पंजाबी कहानी : नए हस्ताक्षर

>> गुरुवार, 1 मार्च 2012



पंजाबी कहानी : नए हस्ताक्षर(4)

बर्फ़
सुखजीत
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

उसे अपनी गलती का अहसास हो गया था। जीप का इंजन हिचकोले खाने लगा था, जैसे एक या दो नोजल स्टिक हो गयी हों। चढ़ाई पर चढ़ने और इंजन के बार-बार बन्द हो जाने के कारण जीप रुक-रुक जा रही थी। कोई वश न चलता देख उसने गाड़ी को एक किनारे लगा इंजन बन्द कर दिया और स्टेयरिंग-व्हील के ऊपर एक मुक्का मारते हुए बुदबुदाया, ''व्हॉट नानसेंस!'' उसके बराबर बैठी उससे बरस भर बड़ी उसकी बहन बरखा ने उसकी ओर झुँझलाकर देखा और कहा, '' होटल वालों ने कहा भी था कि मौसम खराब है।''
''पर कपिल के रिसेप्शन में पहुँचना भी तो ज़रूरी था।'' मनीष ने जैसे सफाई देते हुए कहा।
''आखिर हुआ क्या है अब?'' बरखा ने प्रश्नसूचक नज़रों से उसकी ओर देखा।
''ठंड के कारण डीजल जम रहा है।'' कहते हुए मनीष ने निचला होंठ दाँतों तले दबाकर आँखें सिकोड़ी और सोचने के अन्दाज में सिर मारने लगा। हवा बन्द हो गयी थी। वातावरण में धुन्ध-सी परस रही थी जिससे लगता था कि बर्फ़ पड़नी शुरू हो रही है। अँधेरा गाढ़ा हो गया था जिसे जीप की रोशनी चीरने का प्रयत्न कर रही थी। मनीष ने डैश-बोर्ड में से टॉर्च निकाली और टूल-बाक्स में से पेचकश और चाभियाँ निकालकर गाड़ी से बाहर हो गया।
बोनट उठाकर फिल्टरों की हवा निकालते-निकालते वह सुन्न हो गया। जब वह फिर गाड़ी में बैठा, उसके दाँत बज रहे थे और हाथ काँप रहे थे। हीटर लगाकर उसने इंजर गर्म किया, पर इतनी जद्दोजहद के बाद स्टार्ट हुआ इंजन उसी समय बन्द हो गया, जब उसने गियर में डालकर गाड़ी को आगे बढ़ाना चाहा। उस वक्त तो उसकी जान ही निकल गयी थी, जब जरा-सा हिली हुई गाड़ी ने ब्रेक लगने के बावजूद पीछे की ओर सरकना शुरू कर दिया था। बरखा के चीख मारते हुए लपककर स्टेयरिंग पकड़ लेने से वह बरखा की तरफ घूम गया था और गाड़ी जिस तरफ बरखा बैठी थी, उस तरफ के पहाड़ से लगकर रुक गयी। पहाड़ों पर की बर्फ़ की इस फिसलन से अनजान था मनीष।
''मनीष!'' पुकारते हुए बरखा ने अन्दर की लाइट जलायी तो देखा कि इस अनहोनी दुर्घटना ने मनीष का रंग पीला जर्द कर दिया था। वह पसीना-पसीना और बेदम हुआ पड़ा था। लगभग यही हाल बरखा का था।
लेकिन, बड़ी बहन होने के कारण या मेडिकल की छात्रा होने के कारण उसने हौसले के साथ मनीष का कन्धा थपथपाया, ''मनीष...ओ मनीष...।''
मनीष ने स्वयं को सम्भाला। अपने बालों में उंगलियाँ फिराते हुए उसने सिर को झटका और एक लम्बी साँस भरते हुए कहा, ''बच गये दीदी!''
''हाँ, शुक्र मना कि इस ओर पहाड़ है, अगर खाई होती...।'' रोकते-रोकते भी बरखा का बदन काँप उठा।
''कपिल के विवाह के रिसेप्शन में जाने से तो रह गये।'' मनीष ने जैसे अपनी हार स्वीकार करते हुए अपने आप से कहा।
''उन्होंने भी तो कमाल ही कर दिया, विवाह के लिए ऐसी जगह चुनी?'' बरखा ने उन्हें ही दोषी ठहराया।
''इसी को एडवेंचर कहते हैं दीदी!'' चहकते हुए मनीष ने माहौल को हल्का करना चाहा।
''एडवेंचर...? हुंह...!'' बरखा ने नाक चढ़ाते हुए कहा, ''थोड़ी देर पहले देखा नहीं था। और सुन, सुना है बर्फ़ पड़ने के बाद रोड कई-कई दिन तक ब्लॉक रहती है।''
''ओ, डोंट वरी दीदी, सवेरे देखा जायेगा।'' मनीष अन्दर से डरा हुआ होने के बावजूद दिलेरी दिखा रहा था, शायद मर्द होने के कारण।
''कोई उन्नीस-बीस हो गयी तो सारा एडवेंचर धरा रह जायेगा।'' बरखा ने कहा और ठंड के कारण काँप उठी। फिर उसने पिछले सीट पर से कम्बल उठाये और उनकी तहें खोलने लगी। मनीष सोच रहा था कि कम्बल से ठंड तो दूर हो जाये शायद मगर भय? उसने सीटी बजाते हुए बैग में से रम की बोतल निकाल ली।
''मनीष यह क्या?'' बरखा ने टोका तो मनीष हैरान रह गया। बरखा जानती थी कि मनीष डैडी के संग अक्सर एक-दो पैग ले लेता था। वैसे भी वह नेवी के लिए सलेक्ट हो चुका था। फिर, बरखा स्वयं भी मॉडर्न लड़की थी। डॉक्टरी का आखिरी साल था उसका। उनके दादा-दादी अवश्य पुराने खयालों के थे पर, घर उनका पूरा आधुनिक था।
बरखा के टोकने पर मनीष ने हैरानी प्रकट करते हुए कहा, ''व्हॉट दीदी...क्यूँ?''
''देख मनीष, '' बरखा उसे समझाती हुई बोली, ''घर की बात और है, यहाँ हम फँस गये हैं बुरी तरह। पीकर अगर तू सो गया तो मैं क्या करूँगी?''
''फिर तो तू भी एक पैग लगा ले दीदी।'' मनीष ने शरारत में भरकर कहा तो बरखा उसे घूरते हुए बोली, ''शर्म तो नहीं आती?''
''बहुत आती है, दीदी,'' मनीष ने मुँह लटकाकर नाटक करते हुए कहा, ''पर ठंड को देखकर चली जाती है।''
बरखा कुछ कहने ही वाली थी कि मनीष की नजर जीप से बाहर चली गयी, ''दीदी...ई...'' वह चहक उठा था खुशी में, ''बाहर देखो दीदी!''
बाहर देखा तो खुद-ब-खुद बरखा के मुख से भी 'वाह' निकल गयी। हैड-लाइट के प्रकाश में जो कुछ देर पहले पानी की बूंद-सी प्रतीत होती थी, वह रुई के फाहों की भाँति धरती पर बिछ रही थी। सफेद, नरम से बर्फ़ के रेशमी फाहे रोशनी में चमकते और सड़क को दूधिया, और दूधिया बना देते। एक बार तो वे सब कुछ भूलकर स्नो-फॉल के आनन्द में खो-से गये।
यह उनका पहला अवसर था स्नो-फॉल देखने का। मनीष के दोस्त कपिल ने अपने विवाह का रिसेप्शन कुफरी में रखा था। उसने जोर देकर कहा था, ''ज़रूर आना मनीष। इस बहाने स्नो-फॉल भी देख लोगे।''
लेकिन, वे नहीं जानते थे कि स्नो-फॉल उनका स्वागत कुफरी से पहले ही करेगा और वह भी इस तरह कि वे उसे उम्रभर भूल न सकेंगे।
मनीष बोतल को भूला नहीं था। उसने कम्बल को ठीक से ऊपर लिया। बरखा को सामने गिर रही बर्फ़ के बारे में बताते हुए बातों में लगाकर कम्बल के बीच ही ढक्कन मरोड़ दिया। बरखा सामने गिर रही बर्फ़ में खोयी हुई थी। मनीष ने यह कहते हुए अन्दर की लाइट बुझा दी कि इस तरह हम अन्दर बैठे दिखाई नहीं देखें। लेकिन, बरखा ने सामने देखते हुए उसी गम्भीरता से कहा, ''पर तू नीट न पीना।''
मनीष चौंका, ''दीदी !'' उसने हैरानी में भरकर कहा तो बरखा बोली, ''हम डॉक्टर होते हैं भाई साहब !''
''फिर, डॉक्टर साहिबा, यह भी बता दो कि यहाँ पानी कहाँ है ?'' मनीष हँसकर बोला।
''वाह रे बुद्धू !'' बरखा उसका मजाक उड़ाते हुए बोली, ''कुदरत ने जो इतनी सारी बर्फ़ दी है, वह दिखाई नहीं देती ?''
मनीष ने कम्बल के अन्दर से हाथ निकालकर माथे पर मारा और लाइट जला दी। वह खाली मग लेकर गाड़ी से उतर गया। जब वह मग्गे में बर्फ़ डालकर अन्दर आया तो काँप रहा था मगर ताजी बर्फ़ के स्पर्श से खुश भी नज़र आ रहा था। बरखा ने मग पकड़ते हुए बर्फ़ को छुआ और आनंदित हो उठी। फिर, जब मग में बर्फ़ के ऊपर मनीष रम उंडेल रहा था तो बड़े रहस्यमयी अन्दाज में कहा बरखा ने, ''ऑन द रॉक्स !''
मनीष ने एक पल हाथ रोककर बरखा की ओर देखा- कुछ और ही तरह से- और बोला, ''तेरा तर्जुबा कमाल है दीदी।''
''व्हॉट ?'' बरखा ने बनावटी गुस्सा दिखाते हुए घूरा तो जीभ निकालकर, कन्धे उचकाकर मनीष ने 'सॉरी' कहा।
मनीष को एकाएक जैसे कुछ याद हो आया। उसने हैड-लाइट बुझा दी और बोला, ''ध्यान ही नहीं रहा। ऐसे तो सवेरे गाड़ी स्टार्ट ही नहीं होगी।''
''वैसे भी यह कहाँ स्टार्ट होने वाली है।'' बरखा निराश होकर बोली।
''इतना नाउम्मीद न हो, दीदी।'' मनीष को कुछ नशा हो गया था और उसका बात करने का अन्दाज बदल गया था। वह एक बार फिर जीप से उतरकर मग में बर्फ़ ले आया। इस बार उसे इतनी ठंड नहीं लगी थी। वह कुछ देर बाहर घूमा भी था। उसके कोट पर पड़ी बर्फ़ को अपने हाथों में भरकर बरखा का भी बड़ा मन हुआ था, बर्फ़ में घूमने का पर, वह साहस न कर सकी थी।
बाहर की लाइट बन्द हुई तो एकदम अँधेरा छा गया। सामने शीशे में उनके अपने चेहरों के प्रतिबिम्ब दिखाई दे रहे थे, बड़े-बड़े। बरखा को एकाएक डर लगने लगा तो उसने घबराकर कहा, ''लाइट जला दे, मनीष।''
मनीष ने एक-दो सेकेंड सोचा, फिर लाइट जला दी। अन्दर की भी। फिर उसने बरखा की ओर देखकर पूछा, ''क्या बात है, दीदी ?''
बरखा ने उत्तर देने की बजाय प्रश्न ही किया, ''यहाँ जंगली जानवर तो होते होंगे?''
''शायद।'' मनीष ने कहा तो वह भयभीत-सी बोली, '' अगर कोई शेर-भेड़िया आ गया तो हम क्या करेंगे ?''
''हमने क्या करना है, दीदी, जो करना होगा, शेर-भेड़िया ही करेंगे।'' कहकर मनीष जोर-जोर से हँसा। उसकी हँसी पर नशा हावी था। मगर बरखा इस मजाक पर भी हँस न सकी।
''ऐसे तो रात नहीं बीतेगी, दीदी।''
''फिर ?''
''पहले तू सो जा दीदी, मैं जागता हूँ।''
''नहीं, मुझे नींद नहीं आयेगी।''
''फिर मैं सो जाता हूँ पहले।''
''नहीं, मुझे डर लगता है।''
''फिर दोनों सो जाते हैं।'' नशा होने के कारण मनीष बात की कड़ी टूटने नहीं दे रहा था।
''ना बाबा, तू बैठा रह इसी तरह लाइट बुझा दे अन्दर की, डर लगता है। इतनी ठंड में अगर सो गये तो उठेंगे कैसे ?''
''वाह ! यहाँ के लोग तो फिर मर ही जायें।'' मनीष बोला, ''सो जाने से रात जल्दी बीतेगी, दीदी।''
कुछ क्षण चुप रही बरखा जैसे कोई हिसाब लगा रही हो। फिर बोली, ''तो फिर एक आइडिया है।'' उसने जीप के पिछले हिस्से की ओर देखा, ''हम पीछे की सीटें उतारकर फर्श पर रख लेते हैं। वहाँ हम टाँगे सिकोड़कर पड़ जायेंगे। कम्बल दोनों जोड़कर ऊपर ले लेंगे।''
''देख लो।'' मनीष ने कुछ झिझक प्रकट की।
''देखना क्या है, ऐसे तो मर जायेंगे ठंड से।''
कुछ देर तक चुप्पी छायी रही। बरखा मनीष की ओर देख रही थी, फिर बोली, ''ठीक नहीं?''
''ठीक ही है, एज यू लाइक दीदी।'' मनीष ने लापरवाही दिखायी। दोनों उठे। पिछला सामान ठीक करके सीटें टिकायीं। लाइट बुझाकर और फँसकर लेटते हुए दोनों कम्बल मिलाकर ऊपर ले लिये। दोनों ने एक-दूजे की ओर पीठ की हुई थी।
जगह बहुत कम थी। वे सिकुड़े हुए थे और अपने आपको एक-दूजे के स्पर्श से बचा रहे थे।
'पर क्यों ?' बरखा ने सोचा, 'हम एक-दूजे की ओर पीठ किये हुए सो रहे हैं ? हम बहन-भाई हैं। बचपन से इकट्ठे सोते रहे हैं। एक-दूसरे पर बाँहें फैलाकर। पर अब ? अब शायद हम बड़े हो गये हैं।'
''कितनी ठंड है!'' वह काँपती हुई बुदबुदायी।
''हाँ।'' मनीष ने हुँकारा भरा और सोचा कि इतनी ठंड में कोई भी सुन्न होकर मर सकता है।
''हमें ठंड के बारे में नहीं सोचना चाहिए।'' मनीष ने बरखा को सुनाते हुए अपने आप से कहा।
''हाँ, सिर्फ नींद के बारे में सोचना चाहिए।'' बरखा ने कहा और मुस्कुरायी।
लेकिन, मनीष को ज्यूँ-ज्यूँ नशा हो रहा था और गरमाहट मिल रही थी, त्यूँ-त्यूँ पता नहीं कैसे वह यूनीवर्सिटी वाली नीना के बारे में सोचने लग पड़ा था। जिमनास्टिक की यूनीफॉर्म वाला उसका जिस्म मनीष के खयालों में घूमने लग पड़ा था जिसे देखकर वह रोमांचित हो जाया करता था।
'मुझे पीनी नहीं चाहिए थी।' उसने परेशान होकर सोचा, 'पहले तो मुझे शिमला से चलना ही नहीं चाहिए था।' उसे गलती-दर-गलती का अहसास हो रहा था, 'फिर मुझे पीकर बरखा के साथ इस तरह लेटना नहीं चाहिए था।'
'मगर क्यों ?' उसने सारे खयालों को झटकते हुए सोचा, 'क्यों ? बरखा मेरी दीदी है, मैं ऐसा क्यों सोच रहा हूँ ? मुझे नींद के बारे में सोचना चाहिए।' और उसने सारे खयाल एक तरफ करके सिर्फ सोने के खयाल से शरीर को ढीला छोड़ दिया।
ज्यों ही मनीष के बदन ने बरखा के बदन को छुआ तो वह और अधिक सिकुड़ गयी। वह भी ऐसा ही सोच रही थी कि जिस भेड़िये की हम बातें कर रहे थे, वह तो हमारे मन में बैठा है शायद। वह सोच रही थी, 'मैंने मनीष को पीने से रोका क्यों नहीं?'
'पर ऐसे उसे ठंड कम लगेगी।'
'तो फिर मैं भी... ?'
'नहीं, शायद हाँ...।'
'पर मैं ऐसा गलत-सलत सोच ही क्यों रही हूँ ?'
'नहीं, मैं तो नार्मल हूँ।'
'फिर, सिकुड़ क्यों रही हूँ मैं ?'
और उसने भी अपना शरीर ढीला छोड़ दिया। उनके शरीर एक-दूसरे से पूरी तरह सट गये। थोड़ी देर बाद वे दोनों यूँ प्रकट करने लगे जैसे गहरी नींद में हों।
एक-दूसरे से लगी पीठें गरम हो रही थीं। यह जानते हुए भी कि दोनों जाग रहे हैं, वे सोये होने का नाटक कर रहे थे। जगह बहुत कम थी और ठंड बहुत ज्यादा। वे एक-दूसरे के जितना नजदीक थे, नींद उनसे उतनी ही दूर थी। अब शायद वे बेखबर थे- शिमला और कुफरी के बीच बंद हो गयी जीप से, देवदार के ऊँचे-ऊँचे दरख्तों से, बर्फ़ से सफेद हो रही सड़क से और सुन्न कर देने वाली ठंड से !
मनीष ने नीना के विषय में सोच-सोचकर अपना बुरा हाल कर लिया। उसकी कनपटियों में से सेंक निकलने लगा। उसका मुँह लार से भर उठा। जब उसे अपनी साँस घुटती महसूस हुई तो वह एक झटके के साथ उठ बैठा। बरखा का रोम-रोम काँप रहा था। पिछला दरवाजा खोलकर वह बाहर निकल गया।
बाहर बर्फ़ का गिरना बन्द हो गया था। वह नहीं जानता था कि बर्फ़ गिरने के बाद जब हवा चलती है तो ठंड इतनी बढ़ जाती है। हवा के थपेड़ों ने क्षण भर में ही उसके तप रहे शरीर को सुन्न कर दिया। पेशाब करते हुए वह बर्फ़-सा ठंडा हो गया और उसके दाँत बजने लगे।
जीप का दरवाजा बन्द करके कम्बल में घुसते हुए वह फिर बैठ गया। मन में घुसे चोर का भय अभी निकला नहीं था शायद। उसने बरखा को पुकारा, ''बरखा... ऐ बरखा...'' अपनी आवाज पर वह हैरान रह गया। उसे तो 'दीदी' कहकर बुलाना था। वह तो आज तक दीदी ही कहता आया था। लेकिन, बरखा जान-बूझकर उसी तरह बेखबर-सी पड़ी थी। अगली बार मनीष ने ऊँचे स्वर में पुकारा, ''बरखा... बरखा दीदी !'' बरखा के मुँह से बेहद अलसायी हुई 'हूँ' निकली और उसने नींद में डूबी आवाज में पूछा, ''क्या है?''
''अगर तुम्हें असुविधा हो रही हो तो मैं आगे जाकर पड़ जाऊँ?''
''ओह नो, नहीं, मनीष सो जा तू।'' कहते हुए बरखा ने उसी ओर मुँह कर लिया।
मनीष की कंपकंपी कुछ कम हो गयी थी। उसने बरखा की ओर मुँह कर लेटते हुए कम्बल को अपने इर्द-गिर्द अच्छी तरह खोंस लिया।
बरखा को मनीष का इस तरह बुलाना अच्छा लगा। उसका मन हुआ, वह मनीष की कनपटियों पर अपनी उँगलियाँ फिराये, धीरे-धीरे, जैसे बचपन में फेरा करती थी। उन दिनों तो मनीष कानों के पास इस प्रकार खाज कराये बिना सोता ही नहीं था। यह आदत मनीष को दादी ने डाली थी। तब मनीष और बरखा एक साथ सोया करते थे। एक-दूसरे के बदन पर बाँह रखकर। फिर दादी ने ही बन्द करवा दिया था उनका इकट्ठा सोना। कुछ नहीं समझ पायी थी बरखा उस समय। उस समय वह भी वहीं पर थी जब मम्मी को दादी समझा रही थी, ''देख बहू, सियानों का कहना है कि जवान बेटा-बेटी एक लटैण(शहतीर) के नीचे सोयें तो लटैण टूट जाती है।''
''ठीक है, बेजी।'' मम्मी ने कहा था और हल्का-सा हँस दी थी। इसके बाद वे दोनों इकट्ठे नहीं सोये थे कभी। वैसे बरखा ने पूछा था मम्मी से एक दिन, ''बेजी, यह लटैण क्या होती है और टूट कैसे जाती है ?''
मम्मी ने उसे झिड़ककर चुप करा दिया था।
लेकिन, आज वह समझ गयी थी कि लटैण क्या होती है और... आज वे एक अरसे के बाद यूँ इकट्ठा सो रहे थे। बरखा का जी मचल रहा था कि मनीष उस पर अपनी बाँह रख ले।
''ठंड बहुत बढ़ गयी है,'' वह बुदबुदायी, पर मनीष गहरी नींद में सोये होने का नाटक कर रहा था। बरखा से यह चुप्पी बर्दाश्त नहीं हो रही थी।
''मनीष !'' पहले धीमे स्वर में फिर कुछ ऊँचे स्वर में उसने कहा, ''मनीष...''
मनीष के मन में न जाने क्या था, वह चुपचाप लेटा रहा। बोला नहीं। बरखा का मन उतावला हो उठा। फिर उसे गुस्सा आने लगा। मालूम नहीं कैसा। 'खुद ने तो पी ली और सो गया।'
उसने झटके के साथ पिछला दरवाजा खोला। मनीष भी उठ बैठा था झटके से। मनीष ने बाहर निकल रही बरखा का हाथ थाम लिया।
''छोड़ मुझे, मुझे बाहर जाना है।'' बरखा के स्वर में क्रोध भी था और रुआंसापन भी।
पर दूसरा हाथ बरखा की पीठ पर रखते हुए मनीष ने कहा, ''क्या बात है बरखा, तू तो काँप रही है ?'' उसके अपने स्वर में भी एक कम्पन था।
बरखा के सिर्फ होंठ फड़के, जैसा कहा हो, ''तुम्हे क्या ?''
''बरखा, लगता है, तुम्हें बुखार है।'' मनीष ने उसके माथे पर हाथ रखा।
''शायद।'' बरखा ने कहा और उससे हाथ छुड़ाकर बाहर निकल गयी।
बाहर ठंड बहुत बढ़ गयी थी लेकिन बरखा को ठंड नहीं लग रही थी। उसका मन करता था कि वह सारे कपड़े उतार दे और बर्फ़ पर लेट जाये। बर्फ़ को अपने आलिंगन में भर ले। बर्फ़ की मुट्ठियाँ भर-भरकर अपने अन्दर फेंके।
बर्फ़ में समा जाने की चाहत लिये वह बर्फ़ पर बैठ गयी। बर्फ़ में से एक अजीब-सा सेंक चढ़ने लगा। बर्फ़ में कोई आग थी जो उसके अन्दर भरती जा रही थी। और बर्फ़ की इस आग में उसका तन तप रहा था और मन दहक रहा था।
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सुखजीत
जन्म : 1 अप्रैल 1960,माणेवाल, ज़िला- लुधियाना (पंजाब)
पंजाबी की नई कथा पीढ़ी का बहु चर्चित कथाकार। अपनी शुरूआती कहानियों से ही पंजाबी कथा साहित्य में पहचाना जाने वाला लेखक। एक कहानी संग्रह ‘अंतरा’ (1997) चर्चा का विषय रहा। सुखजीत की कहानियों में निम्न किसानी के संकट और सरोकार पेश हुए हैं, उसने पंजाब में पसर रहे डेरों में फैले अनाचार को भी अपनी कहानियों में बड़ी खूबी से पेश किया है। ‘बर्फ़’, ‘पातशाह’ और ‘हज़ार कहानियों का बाप’ उसकी बहुचर्चित कहानियाँ हैं।
संपर्क : गुरों कालोनी, माछीवाड़ा 1414115, ज़िला- लुधियाना(पंजाब)

2 टिप्पणियाँ:

संगीता स्वरुप ( गीत ) 3 मार्च 2012 को 10:32 am बजे  

जानवर तो खुद के भीतर ही होता है ... रिश्तों पर बुनी अच्छी कहानी ...विचारणीय प्रस्तुति

ashok andrey 19 मार्च 2012 को 4:15 pm बजे  

bhai Subhash jee itni achchhi kahani padvane ke liye aabhar.

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

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पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
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रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव
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पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव
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कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह) संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह)  संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव
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प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, वर्ष 1998, 2004, मूल्य :35 रुपये

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-1100-6, मूल्य : 125 रुपये

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

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'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

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