आत्मकथा/स्व-जीवनी
>> रविवार, 12 मई 2013
पंजाबी के एक जाने-माने लेखक प्रेम प्रकाश
का जन्म ज़िला-लुधियाना के खन्ना शहर में 26 मार्च 1932(सरकारी
काग़ज़ों में 7 अप्रैल 1932) को हुआ। यह 'खन्नवी' उपनाम से भी 1955 से 1958
तक लिखते रहे। एम.ए.(उर्दू) तक शिक्षा प्राप्त प्रेम प्रकाश 'रोज़ाना मिलाप' और 'रोज़ाना हिंद
समाचार' अख़बारों में पत्रकारिता से जुड़े रहे। 1990 से 2010 तक साहित्यिक पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका 'लकीर' निकालते रहे। लीक से हटकर सोचने और करने में
विश्वास रखने वाले इस लेखक को भीड़ का लेखक बनना कतई पसन्द नहीं। अपने एक इंटरव्यू
में 'अब अगर कहानी में स्त्री का ज़िक्र न हो तो मेरा पेन
नहीं चलता' कहने वाले प्रेम प्रकाश स्त्री-पुरुष के आपसी
संबंधों की पेचीदा गांठों को अपनी कहानियों में खोलते रहे हैं। यह पंजाबी के
एकमात्र ऐसे सफल लेखक रहे हैं जिसने स्त्री-पुरुष संबंधों और वर्जित रिश्तों की
ढेरों कामयाब कहानियाँ पंजाबी साहित्य को दी हैं। इनकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि मनुष्य
मन की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर गांठों को पकड़ने में सफल रही हैं।
कहानी संग्रह 'कुझ अणकिहा वी' पर
1992 मे साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त यह लेखक अस्सी
वर्ष की उम्र में भी पहले जैसी ऊर्जा और शक्ति से निरंतर लेखनरत हैं। इनके कहानी
संग्रह के नाम हैं - 'कच्चघड़े'(1966), 'नमाज़ी'(1971), 'मुक्ति'(1980), 'श्वेताम्बर ने कहा था'(1983), 'प्रेम कहानियाँ'(1986),
'कुझ अनकिहा वी'(1990), 'रंगमंच दे भिख्सू'(1995),
'कथा-अनंत'(समग्र कहानियाँ)
(1995), 'सुणदैं ख़लीफ़ा'(2001), 'पदमा दा पैर'(2009)। एक कहानी संग्रह 'डेड लाइन' हिंदी
में तथा एक कहानी संग्रह अंग्रेजी में 'द शॉल्डर बैग एंड अदर
स्टोरीज़' (2005)भी प्रकाशित। इसके अतिरिक्त एक उपन्यास 'दस्तावेज़' 1990 में। आत्मकथा 'बंदे
अंदर बंदे' (1993) तथा 'आत्ममाया'(
2005) में प्रकाशित। कई पुस्तकों का संपादन जिनमें 'चौथी कूट'(1996), 'नाग लोक'(1998),'दास्तान'(1999), 'मुहब्बतां'(2002), 'गंढां'(2003) तथा 'जुगलबंदियां'(2005)
प्रमुख हैं। पंजाबी में मौलिक लेखक के साथ साथ ढेरों पुस्तकों का
अन्य भाषाओं से पंजाबी में अनुवाद भी किया जिनमें उर्दू के कहानीकार सुरेन्द्र
प्रकाश का कहानी संग्रह 'बाज़गोई' का
अनुवाद 'मुड़ उही कहाणी', बंगला
कहानीकार महाश्वेता देवी की चुनिंदा कहानियाँ, हिंदी से 'बंदी जीवन'- क्रांतिकारी शुचिंदर नाथ सानियाल की
आत्मकथा, प्रेमचन्द का उपन्यास 'गोदान',
'निर्मला', सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' तथा काशीनाथ सिंह की चुनिंदा
कहानियाँ आदि प्रमुख अनुवाद कृतियाँ हैं।
सम्मान : पंजाब साहित्य अकादमी(1982), गुरूनानक
देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर द्वारा भाई वीर सिंह वारतक
पुरस्कार(1986), साहित्य अकादमी, दिल्ली(1992),
पंजाबी अकादमी, दिल्ली(1994), पंजाबी साहित्य अकादमी, लुधियाना(1996), कथा सम्मान,कथा संस्थान, दिल्ली(1996-97),
सिरोमणि साहित्यकार, भाषा विभाग, पंजाब(2002) तथा साहित्य रत्न, भाषा विभाग, पंजाब(2011)
सम्पर्क : 593, मोता सिंह नगर, जालंधर-144001(पंजाब)
फोन : 0181-2231941
ई मेल : prem_lakeer@yahoo.com
आत्म माया
प्रेम
प्रकाश
हिंदी
अनुवाद
सुभाष
नीरव
‘मिशन कंपाउंड’ वाली बरखा और रज़िया
कहानी ‘मिशन कंपाउंड’ में चार पात्र हैं - रज़िया, बरखा, अशोक और मिस मीड। कहानी चलती लुधियाना के मिशन
कंपाउंड में है। लखनऊ से आई रज़िया को मिलने आई उसकी पुरानी सहेली बरखा के चितवन से
प्रारंभ होती है। जब बरखा की बात ख़त्म हो जाती है तो कहानी रज़िया के चितवन से
चलती है।
जब यह कहानी मेरे जे़हन में
आने लगी तो मैं जालंधर के आदर्श नगर के एक कोने में और मिशन कंपाउंड के करीब रहता
था। कंपाउंड उजड़ा पड़ा था। गिरजाघर सहित सारी इमारतें ढह रही थीं। मैं कभी उधर जाता
तो पादरी बरकत मसीह से मिलता। उसके घर की लायब्रेरी की अल्मारियों में किताबें पड़ी
थीं, जो मिशन वालों को मुफ़्त में आया करती हैं। मैं पाँच
रुपये की बाइबिल खरीद लाया जो उर्दू में थी। लगभग सभी ईसाई घरों पर गरीबी का
प्रभाव दिखता था। लगता था कि अब उनकी सरपरस्ती करने वाले गोरे हाकिम उन्हें
बेसहारा छोड़ गए हैं। मुझे उन गरीबों और हिंदू समाज में से निकाले गए दलित लोगों से
हमदर्दी महसूस होती थी। नए भारत में वे हिंदू-सिक्ख दलितों की अपेक्षा कहीं नीचे
चले गए थे। उन्हें न सरकार कोई रिजर्वेशन देती थी और न ही समाज में उनकी कोई
हैसियत थी।
पादरी बरकत मसीह के घर के साथ
उसके भाई का मकान था। जहाँ से उसकी भतीजी सलीमा या कलीमा हमारे लिए पानी लेकर आती
थी। उन लोगों में वही एक जवान और सुंदर लड़की थी। उसका रंग सांवला था, पर आँखें गहरी थीं। जिन्हें देखकर पहले डर-सा लगता था और फिर धीरे धीरे
खिंचाव-सा महसूस होने लग पड़ता था। वह हंसराज महिला विद्यालय में पढ़ती थी। बात करते
हुए बड़ी चंट लगती थी। वह आते-जाते सड़क पर मुझे मिला करती थी, पर हमारा दुआ-सलाम वाला सिलसिला नहीं था।
मैं जहाँ रहता था, वहाँ से दो घर छोड़कर एक बुजु़र्ग क्रिश्चियन प्रिंसीपल जेम्ज़ किराये की
कोठी में रहता था। उसके घर में उसका एक काला-सा नौकर हुआ
करता था। उसने बालों वाला सफ़ेद कुत्ता भी पाल रखा था। जो छत
पर उसकी चारपाई के पास बैठता था और कभी मुंडेर के साथ साथ घूमता रहता था। कभी कभी
कोई एक लड़की या जनानी उस घर में आ कर एक-आध रात रहकर चली जाती थी। मेरे और प्रिंसीपल के बीच दुआ-सलाम थी। कभी मैं आते-जाते उससे ईसाई धर्म के बारे में
कोई बात पूछ लेता था। बस। वह बहुत कमज़ोर था। मुझे अक्सर उसकी मौत का ख़याल आता
रहता था। कभी कभी उन्हें मिलने के लिए पादरी गुलाम कादर भी आया करता था। अच्छी
सेहत वाला वह अधेड़ व्यक्ति ऊँची आवाज़ में बोलता और हँसता था। वह मेरे साथ भी कभी
ईसाई धर्म के बारे में बातें कर लेता था। वह कभी अपने धर्म का मज़ाक उसी तरह उड़ा
देता था जैसे मैं सनातनी हिंदू देवताओं और रीति-रिवाज़ों का मज़ाक उड़ाता था।
असल में ईसाइयों और उनके धर्म
में मेरी दिलचस्पी तब से हुई जब मैं क्रिश्चियन स्कूल खरड़ से जे.बी.टी. कर रहा था।
हॉस्टल में हिंदू सिक्खों का मैस अलग था और ईसाइयों को अलग।
मेरी दोस्ती गोरे, सुंदर, जवान लड़के
प्रेम नाथ से हो गई थी। वह भी अपने आप को कामरेड कहा करता था। वह लाहौर से उजड़ कर
आया था। हम दोनों गिरजाघर के निकट ऊँचे टीले पर बैठकर आती-जाती क्रिश्चियन लड़कियों
को देखा करते थे। नैन्सी नाम की एक लड़की हम दोनों को अच्छी लगती थी। प्रेम नाथ आर्य समाज में प्रचारक भी रह चुका था। मैंने उससे कहा कि यदि यह लड़की
मेरे साथ विवाह करवा ले तो मैं ईसाई बन सकता हूँ। उसको अच्छी तरह से देखने के लिए
हम गिरजाघर के अंदर प्रार्थना में शामिल भी हो जाया करते थे।
महीने भर बाद मुझे प्रेम नाथ
ने यह बात बताकर हैरान कर दिया कि वह ईसाई हो गया है। जे.बी.टी. कोर्स ख़त्म होने
पर उसका विवाह नैन्सी के साथ हो जाएगा। साथ ही, उसको स्कूल
में नौकरी मिल जाएगी। अब स्कूल में उसके सारे खर्चे माफ़ हो गए हैं। मैंने गुस्से
में उसे खरी-खोटी सुनाईं तो उसने बताया कि वह असल में कश्मीर का यतीम मुसलमान
बच्चा था। उसको आर्य समाजी हिंदू बनाकर अपने गुरुकुल में लाहौर ले गए थे। अब वह
ईसाई हो गया तो क्या फ़र्क़ पड़ गया। हम तो किसी धर्म को मानते ही नहीं। मतलब तो मतलब
पूरा करना है।
जब मैं 1963 में पंजाब यूनीवर्सिटी, चंडीगए़ से पत्रकारिता का
डिप्लोमा कर रहा था तो हमारे साथ किसी कान्वेंट की पढ़ी रज़िया भी थी। छोटे कद की उस
ईसाई और गोरी लड़की के बाल कटे हुए थे। वह स्कर्ट पहनती थी और कभी कभी साड़ी या सूट
पहनकर भी आ जाती थी। मैंने उसके साथ ‘हैलो’ से आगे कोई बात नहीं की थी क्योंकि मैं अंग्रेजी नहीं बोल सकता था। हमारे
बैच में से जो पाँच-सात लोग प्रोफेशनल पत्रकारी में गए, उनमें
वह भी शामिल थी। पर मुझे वह दुबारा नहीं मिली। मेरे मन में उसकी तस्वीर बनी रह गई
थी।
खन्ना में हमारे घर से बाहर
की ओर जहाँ मुसलमानों के मज़ार और कब्रिस्तान थे, उनके सामने
छोटा-सा मिशन कंपाउंड था, जो कई किस्म के थोहरों और दरख़्तों
की ओट में छिपा रहता था। सिर्फ़ अंदर जाने वाले ही बताते थे। जिनमें छोटी जातियों
के पक्के रंगों वाले लोग कुछ साफ़ वस्त्र पहने अंदर जाते दिखाई देते थे। दो चार
ननें भी दिख जातीं, जिनका लिबास बड़ा अजीब लगता था। बाहर हमें
गिरजाघर के घंटे की आवाज़ ही सुनाई देती थी, हर इतवार।
यह था मेरे अवचेतन के जंक बॉक्स में पड़ा कबाड़। जिसमें से रज़िया, बरखा और मिस मीड
का जन्म हुआ। अशोक पत्रकार के पात्र में कुछ मेरे निजी अनुभव भी शामिल हुए। रज़िया
के पात्र के लिए मेरे पास मध्य वर्ग की अनेक हिंदू स्त्रियों के नमूने थे। जिनमें
धर्म और सदाचार के बंधन इतने तगड़े होते हैं कि वे चाहकर भी उन्हें तोड़ नहीं सकतीं।
रज़िया भी नेक बनने के इस दृष्टिकोण के ताने-बाने में स्वयं उलझी होने के कारण
निभाती रही। नेक ईसाई औरत के गुणों का वर्णन मैं पवित्र बाइबिल में बहुत पढ़ चुका
था। खरड़ में रहते हुए मैं गिरजा घर में और स्कूल में बडे़ उपदेश सुने थे। वैसे भी
मैं बाइबिल का पाठ करता रहता था। पर बरखा का पात्र इसके विरोध में से पैदा होता
है। उस विरोध में से जो रज़िया के मन की आस्था के कभी कभी टूटने से पैदा होता है।
मैं कहानी लिखते समय रज़िया की टूटती आस्था का अहसास बरखा के अंदर डालता रहा था।
इस प्रकार यह कहानी वजूद में
आ गई। रही बात मिस मीड की, वह तो ईसाई मिशनरियों में
सिक्केबंद खूबियों से पैदा हुआ पात्र लगता है। जो भारतीय समाज में आम धार्मिक और
धर्म से डरने वाली माताओं का होता है। जो उम्र बीत जाने पर खुद को ईश्वर भक्ति में
लगा लेती हैं।
अशोक का पात्र मेरे अंदर कहीं
बहुत समय से पड़ा था। वह मेरे अख़बारी पेशे के साथ भी जुड़ा हुआ था। उसके प्रेम में
रज़िया के भीगने की भावनाएँ और अशोक की ओर से उसका सम्मान करने की भावनाएँ मेरे
निजी अनुभव से थीं। मुझे एक बहुत अच्छे दिल वाली और भरपूर प्यार करने वाली दोस्त
औरत की संगत मिलती रही थी। हमारे मध्य कभी अनबन भी पैदा हो जाया करती थी। पर मैंने
अशोक और रज़िया के मध्य उन्हीं भावनाओं को ही इस्तेमाल किया जो मुझे बहुत प्यारी लगती
थीं और बुरे दिनों में मेरे मन में सुख के पलों का संचार करती थीं।
(जारी)
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