स्त्री कथालेखन : चुनिंदा कहानियाँ

>> रविवार, 2 मई 2010


स्त्री कथालेखन : चुनिंदा कहानियाँ(2)

डॉ. दलीप कौर टिवाणा(जन्म : 4 मई 1935)
डॉ. दलीप कौर टिवाणा पंजाबी की एक प्रतिष्ठित, बहु-चर्चित अग्रज लेखिका हैं। इन्होंने अपनी माँ-बोली पंजाबी भाषा की झोली में दो दर्जन से अधिक उपन्यास, अनेक कहानी संग्रह, कई आलोचनात्मक पुस्तकें, एक आत्मकथा ‘नंगे पैरों का सफ़र’ तथा एक साहित्यिक स्व-जीवनी ‘पूछ्ते हो तो सुनो’ डाली हैं। इनकी अनेक रचनाएं कई भाषाओं में अनूदित होकर लोकप्रिय हो चुकी हैं। डॉ. टिवाणा पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला में प्रोफ़ेसर हैं और अपने पंजाबी साहित्य लेखन के लिए अनेक प्रांतीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय अवार्डों से विभूषित हो चुकी हैं। उनकी बहुचर्चित कहानी ‘मेरा कमरा, तेरा कमरा’ उनकी पंजाबी पुस्तक ‘मेरी सारियां कहाणियाँ’ में से साभार ली गई है।

कहानी
मेरा कमरा, तेरा कमरा
दलीप कौर टिवाणा
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

दफ्तर में मेरा कमरा और तेरा कमरा साथ-साथ है। फिर भी, न यह कमरा उस तरफ जा सकता है और न वह कमरा इस तरफ आ सकता है। दोनों की अपनी-अपनी सीमा है। दोनों के बीच एक दीवार है। दीवार बहुत पतली सी है। भूले-भटके भी अगर उधर तेरा हाथ दीवार से लगता है तो आवाज़ मेरे कमरे में पहुँच जाती है। एक दिन शायद कोई इस दीवार में तेरी तरफ से कील ठोक रहा था, मेरे कमरे की सारी दीवारें धमक रही थीं। मैं उठकर बाहर गई कि देखूँ, पर तेरे कमरे के दरवाजे पर भारी पर्दा लटक रहा था। मैं लौट आई। आजकल लोग आम तौर पर दरवाजों-खिड़कियों पर भारी पर्दे लटकाये रखते हैं, ताकि बाहर से किसी को कुछ दिखाई न दे। फिर मुझे ख्याल आया कि पर्दा तो मेरे दरवाजे पर भी लटक रहा है।
कभी-कभी जब तू किसी बात पर चपरासी से ऊँची आवाज़ में बोलता है, मैं काम करती-करती कलम रखकर बैठ जाती हूँ। मेरा मन करता है, तुझसे पूछूँ, 'क्या बात हो गई ?' पर फिर ख्याल आता है, तुझे शायद यह अच्छा न लगे कि जब तू अपने चपरासी से ऊँचा बोल रहा था तो मैं सुन रही थी। तुझे तो इस बात का ख्याल भी नहीं रहता कि तू गहरा साँस भी ले तो साथ के कमरे में सुनाई दे जाता है।
एक दिन मेरे कमरे में चलते-चलते पंखा बन्द हो गया। शायद, बिजली चली गई थी। कुछ मिनट मैं प्रतीक्षा करती रही। फिर गरमी से घबराकर मैं बाहर बरामदे में आ गई जो दोनों कमरों के आगे साझा है। मैं जानती थी कि तेरे कमरे का पंखा भी बन्द हो गया होगा। फिर भी मैंने तेरे कमरे में थोड़ा-सा झांक कर पूछा, ''आपका पंखा चलता है?'' मेरे कहने का भाव था कि अगर नहीं चलता तो तू भी साझे बरामदे में आ जाए। अगर अन्दर उमस हो तो पल दो पल के लिए बाहर आ जाने में कोई डर नहीं होता।
''नहीं, पंखा तो नहीं चलता, पर मैंने पिछली खिड़की खोल ली है।'' तुमने कहा। परन्तु मुझे शायद पिछली खिड़की का ख्याल ही नहीं आया था इसीलिए मैं कमरे से बाहर आ गई थी।
एक दिन काम करते-करते मेरे हाथ से कलम गिर पड़ा। निब टेढ़ी हो गई। उस दिन मुझे ख्याल आया था कि तेरे कमरे में से कोई कलम मंगवा लूँ। लेकिन इस डर से कि कहीं तू यह न कहला भेजे कि मेरे पास फालतू कलम नहीं, मैं यह हौसला न कर सकी। बहुत बार ऐसा ही होता है कि हम स्वयं ही सवाल करते हैं और स्वयं ही उसका जवाब दे लेते हैं।
कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि अगर कहीं इन दोनों कमरों के बीच की दीवार टूट जाए… पर ऐसा होने पर तेरा कमरा साबुत नहीं रह जाएगा, और मेरा भी। फिर तो ऐसा ही लगेगा मानो खुला-सा, बड़ा-सा एक ही कमरा हो। पर ऐसा करना शायद ठीक न हो। बनाने वाले ने कुछ सोच कर ही ये अलग-अलग कमरे बनाये होंगे।
कभी-कभी मुझे यूँ लगता है मानो मैं इस पक्की सीमेंट की दीवार के आर-पार देख सकती हूँ। तभी तो मुझे पता चल जाता है कि आज तू काम नहीं कर रहा। कभी छत की ओर देखने लग जाता है और कभी हाथ की लकीरों को। कभी फाइलें खोल लेता है। कभी बन्द कर देता है। कभी बूट उतार लेता है और कभी पहन लेता है।
कभी-कभी तू बहुत खुश हो रहा होता है। उस वक्त मेज़ पर पड़े पेपरवेट को घुमाने लग जाता है, धीरे-धीरे सीटी बजाने लगता है। फिर दीवार पर हाथ लगाकर कुर्सी पर बैठा धरती पर से पैर उठा लेता है। उस वक्त मैं इधर हल्का-सा भी खटका नहीं होने देती कि कहीं तू चौंक न पड़े।
कभी-कभी आते-जाते समय तू मुझे कमरे से बाहर मिल जाता है। ''सुनाओ, क्या हाल है ?'' तू पूछता है।
''ठीक है,'' मैं हल्का-सा मुस्करा कर कहती हूँ। तू अपने कमरे में चला जाता है और मैं अपने कमरे में। न वह कमरा इधर आ सकता है, न यह कमरा उधर जा सकता है। दोनों की अपनी-अपनी सीमा है। दोनों के मध्य एक दीवार है।
बीच में हालांकि दीवार है, फिर भी जिस दिन तू दफ्तर नहीं आता, अपने कमरे में बैठा नहीं होता, मुझे कुछ अजीब-अजीब सा लगता है। उस दिन मैं कई बार घड़ी देखती हूँ। कई बार पानी पीती हूँ। लोगों को टेलीफोन करती रहती हूँ। इकट्ठा हुआ पिछला काम भी खत्म कर देती हूँ। ''आज साहब नहीं आए ?'' उधर से गुजरते तेरे चपरासी से पूछती हूँ। फिर वह खुद ही बता देता है कि साहब बाहर गए हुए हैं, कि साहब के रिश्तेदार आए हुए हैं, कि साहब की तबीयत ठीक नहीं, कि साहब ने कितने दिन की छुट्टी ली है।
इन दिनों में मुझे बहुत ऊल-जलूल सी बातें सूझती रहती हैं कि आज से सौ साल पहले इस कमरे में कौन बैठता होगा ? साथ वाले कमरे में भी कोई बैठता होगा ? आज से सौ साल बाद इस कमरे में कौन बैठा होगा ? लोग मर क्यों जाते हैं ? फिर सोचती हूँ, लोग पैदा ही क्यों होते हैं ? और फिर इन बातों से घबरा कर मैं दफ्तर में काम करने वालों को मिलने के लिए घूमती रहती हूँ।
''आए नहीं इतने दिन ?'' मालूम होने के बावजूद मैं तुझसे पूछती हूँ।
''बीमार था।'' तू कहता है।
''अब तो ठीक हो ?''
''हाँ, ठीक हूँ। मेहरबानी।'' कहकर तू अपने कमरे में चला जाता है और मैं अपने कमरे में । तू अपना काम करने लग जाता है और मैं अपना।
एक बार मैं कई दिन छुट्टी पर रही।
''मैडम, आ नहीं रहीं ?'' तूने मेरे चपरासी से पूछा।
''जी, वह बीमार हैं।'' उसने बताया।
''अच्छा... अच्छा।'' कहकर तू अपने कमरे में चला गया।
घर डाक देने आए चपरासी ने मुझे यह बताया। अगले दिन जब बुखार थोड़ा कम था, मैं दफ्तर आ गई। तुझे शायद पता नहीं था। उस दिन तूने दो-तीन बार चपरासी को डांटा। कई बार कागज़ फाड़े, जैसे गलत लिख गया हो। मिलने आए एक दो लोगों को भी कहला भेजा कि किसी दूसरे दिन आना।
किसी काम से तू कमरे से बाहर निकला। मैं भी किसी काम से बाहर निकली।
''आए नहीं कई दिन ?'' तूने जानते हुए भी पूछा।
''बीमार थी।''
''अब तो ठीक हो ?''
''हाँ, ठीक हूँ। शुक्रिया।'' कहकर मैं अपने कमरे में चली गई और तू अपने कमरे में चला गया। न यह कमरा उधर जा सकता है, न वह कमरा इधर आ सकता है। दोनों की अपनी-अपनी सीमा है। दोनों के मध्य एक दीवार है। एक कमरा तेरा है, एक कमरा मेरा है। फिर भी मैं सोचती हूँ कि इतना भी क्या कम है कि दोनों कमरे साथ-साथ हैं, बीच में सिर्फ़ एक दीवार ही तो है।
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सम्पर्क : बी-13, पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला(पंजाब)

7 टिप्पणियाँ:

बेनामी 2 मई 2010 को 9:22 pm बजे  

Dear subhash ji
Its good blog. u r doing excellent job. congratulations!!!!
regards
harpreet sekha
hsekha@hotmail.com

Devi Nangrani 3 मई 2010 को 12:35 pm बजे  

Subhash ji
aapka yeh prayas sarahneey hai. Stree kathakar Dilip Kaur ji ki kahani Mera LKamra, tera kamra bahut hi achi kahani lagi . aapke prayason mein kabhi sindhi bhasha ko bhi avasr dein to mujhe bahut khushi hogi..aisa hi koi prays jo Bin Prant ki hamari Bhasha ko jeevit rakhne mein kargar ho..
sadar

PRAN SHARMA 3 मई 2010 को 8:12 pm बजे  

DILIP KAUR TIWANA KEE KAHANI
ACHCHHE HAI.KAHANI KAA AARAMBH
AUR ANT DONO HEE SASHAKT HAIN.
SHABDON KO BADEE TARTEEB SE
ISTEMAAL KIYAA GAYAA HAI.ANUWAAD
KAABILE- E- TAAREEF HAI.

निर्मला कपिला 6 मई 2010 को 10:14 pm बजे  

बहुत सुन्दर कहानी है टिवाना जी की रचनायें हमेशा दिल को छू लेती हैं और अनुवाद के लिये धन्यवाद्

रूपसिंह चन्देल 7 मई 2010 को 8:11 pm बजे  

भाई सुभाष,

टिवाणा जी की लाजवाब कहानी तुमने पढ़वाई. सहज भाव से कही एक उत्कृष्ट कहानी.... जो दफ्तरी महौल की वर्तमान स्थितियों पर वास्तविक प्रकाश डालती है.

चन्देल

Sunita Sharma Khatri 8 मई 2010 को 5:31 pm बजे  

कितनी सहजता से मनोभावों का सुन्दर चित्रण हुआ इस कहानी में अमुता जी के अलावा पंजाबी कहानी का काफी अरसे के बाद हिन्दी में पढने का अवसर मिला ।
नीरव जी आपका आभार मुझे लिंक भेजने का हिन्दी में अनुवाद बहुत ही कुशलता से हुआ है बधाई।

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