''अब अगर कहानी में स्त्री का ज़िक्र न हो तो मेरा पेन नहीं चलता- प्रेम प्रकाश''
साहित्य अकादमी सम्मान (1992) से सम्मानित पंजाबी के प्रख्यात कथाकार एवं 'लकीर' त्रैमासिक के संपादक प्रेम प्रकाश से पंजाबी के युवा कथाकार एवं 'शबद' त्रैमासिक के संपादक जिंदर द्वारा की गई लम्बी बातचीत के महत्वपूर्ण अंश
जिंदर- आप पंजाबी के एक चर्चित कहानीकार है। यह बताइये कि यह 'कहानी' क्या होती है और 'कहानीकार' क्या होता है?
प्रेम पकाश - कहानी सिर्फ़ 'बात' होती है। जब कोई व्यक्ति किसी नये अनुभव से गुजरता है तो अपने तईं उसे अनौखा समझता है। मनुष्य भी सामाजिक प्रवृत्ति के अनुसार अपने उस अनुभव को दूसरों को बताता है। यह बात बताना ही कहानी का आरंभिक रूप है। दूसरों के लिखे अनुभव और ज्ञानशास्त्र को पढ़ते हुए वह अपने अनुभवों को अधिक अच्छी तरतीब में प्रभावशाली बनाने की कोशिश करता है। अगर पाठक और विद्वान कहते हैं कि 'मजा आ गया' 'यह बात ठीक है' तो उसे कहानी मान लिया जाता है। इसी तरह अनेक व्यक्ति अनेक अनुभव बताते-लिखते रहते हैं। पाठक तो सम्मान करते हैं पर आलोचक परखते-निरखते हैं कि पिछले समय के परंपरागत रूपों में क्या यह कहानी है? लिखने वाले कहानी के रूप बदलते रहते हैं। कई आलोचक भी इस काम में मदद करते हैं। बात को बताने वाला कहानीकार है। चाहे वह मंदिर-गुरुद्वारे का कथावाचक हो, चाहे वह टीले पर बैठकर गाँव के लड़कों को बातें सुनाने वाला ताऊ और चाहे अखबारों और साहित्यिक पत्रिकाओं में छपवाने वाला लेखक।
जिंदर- आपकी राय में कहानी में अनुभव, कल्पना और यथार्थ का कितना मिश्रण होता है?
प्रेम प्रकाश - मैं अपनी कला की बात बताता हूँं। जब कहानी रची जा रही होती है तो उनमें अनुभूतियों के और उसकी घटनाओं के टुकड़े होते हैं। किसी छोटे से अनुभव को कल्पना फैलाकर कहाँ का कहाँ ले जाती है। लेकिन, उस फैलाव में भी अनुभवों के कण होते हैं। वे कितने ही रूप बदलते-बदलते कुछ का कुछ बन जाते हैं। कई बार तो मुझे भी पता नहीं चलता कि यह बात कैसे आ जुड़ी है। हो सकता है, कोई देखी, सुनी या पढ़ी घटना बीस-तीस बरस पहले की अवचेतन में कहीं पड़ी अचानक जागकर सामने आ खड़ी हुई हो। वह कहानी के संगठन में एक हिस्सा बन गई हो। पर मैं उन सारे टुकड़ों को पहचान नहीं रहा होता। फिर, अनुभवों में अनुभव प्रवेश कर जाते हैं। किसी एक की अपनी शिनाख्त नहीं रहती। सम्पूर्ण कहानी को इतने अणुओं में तोड़कर कौन देख सकता है। क्योंकि वह कहानी, कौन-सा आम जन के साथ अनुभव जोड़-जोड़कर लिखी गई होती है। वह तो किसी रहस्य भरे तरीके से अपने आप जुड़ जाती है। हाँ, इस जोड़ में लेखक की नीयत और उसके चिंतन का हिस्सा ज़रूर होता है।
जिंदर- आप ग्रामीण माहौल से आए। लेकिन आपके कथा-संसार में से गाँव गायब है।
प्रेम प्रकाश - तुमने शायद ध्यान से नहीं पढ़ी होंगी मेरी कहानियाँ। या हो सकता है, गाँव की कहानी तुम उसे समझते होगे जिसमें कुँओं, खेतों, किसानों और खेतिहर मज़दूरों का ज़िक्र हो। मैं अपने बारे में बता दूँ कि मैं खन्ना में जन्मा, चार जमातें 'भादसा' में पढ़ीं जो कि एक बड़ा गाँव है, फिर 'खन्ना' अपने घर में रहा। 'खन्ना' कस्बों से बड़ा शहर है। अधिकतर लोग पढ़े-लिखे हैं। 1950 से 1953 तक मैंने बड़गुजरां गाँव में खेती की। अब मेरे अनुभव छोटे गाँव से बड़े गाँव,शहरनुमा कस्बे और फिर जालंधर शहर और फिर मेरी कल्पना के शहर के हैं। मैं इन सब माहौलों को अपने संग लिए घूमता हूँ। गाँव से इसलिए जुड़ा रहा कि वह मेरे माँ-बाप और ज़मीन थी। खन्ना से इसलिए कि वहाँ मेरे भाई, चाचा और पुश्तैनी घर था। मेरे अन्दर अभी भी ये सारे रूप हैं। मैंने पहली कहानी 'उपत-खुपत' नाम से लिखी, जो कि गाँव के जट्टों द्वारा विहड़े (हरिजन बस्ती) के लोगों की नाकेबंदी करने को लेकर थी। फिर अन्य कई कहानियाँ लिखीं। वह अभ्यास का समय था। मैंने कई कहानियाँ गुम कर दीं। फिर भी कुछ कहानियों के नाम बताता हूँ- बापू, कान्ही, कुंडली, सतवंती, रुकमणी, गढ़ी, अर्जन छेड़ गडीरना, कोठी वाली, कपाल-क्रिया, जड़ हरी, सुर्खुरू, नावल का मुढ़, इस जन्म में, फैसला, बेवतन, सींह ते अमनतास, तपीआ, टाकी, कीड़े दा रिज़क, मुरब्बियाँ वाली आदि-आदि। ये सभी गाँव से संबंधित हैं।
जिंदर- आपकी अनेक कहानियों में स्त्री-पुरुष के, विशेषकर पति-पत्नी के आपसी संबंध टूटते हैं। क्या इसके पीछे कोई खास कारण है?
प्रेम प्रकाश- नहीं, ऐसा नहीं है। ऐसा कुछेक कहानियों में हुआ है। खासकर 'मुक्ति-1' और 'मुक्ति-2' में। 'टेलीफोन' और 'श्वेतांबर ने कहा था' में पत्नियाँ अन्य पुरुषों से दोस्तियाँ तो करती हैं पर पतियों से संबंध-विच्छेद स्वयं चाहकर नहीं करतीं। वैसे भी इस कड़वे संबंध के बारे में मेरा अनुभव बहुत कम है। पति-पत्नी के झगड़े को मैंने बहुत करीब से नहीं देखा। सब सुने हुए अनुभव हैं।
जिंदर- फ्रॉयड कहता है कि किसी भी आदमी का व्यक्तित्व 12-14 बरस की आयु में ही बन जाता है जबकि अमेरिकन फिलासफर हारलोक ने अपनी पुस्तक 'डवलपमेंट सायक्लॉजी' में यह आयु 20-25 साल की मानी है। क्या आप इससे सहमत हैं? क्या आप उस उम्र में स्त्रियों के प्रति आकर्षित हुए थे? मेरे पूछने का अर्थ यह है कि आपके 'सब-कांसस माइंड' में औरत का संकल्प उस वक्त तो पैदा नहीं हो गया था?
प्रेम प्रकाश - मैं समझता हूँ कि आदमी का व्यक्तित्व माँ के गर्भ में ही बनने लग पड़ता है। गर्भ में जाते हुए भी वह अपने संग संस्कार (ज़ीन्स) लेकर जाता है। ये संस्कार पिछली कई पीढ़ियों के होते हैं। इसीलिए ब्राह्मण और खत्री के पास अक्षर-ज्ञान संस्कार की तरफ से मिला होता है। फिर, व्यक्ति का वातावरण, वस्तुएँ, विचारों से टकराव उसके संस्कारों को तोड़ता-फोड़ता और बनाता रहता है। इसी तरह नारी के बारे में मेरे संकल्प गर्भ में ही बनते और बचपन में ही पलते रहे हैं। मैं बहुत संकोची रहा हूँ। स्त्रियों के साथ बात करना कठिन था। मैं किसी स्त्री को 'भाभी जी' या 'बहन जी' कहकर आवाज़ नहीं लगा सकता। स्त्री के साथ अलगाव या दूरी के अहसास ने मेरे अन्दर बहुत-सी गाँठे पैदा की होंगी जिनको खोलने का जतन मैं आज कहानियों में कर रहा हूँ।
जिंदर- यह औरत क्या है?
प्रेम प्रकाश - औरत हमारी माँ है। सबसे पहला वास्ता उसी से पड़ता है। फिर बहन है, फिर बेटी है, फिर पर-नारी है, पत्नी है, महबूबा है, दोस्त है। आगे हर व्यक्ति की अपनी पहुँच है कि वह औरत को किस रूप में देखता है। जैसे मर्द की नज़र बदलती है, उसी तरह औरत के रूप भी बदलते रहते हैं। कभी वह वैश्या भी होती है और कभी देवी भी। वह दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती,चंडी आदि कई रूपों में हमें दिखाई देती है। इतने ही रूप मर्द के होते हैं। मर्द स्त्री को समझने के चक्कर में है और स्त्री मर्द को। दोनों का मनोरथ एक-दूजे की शक्तियों और कमजोरियों को समझना और फिर इस्तेमाल करना है। पंजाबी साहित्य में औरत को समझना और उसके बारे में लिखना बहुत अच्छा नहीं समझा गया। पर मैं तो शुरू से ही लिख रहा हूँं। मेरी पहली पुस्तक 'कच्चकड़े' में ऐसी ही कहानियाँ मिलेंगी।
जिंदर- औरत की सायकी को समझने के लिए आपको किन किताबों ने प्रभावित किया? किन औरतों ने प्रभावित किया? आपकी पत्नी ने कितना प्रभावित किया?
प्रेम प्रकाश - सोलह बरस की आयु से अब तक, मुझे जहाँ भी स्त्री का ज़िक्र मिला, मैं पढ़ता रहा हूँ। क्या मनोविज्ञान, क्या दर्शन, क्या काम-शास्त्र, क्या धर्म-शास्त्र और क्या साहित्य। मैंने पौंडी साहित्य तक बहुत कुछ पढ़ा है। कोई एक पुस्तक अपने आप में सम्पूर्ण नहीं होती। बहुत-सी रचनाएँ पढ़कर कहीं प्रभाव पड़ता है। वह इतनी बहुतायत में होता है कि पहचाना नहीं जा सकता। ज़िंदगी में जो भी स्त्री मिली, चाहे कुछ समय के लिए, मैं उससे भी प्रभावित हुआ हूँ। मेरी कहानियों में औरतें ही औरतें हैं। हो सकता है कि किसी एक का प्रभाव अधिक पड़ता हो। उन सारे स्त्री पात्रों में मेरी पत्नी भी शामिल है। वह मेरी जीवन-साथी है। मेरे बच्चों की माँ है। घर का केन्द्र है। उसी ने मुझे जीवित रखा है।
जिंदर- लेखक की जिंदगी में एक ऐसा समय भी आता है जब उसकी एक के बाद एक रचना की चर्चा होती है जो कि बहुत समय तक चलती रहती है। आपके साथ भी ऐसा हुआ है। आपकी एक के बाद एक कहानी हिट होती रही है। 'मुक्ति', 'डेडलाइन', 'श्वेतांबर ने कहा था', 'कपाल-क्रिया', 'गोई', 'शोल्डर बैग', 'बापू' के अलावा कई कहानियाँ। आप एक फासले पर खड़े होकर इन कहानियों को कैसे देखते हैं?
प्रेम प्रकाश - मेरी एक भी कहानी छपने के तुरंत बाद नहीं सराही गई। 'डेड लाइन' 'सिरजना' पत्रिका में छपी थी तो रघबीर सिंह ने अगले अंक में एक चिट्ठी छापी थी कि यह क्या बकवास कहानी छाप दी। उसे स्वयं कहानी पसंद नहीं थी। सिक्केबंद माक्र्सवादियों ने बड़ा विरोध किया था। यह तो धीमे-धीमे हवा बदली, कई बरसों में। पक्की तब हुई जब डा.हरिभजन सिंह ने 'तेरे नाम चिट्ठी' छपवाई। और फिर लिखी- 'ख़ामोशी का जज़ीरा'। 'शोल्डर बैग' के बारे में सुरजीत हांस ने लिखा तो पाठकों को पता चला। 'कपाल-क्रिया' को अभी भी बड़ी कहानी सिर्फ़ डा. राही मानता है। हिट होने के लिए आधी उम्र चाहिए। वैसे यह हिट होना बड़ा खतरनाक है। एक उनके लिए जिनकी सहनशक्ति का जिगरा छोटा है और दूसरा उनके लिए जिनकी पहली पुस्तक हिट हो जाती है।
जिंदर- 'डेड लाइन' कहानी कैसे लिखी गई?
प्रेम प्रकाश - यह कहानी 1979 में लिखी गई थी। बात बहुत पुरानी हो गई है। मुझे अधिक कुछ याद नहीं। मेरे पास स्त्री के लिए तीव्र इच्छा का अनुभव बहुत भारी था। मृत्यु का अनुभव और दर्द मेरे एक छोटे भाई की दुर्घटना में हुई मौत का परिणाम था। वह गुड़ बनाने वाली कड़ाही में गिरकर जल गया था। फिर बहुत दिनों बाद पटियाला के अस्तपाल में उसकी मृत्यु हो गई। मेरी ज़िंदगी का यह पहला बड़ा सदमा था जिसका असर मुझ पर लम्बे समय तक रहा था। घटना की बुनियाद मुझे अपने मित्र ओमप्रकाश पनाहगीर के साले को हुए गले के कैंसर से मिली। उसका इलाज लम्बा चला था। इस दौरान उसके व्यवहार में जो परिवर्तन हुए, उनके बारे में पनाहगीर मुझे बताता रहता था। मैं स्वयं भी उसका हालचाल जानने के लिए जाता रहता था। उसकी मृत्यु के बाद अकस्मात् मेरी कल्पना में तस्वीरें बनने लगीं। वही तस्वीरें आपस में जुड़कर एक रात पूरी तस्वीर बन गईं। देवर-भाभी के इस रिश्ते की तस्वीरें पता नहीं कहाँ-कहाँ से बनीं। सच यह है कि किसी भी भाभी से मेरा कोई सरोकार रहा ही नहीं। मैंने अपनी भाभी को कभी कपड़े से भी नहीं छुआ। सिर्फ़ बातें सुनीं या कभी देखी थीं दोनों के सम्बन्धों कीं। हमारे उप-सभ्याचार में देवर-भाभी का वह रिश्ता नहीं होता जो जट्टों या अन्य जातियों में हुआ करता है। इसीलिए इस कहानी के छपने पर कइयों ने कई एतराज़ किए थे।
जिंदर- आपकी आरंभिक कहानियों में मौत का बार-बार ज़िक्र आता है। 'श्वेतांबर ने कहा था' का पात्र भी कहता है-अब मुझे मार दे। इस मृत्यु की धारणा का आरंभ कहाँ से हुआ?
प्रेम प्रकाश - इसकी मुझे पूरी समझ नहीं। मेरी पहली कहानियाँ-'कच्चकड़े'(1966) के पात्रों की सोच में गरमी, गुस्सा और जोश है। पर दूसरे कहानी-संग्रह 'नमाजी' (1971) के पात्र मौत के बारे में अधिक सोचते हैं। वे बूढ़े भी हैं। अगर जवान हैं तो उनकी सोच और स्वभाव बूढ़ों जैसा है। यहाँ तक कि जो कहानी नौजवान लड़के और लड़की के मिलाप की है, वह बूढ़े की नज़र से देखी गई है। या जवान की सोच की गति सुस्त और ढीली-सी है। इसका कारण मेरे उस समय (1966 से 1970 तक) के निजी हालात भी हो सकते हैं। एक यह भी था कि प्रगतिवादी सोच के तीन टुकड़े हो चुके थे। समस्त देश के चिंतकों और लेखकों की सोच ढीली पड़ गई थी। साहित्य में प्रयोगवाद, भूखी पीढ़ी, अकविता, अकहानी जैसे आंदोलन चल रहे थे। पुराने स्वप्न टूट रहे थे और नया सपना अभी कोई बना नहीं था। वह समय दुविधाग्रस्त मानसिकता वाला था। उसी मानसिकता का प्रभाव मुझ पर भी रहा होगा। लेकिन, बाद में जब मैं 'मुक्ति' रंग की कहानियाँ लिखने लगा तो मौत की वह सोच मेरे साथ रही। मन की दुविधा ने और अधिक पेचीदगियाँ पैदा कर दीं। फिर मौत भारतीय दर्शन के रूप में मेरे अन्दर काम करती रही। उस दर्शन के अनुसार मृत्यु मनुष्य की सारी की सारी सोच की जननी है। यह अच्छी अवस्था न होती तो हम जिंदगी के इतने सुखों-आनंदों के बारे में भी नहीं सोचते। भारतीय दर्शन में मृत्यु जीवन का अन्त नहीं, आरंभ है। वहाँ से नया जन्म शुरू होता है।
जिंदर- कुछ लेखकों/आलोचकों का विचार है कि आप 'प्रेम' के कहानीकार हैं। कुछ आपको स्त्री-पुरुष के गहरे संबंधों का कहानीकार मानते हैं। पर मेरे विचार में असल में 'प्रेम के रोग' के कहानीकार के रूप में आपका मुल्यांकन ठीक हुआ है। इस 'प्रेम के रोग' का बीज आपको कहाँ से मिला?
प्रेम प्रकाश - यह बात मैंने कई बार स्पष्ट की है कि मैं प्रेम कहानियाँ नहीं लिखता। असल में, प्रेम शब्द का जो परंपरागत प्रयोग हुआ है, उसके अनुसार हमारे मन में 'हीर-रांझा', 'लैला-मजनूं' 'सस्सी-पुन्नूं' के पात्र आते हैं, जो प्यार में अंधे होकर बारह बरस कुँए से पानी खींचते हैं या भैंसे चराते हैं। मैं इस अवस्था को पागलपन समझता हूँ। मजनूं जुनून से बना है जिसका अर्थ है -पागल। ये कथाएँ भावुक और मोटी बुध्दि वाले लोगों के मन बहलाने के लिए लिखी गई होंगी। पर मैंने कहानियाँ पुरुष या स्त्री(चाहे जवान हों या बूढ़े) के आपसी रिश्तों के हर पल बदलते संबंधों की उधड़ी हुई परतों को समझने के लिए लिखी हैं। मेरे पात्र बहुत बार असाधारण्ा लगते हैं। उनके विचार असाधारण मनौविज्ञान को समझकर ही समझे जा सकते हैं। मेरा ख्याल है कि बहुत से लोग असाधारण होते हैं। जब उनकी असाधारणता बिगड़ जाती है तो वे मनोरोगी बन जाते हैं। हर व्यक्ति में कोई न कोई नुक्स है। वे नुक्स मुझे समझने के लिए दिलचस्प लगते हैं। मैं उनकी उलझनें बताता हूँ। मेरे पात्रों की उलझनों को 'प्रेम-रोग' कहना उचित नहीं, यह तो 'जीवन-रोग' है। जीने के लिए तरह-तरह के चोचले, पाखंड और अदाकारी करते दिखाई देते वे सच्चाइयों को जीते हैं, जो साधारण बुध्दि वाले पाठक या आलोचक की पकड़ में नहीं आतीं। जीवन-रोग के बीज किसी विशेष समय में पैदा नहीं होते। वे तो जन्म से ही उगने लग पड़ते हैं और मरने तक अपने उगने का सिलसिला जारी रखते हैं। जीने की लालसा में अगर कोई स्त्री का संग शिद्दत से चाहता है तो दूसरा कोई कुर्सी के पीछे, धन के पीछे या नाम कमाने के पीछे शैदाई हो सकता है। किसी के लिए भी प्यार के बीज के साथ आदमी के अंदर नफ़रत का बीज भी होता है। बदले की भावना भी होती है। मेरी कहानियों में और उनके पात्रों में इन सारी भावनाओं के बीज मौजूद हैं।
जिंदर- आपकी बहुत-सी कहानियाँ मनोविज्ञान-विश्लेषण की कहानियाँ हैं। क्या आपने परोक्ष या अपरोक्ष रूप में फ्रॉयड, जुंग, ऐंडलर का प्रभाव ग्रहण किया है?
प्रेम प्रकाश - मैंने कोई दर्शन सम्पूर्ण रूप में नहीं पढ़ा। हरेक को किसी प्रसंग के रूप में पढ़ा और समझा है। इसीलिए मैं किसी की बात कोट नहीं कर सकता। मैंने धार्मिक ग्रंथ भी बहुत पढ़े हैं। पर मुझे याद नहीं रहता कि मैंने कहाँ क्या पढ़ा था। अपने तौर पर मैं कह सकता हूँ कि मैं मनोविज्ञान का विद्यार्थी हूँ। अब भी यह सिलसिला जारी है। तुम्हारे मन की बात का जवाब यह है कि मुझे सबसे अधिक दिलचस्पी नर-नारी के रिश्तों के सच को जानने में है। जैसे पुरानी कहानियों में कहा जाता है कि अगर इतना समय तूने परमात्मा को याद किया होता तो बेड़ा पार हो जाता। मैंने स्त्री को इससे भी अधिक चाहा और उसके बारे में सोचा है।अब जब मैं कहानी लिखता हूँ, अगर उसमें स्त्री का ज़िक्र न हो तो मेरा पेन नहीं चलता। स्त्री के बारे में मैं रोज़ कहानियाँ लिखता हूँ, बेशक कल्पना में ही सही। जो आदमी स्त्रियों की बात नहीं करता, मैं उससे ऊब जाता हूँ। मुझे लगता है कि वह पाखंडी है।
जिंदर- आप एक तरफ तो साधुओं-सन्तों को दुत्कारते हैं, एक वैज्ञानिक सोच वाले व्यक्ति की तरह। दूसरी तरफ आपको भगवा कपड़े खींचते हैं। आप कई बरस ऐसा बाना पहनते रहे हैं। यह स्व-विरोध अनजाने में हुआ या जान-बूझकर?
प्रेम प्रकाश - मेरा ख्याल है कि वैज्ञानिक सोच से व्यक्ति को समझा नहीं जा सकता। पिछले समय में माक्र्सवादी लाल-बुझक्कड़ों ने ऐसे ही दावे किए थे, जो गलत निकले। मैं साधुओं-सन्तों को अब भी ठीक नहीं समझता। उन निकम्मों के कारण हमारी आर्थिकता बिगड़ती है। लेकिन, मैं यह भी मानता हूँ कि गुरू, आचार्यों या सन्तों का भी समाज के संतुलन को बनाये रखने में वैसा ही रोल है, जैसा कि कोमल कलाओं और सामाजिक गतिविधियों का। मैंने भगवा चोला कई साल नहीं, बीस साल पहना होगा। अब कुछ बरसों से पहनना छोड़ा है, अपनी पत्नी के ज़ोर देने पर। जब पहनता था तो अच्छा लगता था। भगवे रंग का बहुत आकर्षण रहा है मेरे लिए। मुझे बचपन में और फिर लड़कपन में जब मैं बागी बन रहा था, साधू अच्छे लगते थे। मैं उनकी संगत किया करता था। यह रहस्यभरा विरोधाभास है मेरे चरित्र में। यह क्यों है, मुझे नहीं मालूम।
जिंदर- आपका नाम नक्सलवादी लहर से जुड़ा रहा है और आप इसके खट्टे-मीठे अनुभवों को 'दस्तावेज़' उपन्यास के रूप में सामने लाए हैं पर क्यों ऐसा लगता है कि आपने इस 'लहर' के साथ जुड़े रहते हुए भी अपनी कहानियों पर इसका कोई ठोस प्रभाव नहीं कबूला। आख़िर ऐसा क्यों?
प्रेम प्रकाश - 1969 में पंजाब में नक्सली लहर का ज़ोर दिखाई देने लग पड़ा था। उसका सीधा असर कालिजों, स्कूलों के अध्यापकों, विद्यार्थियों और लेखकों पर अधिक था। इस लहर की अगुवाई कम्युनिस्ट पार्टी के क्रांतिकारी रोल से निराश हुए गरम लहू वाले लोग कर रहे थे। उन दिनों में साहित्य का हाल यह था कि साहित्यकारों के जेहन उलझे पड़े थे। भटके हुए आम लेखक निराशा भरे और बग़ैर सोचे-समझे टुल्ले लगा रहे थे। पर बांग्ला भाषा में क्रांतिकारी साहित्य रचा जा रहा था, जिसमें साहित्यकार केवल कलम चलाने वाला ही नहीं बल्कि स्वयं क्रांतिकारी लहर का हिस्सा बनने का दावा करता था। इसने हमारी भावनाओं को भी गरम कर दिया था। अमरजीत चंदन ने एक गुप्त परचा 'दस्तावेज़' निकाला था। सुरजीत हांस इंग्लैंड में था। उसने पैसे भेजे और मैंने साहित्य को हथियार बनाने का दावा करके 'लकीर' निकाला, जिसमें ऊल-जुलूल साहित्य की निंदा की गई और क्रांतिकारी साहित्य छापा गया। उस वक्त भी मुझे मालूम था कि क्रांतिकारी साहित्य बड़ा साहित्य नहीं बन सकेगा। लेकिन, क्रांति के लिए साहित्य और अन्य किसी भी कला और निजी आज़ादी की कुर्बानी दी जा सकती है। इसी सोच से मैं 'लहर' परचा लहर के ठंडा होने तक निकालता रहा। पर मैंने स्वयं कोई क्रांतिकारी कहानी नहीं लिखी। 'पाश' ने इस बात का गिला किया था कि प्रेम प्रकाश ने हमें गुमराह किया। उसका दूसरा अनकहा गिला था कि मैं लाल सिंह दिल को बड़ा कवि बनाकर छापता था। मैं जानता था कि लहरों के समय बड़ा साहित्य नहीं रचा जाता। पर इस बात का अफ़सोस है कि लहर के बाद भी अच्छा साहित्य नहीं रचा गया। इसका एक कारण यह भी है कि हमारे साहित्यकार सियासी लीडरों के नीचे रहकर काम करते रहे हैं। वे सियासतदानों को अपने से अधिक चेतन मनुष्य मानते थे। जबकि सचाई यह थी कि सियासतदान मक्कार मनुष्य अधिक होता है। केवल कलाकार या धार्मिक मनुष्य की अंतरात्मा अधिक समय तक जागती रह सकती है।
जिंदर- 'दस्तावेज़' के बाद आपने कोई उपन्यास नहीं लिखा। क्या आपको लगता है कि आप अब उपन्यास नहीं लिख सकते?
प्रेम प्रकाश - 'दस्तावेज़' लिखने के समय मेरी सोच यह नहीं थी कि मैं उपन्यास लिख रहा हूँ। उन दिनों (1973) मैं अपना मकान बनवा रहा था। अख़बार के दफ्तर जाने से पहले और फिर रात को मैं मिट्टी और ईंटों से जूझता रहता था। घर में बिजली नहीं थी। पढ़ना कठिन लगता था। हम खुले मैदान में सोते थे। कोई अड़ोसी-पड़ोसी नहीं था। मैं लैम्प जलाकर उसे सिरहाने की ओर रखे स्टूल पर रख लेता और थोड़ी-सी रोशनी में अपनी यादों को लिखता जाता। महीने भर बाद मैंने उन्हें पुन: पढ़ा तो अच्छी लगीं। मैंने आख़िरी चैप्टर गल्प के तौर पर जोड़ दिया। जब छपा तो इसे उपन्यास मान लिया गया और फिर सारी कम्युनिस्ट पार्टियाँ की ओर से इसकी निंदा की गई। मुझे अमेरिका के हाथों बिका लेखक कहा गया। इसके बाद मैंने एक नावल लिखने की कोशिश की, पर लिख न सका। एक नावल 1962 के आसपास लिखा था, उसे मैंने दसेक बरस रखकर फाड़ दिया। अब लगता है कि इतना लम्बा काम करना मेरे वश में नहीं। अगर कोई बात मैंने कहनी या लिखनी होती है, वह कभी छोटी, कभी बड़ी और कभी लम्बी कहानी बन जाती है। मेरी कोशिश होती है कि मैं कम से कम शब्दों में लम्बी से लम्बी बात कहानी में कर लूँ। मैं या कोई अन्य साहित्यकार क्या कर सकता है और क्या नहीं, इस बारे में कोई भी नहीं बता सकता। पता नहीं किस वक्त किससे क्या लिखना हो जाए।
जिंदर- आपकी ज़िंदगी का अहम हिस्सा पत्रकारिता में बीता। 'हिंद समाचार' में उप संपादक के तौर पर। आप इन सालों में बतौर प्रेम प्रकाश कहानीकार और प्रेम प्रकाश कर्मचारी हिंद-समाचार में तालमेल कैसे बनाए रखा?
प्रेम प्रकाश- इस तालमेल के लिए काम आई मेरी जिद्द। मैं अखबारों में काम करने से पहले अखबार नवीसों से नफ़रत करता था। कुदरत ने मुझसे ऐसा बदला लिया कि मुझे अखबार नवीस बनाकर पत्रकारों के साथ बिठा दिया। मैं इस अत्याचार को सहते, इससे लड़ते-भिड़ते काम करता रहा। इसी नफ़रत के कारण मैंने पत्रकारों को यह जाहिर नहीं होने दिया कि मैं कहानियाँ लिखता हूँ। मैंने सौगंध खाई थी कि अखबार में अपना नाम नहीं छपवाऊँगा और अखबार के दफ्तर में साहित्य की बात नहीं करुँगा। एक बार राम सरूप अणखी (पंजाबी के प्रसिध्द कहानीकार और उपन्यासकार) 'हिंद समाचार' में मिलकर साहित्य के बारे में बात करने लगा तो मैंने उसे रोक दिया था। कहा था-यह बात घर चलकर करेंगे। जब मुझे 'पंजाब साहित्य अकादमी' का अवार्ड मिला तो मेरी अखबार (हिंद समाचार) में और पंजाब केसरी में किसी अन्य का नाम छापा गया था। दूसरे दिन कर्तार सिंह दुग्गल ने आकर विजय कुमार को मेरे बारे में बताया था।
जिंदर- यह 'प्रेम प्रकाश खन्नवी' से 'प्रेम प्रकाश' बनने के का क्या चक्कर था?
प्रेम प्रकाश - उर्दू के साहित्यकार या शायर अपने गाँव-शहर का नाम अपने नाम के साथ जोड़ लेते थे। मैंने उनकी नकल की थी। यह नाम चल भी पड़ा था। मैं इस नाम से चार साल लिखता रहा। फिर 'चेतना' के संपादक स. स्वर्ण की सलाह पर मैंने इसे उतार फेंका। यह साहित्यिक हलकों में तो उतर गया पर पत्रकारिता के क्षेत्र में मुझसे चिपका हुआ है। 'मिलाप' और 'हिंद समाचार' में बहुत से पत्रकार साथियों को मेरे पूरे नाम का पता नहीं था। वे खन्नवी साहिब कहते थे। नाम के साथ साहिब कहना उर्दू वालों की सभ्यता थी। अब मुझे यह 'खन्नवी' न तो अच्छा लगता था, न ही बुरा। पहले गर्व हुआ करता था। अब तो मैं खन्नवी के अधिक जालंधरी हो गया हूँ।
जिंदर - संदेह व्यक्त किया जा रहा है कि पंजाबी साहित्य के पाठक कम है। कोई भी परचा पाँच-छह सौ से अधिक नहीं छपता। गैर-साहित्यिक ग्राहक चाहे दस हजार बना लो। कई इसे मीडिया के फैलाव का असर मानते हैं। किताबों के छपने की गिनती कम हो गई है। जब यह संकट चल रहा है कि तो ठीक उसी समय फिजूल किस्म की आलोचना, लेख छपने शुरू हो रहे हैं। मैं यह पूछना चाहता हूँ कि यह जो कुछ हो रहा है, क्या इससे पंजाबी में लिखने वालों या पाठक वर्ग पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पडेग़ा?
प्रेम प्रकाश -पंजाबी के पाठक बढ़े हैं। जब अनपढ़ता घटती है तो पाठक बढ़ते ही हैं। साहित्य को भी उनमें से कुछ हिस्सा मिलता है। पर साहित्य के प्रबुध्द पाठक इतने नहीं बढ़े। दूसरा, संचार माध्यमों ने अपना हिस्सा ले लिया है, जिसका प्रभाव किताबों की गिनती पर पड़ा है। साहित्यिक पत्रिकाओं का कम गिनती में छपना मेरी राय में कोई संकट नहीं है। यह संकट खराब साहित्यकारों के लिए है। पर वे भी चिंता न करें। उनका साहित्य छापने के लिए दैनिक अख़बार और चालू रसाले बहुत निकल रहे हैं। लेखक, साहित्यकार और आलोचक के मध्य ऐसा रिश्ता हमेशा से रहा है। मैं अख़बार नहीं पढ़ता। किसी के विरुध्द या पक्ष में लिखा जाता रहा है। यह कोई नई बात नहीं है। अब के समय को मैं पिछले समय से अच्छा समझता हूँ। पहले पंजाब में संत सिंह सेखों जो कुछ कहता था, सब उसके पीछे चल पड़ते थे। अब हम किसी सीमा तक भेड़चाल से बच रहे हैं। इसका लेखकों और पाठकों पर अच्छा प्रभाव भी पड़ रहा है। माक्र्सवादी भाई स्त्री-पुरुष के रिश्तों, संस्कृति और भारतीय दर्शन के बारे में सोचने-समझने लगे हैं। मुझे 'लकीर' पत्रिका की प्रतियाँ बढ़ाने में कोई दिलचस्पी नहीं। गिनती बढ़ेगी तो घाटा बढ़ेगा। अगर निशाना बहुतों को पाठक बनाने का हो जाए तो गुणात्मकता कम हो जाती है।
प्रस्तुति एवं अनुवाद : सुभाष नीरव
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