पंजाबी उपन्यास

>> रविवार, 12 मई 2013



बलबीर मोमी अक्तूबर 1982 से कैनेडा में प्रवास कर रहे हैं। वह बेहद सज्जन और मिलनसार इंसान ही नहीं, एक सुलझे हुए समर्थ लेखक भी हैं। प्रवास में रहकर पिछले 19-20 वर्षों से वह निरंतर अपनी माँ-बोली पंजाबी की सेवा, साहित्य सृजन और पत्रकारिता के माध्यम से कर रहे हैं।
पाँच कहानी संग्रह [मसालेवाला घोड़ा(1959,1973), जे मैं मर जावां(1965), शीशे दा समुंदर(1968), फुल्ल खिड़े हन(1971)(संपादन), सर दा बुझा(1973)],तीन उपन्यास [जीजा जी(1961), पीला गुलाब(1975) और इक फुल्ल मेरा वी(1986)], दो नाटक [नौकरियाँ ही नौकरियाँ(1960), लौढ़ा वेला (1961) तथा कुछ एकांकी नाटक], एक आत्मकथा - किहो जिहा सी जीवन के अलावा अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मौलिक लेखन के साथ-साथ मोमी जी ने पंजाबी में अनेक पुस्तकों का अनुवाद भी किया है जिनमे प्रमुख हैं सआदत हसन मंटो की उर्दू कहानियाँ- टोभा  टेक सिंह(1975), नंगियाँ आवाज़ां(1980), अंग्रेज़ी नावल इमिग्रेंट का पंजाबी अनुवाद आवासी(1986), फ़ख्र जमाल के उपन्यास सत गवाचे लोक का लिपियंतर(1975), जयकांतन की तमिल कहानियों का हिन्दी से पंजाबी में अनुवाद।
देश विदेश के अनेक सम्मानों से सम्मानित बलबीर मोमी ब्रैम्पटन (कैनेडा) से प्रकाशित होने वाले
पंजाबी अख़बार ‘ख़बरनामा (प्रिंट व नेट एडीशन) के संपादक हैं।

आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास पीला गुलाब भारत-पाक विभाजन की कड़वी यादों को समेटे हुए है। विस्थापितों द्बारा नई धरती पर अपनी जड़ें जमाने का संघर्ष तो है ही, निष्फल प्रेम की कहानी भी कहता है। कथा पंजाब में इसका धारावाहिक प्रकाशन करके हम प्रसन्नता अनुभव कर रहे हैं। प्रस्तुत है इस उपन्यास की आठवीं किस्त…
- सुभाष नीरव


पीला गुलाब
बलबीर सिंह मोमी

हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव


15

(दूसरा भाग)

मुक्ति को एक भ्रम है। मेरे अंदर पता नहीं उसको क्या अच्छा लगा है। एक विद्यार्थी के पास हो भी क्या सकता है, सिवाय किताबी ज्ञान के कुछ भी तो नहीं। ये सब बातें मुक्ति समझ नहीं सकती। अगली सवेर मैं वहाँ से शीघ्र से शीघ्र लौट जाना चाहता हूँ, पर वह मुझे जाने नहीं देती। मुझे वहाँ और अधिक ठहरना बड़ा दुखदायी महसूस हो रहा था। उसकी सहेलियाँ गईं। वे मुझसे मजाक कर रही थीं। ताने-उलाहने दे रही थीं, पर मैं सबकुछ अनसुनी कर रहा था। मन की अवस्था दूर जा चुकी थी। मैंने अंदर जाकर मुक्ति से आखि़री विदाई मांगी। वह मुझसे लिपटकर रो पड़ी। अपने हाथों से काढ़ा हुआ एक खूबसूरत रूमाल उसने मेरी जेब में डाल दिया। मेरे पास उसको देने के लिए कुछ नहीं था। फिर भी मैंने जेब में हाथ मारा। दस के नोट के साथ एक रुपये का नोट मिलाकर मैंने उसके हाथ में दे दिया।
            ये मैं नहीं रखूँगी, बेशक तू आँखों से दूर ही रह, पर मैंने तुझे कुछ और ही समझा है।
            तूने जो कुछ समझा है, ठीक है। पर मैं समझता हूँ कि मेरे प्यार में प्रेमी, दोस्त, भाई, पिता और पुत्र के प्यार का मिश्रण है।
            पर फिर भी उसने मेरे पैसे नहीं रखे।
            विवाह पर पहुँचने के लिए उसने ज़ोर दिया। मैं अवश्य आने का वायदा करके शाम की गाड़ी से शहर गया। रास्ते में मैंने रूमाल की तहें खोलीं। बीच में दो-दो रुपये के दो कोरे नोट थे। मुहब्बत की कोरी निशानी।यह तूने क्या किया मुक्ति ! क्या यह तुझे मिलने आने-जाने का किराया था या तेरे विवाह पर आने का खर्च। मैं यह अमानत अपने दिल के खोटे खजाने में कैसे संभालकर रख सकूँगा। अगर इसका सूद ही मेरे सिर पर चढ़ गया तो मेरी नज़रें हमेशा तेरे आगे झुकी रहेंगी।
            भाभी ने शहर पहुँचने पर अचानक गायब हो जाने का कारण पूछा। मैंने दोस्त से मिलने उसके गाँव जाने का बहाना बना दिया। मैंने कोई झूठ नहीं बोला था, पर उसने कहा, “आइन्दा से बता कर जाना।
            रात में मैं रोटी खाये बग़ैर ही सो गया।
            अगले दिन कालेज में प्रोफेसर लेक्चर देता रहा और मैं मुक्ति के बारे में सोचता रहा। मैंने किसी लड़के के साथ बात भी नहीं की। किसी को बताता भी क्या ? इस सदमे को मैं अपनी सम्पत्ति समझकर अपने पास ही रखना चाहता था। पंद्रह आषाढ़ का दिन क़ैदी को फांसी लगने से कम नहीं था। मैंने बड़ी कायरता दिखलाई थी। मुक्ति का दिल तोड़ा था। मालूम, किस युग में मेरा भला होना था। मैं बहुत उदास हो गया था। मेरा एक बेहद आत्मीय मित्र भूपिंदर मुझसे कई दिनों तक पूछता रहा, परंतु मैं गंभीर ही बना रहा। मैं जितना गंभीर होता गया, उतना ही वह मेरे करीब आता गया।
            पंद्रह आषाढ़ को मैं उसके विवाह पर नहीं गया। उस दिन कहीं बाहर जाकर रोने को दिल करता था। मैंने भूपिंदर पैसे देते हुए कहा, “यदि तू मेरी ज़िन्दगी चाहता है तो जाकर व्हिस्की की बोतल ले आ।
            तू पागल तो नहीं हो गया ?“
            मैं पागल ही हो गया हूँ। नहीं हुआ तो हो जाऊँगा।
            मैं तुझे किसी कीमत पर भी शराब नहीं पीने दूँगा। अपनी उम्र की ओर तो देख।
            तू मेरे दिल की हालत की तरफ तो देख।
            क्या हुआ तेरे दिल को ?“
            मेरे पास ही नहीं है।
            कहाँ है ?“
            दूर एक गाँव में जहाँ आज मुक्ति की बारात आई है। सवेरे उसकी डोली उठेगी। उसने लाल रंग का रेशमी सूट पहना होगा। हाथों में मेंहदी लगाई होगी। कलीरे पहने होंगे। उसका पिता उसकी डोली विदा करके सुख का साँस लेगा और मैं...
            भूपिंदर मेरी बात सुनकर हैरान रह गया। शराब पीने की बजाय वह मुझे सिनेमा ले गया।बाज़ीफिल्म चल रही थी, पर मैं तो बाज़ी हार चुका था। अभी अभी तो बस्तियाँ बसाई जा रही थीं। पल भर में वीराने बन जाते हैं।
            पिक्चर देखने के बाद वह मुझे भाई के घर के पास छोड़कर खुद अपने घर चला गया। रात के दस बज रहे थे। मैं घर के अंदर घुसने की बजाय काफी देर तक शहर की सुनसान गलियों में भटकता रहा। फिर मैं स्टेशन पर चला गया। रेलवे लाइन के साथ साथ बाहर के सिगनल से भी दूर चला गया। पता नहीं ट्रेन कब आएगी। मैं अपनी पतली, लम्बी गर्दन पर हाथ फेर फेरकर मौत के बाद की ज़िन्दगी के बारे में सोचता सोचता रेलवे लाइन पर लेट गया। काफी देर तक कोई ट्रेन आई। तभी खेतों में पानी लगाने वाले वहाँ से गुज़रे तो मैं खुद ही शर्मिन्दगी के डर से उठकर दूर हो गया। हो सकता था, लाइन पर लेटा देख वे मुझे पुलिस के हवाले कर देते।
            वो रात मैंने स्टेशन के एक बेंच पर लेटकर गुज़ार दी। सोच रहा था, शाम के  झुटपुटे में शराबी हुई बारात मुक्ति के आँगन में आई होगी। पहले चाय के साथ मिठाई दी गई होगी। फिर रात की रोटी। बाराती और अधिक शराबी हो गए होंगे। बहुतों ने एक-दूसरों को गालियाँ बकी होंगी। मुक्ति की सहेलियाँ उसके पास बैठीं गीत गा रही होंगी। पौ फटने से पहले ही उसको लाल फुलकारी में लपेट कर आनंद-कारज पढ़ा जा रहा होगा। फिर सवेरे की चाय... पर अभी तो आनंद-कारज का समय नहीं हुआ। अभी तो आनंद कारज हो रहा है।पलड़े तैंड लागी...’ शबद पढ़े जा रहे हैं, और मैं यहाँ एक वीरान स्टेशन के तंग बेंच पर लेटा हूँ। मुक्ति किसी और की हो रही है और मैं अपने किए को रो रहा हूँ। चाहते हुए भी मौत नहीं रही।
            मौत आई, मुक्ति का विवाह हो गया। सारा गाँव उसी तरह बसता रहा। शहर भी उसी तरह आबाद रहे। सुबह का सूरज भी रोज़ की भाँति चढ़ा। रात भी हुई, पर मेरी ज़िन्दगी पर तो हमेशा हमेशा के लिए रात पड़ गई। उम्र भर के लिए ग़म का गोला मेरे अंदर पैदा हो गया। मैं चुपचाप कालेज जाता। लेक्चर अनसुने करके सुनता। घर आकर किसी से बात करता। बस, चौबारे पर चढ़कर, बिस्तर पर लेटकर अर्थ-शास्त्र की किताब पकड़कर पढ़ता रहता। आँखें किताब में होतीं और मन कहीं और होता।
            एक दिन फिर भूपिंदर जबरनबाज़ीफिल्म दिखाने ले गया। हारी बाज़ी देखने का क्या फायदा ? इंटरवल में मुंडू हमारे लिए चाय की दो प्यालियाँ ले आया। हमने तो उसको कोई आर्डर नहीं दिया था। वह जबरन चाय पकड़ा रहा था और कह रहा था, “बॉक्स में बैठी बीबी ने चाय भेजी है। मैं किसी बीबी को नहीं जानता था। मैंने गर्दन घुमाकर पीछे देखा तो बॉक्स के आगे पर्दा लटक रहा था और मुंडू चाय थमा कर लौट गया। हमने ज़हर के घूंट भरकर चाय पी।
            प्याले लेने आया मुंडू मुझे उठाकर बॉक्स में ले गया। मोहिनी अपनी किसी सहेली के साथ पिक्चर देख रही थी। मुझे उसने बैठने के लिए कहा। मैं गंभीर-सा बना उसके करीब बैठ गया।
            तूने कुछ सुना, गुलाब ?
            मैंने तो कुछ नहीं सुना।
            मुक्ति के बारे तुझे कुछ नहीं पता ?
            मुक्ति... हाँ, मुक्ति का विवाह था पंद्रह आषाढ़ का।
            विवाह तो हो गया पर...
            पर क्या ?
            तुझे कुछ नहीं पता ?
            विवाह के बाद का मुझे कुछ नहीं पता।
            तेरा क्या ख़याल है ?
            मेरा ख़याल है कि वह अपनी ससुराल में राज़ी-खुशी होगी।
            हाँ, वह अपनी असली ससुराल में बिल्कुल राज़ी-खुशी पहुँच गई है।
            कौन से असली ससुराल ?
            क्यों भोला बनता है, तुझे सबकुछ मालूम है।
            मुझे कुछ भी नहीं पता मोहिनी, रब के वास्ते मेरे आगे बुझारतें डाल।
            मुक्ति मर गई, गुलाब।
            मोहिनी...!“ मैंने पूरी शक्ति से उसके हाथ पकड़ लिए।
            विवाह से कुछ दिन बाद जब उसका घरवाला गौना लेने आया तो उसने गाँव के कुएँ में छलांग लगा दी।
            यह नहीं हो सकता, मोहिनी। वह नहीं मर सकती... वह नहीं मर सकती।
            मैं उस दिन गाँव में ही थी। विवाह वाले दिन तो बिल्कुल ही शांत रही, चुपचाप-सी। पर गौने पर जाने के समय उसने यह कर दिखाया।
            मुक्ति मर गई थी और मैं जिन्दा था।ये तूने क्या किया ? तू अपनी जिद्द से पीछे हटी। तू मौत को गले लगाने से हटी। मैं बाकी का जीवन अब किस आस में जिऊँगा!’ और मैं सिनेमा हॉ में से उठकर बाहर गया।
(जारी…)

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव
वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, मूल्य : 300 रुपये

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
शुभम प्रकाशन, एन-10, उलधनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032, मूल्य : 120 रुपये

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव
यूनीस्टार बुक्स प्रायवेट लि0, एस सी ओ, 26-27, सेक्टर 31-ए, चण्डीगढ़-160022, मूल्य : 400 रुपये

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव
नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्या नगर सोसायटी, पटपड़गंज, दिल्ली-110032, मूल्य : 150 रुपये

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह) संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह)  संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नेहरू भवन, 5, इंस्टीट्यूशनल एरिया, वसंत कुंज, फेज-2, नई दिल्ली-110070, मूल्य :60 रुपये।

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, वर्ष 1998, 2004, मूल्य :35 रुपये

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-1100-6, मूल्य : 125 रुपये

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

व्यवस्थापक
'अनुवाद घर'

समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

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