर्फ़ के स्पर्श से खुश भी नज़र आ रहा था। बरखा ने मग पकड़ते हुए बर्फ़ को छुआ और आनंदित हो उठी। फिर, जब मग में बर्फ़ के ऊपर मनीष रम उंडेल रहा था तो बड़े रहस्यमयी अन्दाज में कहा बरखा ने, ''ऑन द रॉक्स !''
मनीष ने एक पल हाथ रोककर बरखा की ओर देखा- कुछ और ही तरह से- और बोला, ''तेरा तर्जुबा कमाल है दीदी।''
''व्हॉट ?'' बरखा ने बनावटी गुस्सा दिखाते हुए घूरा तो जीभ निकालकर, कन्धे उचकाकर मनीष ने 'सॉरी' कहा।
मनीष को एकाएक जैसे कुछ याद हो आया। उसने हैड-लाइट बुझा दी और बोला, ''ध्यान ही नहीं रहा। ऐसे तो सवेरे गाड़ी स्टार्ट ही नहीं होगी।''
''वैसे भी यह कहाँ स्टार्ट होने वाली है।'' बरखा निराश होकर बोली।
''इतना नाउम्मीद न हो, दीदी।'' मनीष को कुछ नशा हो गया था और उसका बात करने का अन्दाज बदल गया था। वह एक बार फिर जीप से उतरकर मग में बर्फ़ ले आया। इस बार उसे इतनी ठंड नहीं लगी थी। वह कुछ देर बाहर घूमा भी था। उसके कोट पर पड़ी बर्फ़ को अपने हाथों में भरकर बरखा का भी बड़ा मन हुआ था, बर्फ़ में घूमने का पर, वह साहस न कर सकी थी।
बाहर की लाइट बन्द हुई तो एकदम अँधेरा छा गया। सामने शीशे में उनके अपने चेहरों के प्रतिबिम्ब दिखाई दे रहे थे, बड़े-बड़े। बरखा को एकाएक डर लगने लगा तो उसने घबराकर कहा, ''लाइट जला दे, मनीष।''
मनीष ने एक-दो सेकेंड सोचा, फिर लाइट जला दी। अन्दर की भी। फिर उसने बरखा की ओर देखकर पूछा, ''क्या बात है, दीदी ?''
बरखा ने उत्तर देने की बजाय प्रश्न ही किया, ''यहाँ जंगली जानवर तो होते होंगे?''
''शायद।'' मनीष ने कहा तो वह भयभीत-सी बोली, '' अगर कोई शेर-भेड़िया आ गया तो हम क्या करेंगे ?''
''हमने क्या करना है, दीदी, जो करना होगा, शेर-भेड़िया ही करेंगे।'' कहकर मनीष जोर-जोर से हँसा। उसकी हँसी पर नशा हावी था। मगर बरखा इस मजाक पर भी हँस न सकी।
''ऐसे तो रात नहीं बीतेगी, दीदी।''
''फिर ?''
''पहले तू सो जा दीदी, मैं जागता हूँ।''
''नहीं, मुझे नींद नहीं आयेगी।''
''फिर मैं सो जाता हूँ पहले।''
''नहीं, मुझे डर लगता है।''
''फिर दोनों सो जाते हैं।'' नशा होने के कारण मनीष बात की कड़ी टूटने नहीं दे रहा था।
''ना बाबा, तू बैठा रह इसी तरह लाइट बुझा दे अन्दर की, डर लगता है। इतनी ठंड में अगर सो गये तो उठेंगे कैसे ?''
''वाह ! यहाँ के लोग तो फिर मर ही जायें।'' मनीष बोला, ''सो जाने से रात जल्दी बीतेगी, दीदी।''
कुछ क्षण चुप रही बरखा जैसे कोई हिसाब लगा रही हो। फिर बोली, ''तो फिर एक आइडिया है।'' उसने जीप के पिछले हिस्से की ओर देखा, ''हम पीछे की सीटें उतारकर फर्श पर रख लेते हैं। वहाँ हम टाँगे सिकोड़कर पड़ जायेंगे। कम्बल दोनों जोड़कर ऊपर ले लेंगे।''
''देख लो।'' मनीष ने कुछ झिझक प्रकट की।
''देखना क्या है, ऐसे तो मर जायेंगे ठंड से।''
कुछ देर तक चुप्पी छायी रही। बरखा मनीष की ओर देख रही थी, फिर बोली, ''ठीक नहीं?''
''ठीक ही है, एज यू लाइक दीदी।'' मनीष ने लापरवाही दिखायी। दोनों उठे। पिछला सामान ठीक करके सीटें टिकायीं। लाइट बुझाकर और फँसकर लेटते हुए दोनों कम्बल मिलाकर ऊपर ले लिये। दोनों ने एक-दूजे की ओर पीठ की हुई थी।
जगह बहुत कम थी। वे सिकुड़े हुए थे और अपने आपको एक-दूजे के स्पर्श से बचा रहे थे।
'पर क्यों ?' बरखा ने सोचा, 'हम एक-दूजे की ओर पीठ किये हुए सो रहे हैं ? हम बहन-भाई हैं। बचपन से इकट्ठे सोते रहे हैं। एक-दूसरे पर बाँहें फैलाकर। पर अब ? अब शायद हम बड़े हो गये हैं।'
''कितनी ठंड है!'' वह काँपती हुई बुदबुदायी।
''हाँ।'' मनीष ने हुँकारा भरा और सोचा कि इतनी ठंड में कोई भी सुन्न होकर मर सकता है।
''हमें ठंड के बारे में नहीं सोचना चाहिए।'' मनीष ने बरखा को सुनाते हुए अपने आप से कहा।
''हाँ, सिर्फ नींद के बारे में सोचना चाहिए।'' बरखा ने कहा और मुस्कुरायी।
लेकिन, मनीष को ज्यूँ-ज्यूँ नशा हो रहा था और गरमाहट मिल रही थी, त्यूँ-त्यूँ पता नहीं कैसे वह यूनीवर्सिटी वाली नीना के बारे में सोचने लग पड़ा था। जिमनास्टिक की यूनीफॉर्म वाला उसका जिस्म मनीष के खयालों में घूमने लग पड़ा था जिसे देखकर वह रोमांचित हो जाया करता था।
'मुझे पीनी नहीं चाहिए थी।' उसने परेशान होकर सोचा, 'पहले तो मुझे शिमला से चलना ही नहीं चाहिए था।' उसे गलती-दर-गलती का अहसास हो रहा था, 'फिर मुझे पीकर बरखा के साथ इस तरह लेटना नहीं चाहिए था।'
'मगर क्यों ?' उसने सारे खयालों को झटकते हुए सोचा, 'क्यों ? बरखा मेरी दीदी है, मैं ऐसा क्यों सोच रहा हूँ ? मुझे नींद के बारे में सोचना चाहिए।' और उसने सारे खयाल एक तरफ करके सिर्फ सोने के खयाल से शरीर को ढीला छोड़ दिया।
ज्यों ही मनीष के बदन ने बरखा के बदन को छुआ तो वह और अधिक सिकुड़ गयी। वह भी ऐसा ही सोच रही थी कि जिस भेड़िये की हम बातें कर रहे थे, वह तो हमारे मन में बैठा है शायद। वह सोच रही थी, 'मैंने मनीष को पीने से रोका क्यों नहीं?'
'पर ऐसे उसे ठंड कम लगेगी।'
'तो फिर मैं भी... ?'
'नहीं, शायद हाँ...।'
'पर मैं ऐसा गलत-सलत सोच ही क्यों रही हूँ ?'
'नहीं, मैं तो नार्मल हूँ।'
'फिर, सिकुड़ क्यों रही हूँ मैं ?'
और उसने भी अपना शरीर ढीला छोड़ दिया। उनके शरीर एक-दूसरे से पूरी तरह सट गये। थोड़ी देर बाद वे दोनों यूँ प्रकट करने लगे जैसे गहरी नींद में हों।
एक-दूसरे से लगी पीठें गरम हो रही थीं। यह जानते हुए भी कि दोनों जाग रहे हैं, वे सोये होने का नाटक कर रहे थे। जगह बहुत कम थी और ठंड बहुत ज्यादा। वे एक-दूसरे के जितना नजदीक थे, नींद उनसे उतनी ही दूर थी। अब शायद वे बेखबर थे- शिमला और कुफरी के बीच बंद हो गयी जीप से, देवदार के ऊँचे-ऊँचे दरख्तों से, बर्फ़ से सफेद हो रही सड़क से और सुन्न कर देने वाली ठंड से !
मनीष ने नीना के विषय में सोच-सोचकर अपना बुरा हाल कर लिया। उसकी कनपटियों में से सेंक निकलने लगा। उसका मुँह लार से भर उठा। जब उसे अपनी साँस घुटती महसूस हुई तो वह एक झटके के साथ उठ बैठा। बरखा का रोम-रोम काँप रहा था। पिछला दरवाजा खोलकर वह बाहर निकल गया।
बाहर बर्फ़ का गिरना बन्द हो गया था। वह नहीं जानता था कि बर्फ़ गिरने के बाद जब हवा चलती है तो ठंड इतनी बढ़ जाती है। हवा के थपेड़ों ने क्षण भर में ही उसके तप रहे शरीर को सुन्न कर दिया। पेशाब करते हुए वह बर्फ़-सा ठंडा हो गया और उसके दाँत बजने लगे।
जीप का दरवाजा बन्द करके कम्बल में घुसते हुए वह फिर बैठ गया। मन में घुसे चोर का भय अभी निकला नहीं था शायद। उसने बरखा को पुकारा, ''बरखा... ऐ बरखा...'' अपनी आवाज पर वह हैरान रह गया। उसे तो 'दीदी' कहकर बुलाना था। वह तो आज तक दीदी ही कहता आया था। लेकिन, बरखा जान-बूझकर उसी तरह बेखबर-सी पड़ी थी। अगली बार मनीष ने ऊँचे स्वर में पुकारा, ''बरखा... बरखा दीदी !'' बरखा के मुँह से बेहद अलसायी हुई 'हूँ' निकली और उसने नींद में डूबी आवाज में पूछा, ''क्या है?''
''अगर तुम्हें असुविधा हो रही हो तो मैं आगे जाकर पड़ जाऊँ?''
''ओह नो, नहीं, मनीष सो जा तू।'' कहते हुए बरखा ने उसी ओर मुँह कर लिया।
मनीष की कंपकंपी कुछ कम हो गयी थी। उसने बरखा की ओर मुँह कर लेटते हुए कम्बल को अपने इर्द-गिर्द अच्छी तरह खोंस लिया।
बरखा को मनीष का इस तरह बुलाना अच्छा लगा। उसका मन हुआ, वह मनीष की कनपटियों पर अपनी उँगलियाँ फिराये, धीरे-धीरे, जैसे बचपन में फेरा करती थी। उन दिनों तो मनीष कानों के पास इस प्रकार खाज कराये बिना सोता ही नहीं था। यह आदत मनीष को दादी ने डाली थी। तब मनीष और बरखा एक साथ सोया करते थे। एक-दूसरे के बदन पर बाँह रखकर। फिर दादी ने ही बन्द करवा दिया था उनका इकट्ठा सोना। कुछ नहीं समझ पायी थी बरखा उस समय। उस समय वह भी वहीं पर थी जब मम्मी को दादी समझा रही थी, ''देख बहू, सियानों का कहना है कि जवान बेटा-बेटी एक लटैण(शहतीर) के नीचे सोयें तो लटैण टूट जाती है।''
''ठीक है, बेजी।'' मम्मी ने कहा था और हल्का-सा हँस दी थी। इसके बाद वे दोनों इकट्ठे नहीं सोये थे कभी। वैसे बरखा ने पूछा था मम्मी से एक दिन, ''बेजी, यह लटैण क्या होती है और टूट कैसे जाती है ?''
मम्मी ने उसे झिड़ककर चुप करा दिया था।
लेकिन, आज वह समझ गयी थी कि लटैण क्या होती है और... आज वे एक अरसे के बाद यूँ इकट्ठा सो रहे थे। बरखा का जी मचल रहा था कि मनीष उस पर अपनी बाँह रख ले।
''ठंड बहुत बढ़ गयी है,'' वह बुदबुदायी, पर मनीष गहरी नींद में सोये होने का नाटक कर रहा था। बरखा से यह चुप्पी बर्दाश्त नहीं हो रही थी।
''मनीष !'' पहले धीमे स्वर में फिर कुछ ऊँचे स्वर में उसने कहा, ''मनीष...''
मनीष के मन में न जाने क्या था, वह चुपचाप लेटा रहा। बोला नहीं। बरखा का मन उतावला हो उठा। फिर उसे गुस्सा आने लगा। मालूम नहीं कैसा। 'खुद ने तो पी ली और सो गया।'
उसने झटके के साथ पिछला दरवाजा खोला। मनीष भी उठ बैठा था झटके से। मनीष ने बाहर निकल रही बरखा का हाथ थाम लिया।
''छोड़ मुझे, मुझे बाहर जाना है।'' बरखा के स्वर में क्रोध भी था और रुआंसापन भी।
पर दूसरा हाथ बरखा की पीठ पर रखते हुए मनीष ने कहा, ''क्या बात है बरखा, तू तो काँप रही है ?'' उसके अपने स्वर में भी एक कम्पन था।
बरखा के सिर्फ होंठ फड़के, जैसा कहा हो, ''तुम्हे क्या ?''
''बरखा, लगता है, तुम्हें बुखार है।'' मनीष ने उसके माथे पर हाथ रखा।
''शायद।'' बरखा ने कहा और उससे हाथ छुड़ाकर बाहर निकल गयी।
बाहर ठंड बहुत बढ़ गयी थी लेकिन बरखा को ठंड नहीं लग रही थी। उसका मन करता था कि वह सारे कपड़े उतार दे और बर्फ़ पर लेट जाये। बर्फ़ को अपने आलिंगन में भर ले। बर्फ़ की मुट्ठियाँ भर-भरकर अपने अन्दर फेंके।
बर्फ़ में समा जाने की चाहत लिये वह बर्फ़ पर बैठ गयी। बर्फ़ में से एक अजीब-सा सेंक चढ़ने लगा। बर्फ़ में कोई आग थी जो उसके अन्दर भरती जा रही थी। और बर्फ़ की इस आग में उसका तन तप रहा था और मन दहक रहा था।
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सुखजीत
जन्म : 1 अप्रैल 1960,माणेवाल, ज़िला- लुधियाना (पंजाब)
पंजाबी की नई कथा पीढ़ी का बहु चर्चित कथाकार। अपनी शुरूआती कहानियों से ही पंजाबी कथा साहित्य में पहचाना जाने वाला लेखक। एक कहानी संग्रह ‘अंतरा’ (1997) चर्चा का विषय रहा। सुखजीत की कहानियों में निम्न किसानी के संकट और सरोकार पेश हुए हैं, उसने पंजाब में पसर रहे डेरों में फैले अनाचार को भी अपनी कहानियों में बड़ी खूबी से पेश किया है। ‘बर्फ़’, ‘पातशाह’ और ‘हज़ार कहानियों का बाप’ उसकी बहुचर्चित कहानियाँ हैं।
संपर्क : गुरों कालोनी, माछीवाड़ा 1414115, ज़िला- लुधियाना(पंजाब)

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आत्मकथा/स्व-जीवनी


पंजाबी के एक जाने-माने लेखक प्रेम प्रकाश का जन्म ज़िला-लुधियाना के खन्ना शहर में 26 मार्च 1932(सरकारी काग़ज़ों में 7 अप्रैल 1932) को हुआ। यह 'खन्नवी' उपनाम से भी 1955 से 1958 तक लिखते रहे। एम.ए.(उर्दू) तक शिक्षा प्राप्त प्रेम प्रकाश 'रोज़ाना मिलाप' और 'रोज़ाना हिंद समाचार' अख़बारों में पत्रकारिता से जुड़े रहे। 1990 से 2010 तक साहित्यिक पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका 'लकीर' निकालते रहे। लीक से हटकर सोचने और करने में विश्वास रखने वाले इस लेखक को भीड़ का लेखक बनना कतई पसन्द नहीं। अपने एक इंटरव्यू में 'अब अगर कहानी में स्त्री का ज़िक्र न हो तो मेरा पेन नहीं चलता' कहने वाले प्रेम प्रकाश स्त्री-पुरुष के आपसी संबंधों की पेचीदा गांठों को अपनी कहानियों में खोलते रहे हैं। यह पंजाबी के एकमात्र ऐसे सफल लेखक रहे हैं जिसने स्त्री-पुरुष संबंधों और वर्जित रिश्तों की ढेरों कामयाब कहानियाँ पंजाबी साहित्य को दी हैं। इनकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि मनुष्य मन की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर गांठों को पकड़ने में सफल रही हैं।
कहानी संग्रह 'कुझ अणकिहा वी' पर 1992 मे साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त यह लेखक अस्सी वर्ष की उम्र में भी पहले जैसी ऊर्जा और शक्ति से निरंतर लेखनरत हैं। इनके कहानी संग्रह के नाम हैं - 'कच्चघड़े'(1966), 'नमाज़ी'(1971), 'मुक्ति'(1980), 'श्वेताम्बर ने कहा था'(1983), 'प्रेम कहानियाँ'(1986), 'कुझ अनकिहा वी'(1990), 'रंगमंच दे भिख्सू'(1995), 'कथा-अनंत'(समग्र कहानियाँ)(1995), 'सुणदैं ख़लीफ़ा'(2001), 'पदमा दा पैर'(2009)। एक कहानी संग्रह 'डेड लाइन' हिंदी में तथा एक कहानी संग्रह अंग्रेजी में 'द शॉल्डर बैग एंड अदर स्टोरीज़' (2005)भी प्रकाशित। इसके अतिरिक्त एक उपन्यास 'दस्तावेज़' 1990 में। आत्मकथा 'बंदे अंदर बंदे' (1993) तथा 'आत्ममाया'( 2005) में प्रकाशित। कई पुस्तकों का संपादन जिनमें 'चौथी कूट'(1996), 'नाग लोक'(1998),'दास्तान'(1999), 'मुहब्बतां'(2002), 'गंढां'(2003) तथा 'जुगलबंदियां'(2005) प्रमुख हैं। पंजाबी में मौलिक लेखक के साथ साथ ढेरों पुस्तकों का अन्य भाषाओं से पंजाबी में अनुवाद भी किया जिनमें उर्दू के कहानीकार सुरेन्द्र प्रकाश का कहानी संग्रह 'बाज़गोई' का अनुवाद 'मुड़ उही कहाणी', बंगला कहानीकार महाश्वेता देवी की चुनिंदा कहानियाँ, हिंदी से 'बंदी जीवन'- क्रांतिकारी शुचिंदर नाथ सानियाल की आत्मकथा, प्रेमचन्द का उपन्यास 'गोदान', 'निर्मला', सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' तथा काशीनाथ सिंह की चुनिंदा कहानियाँ आदि प्रमुख अनुवाद कृतियाँ हैं।
सम्मान : पंजाब साहित्य अकादमी(1982), गुरूनानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर द्वारा भाई वीर सिंह वारतक पुरस्कार(1986), साहित्य अकादमी, दिल्ली(1992), पंजाबी अकादमी, दिल्ली(1994), पंजाबी साहित्य अकादमी, लुधियाना(1996), कथा सम्मान,कथा संस्थान, दिल्ली(1996-97), सिरोमणि साहित्यकार, भाषा विभाग, पंजाब(2002) तथा साहित्य रत्न, भाषा विभाग, पंजाब(2011)

सम्पर्क : 593, मोता सिंह नगर, जालंधर-144001(पंजाब)
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ई मेल :
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आत्म माया
प्रेम प्रकाश

हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव


प्रारंभ
मैं समझता हूँ कि किसी साहित्यकार और उसके साहित्य को समझने के लिए यह बात बड़ी सहायक सिद्ध होती है कि उसके समय और उसके उस वातावरण को जाना और समझा जाए, जिनमें वह अपने जन्म से लेकर उन्नीस-बीस वर्ष तक की आयु में रहा होता है। क्योंकि इसी समय में व्यक्ति के व्यक्तित्व की नींव रखी जाती है। फिर उसका जितना भी विकास होता है, उन्हीं नीवों पर ही होता है। इस छोटी उम्र में व्यक्ति के मन में पड़ी गाँठे उमभ्रर उसके साथ चलती हैं। उनमें खूबियों और खराबियों के जोड़-घटाव तो होते रहते हैं, पर जो भी विकास होता है, उसकी जड़ों में वही संस्कार होते हैं जो छोटी उम्र में बन जाते हैं।
सो, लेखक के तौर पर मेरे व्यक्तित्व और मेरे साहित्य को समझने के लिए मेरे लड़कपन के बारे में शायद जानना आपके लिए लाभदायक हो। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि व्यक्ति के व्यक्तित्व की नींव उस उम्र की भावनाओं से बना करती हैं।

पुश्तैनी गाँव
मुझे हरिद्वार और पिहोवा के अपने तीर्थ-पुरोहितों की बहियों से ज्ञात हुआ कि हम अट्ठाहरवीं सदी ईसवी के अन्तिम हिस्से में महाराष्ट्र या राजस्थान के किसी इलाके में से उठकर पंजाब की रियासत नाभा की तहसील अमलोह के एक गाँव 'बहिणा बहिणी' में आ बसे थे। वहाँ से उठकर उसके नज़दीक ही 'भट्ठा' नाम के हमारे एक बुजुर्ग़ ने नया गाँव 'भट्टो' बनाया। वहाँ से उठकर मेरे पड़दादे का पड़दादा हजारी लगभग 1843 ईसवी में पठानों के गाँव बदीन पुर (उस वक्त रियासत नाभा की तहसील अमलोह) में आ बसा था। यह गाँव खन्ना, मंडी गोबिंदगढ़ और अमलोह के बीच में बसा हुआ है। हजारी के पुत्र तुला राम ने हमारी जड़ चलाई। बदीन पुर से मेरा दादा लाला नौराता राम डाकों से डर कर 1930 ईसवी में मेरे जन्म से करीब दो वर्ष पहले करीबी शहर खन्ना के मोरी मुहल्ले में बना-बनाया मकान खरीद कर आ बसा। बदीन पुर हम आते-जाते रहते थे। वहाँ हमारी थोड़ी-सी ज़मीन खरीदी हुई और कुछ गिरवी ली हुई थी। वहाँ हमारा पक्का घर भी था। जहाँ बैठकर हम कभी दोपहर काट लेते थे। उसके एक कोठे में बंटाई का भूसा भरवा लेते थे। हमारी अधिकांश ज़मीन उसके साथ वाले जट्टों के गाँव बड़गुज्जरां में थी। जिसे मेरे दादा ने किसी कर्ज़ के मारे गैर-काश्तकार पठान से खरीद थी। वहीं एक रहने के लिए घर बना हुआ था, जहाँ हम बंटाई का भूसा और काठ कबाड़ रखा करते थे।
1950 में हमारा आधा परिवार खेती करने की मजबूरी के कारण बड़गुज्जरां जा बसा था। बड़े लम्बे चौड़े आँगन वाले मकान को बसने योग्य बनाने के लिए हमने उसको और ज्यादा छत लिया था। आँगन में कीकर के समीप नीम का पेड़ लगा लिया था।

जन्म
मेरा जन्म सरकारी काग़ज़ों के अनुसार 7 अप्रैल 1932 को पिता लाला राम प्रसाद और माता बीबी दयाबंती के घर खन्ना, ज़िला-लुधियाना में हुआ। मैं स्वयं भी आम तौर पर यही बताता हूँ। परन्तु यह सही नहीं है। असल में, मेरा जन्म 26 मार्च 1932 को खरड़ के साथ लगने वाले अपने ननिहाल के गाँव 'नया शहर' जिसको आम बोलचाल में 'नवां शहर' कहते हैं(उस समय ज़िला अम्बाला और अब ज़िला-रोपड़) में हुआ। यह गाँव तब खरड़ से मील भर की दूरी पर था, परन्तु अब खरड़ का हिस्सा बन गया है। मैं उस गाँव का नाम इसलिए भी नहीं लिया करता कि सुनने वाला तुरन्त 'नवां शहर दुआबा' सोच लेता है। उस गाँव में मेरे नाना जी हकीम गंगा राम बीमारी को पहचान कर नुस्ख़ा लिख देने का काम करते थे। अधिक कमाई न होने के कारण मेरे तीन मामा फौज में भर्ती हो गए थे। एक स्वतंत्रता संग्राम की राह चल पड़ा था और एक थोड़ी-बहुत हिकमत(हकीमी) करता रहा। सभी पढ़े-लिखे आर्यसमाजी थे। यहाँ तक कि मेरी बीबी(माँ) हिंदी पढ़-लिख लेती थी और उर्दू की चिट्ठी भी बांच लेती थी। मैं अपने ननिहाल दो-चार बार ही गया था।
मेरे ननिहाल वाले घर में एक हारमोनियम और एक बैंजो हुआ करता था। जिन पर मामा लोग सुर निकाला करते थे। बड़े मामा जी सूबेदार बालक राम पंजाबी के कवि थे। उनका तख़ल्लुस (उपनाम) 'प्रेम' था। उन्होंने स्वामी दयानंद की जीवनी 'प्रेम सागर' शीर्षक से पंजाबी कविता में लिखी थी, जो शाहमुखी(पंजाबी जो उर्दू लिपि में लिखी जाती है) और देवनागरी में छपी थी। स्वतंत्रता संग्रामी मामा जी श्री गिरधारी लाल उर्दू में देशभक्ति की कविता लिखते थे और उनका तख़ल्लुस 'शौक' था। आम तौर पर अख़बारों में छपते थे। एक अन्य मामा जी भी तुकबंदी किया करते थे। 'शौक' साहिब ने जालंधर से उर्दू में एक साहित्यिक परचा 'नुकूश' निकाला था। इस परचे के वेतनभोगी संपादक फ़िक्र तौंसवी और ताजवर सामरी थे।
मैं अपने किसी भी मामा से प्रभावित नहीं था। मुझे न ही उनके शे'रों में कोई दिलचस्पी थी और न ही किसी बाजे के सुर निकालने में। मेरे एक मामा जी मेरे विषय में कहा करते थे कि इसके अन्दर संगीत वाले कान नहीं हैं। हो सकता है कि गुप्त तौर पर मेरे संस्कारों पर मेरे मामाओं का असर होता रहा हो। मैं मेलों में गानेवालों की तरफ और कवियों के लिखे किस्सों की तरफ छोटी उम्र में ही खिंचा चला जाता था। खन्ना में हर साल दशहरे के अवसर पर होने वाली राम लीला, शहर के कलाकारों द्वारा खेले जाते अन्य नाटक, चलती-फिरती नाटक मंडलियों की रास लीला, मिरासियों की नकलें और नचारों(नृतकों) के जलसे देखे बग़ैर मेरे से रहा नहीं जाता था। उनके सीन सपनों में मुझे दिखते रहते थे। पर अधिक संकोची स्वभाव का होने के कारण मैं केवल एक दर्शक ही बना रहा। दर्शक भी मैं चोरी का था। हमारे घर में तमाशा देखना तो दूर की बात थी, हमारे दादा जी तो घर में किसी को सीटी भी नहीं बजाने देते थे। कोई व्यक्ति गा नहीं सकता था। किसी को गाते सुनकर वह कहा करते थे, ''यह कोई कंजरों का घर है ?''
मेरी पत्नी जनक दुलारी अपने दहेज में विलायती कंपनी फिलिप्स का रेडियो लाई थी। दसेक दिन बाद किसी ने उसे बजाया। जब उसमें से गाने की आवाज़ निकली तो मेरे दादा जी ने सोटी से पीट पीटकर उसका ढांचा तोड़ दिया और गुस्से में बोले, ''ससुरा बेशरम, अभी भी नहीं हटता।'' वह बजता रहा था। फिर उन्होंने उसकी तारों को तोड़कर भूसे वाले कोठे में भूसे के नीचे दबा दिया था।
मेरे दादा दी लाला नौराता राम धन और ज़मीन के बहुत लोभी थे। उन्होंने खूब मेहनत और काम करके पता नहीं किन जुगतों से पाँच सौ बीघे से भी अधिक ज़मीन बना ली थी। सबसे अधिक ज़मीन गाँव बडगुज्जरां में थी। 301 बीघे का एक टुकड़ा, जिसमें तीन कुएँ थे। 85 बीघे का अलग टुकड़ा, एक कुएँ वाला। अधिकांश बदीन पुर के पठान से खरीदी हुई थी। कुछ कुम्हार थे। 1947 के विभाजन के बाद जब ब्याज पर पैसे लेने वाली असामियाँ जिमनें बहुत से मुसलमान थे, पाकिस्तान चली गईं तो हम भी उजाड़ से गए। हमारी अधिकतर ज़मीन मुसलमान जट्ट ही बंटाई पर जोतते थे। वही असामियाँ थीं। करीब तीन साल के अन्दर-अन्दर हमारे दाने खत्म हो गए। हमें विवश होकर गाँव बड़गुज्जरां में जाकर खेती करनी पड़ी थी। ऊपर से पैप्सू में ज़मींदारी एक्ट बनने का शोर मच गया था। हमें ज़मीन के छिन जाने का भी डर था। काफ़ी ज़मीन हमें मिट्टी के भाव बेचनी पड़ी थी। कुछ जट्ट सिक्ख संगठनों ने दबा ली थी।
मैंने 1949 में दसवीं पास की थी। मेरे पास खेती करने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं था। मैं पढ़ना चाहता था, पर घर के हालात ठीक नहीं थे। मुझसे छोटे भाई सत्य प्रकाश को सातवीं कक्षा में से उठा कर खेती के काम में लगा दिया गया था। आमदनी का दूसरा साधन नहीं रहा था। घर में रुपया-पैसा दो तीन वर्षों में खत्म होने पर आ गया था। बस, रोटी चल रही थी। वैसे खन्ना शहर में भी कई मकान और दुकानें थीं। दुकानों के किराये आते थे। मैंने दुकान न करने का फ़ैसला सुना दिया था। फिर तो एक ही राह बचा था- खेती करो और रोटी खाओ। नहीं तो घर से भाग कर जहाँ जाना हो, चले जाओ। मुझसे बड़ा भाई विवाहित था। वह फ़ौज़ से भागकर आने को घूमता था। मैं दूसरे नंबर पर था। बाकी दो बहनें और चार भाई कुंआरे थे। छोटे चारों भाई और एक बहन पढ़ती थी। पूरे परिवार का बड़ा बोझ बाई जी पर था।

बालपन
जब मैंने होश संभाला तो हम खन्ना के मोरी मुहल्ले की टीले जैसी ऊँची जगह पर बनी एक छोटी-सी गली के सिरे पर बने डिब्बाबन्द पक्के मकान में रखते थे। घर में दादा था, दादी थी। दादा को हम 'बड़े बाई जी' और दादी को ‘माँ’ कहा करते थे। पिता जी को 'छोटे बाई जी' कहते, माता जी को 'बीबी जी' कहते, पड़दादी को 'बेबे'। घर में दो बुआ, एक चाचा, एक बड़ा भाई था। घर का दरवाज़ा खोलते ही एक छप्पर के नीचे एक भैंस और एक गाय हुआ करती थी। फिर खुला स्थान और फिर एक लम्बा बरामदा था, जिसमें एक कोने में चक्की पड़ी होती थी और एक तरफ औखली गड़ी हुई थी। सामने ईंटों के पक्के फर्श वाला चौकोर आँगन था। बायीं ओर छोटी पर पक्की रसोई थी। उसके सामने दो लम्बे दालान थे, जिन्हें सबात कहा करते थे। एक सबात के बायीं ओर अँधेरी कोठरी थी, जिसमें दीया जलाकर पता चलता था कि वहाँ लक्कड़ के सन्दूक और लोहे की पेटी पड़ी है।
दादा जी (बड़े बाई जी) क्या काम करते थे, मुझे नहीं मालूम था। बाई जी गाँवों में फ़सलें देखने, किसी को कुछ देने और किसी से कुछ लेने या अमलोह या नाभा में पेशियों पर जाया करते थे।
गली में एक घर बूढ़े जट्ट मास्टर हरनाम सिंह का था, जिसने औरत(नई उम्र की) खरीद कर बसाई हुई थी। मास्टर की दाढ़ी सफ़ेद थी। साथ वाला घर नाईयों का था। वे साफ़-सुथरे लोग थे। उनके बच्चे मेरी माँ को मासी(मौसी) कहते थे और हम उनकी बीबी को मासी कहा करते थे। यह बात मेरी समझ में नहीं आती थी।
इस गली के आसपास अन्य जो लोग रहते थे, वे बहुत ग़रीब मुसलमान थे। इनमें गुज्जर, राईं, खुरी लगाने वाले लोहार, बक्करवाल, रूईं पींजने वाले, जुलाहे, छींबे, कलीगर, नेचेगर, नाई, धोबी और दिहाड़ी करने वाली अन्य जातियों के लोग शामिल थे। मुसलमानों के टूटे-फूटे से कच्चे-पक्के घर छोड़कर एक गली हिंदुओं की थी। पर उनके बच्चे हमारे पास खेलने नहीं आते थे। हमारा इलाका तंग-गन्दा मोरी मुहल्ला था। भाँति-भाँति की जातियों के लोगों के घर थे। हमारी किसी के साथ ज्यादा सांझ नहीं थी।
स्कूल जाने से पहले मुझे खेलने को जो बच्चे मिलते थे, वे आम तौर पर नंगे और गन्दे रहते थे। बात बात पर गालियाँ निकालते थे। रोटी, जिसे वे 'टुक' कहा करते थे, उसको नमक-मिर्च और प्याज की चटनी लगी होती थी और वे उसको मरोड़कर गोल करके हाथों में पकड़े मक्खियों भगाते खाते-खाते खेलते रहते थे। यदि किसी के कपड़े होते, वे खराब, मैले और फटे हुए होते। लड़कियाँ पाँच-छह साल की उम्र तक और लड़के सात-आठ साल की उम्र तक कमर के नीचे कपड़ा कम ही पहनते। उनके गुप्तांग लड़कों की तहमतों में से और लड़कियों की फटी सलवारों में से झांकते रहते थे, जिसकी वजह से एक-दूजे से छेड़खानी होती रहती थी। जब किसी मुसलमान लड़के का खतना(सुन्नत) होती थी तो सारा मुहल्ला इकट्ठा हो जाता था। छोटी उम्र की लड़कियाँ भी साथ खड़ी होती थीं। 'वो देख तेरे मामे की चिड़िया उड़ती है' कहते ही खलीफ़ा (नाई) उस्तरे से मांस का छल्ला उतार देता था। लहू नीचे पड़े तसले की राख में छिप जाता था। ज़ख्म पर काली-सी दवाई वाली पट्टी लपेट दी जाती थी। चावल बांटे जाते थे। पर हिंदुओं के लड़के नहीं लेते थे। चावल या गुड़ बांटने वाली औरतें खुद ही नहीं देती थीं।
हिंदुओं के बच्चे मुसलमानों के हाथों का छुआ भी नहीं खाते थे। मुझे मुसलमानों के बच्चों के बदन और कपड़ों में से बू आती रहती थी। यह बात अलग है कि मैं खुद साफ़ नहीं रहता था। अपनी कमीज़ की बांह से बहते नाक को पोंछ लिया करता था। जिस लड़के का खतना हुआ होता था, उसके पास से अजीब किस्म की दिल खराब करने वाली बदबू आती रहती थी। वह नंगा घूमता या तहमत पहनकर अगला हिस्सा नंगा और टांगे चौड़ी किए फिरता ताकि कपड़ा ज़ख्म से न छू जाए। उनकी बोलचाल और उठने-बैठने का मेरे पर इतना असर पड़ा कि मेरे घरवाले दुखी होने लग पड़े। मैं हरवक्त बहुत ही गंदी गालियाँ निकालता रहता था और मुझे पता ही नहीं चलता था कि मैं क्या कह रहा हूँ। इतना पता था कि मेरे ऐसा कुछ कहने से दूसरे को बुरा लगता है। उसको चोट पहुँचती है। दसरे को चोट मारने के लिए सोटी, थप्पड़-मुक्का मारने और गालियाँ बकने के अलावा भी अन्य कई बातें थीं। जैसे किसी के चुत्तड़ों में उंगल देना, किसी को पकड़कर चूम लेना, किसी को बाहों में भरकर शरीर के नीचे के हिस्से वाली हरकतें करना, आँखें मारना, उंगली इधर-उधर लगाना, हाथों, बाहों, हथेली और उंगलियों की शक्लें बनाकर उन्हें हिलाना आदि। मैंने वे सारी बातें सीख ली थीं। पर मुझे उनके अर्थ नहीं जानता था। सिर्फ़ इतना ख़याल था कि ऐसा करने से दूसरा चिढ़ता है। या कोई तगड़ा लड़का अपनी ताकत दिखाने के लिए कमज़ोर के साथ ऐसी हरकतें किया करता था। कई तगड़े लड़के जब मेरे साथ ये हरकतें करते थे तो मैं जो अपने अस्त्र चलाता था, वे रोने के साथ-साथ गालियाँ निकालने वाले होते थे। बड़े लड़के मेरी गालियाँ सुनकर हँसते हुए यह कहा करते थे कि इसने जो गाली एक बार निकाल दी, वह दूसरी बार नहीं निकालेगा। हर बार नई ही निकालेगा।
मेरे घरवाले उस इलाके को बिलकुल पसन्द नहीं करते थे। पर वह मुझे बहुत अच्छा लगता था। खेलने के लिए बच्चों का कोई अन्त नहीं था। छोटे-छोटे घरों में से पाँच-पाँच, छह-छह जने निकलते थे। फिर लोहार जब खुरियाँ (नाल) बनाने के लिए भट्ठी सुलगाते, धौंकनी चलती और लोहा गरम होता और फिर उसको अहरन पर हथौंड़ों से कूटने के लिए ठक-ठक होती, वह मुझे बहुत अच्छी लगती थी। शाम को डंगर खेतों और चरागाहों से लौटकर आते। बकरियों के झुंड आते। चलती-फिरती कटड़ों-बछड़ों को बांधा जाता और मेमनें बाड़ों में संभाले जाते। मैं मेमनों को संभालने में बक्करवालों के लड़कों के साथ काम करता था। बड़ा मज़ा आता था। तब मुझे बाड़े में से बू नहीं आया करती थी। भूख या प्यास लगने पर ही मैं घर में घुसता था। मुझे रोकने के लिए मेरी माँ मेरे बाई जी के आ जाने का डर दिखाती थी। पर मुझे पता होता था कि वो दोपहर के बाद ही लौटते थे। माँ के पास एक और हथियार था जो मेरी चीख़ें निकलवा देता था। वह यह था कि माँ घर के पिछवाड़े रहते मुसलमान दर्जियों की लड़की या बहू मरियां को हांक मारती। थोड़ी ही देर में हमारे कोठे की पक्की सीढ़ियों के सिरे पर काले कपड़ों वाली एक चुड़ैल खड़ी होती। उसके मुँह में बिलांद भर की जीभ लटकती होती। वह चलती आती और जब हमारे घर की सीढ़ियाँ उतरने लगती तो मेरी जान निकलने को हो जाती। भय से मेरा कभी-कभी पेशाब निकल जाता। तब कहीं जाकर माँ के कहने पर वह मरियां बुरका उतार कर मुझे बांहों में भरकर प्यार करती।... वह चली जाती। पर मुझे कई-कई रातों तक उसके सपने डराते रहते। मैं अँधेरे और काली चीज़ों से डरने लग पड़ा था। भूतों, प्रेतों, चुड़ैलों, डायनों और छलावों की मैंने जितनी बातें और कहानियाँ सुनी थी, उन पर विश्वास दृढ़ हो गया था। मुझे सपनों में ऐसी ही बुरी चीज़ें दिखाई देतीं थी और मैं चीखें मारकर उठ बैठता था।
दिन में खेलने के लिए हमारी गली के सामने एक ऊँचा टीला था जिसको पथवाड़ा कहते थे। जहाँ पर पशुओं वाले अपने पशुओं के गोबर की और ग़रीब लोग चलते हुए पशुओं का गोबर इकट्ठा करके पाथियाँ पाथते थे। हम उनके बीच वाली थोड़ी-सी जगह पर घुतियाँ खोद कर रीठे, कौड़ियाँ और कंचों के साथ खेला करते थे। मैं खेलता कम था और खेलते हुओं को देखता ज्यादा था। मुझे हारने का डर लगा रहता था। मैं अब तक हरेक उस खेल से डरता रहा हूँ, जिसमें जूए जैसी हार-जीत हो। साहित्य भी मुझे आधी-सी जूए जैसी हार-जीत जैसा खेल ही लगता रहा है। जिसमें आपकी बुद्धि, ज्ञान और यहाँ तक कि अनुभव भी धरा-धराया रह जाता है।
उस टीले पर थोड़ा और आगे जाकर बाबा हरनामे का चरस(चमड़े का बड़ा थैला) चला करता था। जिससे म्युनिसिपल कमेटी द्वारा तालाब को भरवाया जाता था। जब बैलों की जोड़ी रस्से को खींचती ढलान की ओर जाती और फिर लौटने को होती तो बाबा बड़ी फुर्ती से पानी से भरा चमड़े का थैला खींच कर चहबच्चे में उंडेल देता। तालाब में पानी थोड़ा होता तो हम बच्चे उसमें नहाते। अधिक हो जाता तो बड़ों से डर कर निकल जाते। हमें उनके द्वारा गन्दी हरकतें करने का डर भी लगता था।
वहाँ तीन चीज़ें ऐसी थी जिनके बारे में मैं परियों की कहानियों की तरह सोचता रहता था। एक थी- तालाब के एक तरफ बनी कपड़े की ओट जहाँ औरते नहाया करती थीं। बड़े लड़के उस कपड़े को बड़ी उत्सुकता से देखते और रहस्यभरी बातें किया करते थे। हम भी उनके साथ कपड़े की जालियों को देखते थे। पर दिखाई किसी को कुछ नहीं देता था। मुझे लगता, जैसे वहाँ जादू का तमाशा हो रहा हो।
दूसरी चीज़ डिस्ट्रिक बोर्ड का प्राइमरी स्कूल था, जिसमें ग़रीब घरों के बच्चे पढ़ते थे। या जो दूर नहीं जाना चाहत थे। नहीं तो खन्ना के आम बच्चे ए.एस. हाई स्कूल और उसकी प्राइमरी ब्रांचों में ही पढ़ते थे। उस सरकारी और टूटे-फूटे स्कूल की खिड़कियाँ तालाब की ओर खुलती थीं। जिनमें से मैं लड़कों को पढ़ते, कान पकड़ते, उंगलियों में कलमों को फंसते और डंडे खाते देखा करता था। मारने वाले दो मास्टर थे, जो सिर पर कुल्ले रखकर पीछे की ओर लटकती लड़ों वाली पगड़ियाँ बांधते थे। वे कभी-कभी सलवारें भी पहनकर आते थे। मुझे उनसे उसी तरह डर लगने लग पड़ा था, जिस तरह हींग, शिलाजीत और गरम मसाले बेचने वाले पठानों से लगता था। जिनके बारे में हमारे अन्दर यह डर बिठा दिया गया था कि वे बच्चों को अपनी सलवारों में छिपा कर ले जाते हैं।
तीसरी अद्भुत चीज़ तालाव के निवाण में पुराने बाज़ार की ओर लड़कियों का लॉअर मिडल स्कूल था। जिसमें बड़ी-बड़ी लड़कियाँ पढ़ा करती थीं। जिनमें कई बुरके पहनकर आती थीं। पर उनके बुरके 'मरियां' जैसे काले नहीं होते थे। वे रंग-बिरंगे होते थे। लड़कियों को स्कूल ले जाने और घरों तक छोड़ने के लिए माइयाँ रखी हुई थीं। वे लड़कियाँ स्कूल के बाहर बुरका पहनती थीं और दरवाज़े पर आकर उतारकर अन्दर घुसती थीं। पर मास्टरनियाँ उनको छिपाने के लिए बड़ी सख्ती करा करती थीं।
उससे आगे आर्य प्राइमरी स्कूल था। घरवालों की बातों से पता चलता था कि मुझे उस स्कूल में एक दिन दाख़िल होना था। मुझे स्कूल के लिए चालू करने के वास्ते बड़े भाई के साथ या चाचा के साथ भेज दिया जाता। स्कूल की दहलीज़ पार करते ही मेरी जान निकलने लग पड़ती थी। मैं सभी की आँखों में धूल झोंककर कुछ देर बाद वहाँ से भाग जाता था और लड़कियों के स्कूल के सामने एक ओट-सी में छिपकर बैठ जाता था। दो-दो घंटे मैं एक ही जगह पर छिपा लड़कियों को निकलते-घुसते देखता रहता था।
आर्य स्कूल की उस प्राइमरी ब्रांच में आर्य समाजी मास्टर जी मेरे बाई जी के बड़े स्नेही थे। वे मारते नहीं थे। वे नये बच्चों को चीनी की गोलियाँ या मछलियाँ भी देते थे। पर एक अन्य डर मेरे अन्दर घुसा रहता था। वह था - टीके लगाने वालों का। पता नहीं कब कमेटी वाले टीके लगाने वालों को भेज दें। मैं किसी भी अजनबी आदमी को अन्दर आता देखते ही तख्तपोशों के नीचे घुस जाता था। फिर नीचे-नीचे ही मिट्टी में सनता लुढ़कता हुआ दरवाजे से बाहर हो जाता था।
माँओं को तो बेटे प्यारे होते ही हैं, पर घर के अन्य सदस्यों को मेरे में कोई गुण नहीं दिखाई देता था। माँ के बाद दादी और बुआ प्यार करती थीं। घर में मेरे लिए एक और दिलचस्पी वाली चीज़ थी- वह था पक्के रंग का काका जो रब ने मेरी माँ को दिया था। जो बख्शी गुज्जरी लेकर आई थी। वह मुझे बहुत ही अच्छा लगता था। मेरा मन करता था कि उसके पास बैठकर उसको देखता ही रहूँ। मेरी दादी कहा करती थी कि वह भगवान कृष्ण ने दिया था। उससे पहले मेरे बड़े भाई के बारे में कहा जाता था कि वह बख्शी गुज्जरी लाई थी। वह जब हमारे घर आती थी तो बड़े भाई को ही प्यार करते हुए कहा करती थी, ''आ जा मेरा पुत... चल अपने घर मेरे पास।'' उसके इतना कहने पर मेरा भाई उसको बड़ी गन्दी गालियाँ निकालता था और वह ज़ोर से हँसने लगती थी। जैसे बच्चे के मुँह से गन्दे गन्दे शब्द सुनकर उसको आनन्द आता हो।


(जारी)

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पंजाबी उपन्यास




बलबीर मोमी अक्तूबर 1982 से कैनेडा में प्रवास कर रहे हैं। वह बेहद सज्जन और मिलनसार इंसान ही नहीं, एक सुलझे हुए समर्थ लेखक भी हैं। प्रवास में रहकर पिछले 19-20 वर्षों से वह निरंतर अपनी माँ-बोली पंजाबी की सेवा, साहित्य सृजन और पत्रकारिता के माध्यम से कर रहे हैं। पाँच कहानी संग्रह [मसालेवाला घोड़ा(1959,1973), जे मैं मर जावां(1965), शीशे दा समुंदर(1968), फुल्ल खिड़े हन(1971)(संपादन), सर दा बुझा(1973)],तीन उपन्यास [जीजा जी(1961), पीला गुलाब(1975) और इक फुल्ल मेरा वी(1986)], दो नाटक [नौकरियाँ ही नौकरियाँ(1960), लौढ़ा वेला (1961) तथा कुछ एकांकी नाटक], एक आत्मकथा - किहो जिहा सी जीवन के अलावा अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मौलिक लेखन के साथ-साथ डॉ.मोमी ने पंजाबी में अनेक पुस्तकों का अनुवाद भी किया है जिनमे प्रमुख हैं – सआदत हसन मंटो की उर्दू कहानियाँ- टोभा टेक सिंह(1975), नंगियाँ आवाज़ां(1980), अंग्रेज़ी नावल ‘इमिग्रेंट’ का पंजाबी अनुवाद ‘आवासी’(1986), फ़ख्र जमाल के उपन्यास ‘सत गवाचे लोक’ का लिपियंतर(1975), जयकांतन की तमिल कहानियों का हिन्दी से पंजाबी में अनुवाद।
देश –विदेश के अनेक सम्मानों से सम्मानित बलबीर मोमी ब्रैम्पटन (कैनेडा) से प्रकाशित होने वाले पंजाबी अख़बार ‘ख़बरनामा’ (प्रिंट व नेट एडीशन) के संपादक हैं।

आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास ‘पीला गुलाब’ भारत-पाक विभाजन की कड़वी यादों को समेटे हुए है। विस्थापितों द्बारा नई धरती पर अपनी जड़ें जमाने का संघर्ष तो है ही, निष्फल प्रेम की कहानी भी कहता है। ‘कथा पंजाब’ में इसका धारावाहिक प्रकाशन करके हम प्रसन्नता अनुभव कर रहे हैं। प्रस्तुत है इस उपन्यास की अगली किस्त…
- सुभाष नीरव




पीला गुलाब
बलबीर सिंह मोमी

हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव

3
गुलाब के कपड़े फट गए थे। पैरों में दूब के चुभने से छाले पड़ गए थे। एक मंगता सोटी के सहारे खड़ा आवाज़ दे रहा था, ''अंधे फकीर को रब के नाम पर एक पैसा... परमात्मा तुम्हारा इस जुग में भी भला करेगा, अगले में भी...''
गुलाब ने कोट की जेब में हाथ मारा। कुछ सिक्के थे। फिर उसने अन्दरवाली जेब में हाथ डाला। कुछ नोट थे और मार्च महीने के अधबीच के दिन गुलाब को उत्तेजित कर रहे थे कि मनुष्य के सच को खोजने में इस कोट और इस कोट के अन्दर की रकम की कोई ज़रूरत नहीं थी। उसने चुपचाप कोट को उतारा और भिखारी के कंधों पर रख दिया। फिर उसने अपनी सफ़ेद कमीज़ और सुनेहरी घड़ी की ओर देखा। घड़ी की तारीख़ बता रही थी कि आज उसको घर से निकले दो सप्ताह हो गए थे। दिन डूबने में अभी कुछ समय बाकी था। वह एक कुएँ के पास चला गया और टिंडों में से दो ओक पानी पीकर कुएँ की गाधी पर ही लेट गया। जब उसकी आँखे मुंदने लगीं तो उसको ख़याल आया।

मेरे बापू को मिलाकर छह भाई थे। हमारे छह कुएँ थे और गाँव में अच्छा रुतबा था। हमारे पूर्वजों ने ‘बार’ को आबाद किया था। तब नहर भी नई-नई निकली थी। डंगर-पशु जंगलों में ही चर कर पेट भर लिया करते थे। जंगल काटकर आबाद की धरती पर फ़सलें अच्छी उपजती थीं। सदियों से खाली पड़ी धरती को किसी कूड़े या खाद की आवश्यकता नहीं थी।
छह के छह इकट्ठे मुरब्बे और वह भी नहर के साथ लगते। खतान और इन खतानों में सरकंडे, मल्हे, बेरी, शीशम, कीकर, घास के अलावा अन्य बहुत से पेड़-पौधे थे। इन खतानों में से ही हर वर्ष नहर की पटरी पर मिट्टी डाली जाती थी। इन खतानों की बड़ी मौजें थीं। बालण आम तौर पर और काने(सरकंडे) हर साल गुड़ बनाने की भट्टी में ईंधन के रूप में काम आ जाते थे। वैसे तो यहाँ हर गाँव को 'चक' कहा करते थे, जैसे हमारे गाँव का नाम 'चक नंबर 78' था। परन्तु, चक नंबर के साथ-साथ गाँववालों ने माझे वाले गाँवों के नाम पर चकों के नाम रख लिए थे।
हमारा गाँव ज्यादातर सिक्खों का था। कुछ घर ईसाइयों, मुसलमानों और अन्य छोटी जातियों के मजदूरों के थे। जो मुसलमान थे, वह आम तौर पर मौची, जुलाहे, तेली, चौकीदार और लुहार थे। नाई, महरे, छींबे और सिक्ख थे। ईसाई अधिकांश हमारे घरों में से गोबर, कूड़ा फेंकने और नौकरों का काम करते थे। ग्रेस ईसाइन हमारा गोबर-कूड़ा करती, पिसाई-छंटाई का काम करती। इसके अलावा वह मिर्चें तोड़ने और कपास चुगने पर भी जाती थी। उसका घरवाला नवाब हमारा हल जोतने और चारा कुतरने वाला कागगार था। उनका बेटा हलीम जो मेरी उम्र का था, हमारे डंगर चराता था और फुर्सत के समय हम सबसे चोरी कौड़ियाँ और अख़रोट खेला करते थे। मैं उस समय छठी कक्षा में पढ़ता था। हलीम अपने ईसाइयों के छोटे-से प्राइमरी स्कूल से उर्दू की पहली, दूसरी जमात पास करते ही डंगर-पशु चराने के काम में लग गया था। जब हम दोनों कुश्ती करने लगते तो हलीम मुझे ढाह लेता। हालांकि मुझे दूध, मक्खन, घी, अंडे, फ्रूट, मेवे और अन्य बहुत कुछ खाने को मिलता था, परन्तु हलीम को सिर्फ लस्सी पीने को मिलती थी और सूखी रोटियाँ। सूखी रोटियाँ खाकर और मक्खन निकाली लस्सी पीकर भी ये ईसाइयों और छोटी जातियों के लड़के हमसे तगड़े थे। बापू का ख़याल था कि मैं पढ़ाई करने के कारण कमज़ोर था। मास्टर का डर भी तो लड़कों को शेर के सामने बंधे बकरे की तरह होता है।
मैं और हलीम कभी-कभी बाहर पशु चराते समय खतानों में आग जला लेते और हलीम की एक बकरी का दूध निकालकर गुड़ की चाय बनाकर पी जाते। यदि इस बात का पता मेरी माँ को उस समय लग जाता तो वह मुझे अवश्य घर से बाहर निकाल देती।
छोटी जातियों के सिक्ख भी जिन्हें हमारे पुराने बुजुर्ग़ चूहड़े कहते थे और जो महाराजा रणजीत सिंह के राज्य में मज्हबी बन गए थे, अब उनमें से कई ईसाई हो गए थे। कई तो ईसाई हो गए थे, परन्तु कई बड़े पक्के सिक्ख थे। नीली पगड़ी बाँधते और कच्छहरा पहनते। रोज़ अपने चूहड़ों की ठट्ठी वाले गुरुद्वारे जाते थे। परन्तु ये मज्हबी सिक्ख डंगर चराने, खेतीबाड़ी का ही काम करने के साथ-साथ नौकरों का काम भी किया करते थे। एक-आधा फौज़ में भी भर्ती हो जाता था।
हर साल ईसा मसीह के जन्म दिन पर ईसाई गाँव में जुलूस निकालते। इस जुलूस में लाहौर से एक पादरी भी आकर सम्मिलित होता। कई बार कितने-कितने अंगरेज़, मेमें और उनके बच्चे नहर के समीप वाले खाली मैदान में आकर तम्बू लगाते। ऐसे तम्बू जैसे सर्कस वाले लगाया करते हैं। इन तम्बुओं के अन्दर हमने कभी घुसकर नहीं देखा था। इन लोगों के रंग गोरे और कपड़े साफ़ होते। इनके बच्चों के संग खेलने का मेरा मन करता। इसलिए मैं सारा-सारा दिन उनको देखने के लिए तम्बुओं के बाहर बैठा रहता या टहलता रहता। एक दिन मैंने सोचा कि ये मेमें और उनके बच्चे यदि हमारे यहाँ गोबर-कूड़ा करने वाले ईसाइयों के गन्दे घरों में जा सकते हैं, तो हमारे घरों में क्यों नहीं आते। मैं तब अपनी कक्षा में मॉनीटर था और अंगरेज़ी में सबसे होशियार। एक दिन मैंने हौसला करके एक काग़ज़ पर अंगरेज़ी के छह वाक्य लिखे -
(1) माई नेम इज़ गुलाब।
(2) माई फॉदर्ज नेम इज़ सरदार लाल सिंह।
(3) आई रीड इन सिक्सथ क्लास।
(4) आई एम मॉनीटर ऑफ दी क्लास।
(5) माई फॉदर इज़ ए लैंड लॉर्ड।
(6) प्लीज़ कम टू माई हाउस एंड टेक मील्ज़।

जब एक बहुत सुन्दर, गोरी-चिट्टी, नीली आँखों वाली लड़की बाहर आई तो मैंने डरते-डरते काग़ज़ उसको पकड़ा दिया। वह काग़ज़ लेकर एकदम अन्दर तम्बू में चली गई। मैं सोचने लगा कि मैंने यह क्या कर दिया ? घर वालों से पूछे बग़ैर मैंने इनको घर में बुला लिया था। परन्तु मेरे घरवालों को तो मेरी इस दिलेरी पर खुश होना चाहिए था कि मैंने उन विदेशियों को उनकी जुबान में बात किए बग़ैर ही घर में बुला लिया था।
मेरा बापू बहुत दानी और गाँव का जत्थेदार था। 1919 में उसने मेरे तीन तायों सहित रेलवे स्टेशन को आग लगा दी थी। जनरल डायर ने जलियांवाले बाग में गोली चलाकर सैकड़ों निहत्थे लोगों को मिनटों में भून कर रख दिया था। जब इस बात का पता हमारे गाँव को लगा था तो बापू, जो उस समय अधिक से अधिक बीस वर्ष का था, मेरे तायों के साथ रेलवे स्टेशन में जा घुसा। स्टेशन फूंक दिया, पटरियाँ उखाड़ दीं, सिगनल गिरा दिए, नहर के पुल को जिस पर से रेल गुजरती थी, आग लगा दी गई। लाहौर, पेशावर और अमृतसर आदि की टिकटें खिड़की में से निकालकर फाड़ दीं। परिमाण-स्वरूप अंगरेज़ पुलिस ने गाँव को आ घेरा और सभी पगड़ियों वाले लोग गिरफ्तार करके ले गए।
जब बड़े ताया से पूछा गया कि स्टेशन किस ने फूँका तो वह बोला- ''मैंने।''
''सिगनल किसने गिराये ?''
''मैंने !''
''पुल को आग किसने लगाई ?''
''मैंने !''
''तुमारे साथ और कौन था ?''
''सिर्फ़ मैं !''
अंगरेज़ों ने गाँव के बीचोंबीच हमारे घर के सामने वाले पीपल से ताया को उलटा लटका दिया। टांगों को ऊपर टहनियों से बाँध दिया और मुगधर हाथों से। फिर हंटर मार मार कर अंगरेज़ पूछता, ''बटाओ, तुमारे साथ और कौन थे ?'' जब तक ताया में होश रहा और उसकी जीभ बोल सकती थी, वह यही कहता रहा, ''सिर्फ मैं !''
मार्शल लॉ के अधीन मेरे इस ताया को फांसी की सज़ा हुई और उससे छोटे को काले पानी की उम्र कैद !
उससे छोटे को दस साल !
बापू को चार साल।
बापू ने यह कैद लाहौर, मुल्तान और फिर अटक जेल में काटी। घर की कुर्की हो गई। 200 रुपये प्रति व्यक्ति जुर्माना हुआ। उन दिनों में 200 रुपये जुर्माना भरना बहुत कठिन था।
पूरी कैद किसी को भी न काटनी पड़ी और रिहाई प्राप्त करके सब अपने घरों को आते रहे। पर बापू आकर फिर चला जाता रहा। ननकाने का मोर्चा लगा तो वह बीच में था। जैतो का मोर्चा लगा तो वह पीछे न रहा। गुरू के बाग का मोर्चा लगा तो वह फिर कैद हो गया। 1942 का आंदोलन शुरू हुआ तो वह फिर बीच में था। गाँव के सभी लोग बापू को जत्थेदार कहने लग पड़े।
बापू जत्थेदार बन गया था और उससे बड़ा बढ़िया शराब निकालने में सबसे आगे था। वह न कभी शराब पैसे की खरीदता था और न कभी शराब बेचता था। यदि लोगों को उस पर कोई एतराज़ था तो यह कि वह लोगों की कीकरों के छिलके उतारता था और उनकी कीकरें सूख जाती थीं। उस ताये से बड़ा वाला भारी कबीलदार बन गया था और खेती करने में बड़ा सफल था। सबसे बड़ा ताया देश की आज़ादी के परवानों की सूची में शामिल होकर शहीदी प्राप्त कर गया था और मैं इन अंगरेज़ों के खूबसूरत बच्चों को घर बुला रहा था। पर घर में बुलाना तो हमारी भारतीय सभ्यता ओर आतिथ्य की मिसाल थी। बापू का आतिथ्य तो दूर-दूर तक प्रसिद्ध था। रात-बेरात यदि कोई राही, पथिक गुरद्वारे आ जाता तो उसके लिए रोटी और बिस्तरा हमारे घर से जाता था। एक बार घोड़ियों के व्यापारी गाँव में से गुज़र रहे थे तो घोड़ियों को दाना और व्यापारियों को रोटी खिलाई गई। फिर एक बार हाथियों वाले हमारे गाँव में आए। दो दिन वे गाँव में रहे। उनकी रोटी भी हमारे घर में पकती रही। राही-पथिक को रोटी खिलाना और ग़रीब-गुरबे की सहायता करना बापू के विचार में बहुत बड़ा पुण्य था। एक बार बापू साथ वाले गाँव में गया था और वहाँ किसी ने बापू के सम्मुख मिन्नत की कि हमारे घर न लवेरा है और न गऊ खरीदने के लिए पैसे। बापू ने कहा, ''जा, हमारे घर से अभी ताज़ा ब्याही गाय खोल ला और पैसे जब हुए तो दे देना।'' बापू अभी उनके गाँव में ही था कि गाय लेने वाला पहले ही हमारे घर आकर गाय खुलवाकर ले गया।

अंगरेज़ लड़की बहुत हँसती-खेलती बाहर आई और साथ में उसके मामा और पापा भी आए। उसके मामा ने मेरी गाल पर चुम्बन लिया और मुझे तम्बू के अन्दर ले गए। मुझे कितनी ही चीज़ें खाने के लिए दी गईं और खेलने के लिए एक खूबसूरत गेंद भी। फिर सभी मेरे साथ घर के लिए चल पड़े। मारे खुशी के धरती से मेरी ऐड़ी नहीं लग रही थी। मेरी माँ ने उन्हें मक्की की रोटी पर साग रखकर रोटियों को हाथों में ही पकड़ा दिया, क्योंकि उसका ख़याल था कि अंगरेज़ चूहड़े होते हैं और हमारी थालियाँ-कटोरियाँ भ्रष्ट हो जाएँगी। अंगरेज़ों ने यह समझा कि मक्की की रोटी शायद थाली है और उस पर रखा साग खाने के लिए परोसी गई चीज़ है। उन्होंने साग उंगुलियों से ही खा लिया और मक्की की रोटियाँ प्लेट समझकर नीचे रख दीं।
जब वे जाने लगे तो मैं जिद्द कर बैठा कि इनकी लड़की को नहीं जाने दूँगा। मैं इसके साथ खेला करूँगा और बड़ा होकर विवाह करूँगा। बापू ने बहुत समझाया कि ये चूहड़े होते हैं और घोड़ों का मांस भी खा जाते हैं, तब कहीं जाकर मैंने अपनी जिद्द छोड़ी।
मुसलमानों के घर यद्यपि गिनती के ही थे, पर उनकी ज़रूरत हर घर को बनी रहती थी। मौची और चौकीदार के बिना घर का गुज़ारा ही नहीं होता था। तेलियों के बग़ैर भी बड़ी मुश्किल थी। वे लोगों के तिलों को पीसकर तेल ही नहीं निकालते थे, बल्कि तेलियों की बूढ़ी माँ जीवां तेलण पूरे गाँव की दाई थी। उसकी उम्र सत्तर-अस्सी साल के बीच की थी और वह बताती थी कि आधा गाँव उसके हाथों से पैदा हुआ है। यहाँ तक कि मेरा जन्म भी उसके हाथों में हुआ था। जीवां तेलण को गाँव की सारी जट्टियाँ पूजती थीं। जीवां तेलण के साथ पता नहीं उनके कितने भेद सांझे थे। जीवां तेलण अक्सर हँसकर, एक प्यारा-सा उलाहना देकर कहती, ''री, तुमसे एक पेट नहीं संभाला जाता और मैं सारे गाँव के पेटों का भेद अपने पेट में छिपाये फिरती हूँ।''
इसके अलावा, मुसलमानों का एक और बड़ा फायदा था। जब कोई मुसलमान थानेदार गाँव में आता तो वह सिक्खों के घर कभी रोटी न खाता। उसका सूखा रसद पानी हमारे जट्टों के घरों में से मुसलमान घरों में जाता और वह थानेदार की रोटी पकाते।
हमारे घरों की रोटी खाने को वह काफ़िरों के घर की रोटी खाना समझता था।
मैं सोचता कि कितनी वाहयात बात थी कि जब सूखा रसद वह सिक्खों के घरों का खा सकता था तो उसको पकी पकाई खाने में क्यों एतराज़ था, जब कि हमारे घरों में मुसलमानों के घरों से हर तरह से अधिक सफाई थी। परन्तु, उन दिनों में पुलिस में खानदानी आदमी कम ही भर्ती हुआ करते थे। अधिकतर मरासी, जुलाहे, तेली और छोटी जातियों के लोग सिपाही भर्ती होकर रिटायरमेंट तक थानेदार बन जाते थे और अपने आप को चौधरी साहिब, ख़ान साहिब, मलक साहिब, मीआं साहिब, दीवान साहिब, पीर साहिब, मीर साहिब और पता नहीं क्या-क्या साहिब कहलवाते थे। यही हाल हिंदू-सिक्ख पुलिस वालों का था। कोई भूखा मरता ब्राह्मण या सिक्ख पुलिस में भर्ती हो जाता तो पंडित जी और सरदार साहिब कहलवाने लग पड़ता। दरअसल यह साहिबी उनकी खानदानी को तो कहाँ मिलती थी, यह साहिबी तो उस ताकत के नशे की थी जिसके पीछे हुकूमत का हाथ था।
और अपने गाँव में मेरा बचपन बीतता रहा। मैं बड़ा होता गया। कोई बहुत बड़ा नहीं। बस, अभी तेरह साल का भी नहीं हुआ था। आठवीं में पढ़ता था। गाँव में खालसा हाई स्कूल था। कक्षा में मॉनीटर था। खाते-पीते घर का इकलौता प्यारा और लाड़ला बेटा था। साथ वाले गाँवों में से पढ़ने आने वाले अल्ला दित्ता और मुहम्मद हुसैन मेरे गहरे यार थे। फिर जब गर्मियों के दिनों की छुट्टियाँ हो गईं, मास्टरों ने छुट्टियों को काम दे दिया। यारों-दोस्तों के छुट्टियों में आकर एक आध बार मिल जाने के इकरार हुए। कस कस कर एक-दूसरे के गले मिले। यह गले मिलना इसलिए भी था कि हमारा एक क्लास फैलो अजीत घर से चोरी भाग कर लाहौर चला गया था और वहाँ जाकर बच्चा कम्पनी में भर्ती होकर दूर बम्बई के पास पूना चला गया था और अब उसकी चिट्ठियाँ आती थीं। स्कूल को और अपने यारों को याद कर करके वह रोते हुए लिखता था -
आता है याद मुड़के वो गुज़रा हुआ ज़माना।
वो लालमैन की हट्टी पर जाकर पकौड़े खाना।
कैद में है बुलबुल और सैयाद है ज़माना।

यह चिट्ठी हमारे अंगरेज़ी के मास्टर के हाथ लग गई थी और उसने सभी को पढ़कर सुनाई थी। इस चिट्ठी को सुनकर यारियों का पक्का होना और पक्का हो गया, परन्तु कौन जानता था कि इन गरमी की छुट्टियों में क्या होने वाला था।
(जारी…)

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‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव
वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, मूल्य : 300 रुपये

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
शुभम प्रकाशन, एन-10, उलधनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032, मूल्य : 120 रुपये

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव
यूनीस्टार बुक्स प्रायवेट लि0, एस सी ओ, 26-27, सेक्टर 31-ए, चण्डीगढ़-160022, मूल्य : 400 रुपये

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव
नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्या नगर सोसायटी, पटपड़गंज, दिल्ली-110032, मूल्य : 150 रुपये

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह) संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह)  संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नेहरू भवन, 5, इंस्टीट्यूशनल एरिया, वसंत कुंज, फेज-2, नई दिल्ली-110070, मूल्य :60 रुपये।

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, वर्ष 1998, 2004, मूल्य :35 रुपये

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-1100-6, मूल्य : 125 रुपये

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

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समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

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