पंजाबी उपन्यास

>> गुरुवार, 1 मार्च 2012




बलबीर मोमी अक्तूबर 1982 से कैनेडा में प्रवास कर रहे हैं। वह बेहद सज्जन और मिलनसार इंसान ही नहीं, एक सुलझे हुए समर्थ लेखक भी हैं। प्रवास में रहकर पिछले 19-20 वर्षों से वह निरंतर अपनी माँ-बोली पंजाबी की सेवा, साहित्य सृजन और पत्रकारिता के माध्यम से कर रहे हैं। पाँच कहानी संग्रह [मसालेवाला घोड़ा(1959,1973), जे मैं मर जावां(1965), शीशे दा समुंदर(1968), फुल्ल खिड़े हन(1971)(संपादन), सर दा बुझा(1973)],तीन उपन्यास [जीजा जी(1961), पीला गुलाब(1975) और इक फुल्ल मेरा वी(1986)], दो नाटक [नौकरियाँ ही नौकरियाँ(1960), लौढ़ा वेला (1961) तथा कुछ एकांकी नाटक], एक आत्मकथा - किहो जिहा सी जीवन के अलावा अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मौलिक लेखन के साथ-साथ डॉ.मोमी ने पंजाबी में अनेक पुस्तकों का अनुवाद भी किया है जिनमे प्रमुख हैं – सआदत हसन मंटो की उर्दू कहानियाँ- टोभा टेक सिंह(1975), नंगियाँ आवाज़ां(1980), अंग्रेज़ी नावल ‘इमिग्रेंट’ का पंजाबी अनुवाद ‘आवासी’(1986), फ़ख्र जमाल के उपन्यास ‘सत गवाचे लोक’ का लिपियंतर(1975), जयकांतन की तमिल कहानियों का हिन्दी से पंजाबी में अनुवाद।
देश –विदेश के अनेक सम्मानों से सम्मानित बलबीर मोमी ब्रैम्पटन (कैनेडा) से प्रकाशित होने वाले पंजाबी अख़बार ‘ख़बरनामा’ (प्रिंट व नेट एडीशन) के संपादक हैं।

आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास ‘पीला गुलाब’ भारत-पाक विभाजन की कड़वी यादों को समेटे हुए है। विस्थापितों द्बारा नई धरती पर अपनी जड़ें जमाने का संघर्ष तो है ही, निष्फल प्रेम की कहानी भी कहता है। ‘कथा पंजाब’ में इसका धारावाहिक प्रकाशन करके हम प्रसन्नता अनुभव कर रहे हैं। प्रस्तुत है इस उपन्यास की अगली किस्त…
- सुभाष नीरव




पीला गुलाब
बलबीर सिंह मोमी

हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव

3
गुलाब के कपड़े फट गए थे। पैरों में दूब के चुभने से छाले पड़ गए थे। एक मंगता सोटी के सहारे खड़ा आवाज़ दे रहा था, ''अंधे फकीर को रब के नाम पर एक पैसा... परमात्मा तुम्हारा इस जुग में भी भला करेगा, अगले में भी...''
गुलाब ने कोट की जेब में हाथ मारा। कुछ सिक्के थे। फिर उसने अन्दरवाली जेब में हाथ डाला। कुछ नोट थे और मार्च महीने के अधबीच के दिन गुलाब को उत्तेजित कर रहे थे कि मनुष्य के सच को खोजने में इस कोट और इस कोट के अन्दर की रकम की कोई ज़रूरत नहीं थी। उसने चुपचाप कोट को उतारा और भिखारी के कंधों पर रख दिया। फिर उसने अपनी सफ़ेद कमीज़ और सुनेहरी घड़ी की ओर देखा। घड़ी की तारीख़ बता रही थी कि आज उसको घर से निकले दो सप्ताह हो गए थे। दिन डूबने में अभी कुछ समय बाकी था। वह एक कुएँ के पास चला गया और टिंडों में से दो ओक पानी पीकर कुएँ की गाधी पर ही लेट गया। जब उसकी आँखे मुंदने लगीं तो उसको ख़याल आया।

मेरे बापू को मिलाकर छह भाई थे। हमारे छह कुएँ थे और गाँव में अच्छा रुतबा था। हमारे पूर्वजों ने ‘बार’ को आबाद किया था। तब नहर भी नई-नई निकली थी। डंगर-पशु जंगलों में ही चर कर पेट भर लिया करते थे। जंगल काटकर आबाद की धरती पर फ़सलें अच्छी उपजती थीं। सदियों से खाली पड़ी धरती को किसी कूड़े या खाद की आवश्यकता नहीं थी।
छह के छह इकट्ठे मुरब्बे और वह भी नहर के साथ लगते। खतान और इन खतानों में सरकंडे, मल्हे, बेरी, शीशम, कीकर, घास के अलावा अन्य बहुत से पेड़-पौधे थे। इन खतानों में से ही हर वर्ष नहर की पटरी पर मिट्टी डाली जाती थी। इन खतानों की बड़ी मौजें थीं। बालण आम तौर पर और काने(सरकंडे) हर साल गुड़ बनाने की भट्टी में ईंधन के रूप में काम आ जाते थे। वैसे तो यहाँ हर गाँव को 'चक' कहा करते थे, जैसे हमारे गाँव का नाम 'चक नंबर 78' था। परन्तु, चक नंबर के साथ-साथ गाँववालों ने माझे वाले गाँवों के नाम पर चकों के नाम रख लिए थे।
हमारा गाँव ज्यादातर सिक्खों का था। कुछ घर ईसाइयों, मुसलमानों और अन्य छोटी जातियों के मजदूरों के थे। जो मुसलमान थे, वह आम तौर पर मौची, जुलाहे, तेली, चौकीदार और लुहार थे। नाई, महरे, छींबे और सिक्ख थे। ईसाई अधिकांश हमारे घरों में से गोबर, कूड़ा फेंकने और नौकरों का काम करते थे। ग्रेस ईसाइन हमारा गोबर-कूड़ा करती, पिसाई-छंटाई का काम करती। इसके अलावा वह मिर्चें तोड़ने और कपास चुगने पर भी जाती थी। उसका घरवाला नवाब हमारा हल जोतने और चारा कुतरने वाला कागगार था। उनका बेटा हलीम जो मेरी उम्र का था, हमारे डंगर चराता था और फुर्सत के समय हम सबसे चोरी कौड़ियाँ और अख़रोट खेला करते थे। मैं उस समय छठी कक्षा में पढ़ता था। हलीम अपने ईसाइयों के छोटे-से प्राइमरी स्कूल से उर्दू की पहली, दूसरी जमात पास करते ही डंगर-पशु चराने के काम में लग गया था। जब हम दोनों कुश्ती करने लगते तो हलीम मुझे ढाह लेता। हालांकि मुझे दूध, मक्खन, घी, अंडे, फ्रूट, मेवे और अन्य बहुत कुछ खाने को मिलता था, परन्तु हलीम को सिर्फ लस्सी पीने को मिलती थी और सूखी रोटियाँ। सूखी रोटियाँ खाकर और मक्खन निकाली लस्सी पीकर भी ये ईसाइयों और छोटी जातियों के लड़के हमसे तगड़े थे। बापू का ख़याल था कि मैं पढ़ाई करने के कारण कमज़ोर था। मास्टर का डर भी तो लड़कों को शेर के सामने बंधे बकरे की तरह होता है।
मैं और हलीम कभी-कभी बाहर पशु चराते समय खतानों में आग जला लेते और हलीम की एक बकरी का दूध निकालकर गुड़ की चाय बनाकर पी जाते। यदि इस बात का पता मेरी माँ को उस समय लग जाता तो वह मुझे अवश्य घर से बाहर निकाल देती।
छोटी जातियों के सिक्ख भी जिन्हें हमारे पुराने बुजुर्ग़ चूहड़े कहते थे और जो महाराजा रणजीत सिंह के राज्य में मज्हबी बन गए थे, अब उनमें से कई ईसाई हो गए थे। कई तो ईसाई हो गए थे, परन्तु कई बड़े पक्के सिक्ख थे। नीली पगड़ी बाँधते और कच्छहरा पहनते। रोज़ अपने चूहड़ों की ठट्ठी वाले गुरुद्वारे जाते थे। परन्तु ये मज्हबी सिक्ख डंगर चराने, खेतीबाड़ी का ही काम करने के साथ-साथ नौकरों का काम भी किया करते थे। एक-आधा फौज़ में भी भर्ती हो जाता था।
हर साल ईसा मसीह के जन्म दिन पर ईसाई गाँव में जुलूस निकालते। इस जुलूस में लाहौर से एक पादरी भी आकर सम्मिलित होता। कई बार कितने-कितने अंगरेज़, मेमें और उनके बच्चे नहर के समीप वाले खाली मैदान में आकर तम्बू लगाते। ऐसे तम्बू जैसे सर्कस वाले लगाया करते हैं। इन तम्बुओं के अन्दर हमने कभी घुसकर नहीं देखा था। इन लोगों के रंग गोरे और कपड़े साफ़ होते। इनके बच्चों के संग खेलने का मेरा मन करता। इसलिए मैं सारा-सारा दिन उनको देखने के लिए तम्बुओं के बाहर बैठा रहता या टहलता रहता। एक दिन मैंने सोचा कि ये मेमें और उनके बच्चे यदि हमारे यहाँ गोबर-कूड़ा करने वाले ईसाइयों के गन्दे घरों में जा सकते हैं, तो हमारे घरों में क्यों नहीं आते। मैं तब अपनी कक्षा में मॉनीटर था और अंगरेज़ी में सबसे होशियार। एक दिन मैंने हौसला करके एक काग़ज़ पर अंगरेज़ी के छह वाक्य लिखे -
(1) माई नेम इज़ गुलाब।
(2) माई फॉदर्ज नेम इज़ सरदार लाल सिंह।
(3) आई रीड इन सिक्सथ क्लास।
(4) आई एम मॉनीटर ऑफ दी क्लास।
(5) माई फॉदर इज़ ए लैंड लॉर्ड।
(6) प्लीज़ कम टू माई हाउस एंड टेक मील्ज़।

जब एक बहुत सुन्दर, गोरी-चिट्टी, नीली आँखों वाली लड़की बाहर आई तो मैंने डरते-डरते काग़ज़ उसको पकड़ा दिया। वह काग़ज़ लेकर एकदम अन्दर तम्बू में चली गई। मैं सोचने लगा कि मैंने यह क्या कर दिया ? घर वालों से पूछे बग़ैर मैंने इनको घर में बुला लिया था। परन्तु मेरे घरवालों को तो मेरी इस दिलेरी पर खुश होना चाहिए था कि मैंने उन विदेशियों को उनकी जुबान में बात किए बग़ैर ही घर में बुला लिया था।
मेरा बापू बहुत दानी और गाँव का जत्थेदार था। 1919 में उसने मेरे तीन तायों सहित रेलवे स्टेशन को आग लगा दी थी। जनरल डायर ने जलियांवाले बाग में गोली चलाकर सैकड़ों निहत्थे लोगों को मिनटों में भून कर रख दिया था। जब इस बात का पता हमारे गाँव को लगा था तो बापू, जो उस समय अधिक से अधिक बीस वर्ष का था, मेरे तायों के साथ रेलवे स्टेशन में जा घुसा। स्टेशन फूंक दिया, पटरियाँ उखाड़ दीं, सिगनल गिरा दिए, नहर के पुल को जिस पर से रेल गुजरती थी, आग लगा दी गई। लाहौर, पेशावर और अमृतसर आदि की टिकटें खिड़की में से निकालकर फाड़ दीं। परिमाण-स्वरूप अंगरेज़ पुलिस ने गाँव को आ घेरा और सभी पगड़ियों वाले लोग गिरफ्तार करके ले गए।
जब बड़े ताया से पूछा गया कि स्टेशन किस ने फूँका तो वह बोला- ''मैंने।''
''सिगनल किसने गिराये ?''
''मैंने !''
''पुल को आग किसने लगाई ?''
''मैंने !''
''तुमारे साथ और कौन था ?''
''सिर्फ़ मैं !''
अंगरेज़ों ने गाँव के बीचोंबीच हमारे घर के सामने वाले पीपल से ताया को उलटा लटका दिया। टांगों को ऊपर टहनियों से बाँध दिया और मुगधर हाथों से। फिर हंटर मार मार कर अंगरेज़ पूछता, ''बटाओ, तुमारे साथ और कौन थे ?'' जब तक ताया में होश रहा और उसकी जीभ बोल सकती थी, वह यही कहता रहा, ''सिर्फ मैं !''
मार्शल लॉ के अधीन मेरे इस ताया को फांसी की सज़ा हुई और उससे छोटे को काले पानी की उम्र कैद !
उससे छोटे को दस साल !
बापू को चार साल।
बापू ने यह कैद लाहौर, मुल्तान और फिर अटक जेल में काटी। घर की कुर्की हो गई। 200 रुपये प्रति व्यक्ति जुर्माना हुआ। उन दिनों में 200 रुपये जुर्माना भरना बहुत कठिन था।
पूरी कैद किसी को भी न काटनी पड़ी और रिहाई प्राप्त करके सब अपने घरों को आते रहे। पर बापू आकर फिर चला जाता रहा। ननकाने का मोर्चा लगा तो वह बीच में था। जैतो का मोर्चा लगा तो वह पीछे न रहा। गुरू के बाग का मोर्चा लगा तो वह फिर कैद हो गया। 1942 का आंदोलन शुरू हुआ तो वह फिर बीच में था। गाँव के सभी लोग बापू को जत्थेदार कहने लग पड़े।
बापू जत्थेदार बन गया था और उससे बड़ा बढ़िया शराब निकालने में सबसे आगे था। वह न कभी शराब पैसे की खरीदता था और न कभी शराब बेचता था। यदि लोगों को उस पर कोई एतराज़ था तो यह कि वह लोगों की कीकरों के छिलके उतारता था और उनकी कीकरें सूख जाती थीं। उस ताये से बड़ा वाला भारी कबीलदार बन गया था और खेती करने में बड़ा सफल था। सबसे बड़ा ताया देश की आज़ादी के परवानों की सूची में शामिल होकर शहीदी प्राप्त कर गया था और मैं इन अंगरेज़ों के खूबसूरत बच्चों को घर बुला रहा था। पर घर में बुलाना तो हमारी भारतीय सभ्यता ओर आतिथ्य की मिसाल थी। बापू का आतिथ्य तो दूर-दूर तक प्रसिद्ध था। रात-बेरात यदि कोई राही, पथिक गुरद्वारे आ जाता तो उसके लिए रोटी और बिस्तरा हमारे घर से जाता था। एक बार घोड़ियों के व्यापारी गाँव में से गुज़र रहे थे तो घोड़ियों को दाना और व्यापारियों को रोटी खिलाई गई। फिर एक बार हाथियों वाले हमारे गाँव में आए। दो दिन वे गाँव में रहे। उनकी रोटी भी हमारे घर में पकती रही। राही-पथिक को रोटी खिलाना और ग़रीब-गुरबे की सहायता करना बापू के विचार में बहुत बड़ा पुण्य था। एक बार बापू साथ वाले गाँव में गया था और वहाँ किसी ने बापू के सम्मुख मिन्नत की कि हमारे घर न लवेरा है और न गऊ खरीदने के लिए पैसे। बापू ने कहा, ''जा, हमारे घर से अभी ताज़ा ब्याही गाय खोल ला और पैसे जब हुए तो दे देना।'' बापू अभी उनके गाँव में ही था कि गाय लेने वाला पहले ही हमारे घर आकर गाय खुलवाकर ले गया।

अंगरेज़ लड़की बहुत हँसती-खेलती बाहर आई और साथ में उसके मामा और पापा भी आए। उसके मामा ने मेरी गाल पर चुम्बन लिया और मुझे तम्बू के अन्दर ले गए। मुझे कितनी ही चीज़ें खाने के लिए दी गईं और खेलने के लिए एक खूबसूरत गेंद भी। फिर सभी मेरे साथ घर के लिए चल पड़े। मारे खुशी के धरती से मेरी ऐड़ी नहीं लग रही थी। मेरी माँ ने उन्हें मक्की की रोटी पर साग रखकर रोटियों को हाथों में ही पकड़ा दिया, क्योंकि उसका ख़याल था कि अंगरेज़ चूहड़े होते हैं और हमारी थालियाँ-कटोरियाँ भ्रष्ट हो जाएँगी। अंगरेज़ों ने यह समझा कि मक्की की रोटी शायद थाली है और उस पर रखा साग खाने के लिए परोसी गई चीज़ है। उन्होंने साग उंगुलियों से ही खा लिया और मक्की की रोटियाँ प्लेट समझकर नीचे रख दीं।
जब वे जाने लगे तो मैं जिद्द कर बैठा कि इनकी लड़की को नहीं जाने दूँगा। मैं इसके साथ खेला करूँगा और बड़ा होकर विवाह करूँगा। बापू ने बहुत समझाया कि ये चूहड़े होते हैं और घोड़ों का मांस भी खा जाते हैं, तब कहीं जाकर मैंने अपनी जिद्द छोड़ी।
मुसलमानों के घर यद्यपि गिनती के ही थे, पर उनकी ज़रूरत हर घर को बनी रहती थी। मौची और चौकीदार के बिना घर का गुज़ारा ही नहीं होता था। तेलियों के बग़ैर भी बड़ी मुश्किल थी। वे लोगों के तिलों को पीसकर तेल ही नहीं निकालते थे, बल्कि तेलियों की बूढ़ी माँ जीवां तेलण पूरे गाँव की दाई थी। उसकी उम्र सत्तर-अस्सी साल के बीच की थी और वह बताती थी कि आधा गाँव उसके हाथों से पैदा हुआ है। यहाँ तक कि मेरा जन्म भी उसके हाथों में हुआ था। जीवां तेलण को गाँव की सारी जट्टियाँ पूजती थीं। जीवां तेलण के साथ पता नहीं उनके कितने भेद सांझे थे। जीवां तेलण अक्सर हँसकर, एक प्यारा-सा उलाहना देकर कहती, ''री, तुमसे एक पेट नहीं संभाला जाता और मैं सारे गाँव के पेटों का भेद अपने पेट में छिपाये फिरती हूँ।''
इसके अलावा, मुसलमानों का एक और बड़ा फायदा था। जब कोई मुसलमान थानेदार गाँव में आता तो वह सिक्खों के घर कभी रोटी न खाता। उसका सूखा रसद पानी हमारे जट्टों के घरों में से मुसलमान घरों में जाता और वह थानेदार की रोटी पकाते।
हमारे घरों की रोटी खाने को वह काफ़िरों के घर की रोटी खाना समझता था।
मैं सोचता कि कितनी वाहयात बात थी कि जब सूखा रसद वह सिक्खों के घरों का खा सकता था तो उसको पकी पकाई खाने में क्यों एतराज़ था, जब कि हमारे घरों में मुसलमानों के घरों से हर तरह से अधिक सफाई थी। परन्तु, उन दिनों में पुलिस में खानदानी आदमी कम ही भर्ती हुआ करते थे। अधिकतर मरासी, जुलाहे, तेली और छोटी जातियों के लोग सिपाही भर्ती होकर रिटायरमेंट तक थानेदार बन जाते थे और अपने आप को चौधरी साहिब, ख़ान साहिब, मलक साहिब, मीआं साहिब, दीवान साहिब, पीर साहिब, मीर साहिब और पता नहीं क्या-क्या साहिब कहलवाते थे। यही हाल हिंदू-सिक्ख पुलिस वालों का था। कोई भूखा मरता ब्राह्मण या सिक्ख पुलिस में भर्ती हो जाता तो पंडित जी और सरदार साहिब कहलवाने लग पड़ता। दरअसल यह साहिबी उनकी खानदानी को तो कहाँ मिलती थी, यह साहिबी तो उस ताकत के नशे की थी जिसके पीछे हुकूमत का हाथ था।
और अपने गाँव में मेरा बचपन बीतता रहा। मैं बड़ा होता गया। कोई बहुत बड़ा नहीं। बस, अभी तेरह साल का भी नहीं हुआ था। आठवीं में पढ़ता था। गाँव में खालसा हाई स्कूल था। कक्षा में मॉनीटर था। खाते-पीते घर का इकलौता प्यारा और लाड़ला बेटा था। साथ वाले गाँवों में से पढ़ने आने वाले अल्ला दित्ता और मुहम्मद हुसैन मेरे गहरे यार थे। फिर जब गर्मियों के दिनों की छुट्टियाँ हो गईं, मास्टरों ने छुट्टियों को काम दे दिया। यारों-दोस्तों के छुट्टियों में आकर एक आध बार मिल जाने के इकरार हुए। कस कस कर एक-दूसरे के गले मिले। यह गले मिलना इसलिए भी था कि हमारा एक क्लास फैलो अजीत घर से चोरी भाग कर लाहौर चला गया था और वहाँ जाकर बच्चा कम्पनी में भर्ती होकर दूर बम्बई के पास पूना चला गया था और अब उसकी चिट्ठियाँ आती थीं। स्कूल को और अपने यारों को याद कर करके वह रोते हुए लिखता था -
आता है याद मुड़के वो गुज़रा हुआ ज़माना।
वो लालमैन की हट्टी पर जाकर पकौड़े खाना।
कैद में है बुलबुल और सैयाद है ज़माना।

यह चिट्ठी हमारे अंगरेज़ी के मास्टर के हाथ लग गई थी और उसने सभी को पढ़कर सुनाई थी। इस चिट्ठी को सुनकर यारियों का पक्का होना और पक्का हो गया, परन्तु कौन जानता था कि इन गरमी की छुट्टियों में क्या होने वाला था।
(जारी…)

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‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव
वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, मूल्य : 300 रुपये

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
शुभम प्रकाशन, एन-10, उलधनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032, मूल्य : 120 रुपये

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव
यूनीस्टार बुक्स प्रायवेट लि0, एस सी ओ, 26-27, सेक्टर 31-ए, चण्डीगढ़-160022, मूल्य : 400 रुपये

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव
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कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह) संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह)  संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नेहरू भवन, 5, इंस्टीट्यूशनल एरिया, वसंत कुंज, फेज-2, नई दिल्ली-110070, मूल्य :60 रुपये।

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कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, वर्ष 1998, 2004, मूल्य :35 रुपये

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-1100-6, मूल्य : 125 रुपये

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

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'अनुवाद घर'

समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

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