आत्मकथा/स्व-जीवनी

>> मंगलवार, 2 अप्रैल 2013



आत्मकथा/स्व-जीवनी(13)


पंजाबी के एक जाने-माने लेखक प्रेम प्रकाश का जन्म ज़िला-लुधियाना के खन्ना शहर में 26 मार्च 1932(सरकारी काग़ज़ों में 7 अप्रैल 1932) को हुआ। यह 'खन्नवी' उपनाम से भी 1955 से 1958 तक लिखते रहे। एम.ए.(उर्दू) तक शिक्षा प्राप्त प्रेम प्रकाश 'रोज़ाना मिलाप' और 'रोज़ाना हिंद समाचार' अख़बारों
में पत्रकारिता से जुड़े रहे। 1990 से 2010 तक साहित्यिक पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका 'लकीर' निकालते रहे। लीक से हटकर सोचने और करने में विश्वास रखने वाले इस लेखक को भीड़ का लेखक बनना कतई पसन्द नहीं। अपने एक इंटरव्यू में 'अब अगर कहानी में स्त्री का ज़िक्र न हो तो मेरा पेन नहीं चलता' कहने वाले प्रेम प्रकाश स्त्री-पुरुष के आपसी संबंधों की पेचीदा गांठों को अपनी कहानियों में खोलते रहे हैं। यह पंजाबी के एकमात्र ऐसे सफल लेखक रहे हैं जिसने स्त्री-पुरुष संबंधों और वर्जित रिश्तों की ढेरों कामयाब कहानियाँ पंजाबी साहित्य को दी हैं। इनकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि मनुष्य मन की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर गांठों को पकड़ने में सफल रही हैं।

       कहानी संग्रह 'कुझ अणकिहा वी' पर 1992 मे साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त यह लेखक अस्सी वर्ष की उम्र में भी पहले जैसी ऊर्जा और शक्ति से निरंतर लेखनरत हैं। इनके कहानी संग्रह के नाम हैं - 'कच्चघड़े'(1966), 'नमाज़ी'(1971), 'मुक्ति'(1980), 'श्वेताम्बर ने कहा था'(1983), 'प्रेम कहानियाँ'(1986), 'कुझ अनकिहा वी'(1990), 'रंगमंच दे भिख्सू'(1995), 'कथा-अनंत'(समग्र कहानियाँ)(1995), 'सुणदैं ख़लीफ़ा'(2001), 'पदमा दा पैर'(2009)। एक कहानी संग्रह 'डेड लाइन' हिंदी में तथा एक कहानी संग्रह अंग्रेजी में 'द शॉल्डर बैग एंड अदर स्टोरीज़' (2005)भी प्रकाशित। इसके अतिरिक्त एक उपन्यास 'दस्तावेज़' 1990 में। आत्मकथा 'बंदे अंदर बंदे' (1993) तथा 'आत्ममाया'( 2005) में प्रकाशित। कई पुस्तकों का संपादन जिनमें 'चौथी कूट'(1996), 'नाग लोक'(1998),'दास्तान'(1999), 'मुहब्बतां'(2002), 'गंढां'(2003) तथा 'जुगलबंदियां'(2005) प्रमुख हैं। पंजाबी में मौलिक लेखक के साथ साथ ढेरों पुस्तकों का अन्य भाषाओं से पंजाबी में अनुवाद भी किया जिनमें उर्दू के कहानीकार सुरेन्द्र प्रकाश का कहानी संग्रह 'बाज़गोई' का अनुवाद 'मुड़ उही कहाणी', बंगला कहानीकार महाश्वेता देवी की चुनिंदा कहानियाँ, हिंदी से 'बंदी जीवन'- क्रांतिकारी शुचिंदर नाथ सानियाल की आत्मकथा, प्रेमचन्द का उपन्यास 'गोदान', 'निर्मला', सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' तथा काशीनाथ सिंह की चुनिंदा कहानियाँ आदि प्रमुख अनुवाद कृतियाँ हैं।

सम्मान : पंजाब साहित्य अकादमी(1982), गुरूनानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर द्वारा भाई वीर सिंह वारतक पुरस्कार(1986), साहित्य अकादमी, दिल्ली(1992), पंजाबी अकादमी, दिल्ली(1994), पंजाबी साहित्य अकादमी, लुधियाना(1996), कथा सम्मान,कथा संस्थान, दिल्ली(1996-97), सिरोमणि साहित्यकार, भाषा विभाग, पंजाब(2002) तथा साहित्य रत्न, भाषा विभाग, पंजाब(2011)



सम्पर्क : 593, मोता सिंह नगर, जालंधर-144001(पंजाब)

फोन : 0181-2231941

ई मेल : prem_lakeer@yahoo.com


आत्म माया
प्रेम प्रकाश

हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव

रुकमणीवाली बेनाम बहन
यह कहानी लिखते समय मेरे पास कुछ अनुभव अपना था और अधिकांश मेरे मित्र राजकुमार का था। राजकुमार जिसने मुझे इस कहानी का बहुत सारा मसाला दिया था।
            मेरा अनुभव तो इतना ही था कि मैं अपने गाँव बडगुजरां गया हुआ था। यह सन् 1961-62 के आसपास की बात होगी। शायद यह उन दिनों की बात है जब मैं जालंधर छोड़कर खन्ना में जाकर बसना चाहता था। मेरी मानसिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। अक्सर उदासी का दौरा पड़ा रहता था। मुझे अपना दिन टिकाने के लिए गोली खानी पड़ती थी। मुझे चारों ओर निराशा ही निराशा दिखलाई देती थी। इस आस में बैठा था कि कोई राह अपने आप दिख जाए शायद। गाँव में मैं दिन भर पसीना बहाकर खेती का काम करता था और रात में कोई किताब पढ़ता पढ़ता सो जाता था। या जिस्म इतना थक जाता था कि पता ही नहीं चलता था कि कब किताब हाथ से गिर जाती थी। गोली शाम के वक़्त खाता था। दिन ढलते देखकर मुझे कुछ होने लग पड़ता था।
            उन दिनों में मेरे बच्चे भी मेरे पास थे। पता नहीं किस काम से हमारे दूर के रिश्तेदार की जवान लड़की दरशी हमारे पास रहने आई हुई थी। वह मुझसे कभी अंग्रेजी भी पढ़ लेती थी और साथ ही मुझसे मजाक भी कर लिया करती थी। वह मुझे ओ मास्टर जीकहकर बुलाते हुए हँसा करती थी। वैसे मुझे वीर जीकहती थी। एक दिन मेरा परिवार खन्ना गया हुआ था। माँ और छोटे भाई की घरवाली बाहर जंगल-पानी के लिए गई हुई थीं। बच्चे भाई वाली बैठक में बैठे पढ़ रहे थे। सर्दियों का मौसम था। दरशी और मैं चूल्हे के आगे बैठे मूंगफली भून भूनकर खा रहे थे। वह अपने मुँह का छिलका फूंक मारकर मेरी ओर फेंक देती और हँस पड़ती। जब वह ऐसा करने से न रुकी तो मैंने उसकी चुटिया के नीचे से गर्दन को पकड़कर हिलाया। वह हँसती रही। लेकिन शरारतें करने से बाज़ न आई। मैंने उसके कंधे पर चिकौटी काटी तो उसने मेरी बांह पर काट ली। फिर मैंने उसकी बगल में चिकौटी भरी तो उसने मेरी गाल पर भर ली। वह जवाबी हमला करके अंदर कमरे में जा घुसी और अपनी बिस्तर में जाकर लेट गई। मैंने ओढ़ी हुई रजाई के अंदर से हाथ डालकर उसके चिकौटी काटी। उसने अचानक अपना हाथ बाहर निकालकर मेरे पेट पर चिकौटी भरी। मैंने रजाई में फिर हाथ डाल तो मेरा हाथ उसकी छाती पर जा पड़ा। वह हँसती रही और हमारे हाथ ये खेल खेलते रहे।
            रात में मैं पशुओं वाले कोठे में सोता था। मैं नांद और रस्से देखकर अपनी चारपाई पर बैठकर लालटेन की रोशनी में किताब पढ़ने लग पड़ा। तब तक बिजली नहीं आई थी। दरशी दूध लेकर आ गई। पहले यह काम मेरी पत्नी किया करती थी। मैंने गिलास पकड़कर दीवार की अल्मारी में रख दिया। वह मेरे सिरहाने की तरफ़ बैठ गई। बोली, “तू इसे पी ले, मुझे गिलास लेकर जाना है।
            जब मैंने गिलास न उठाया तो वह मेरी बांह पकड़कर गिलास उठवाने लग पड़ी। पता नहीं उसी समय मेरे मन में क्या आया कि मैंने उसको पकड़कर चूम लिया। यह हरकत जब मैं दूसरी बार करने लगा तो वह उठकर खड़ हो गई। बोली, “मैं तेरी बहन लगती हूँ।... कोई देखेगा तो क्या कहेगा ?“
            मैं बिल्कुल ढीला पड़ गया। लेकिन वह गिलास उठाकर जाते समय मेरे सिर का अंगोछा उतार गई। कुछ दिनों बाद वह चली गई। तीन महीनों के अंदर अंदर उसका विवाह हो गया। उसकी मंगनी हो रखी थी। कभी-कभी मेरा दिल करता कि वह खन्ना, समराला, पटियाला, लुधियाना या जालंधर के किसी भी बस-स्टैंड पर अचानक मिल जाए। परंतु वह दोबारा नहीं दिखाई दी।
            कई बरस बाद मेरे मित्र राज कुमार ने मुझसे मेरी यह बात सुनकर अपनी आप-बीती सुनाई। उसका गाँव जालंधर के म्युनिसिलप एरिये में ही है। मैं कभी–कभी उसके गाँव चला जाता था। गर्मियों में शाम के वक्त उसके कच्चे-पक्के कोठे पर बिछी चारपाइयों पर बैठकर बातें करने में बड़ा आनंद आता था। उसकी पंडितानी लकड़ी की सीढ़ी चढ़कर हमारे लिए चाय का लौटा और काँच के दो गिलास ऊपर मुंडेर पर रख जाती थी। हम दोनों के पास अपने अपने ब्रांड की सिगरेटों की एक एक डिब्बी हुआ करती थी। अस्त होते सूरज की धूप को उनकी घनी नीम रोक लिया करती थी। इस तरह कोठे पर बैठकर चाय और सिगरेटें पीते हुए बातें करने में हमें बहुत आनंद आता था।
            राज कुमार ने जो बात सुनाई थी, वह मैं शायद उतने स्वाद से नहीं सुना सकता जितने स्वाद से उसने सुनाई थी, पर अपने शब्दों और अपने अंदाज में मैं सुना रहा हूँ।
            अभी मेरा विवाह नहीं हुआ था। वैसे मंगनी हो चुकी थी। मैंने उसे देख रखा था। एक रिश्तेदार के घर विवाह में देखी थी। सुंदर लगती थी। हम लोग पाकिस्तान से लुटे-पिटे आए थे। माँ हमारी उधर गुज़र गई थी। बस, भापा जी और हम दोनों भाई थे। भापा जी ने थोड़ी-बहुत दुकान चला ली थी। मैं दसवीं करके कच्ची नौकरी करने लग पड़ा था। मैं आटा गूंध लेता था और सामने तंदूर पर से रोटियाँ लगवा लाता था। दाल-सब्ज़ी भी बना लेता था। सभी रिश्तेदार और गाँव वाले भी मेरे विवाह पर ज़ोर दिए जाते थे।
            एकबार हमारी मौसी फिल्लौर आई। उसने भापा जी को मना लिया विवाह के लिए।... नहीं, मेरे विवाह के लिए। वह लड़की उसके जेठ के ससुराल से थी। पर मैंने देख नहीं रखी थी। वह बैसाख का पक्का करके चली गई। अब मुझे खुशी भी थी और चिंता भी हुई कि मैं क्या करुँगा। मुझे तो कुछ पता ही नहीं था। एक और बात... अख़बारों, पत्रिकाओं में मर्दानी बीमारियों के विज्ञापनों का मारा हुआ था मैं। जैसे -क्या आपने अपनी जवानी का खुद ही सत्यानाश किया है ?“, “क्या आप पत्नी के योग्य नहीं रहे ?“, “शीघ्रपतन ?“ और पता नहीं क्या-क्या... लगता कि ये सारी बीमारियाँ मुझे हैं। मैं चोरी छिपे दवाइयाँ खाया करता था। दफ़्तर का एक मित्र ला देता था।
            लो जी, विवाह से बीसेक दिन पहले मौसी आ गई। पाकिस्तान में जब मेरी माँ जीवित थी, तब भी वही मौसी आकर काम किया करती थी। संग में उसकी इकलौती बेटी होती थी। हम उसे दुलारीकहकर बुलाते थे। वह अपने विवाह के बाद करीब तीन महीने तक अपनी ससुराल में रहकर लड़-झगड़कर लौट आई थी। फिर छोड़ने-छुड़ाने का शोर पड़ गया था। सुंदर बहुत थी। पर बोलती बहुत थी। मुँहफट थी। हमारे भापा जी उसको ठीक नहीं समझते थे, पर विवाह के अवसर पर तो उनकी बहुत ज़रूरत थी।
            वे आईं तो घर में रोटी अच्छी प्रकार से पकने लग पड़ी थी। कपड़े, गहने बनने लग पड़े थे। दोनों ने कमरा और रसोई बांट ली। मैं कोठे पर सोता था। मौसी, दुलारी और छोटा भाई नीचे आँगन में सोते थे। भापा जी पशुओं वाले कोठे के अहाते में सोते थे। एक रात मौका मिलने पर दुलारी ने भी अपना बिस्तर कोठे पर कर लिया। रात को हम बातें करते करते सो जाते। सवेरे हम जल्दी उठकर नीचे आ जाते। एक इतवार को हम देर से जागे। मुझे उसने दूर के कोठे की तरफ़ इशारा करके देखने को कहा। कई कोठे छोड़कर छीबियों के कोठे पर उनका दिल्ली में नौकरी करता लड़का और उसकी नव-ब्याही बीवी मच्छरदानी में पड़े थे। बीवी उठी तो उसने अंगी और चड्ढी पहन रखी थी। पेटीकोट और कमीज़ पहनकर वह नीचे उतर गई। देखकर हम दोनों हैरान रह गए।
            सोमवार को माँ-बेटी दोनों शहर से लौटीं तो उनके पास मच्छरदानियाँ भी थी। भापा जी इस बात पर बड़े नाराज़ हुए। मौसी बोली, “मच्छर बहुत है। और फिर, बहू छत पर कैसे सोएगी ?“
            रात में हमारे दोनों की चारपाइयों पर मच्छरदानियाँ तानकर देखी गईं। फिर वे तनी ही रहने दी गईं। सोते समय दुलारी पहले तो मेरा हाथ ही पकड़ती रही। जैसा कि वह प्रायः बात करते करते पकड़ लिया करती थी। फिर वह लेटी लेटी मेरी मच्छरदानी में आ घुसी। मैं बहुत घबराया। वह मुँह से तो कुछ नहीं बोली, पर मुझे कुछ करने के लिए इशारों से समझाती रही। फिर खुद ही करने लग पड़ी। अंत में हम सफल हो गए। मैं पास हो गया। मुझे बेहद खुशी हुई। फिर पूरा एक सप्ताह मैं इम्तहान ही देता रहा। हर बार मेरे नंबर बढ़ते गए। फिर पहल भी मैं ही करने लग पड़ा था। ऐसे भाई, मैंने ट्रेनिंग ली, बहन से। फिर उस बेचारी के साथ बुरा हुआ। उसको कोई जबरन उठाकर ले गया। शायद, खुद ही किसी के साथ भाग गई। दुबारा उसकी कोई खोज-ख़बर न मिली।
            मैंने राज कुमार से पूछा था कि तुझे आत्म-ग्लानि नहीं हुई थी, यह सब करते ? तो उसका जवाब था कि यदि तू खुद ऐसी स्थितियों में होता और तुझे यह अवसर मिलता तो पता चलता। कई बार तो आदमी ऐसा करने की हालत में होता ही नहीं। पर मैं भी यह बात हर किसी को नहीं बताता। बुरा लगता है। शरम आती है।
             राज कुमार की बताई यह बात मेरे अंदर बहुत समय तक घूमती रही थी। कभी कभी उसकी पत्नी भी बीच में बोल पड़ती थी, पर उसको उसकी बात कड़वी ही लगा करती थी। फिर मेरी अपनी भी छोटी-सी कहानी थी। परंतु धीरे धीरे जब कहानी तैयार होने लगी तो मेरे सामने दुलारी का दुखांत बहुत बड़ा हो गया था। मैंने उसी को केंद्र में रखकर कहानी लिखी।
            यूँ तो पंजाब के अरोड़ा समाज में अपने मामा, बुआ और मौसी की बेटियों के साथ विवाह करवाने का प्रचलन है। उनके लिए यह प्रेम-प्रसंग कोई अनजानी बात नहीं। परंतु दूसरों के लिए बेशक मौसी की बेटी बहन है, पर उसका स्त्री होने का और अपने मर्द से दूर होने का दुखांत बड़ा है। उसके दुख के सामने मेरी प्रेम कहानी के कोई बड़े अर्थ नहीं। हाँ, यह जीव-विज्ञानियों के लिए गंभीर सवाल अवश्य।
(जारी)

0 टिप्पणियाँ:

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव
वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, मूल्य : 300 रुपये

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
शुभम प्रकाशन, एन-10, उलधनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032, मूल्य : 120 रुपये

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव
यूनीस्टार बुक्स प्रायवेट लि0, एस सी ओ, 26-27, सेक्टर 31-ए, चण्डीगढ़-160022, मूल्य : 400 रुपये

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव
नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्या नगर सोसायटी, पटपड़गंज, दिल्ली-110032, मूल्य : 150 रुपये

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह) संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह)  संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नेहरू भवन, 5, इंस्टीट्यूशनल एरिया, वसंत कुंज, फेज-2, नई दिल्ली-110070, मूल्य :60 रुपये।

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, वर्ष 1998, 2004, मूल्य :35 रुपये

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-1100-6, मूल्य : 125 रुपये

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

व्यवस्थापक
'अनुवाद घर'

समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

सर्वाधिकार सुरक्षित

'कथा पंजाब' में प्रकाशित सामग्री का सर्वाधिकार सुरक्षित है। इसमें प्रकाशित किसी भी रचना का पुनर्प्रकाशन, रेडियो-रूपान्तरण, फिल्मांकन अथवा अनुवाद के लिए 'कथा पंजाब' के सम्पादक और संबंधित लेखक की अनुमति लेना आवश्यक है।

  © Free Blogger Templates Wild Birds by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP