पंजाबी लघुकथा : आज तक
>> रविवार, 2 मई 2010
पंजाबी लघुकथा : आज तक(5)
'पंजाबी लघुकथा : आज तक' के अन्तर्गत पंजाबी लघुकथा की अग्रज पीढ़ी के कथाकार भूपिंदर सिंह, हमदर्दवीर नौशहरवी, दर्शन मितवा और शरन मक्कड़ की चुनिंदा लघुकथाएं आप पढ़ चुके हैं। इसी कड़ी में प्रस्तुत हैं- पंजाबी लघुकथा की अग्रज पीढ़ी के सशक्त लेखक सुलक्खन मीत (जन्म : 15 मई 1938) की पाँच चुनिंदा लघुकथाएं... सुलक्खन मीत ने कहानी, लघुकथा, कविता, एकांकी, नाटक और उपन्यास विधा में लेखन किया। पंजाबी में 'सुलगती बर्फ़' उनका बहु-चर्चित लघुकथा संग्रह है। इनकी लघुकथाओं की विशेषता यह है कि इनमें मानवीय रिश्तों को बहुत खूबसूरती से स्पर्श किया गया है।
सुभाष नीरव
संपादक : कथा पंजाब
सुलक्खन मीत की पाँच लघुकथाएं
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
(1) रिश्ता
भेदी ने चोर को बताया, ''आज, रूपाले में चोरी हो सकती है।''
''कैसे ?'' जगीरे चोर की आँखें खुशी में फैल गईं।
''घरवाला घर में नहीं है।'' भेदी की आँखें भी फैली थीं।
''ठीक है।'' जगीरे चोर ने छांटी हुई मूंछों पर बल दिया।
मुर्गे की बांग से पहले ही जगीरा चोर भेदी द्वारा बताए गए घर में घुसा। अगले कुछ क्षणों में वह बक्सों और पेटी के पास खड़ा था।
तेजो को चोर का शक हुआ। वह आहिस्ता से चारपाई पर से उठी। बिल्ली की भांति दबे पांव वह स्विच के समीप पहुँची। बल्ब जला तो सचमुच ही सामने एक आदमी खड़ा था। 'चोर...' शब्द उसके गले में ही फंसकर रह गया।
तेजो और जगीरे ने एक-दूसरे को पहचान लिया था। जगीरे चोर की नज़रें झुक गई थीं। तेजो ने पूछा, ''ओए जगीरिया ! तुझे बहन का ही घर मिला था चोरी करने को ?''
''मैंने सोचा तो था कि हमारे गाँव की एक लड़की रूपाले गाँव में ब्याही हुई है, पर मुझे क्या पता था कि तू इसी घर में होगी।'' कहकर जगीरा चोर दहलीज़ पार करने लगा।
''अब किधर चला ?'' तेजो ने उसकी बांह पकड़ते हुए कहा।
''गाँव।'' जगीरे चोर ने तेजो की ओर न देखते हुए उत्तर दिया।
''बैठ जा। चाय पीकर जाना अब। मैं चाय रखती हूँ।''
जगीरा चोर तेजो की बात पर हैरान होता हुआ एक बच्चे की चारपाई पर बैठ गया। चाय आने तक जैसे वह पछताता रहा था। चाय पीकर चलते वक्त जगीरे ने अंटी में से दस का नोट निकाला। फिर उसने वही नोट तेजो के हाथ में जबरदस्ती ठूंस दिया।
''ओए कोढ़ी ! यह क्या ?'' तेजो ने मुसे हुए नोट की ओर देखते हुए पूछा।
''यह भाई का फर्ज़ बनता है, बहन।'' कहकर जगीरा एकाएक दहलीज़ फांद गया। गाँव में अभी भी चुप्पी पसरी थी। कहीं से भी किसी कुत्ते के भौंकने की आवाज़ नहीं आ रही थी।
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(2) थप्पड़
शहीदे-आज़म भगतसिंह की समाधि देखने के बाद गुरइकबाल सिंह ने मुझे बताया, ''यहाँ से पाकिस्तान की सीमा भी नज़दीक ही है। पाँच-सात मिनट का पैदल का रास्ता है।''
मुझे बेहद खुशी हुई।
पाँच-सात मिनट में हम भारतीय चौकी पर जा खड़े हुए। वहाँ से पाकिस्तानी चौकी पत्थर की मार की दूरी पर थी। भारतीय सैनिक बता रहा था, ''अब तो हम उस लाइन के पार नहीं जा सकते और इस पार वे नहीं आ सकते।''
''फर्र...र...।'' ने हमारी बात काट दी। एक काला तीतर भारतीय चौकी की तरफ से उड़ा और पाकिस्तानी चौकी की तरफ जा बैठा।
मैंने और गुरइकबाल सिंह ने एक-दूजे को देखा और हमारे सैनिक ने अपनी बात फिर शुरू कर दी।
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(3) बिचौलिया
बलदेव सिंह मेरे पास आया। उसका जिलाधिकारी से कोई काम था। हम इकट्ठे ही जिलाधिकारी से मिले। उसने पूरा भरोसा दिलाया, ''तुम ज़रा भी फिक्र न करो। इनका काम हो जाएगा।'' चाय पीते हुए जिलाधिकारी से स्वयं ही कहा, ''तुमने यूँ ही तकलीफ़ की। तुम तो कौवे के हाथ भी संदेश भेज देते तो तुम्हारा काम हो जाता।''
हम दोनों धीमे-धीमे 'ही-ही' करते रहे। उसने फिर कहा, ''चलो, इसी बहाने तुम्हारे दर्शन तो हो ही गए।''
जब बलदेव सिंह मुझसे विदा लेने लगा तो वह बहुत खुश नहीं था। मैंने उसके हाव-भाव को समझते हुए कहा, ''बलदेव सिंह, तू हौसला रख, तेरा काम बना ही समझ।''
''मुझे संदेह है।'' बलदेव सिंह बुदबुदाया।
''क्यों ?'' मैं चलते-चलते रुक गया।
''अगर हम उसकी चाय-पानी की सेवा कर देते...''
''हाँ, अगर हम चाय-पानी की सेवा कर दें तो फिर पत्थर की लकीर ही समझो।'' मेरा मन डोल गया था।
''यही तो मैं कहता हूँ...'' कहकर बलदेव सिंह ने पिछली जेब में से बटुआ निकाला और सौ-सौ के दस नोट उसने मेरी हथेली पर रख दिए। मैंने भी नोट पकड़ते हुए कह ही दिया, ''वैसे भी आजकल बिना पैसे के काम नहीं होता।''
''मेरा भी यही विचार है।'' बलदेव सिंह ने बटुआ संभालते हुए सयाने बुजुर्ग की तरह कहा।
पैसे जेब में डालते हुए मैंने कहा, ''अच्छा, तू चल। मैं अभी आया, जिलाधिकारी से मिलकर।''
बलदेव सिंह कचहरी की भीड़ में गुम हो गया तो मैं यूँ ही चक्कर-सा काटकर अपने घर की ओर हो लिया।
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(4) जूठा-सुच्चा
मैं और पाली दोनों साथ-साथ पास ही एक गाँव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे। दोपहर को जब हम इकट्ठे रोटी खाते तो वह मुझसे अचार या सूखी सब्ज़ी आदि मांग लेती, पर मैं कभी भी उससे अचार या सब्ज़ी न लेता। वह कभी-कभी मेरे दिल की बात बूझते हुए कहती, ''क्या बात है, मेरा अचार या सब्ज़ी जूठी है ? तू लेता क्यों नहीं ?''
मैं ऊपरी मन से कह देता, ''नहीं, यह बात नहीं। बस यूँ ही...।''
फिर हम दोनों ही साथ के एक दूसरे गाँव में बने हाई स्कूल में पढ़ने जाने लगे। अब वह लड़कियों के संग बैठकर रोटी खाती तो मुझसे सहा न जाता। एक दिन उसकी सहेलियाँ नहीं आईं। हम दोनों एक-दूसरे की ओर बढ़े और एकांत-सी जगह पर बैठकर रोटी खाने लगे। मैंने हिम्मत करके कहा, ''पाली, अचार तो दे थोड़ा-सा !''
''जूठा है।'' पाली ने जैसे शरारत में कहा।
''इस उम्र में जूठा-सुच्चा कैसा, पाली ! हट, मजाक न कर। अब तो मैं तुझे भी खा जाऊँ।''
पाली जैसे पूरी की पूरी शरमा गई। एक ओर मुँह करके अचार पकड़ाते हुए पाली ने मेरी अंगुली दबा दी।
मैं कितनी ही देर उस अंगुली को चूसता रहा।
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(5) टुकड़ा-टुकड़ा धैर्य
उसके पहले बेटी पैदा हुई तो उसके घर और ससुराल, दोनों में बड़ी खुशियाँ मनाई गईं।
उसके दूसरी बेटी हुई तो दोनों पक्ष कह रहे थे, ''कोई गम नहीं। रब कभी तो भूलेगा ही।''
उसके तीसरी बेटी ने जन्म लिया तो दोनों पक्षों को जैसे पिस्सू पड़ गए। घरवाले उदास थे। ननिहालवाले सोच में डूब गए। उन्हें बेटी का ससुराल में रहना खतरे में जान पड़ा।
लेकिन, उसने उस दिन जी भरकर दारू पी। उसने अपनी पत्नी को गले लगाकर कहा, ''तू फिकर न करना। इसमें तेरा कोई दोष नहीं। तूने सुना नहीं कि मूर्ख बेटा जनने से तो अंधी बेटी भली। लड़के साले किसी माँ-बाप की कब्र पर मूतने तक नहीं जाते। ये अपनी बेटियाँ नहीं, बेटे हैं। हौसला रखकर उठना- चिल्ले से।''
फिर उन्होंने एक दिन अपनी बड़ी बेटी को गुनगुनाते हुए सुना-
'इक भाई देना हे रब्बा !
कसम खाने को बहुत दिल करता...'
अगले पल वे दोनों बगलगीर होकर एक-दूसरे में समाये बच्चों की तरह रो रहे थे।
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'पंजाबी लघुकथा : आज तक' के अन्तर्गत पंजाबी लघुकथा की अग्रज पीढ़ी के कथाकार भूपिंदर सिंह, हमदर्दवीर नौशहरवी, दर्शन मितवा और शरन मक्कड़ की चुनिंदा लघुकथाएं आप पढ़ चुके हैं। इसी कड़ी में प्रस्तुत हैं- पंजाबी लघुकथा की अग्रज पीढ़ी के सशक्त लेखक सुलक्खन मीत (जन्म : 15 मई 1938) की पाँच चुनिंदा लघुकथाएं... सुलक्खन मीत ने कहानी, लघुकथा, कविता, एकांकी, नाटक और उपन्यास विधा में लेखन किया। पंजाबी में 'सुलगती बर्फ़' उनका बहु-चर्चित लघुकथा संग्रह है। इनकी लघुकथाओं की विशेषता यह है कि इनमें मानवीय रिश्तों को बहुत खूबसूरती से स्पर्श किया गया है।
सुभाष नीरव
संपादक : कथा पंजाब
सुलक्खन मीत की पाँच लघुकथाएं
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
(1) रिश्ता
भेदी ने चोर को बताया, ''आज, रूपाले में चोरी हो सकती है।''
''कैसे ?'' जगीरे चोर की आँखें खुशी में फैल गईं।
''घरवाला घर में नहीं है।'' भेदी की आँखें भी फैली थीं।
''ठीक है।'' जगीरे चोर ने छांटी हुई मूंछों पर बल दिया।
मुर्गे की बांग से पहले ही जगीरा चोर भेदी द्वारा बताए गए घर में घुसा। अगले कुछ क्षणों में वह बक्सों और पेटी के पास खड़ा था।
तेजो को चोर का शक हुआ। वह आहिस्ता से चारपाई पर से उठी। बिल्ली की भांति दबे पांव वह स्विच के समीप पहुँची। बल्ब जला तो सचमुच ही सामने एक आदमी खड़ा था। 'चोर...' शब्द उसके गले में ही फंसकर रह गया।
तेजो और जगीरे ने एक-दूसरे को पहचान लिया था। जगीरे चोर की नज़रें झुक गई थीं। तेजो ने पूछा, ''ओए जगीरिया ! तुझे बहन का ही घर मिला था चोरी करने को ?''
''मैंने सोचा तो था कि हमारे गाँव की एक लड़की रूपाले गाँव में ब्याही हुई है, पर मुझे क्या पता था कि तू इसी घर में होगी।'' कहकर जगीरा चोर दहलीज़ पार करने लगा।
''अब किधर चला ?'' तेजो ने उसकी बांह पकड़ते हुए कहा।
''गाँव।'' जगीरे चोर ने तेजो की ओर न देखते हुए उत्तर दिया।
''बैठ जा। चाय पीकर जाना अब। मैं चाय रखती हूँ।''
जगीरा चोर तेजो की बात पर हैरान होता हुआ एक बच्चे की चारपाई पर बैठ गया। चाय आने तक जैसे वह पछताता रहा था। चाय पीकर चलते वक्त जगीरे ने अंटी में से दस का नोट निकाला। फिर उसने वही नोट तेजो के हाथ में जबरदस्ती ठूंस दिया।
''ओए कोढ़ी ! यह क्या ?'' तेजो ने मुसे हुए नोट की ओर देखते हुए पूछा।
''यह भाई का फर्ज़ बनता है, बहन।'' कहकर जगीरा एकाएक दहलीज़ फांद गया। गाँव में अभी भी चुप्पी पसरी थी। कहीं से भी किसी कुत्ते के भौंकने की आवाज़ नहीं आ रही थी।
00
(2) थप्पड़
शहीदे-आज़म भगतसिंह की समाधि देखने के बाद गुरइकबाल सिंह ने मुझे बताया, ''यहाँ से पाकिस्तान की सीमा भी नज़दीक ही है। पाँच-सात मिनट का पैदल का रास्ता है।''
मुझे बेहद खुशी हुई।
पाँच-सात मिनट में हम भारतीय चौकी पर जा खड़े हुए। वहाँ से पाकिस्तानी चौकी पत्थर की मार की दूरी पर थी। भारतीय सैनिक बता रहा था, ''अब तो हम उस लाइन के पार नहीं जा सकते और इस पार वे नहीं आ सकते।''
''फर्र...र...।'' ने हमारी बात काट दी। एक काला तीतर भारतीय चौकी की तरफ से उड़ा और पाकिस्तानी चौकी की तरफ जा बैठा।
मैंने और गुरइकबाल सिंह ने एक-दूजे को देखा और हमारे सैनिक ने अपनी बात फिर शुरू कर दी।
00
(3) बिचौलिया
बलदेव सिंह मेरे पास आया। उसका जिलाधिकारी से कोई काम था। हम इकट्ठे ही जिलाधिकारी से मिले। उसने पूरा भरोसा दिलाया, ''तुम ज़रा भी फिक्र न करो। इनका काम हो जाएगा।'' चाय पीते हुए जिलाधिकारी से स्वयं ही कहा, ''तुमने यूँ ही तकलीफ़ की। तुम तो कौवे के हाथ भी संदेश भेज देते तो तुम्हारा काम हो जाता।''
हम दोनों धीमे-धीमे 'ही-ही' करते रहे। उसने फिर कहा, ''चलो, इसी बहाने तुम्हारे दर्शन तो हो ही गए।''
जब बलदेव सिंह मुझसे विदा लेने लगा तो वह बहुत खुश नहीं था। मैंने उसके हाव-भाव को समझते हुए कहा, ''बलदेव सिंह, तू हौसला रख, तेरा काम बना ही समझ।''
''मुझे संदेह है।'' बलदेव सिंह बुदबुदाया।
''क्यों ?'' मैं चलते-चलते रुक गया।
''अगर हम उसकी चाय-पानी की सेवा कर देते...''
''हाँ, अगर हम चाय-पानी की सेवा कर दें तो फिर पत्थर की लकीर ही समझो।'' मेरा मन डोल गया था।
''यही तो मैं कहता हूँ...'' कहकर बलदेव सिंह ने पिछली जेब में से बटुआ निकाला और सौ-सौ के दस नोट उसने मेरी हथेली पर रख दिए। मैंने भी नोट पकड़ते हुए कह ही दिया, ''वैसे भी आजकल बिना पैसे के काम नहीं होता।''
''मेरा भी यही विचार है।'' बलदेव सिंह ने बटुआ संभालते हुए सयाने बुजुर्ग की तरह कहा।
पैसे जेब में डालते हुए मैंने कहा, ''अच्छा, तू चल। मैं अभी आया, जिलाधिकारी से मिलकर।''
बलदेव सिंह कचहरी की भीड़ में गुम हो गया तो मैं यूँ ही चक्कर-सा काटकर अपने घर की ओर हो लिया।
00
(4) जूठा-सुच्चा
मैं और पाली दोनों साथ-साथ पास ही एक गाँव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे। दोपहर को जब हम इकट्ठे रोटी खाते तो वह मुझसे अचार या सूखी सब्ज़ी आदि मांग लेती, पर मैं कभी भी उससे अचार या सब्ज़ी न लेता। वह कभी-कभी मेरे दिल की बात बूझते हुए कहती, ''क्या बात है, मेरा अचार या सब्ज़ी जूठी है ? तू लेता क्यों नहीं ?''
मैं ऊपरी मन से कह देता, ''नहीं, यह बात नहीं। बस यूँ ही...।''
फिर हम दोनों ही साथ के एक दूसरे गाँव में बने हाई स्कूल में पढ़ने जाने लगे। अब वह लड़कियों के संग बैठकर रोटी खाती तो मुझसे सहा न जाता। एक दिन उसकी सहेलियाँ नहीं आईं। हम दोनों एक-दूसरे की ओर बढ़े और एकांत-सी जगह पर बैठकर रोटी खाने लगे। मैंने हिम्मत करके कहा, ''पाली, अचार तो दे थोड़ा-सा !''
''जूठा है।'' पाली ने जैसे शरारत में कहा।
''इस उम्र में जूठा-सुच्चा कैसा, पाली ! हट, मजाक न कर। अब तो मैं तुझे भी खा जाऊँ।''
पाली जैसे पूरी की पूरी शरमा गई। एक ओर मुँह करके अचार पकड़ाते हुए पाली ने मेरी अंगुली दबा दी।
मैं कितनी ही देर उस अंगुली को चूसता रहा।
00
(5) टुकड़ा-टुकड़ा धैर्य
उसके पहले बेटी पैदा हुई तो उसके घर और ससुराल, दोनों में बड़ी खुशियाँ मनाई गईं।
उसके दूसरी बेटी हुई तो दोनों पक्ष कह रहे थे, ''कोई गम नहीं। रब कभी तो भूलेगा ही।''
उसके तीसरी बेटी ने जन्म लिया तो दोनों पक्षों को जैसे पिस्सू पड़ गए। घरवाले उदास थे। ननिहालवाले सोच में डूब गए। उन्हें बेटी का ससुराल में रहना खतरे में जान पड़ा।
लेकिन, उसने उस दिन जी भरकर दारू पी। उसने अपनी पत्नी को गले लगाकर कहा, ''तू फिकर न करना। इसमें तेरा कोई दोष नहीं। तूने सुना नहीं कि मूर्ख बेटा जनने से तो अंधी बेटी भली। लड़के साले किसी माँ-बाप की कब्र पर मूतने तक नहीं जाते। ये अपनी बेटियाँ नहीं, बेटे हैं। हौसला रखकर उठना- चिल्ले से।''
फिर उन्होंने एक दिन अपनी बड़ी बेटी को गुनगुनाते हुए सुना-
'इक भाई देना हे रब्बा !
कसम खाने को बहुत दिल करता...'
अगले पल वे दोनों बगलगीर होकर एक-दूसरे में समाये बच्चों की तरह रो रहे थे।
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4 टिप्पणियाँ:
JANAAB SULAKKHAN SINGH KEE PANCHON
LAGHU KATHAAYEN ACHCHHEE LAGEE HAIN
HAR LAGHU KATHAA MEIN APNAA ALAG
HEE RANG HAI.ANUWAAD HO TO AESA HO.
JANAAB SULAKKHAN SINGH AUR JANAAB
SUBHAASH NEERAV KO BADHAAEE AUR
SHUBH KAMNA.
भाई नीरव जी ने सुलक्खन जी की रचनाओं का अच्छा चुनाव किया है .लघुकथाएं अपना प्रभाव छोड़ती हैं.बधाई.
नीरव,
सुलक्खन जी की अच्छी लघुकथाएं पढ़वाने के लिए आभार.
चन्देल
सुलक्खन मीत की पांचो लघुकथाएं बहुत सुन्दर हैं। दिल को छू गईं। शिल्प, कथ्य, विचार, भाव सब-कुछ वैसा, जैसा लघुकथा में होना चाहिए।
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