पंजाबी उपन्यास
>> मंगलवार, 2 अप्रैल 2013
बलबीर मोमी अक्तूबर 1982
से कैनेडा में प्रवास कर रहे हैं। वह बेहद सज्जन और मिलनसार इंसान ही
नहीं, एक सुलझे हुए समर्थ लेखक भी हैं। प्रवास में रहकर पिछले 19-20 वर्षों से वह निरंतर अपनी माँ-बोली पंजाबी की सेवा, साहित्य सृजन और
पत्रकारिता के माध्यम से कर रहे हैं। पाँच कहानी संग्रह [मसालेवाला
घोड़ा(1959,1973), जे मैं मर जावां(1965), शीशे दा समुंदर(1968), फुल्ल खिड़े
हन(1971)(संपादन), सर दा बुझा(1973)],तीन उपन्यास [जीजा जी(1961), पीला
गुलाब(1975) और इक फुल्ल मेरा वी(1986)], दो नाटक [नौकरियाँ ही नौकरियाँ(1960),
लौढ़ा वेला (1961) तथा कुछ एकांकी नाटक], एक आत्मकथा - किहो जिहा सी जीवन के अलावा
अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मौलिक लेखन के साथ-साथ मोमी जी ने पंजाबी में अनेक पुस्तकों का
अनुवाद भी किया है जिनमे प्रमुख हैं – सआदत
हसन मंटो की उर्दू कहानियाँ- टोभा टेक
सिंह(1975), नंगियाँ आवाज़ां(1980), अंग्रेज़ी नावल ‘इमिग्रेंट’ का पंजाबी अनुवाद ‘आवासी’(1986), फ़ख्र जमाल के उपन्यास ‘सत गवाचे लोक’ का लिपियंतर(1975), जयकांतन की तमिल
कहानियों का हिन्दी से पंजाबी में अनुवाद।
देश –विदेश
के अनेक सम्मानों से सम्मानित बलबीर
मोमी ब्रैम्पटन (कैनेडा)
से प्रकाशित होने वाले
पंजाबी अख़बार ‘ख़बरनामा’
(प्रिंट व नेट एडीशन) के संपादक हैं।
आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास ‘पीला गुलाब’ भारत-पाक विभाजन की कड़वी यादों को
समेटे हुए है। विस्थापितों द्बारा नई धरती पर अपनी जड़ें जमाने का संघर्ष तो है ही,
निष्फल प्रेम की कहानी भी कहता है। ‘कथा पंजाब’
में इसका धारावाहिक प्रकाशन करके हम प्रसन्नता अनुभव कर रहे हैं। प्रस्तुत है इस
उपन्यास की आठवीं किस्त…
- सुभाष नीरव
पीला गुलाब
बलबीर सिंह मोमी
हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव
15
(प्रथम
भाग)
मैं अक्सर सोचता रहता कि मैं कुछ नहीं हूँ। मन के शीशे में
मुझे जो कुछ भी दिखाई देता, उसके
अनुसार भी मैं अपनी प्रतिभा पर कोई गर्व नहीं करता। मुझे अपने अध्ययन या अनुभव का
भी कोई अभिमान नहीं है। मेरे पास ऐसा भी कुछ नहीं है जिसको मैं उपलब्धि का नाम दे
सकूँ। मैं यही अनुभव करता हूँ कि मेरा पल्ला खाली है। मेरे पास किसी को देने के
लिए कुछ नहीं है। मुक्ति का चेहरा कभी कभी मेरी कल्पना में जब उभरता है तो मैं
सोचता हूँ कि वह हू-ब-हू किसी ईरानी युवती जैसी पतली, लम्बी और गोरी हो। उसकी आँखों में
स्वीडिश लड़कियों की आँखों जैसी नीली चमक हो। बाल कोई अधिक मेहनत न करने पर मांग
निकालकर सादे ढंग से संवरे हुए हों। हाँ, एक गुस्ताख़ लट हवा के झोंके में बेशक कभी कभी उसके गोरे मुख
को चूम ले। अलबत्ता चुन्नी को ओढ़ने का ढंग बिलकुल मुसलमानी हो, बायीं बुकल्ल। और जब कभी वह लम्बी गर्दन
को घुमाकर तिरछी नज़रों से मुस्कराती हुई मेरी ओर देखे तो उसकी आँखों की मस्त
पुतलियाँ भी कमान की तरह घूम जाएँ।
और दुपट्टा बहुत बारीक अच्छा लगता है।
और वह भी हल्के नीले रंग का। क्योंकि नीले रंग में से औरत का रूप इस तरह निखरकर
चमकता है जैसे आसमान में चंद्रमा।
किसी पहाड़ी कोने में मेरा छोटा-सा बंगला
हो जिसके पिछवाड़े में तीख़ी खुशबू वाले फूल खिले हों और जब मैं खिड़की खोलकर उधर
देखूँ तो खुशबू मेरे इर्द-गिर्द पसर जाए। और बगल वाली गहरी खड्ड में दूर तक चाँदी
की तरह चमकता पानी हो। जब सूरज की आखि़री किरणों से नदी का पानी सुर्ख आभा देने लग
पड़े तो मुक्ति बांह में बांह डाले एक हाथ से दूर चोटी पर दिखाई देते हमारे छोटे-से
बंगले की ओर इशारा करके मुझे अपने संग-संग ले चले और हम तंग पगडंडियों पर गिरते,
ढहते एक दूजे का सहारा लिए, शाम के झुटपुटे में वापस अपने छोटे-से
बंगले में आ जाएँ।
मेरे बच्चे सिर्फ़ दो हों। एक लड़की और
एक लड़का। उनका रंग गोरा, नक्श
तीखे और आकर्षक, आँखें
नीली और बाल सुनेहरी हों, और
वे शो केसों में रखे जापानी खिलौनों जैसे प्रतीत हों। शाम को जब मैं सैर करने जा
रहा होऊँ तो मेरी बच्ची मेरी पेंट पकड़कर कहे, “डैडी, मेरे लिए च्युंगम लेकर आना।” और मुक्ति मेरी टाई दुरस्त करती हुई कहे,
“दो पौंड सफ़ेद ऊन भी लेकर आना। सर्दी आने
से पहले मैं बच्चों के और आपके स्वेटर बुन दूँ।” मैं मुस्करा कर अपने हाथ की दो उंगलियों
से उसकी गाल थपथपाते हुए कहूँ, “ज़रूर
लेकर लाऊँगा।”
फिर एक युग बीत जाए। मेरे चेहरे पर
अनुभव के गहरे प्रभाव दिखाई देने लग पड़ें और दूर कहीं बर्फ़ से लदी चोटियों की ओर
जाने वाले किसी जिम्मेदार युवक की कार मेरे बंगले के सामने बहार पर आए सेब के पेड़
के नीचे खराब हो जाए। और वह बेबसी में कभी अपनी कार और कभी सेब के पेड़ पर पके हुए
फलों को देखता हुआ अंग्रेजी गीत की धुन गुनगुना रहा हो। मेरी स्केयर्ड हार्ट
कावनेंट में पढ़ी हुई बेटी उस खूबसूरत नौजवान को अपनी मीठी जुबान में सिर पर खड़ी
रात काटने के लिए ‘आपका
स्वागत है’ कहती हुई बंगले के
अंदर ले आए। और जब रात की रानी अपना घूंघट निकाल ले और मैं ज़िन्दगी के उपन्यास का
आखि़री चैप्टर पढ़कर कोलतार की सड़क पर आ जाऊँ और चाँद की किरणें सेब के पेड़ के पत्तों
में से छन छनकर आ रही हों तो मैं देखूँ कि एक खूबसूरत अजनबी नौजवान मेरी बेटी के
बालों में एक जंगली फूल खोंसता हुआ उसको पके हुए सेब दिखा रहा हो। यह सब देख मुझे
ऐसा लगे कि मानो मैं प्राचीन भारतीय सभ्यता का कायल हूँ और पश्चिमीपन से घृणा करने
लग पड़ा हूँ। अपनी बेटी का डोला विदा करने के बाद अंदर पलंग पर गिरकर रोने की मेरी
इच्छा प्रबल होती प्रतीत हो और मैं गंभीर चित्त होकर पत्थर कदमों से अपने बिस्तर
पर चला जाऊँ।
रात पहाड़ी झरनों, जंगली फूलों, बर्फ़ से लदी सफ़ेद चोटियों, झाड़ियों में छिपे झींगुरों, तारों की रौशनी और बगल वाली गहरी खड्ड
के निर्मल जल के नगमों से भीग उठे।
सवेरे टैक्सी में से उतर कर मेरा बेटा
विलायत से आ जाए और चमकती आँखों से अंग्रेजी में कहे -
“डैडी, मेरी साथिन स्विटजरलैंड की रहने वाली
है। स्विटजरलैंड जहाँ घड़ियों के कारखाने और डायरेक्ट डैमोक्रेशी है। हम दोनों ने
एकसाथ डॉक्टरी पास की है। महीने भर में हमारी टूरिस्ट वैन जर्मनी से आ जाएगी और
फिर हम गरीबों की बस्तियों में जाकर मुफ़्त इलाज करना शुरू कर देंगे।”
मेरी भावपूर्ण मुस्कान से उनका भविष्य
उजला हो जाए, और
बाकी बातें वह अपनी मम्मी के लिए सुरक्षित रखते हुए अंदर वाले कमरे की ओर बढ़ जाए।
उस शाम मैं काला सूट पहनकर बाहर निकलूँ
और सैर करने गया इस प्रकार चलूँ जैसे कोई हनीमून मनाने के लिए जाता है।
पर यह सबकुछ अभी मेरे दिल में है। दिल
से दिमाग तक पहुँचने में समय सेकेंड भर भी नहीं लगता। परंतु यह सेकेंड की सुई मुझे
मेरी कल्पना से काट कर एकदम मुझे मेरे गाँव में ले जाती है। कभी यह कल्पना मुझे
कालेज के क्लासरूम में ले जाती है, जहाँ
प्रोफेसर टंडन अर्थ-शास्त्र के खुश्क विषय पर लेक्चर दे रहा है। मैं इस कल्पना को
दिल की तहों में छिप जाने के लिए कहकर सचेत मन के करीब आने की निष्फल कोशिश करता
हूँ। मैं सोचता हूँ, मैं
कुछ नहीं हूँ। मैं अपनी प्रतिभा पर कोई गर्व नहीं करता। मुझे अपने अध्ययन अथवा
अनुभव का भी कोई अभिमान या हौसला नहीं है। मेरे पास उपलब्धि नाम की भी कोई चीज़
नहीं है। मेरी झोली खाली है। मेरे पास किसी को देने के लिए कुछ नहीं है।
(जारी…)
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