आत्मकथा/स्व-जीवनी
>> शनिवार, 12 मई 2012
पंजाबी के एक जाने-माने लेखक प्रेम प्रकाश का जन्म ज़िला-लुधियाना के खन्ना
शहर में 26 मार्च 1932(सरकारी काग़ज़ों में 7 अप्रैल 1932) को हुआ। यह 'खन्नवी' उपनाम से
भी 1955 से 1958 तक लिखते रहे।
एम.ए.(उर्दू) तक शिक्षा प्राप्त प्रेम प्रकाश 'रोज़ाना मिलाप'
और 'रोज़ाना हिंद समाचार' अख़बारों में पत्रकारिता से जुड़े रहे। 1990 से 2010
तक साहित्यिक पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका 'लकीर'
निकालते रहे। लीक से हटकर सोचने और करने में विश्वास रखने वाले इस
लेखक को भीड़ का लेखक बनना कतई पसन्द नहीं। अपने एक इंटरव्यू में 'अब अगर कहानी में स्त्री का ज़िक्र न हो तो मेरा पेन नहीं चलता' कहने वाले प्रेम प्रकाश स्त्री-पुरुष के आपसी संबंधों की पेचीदा गांठों
को अपनी कहानियों में खोलते रहे हैं। यह पंजाबी के एकमात्र ऐसे सफल लेखक रहे हैं
जिसने स्त्री-पुरुष संबंधों और वर्जित रिश्तों की ढेरों कामयाब कहानियाँ पंजाबी
साहित्य को दी हैं। इनकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि मनुष्य मन की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर
गांठों को पकड़ने में सफल रही हैं।
कहानी संग्रह 'कुझ अणकिहा वी' पर 1992 मे
साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त यह लेखक अस्सी वर्ष की उम्र में भी पहले जैसी
ऊर्जा और शक्ति से निरंतर लेखनरत हैं। इनके कहानी संग्रह के नाम हैं - 'कच्चघड़े'(1966), 'नमाज़ी'(1971), 'मुक्ति'(1980), 'श्वेताम्बर ने कहा था'(1983),
'प्रेम कहानियाँ'(1986), 'कुझ अनकिहा वी'(1990),
'रंगमंच दे भिख्सू'(1995), 'कथा-अनंत'(समग्र कहानियाँ)(1995), 'सुणदैं ख़लीफ़ा'(2001),
'पदमा दा पैर'(2009)। एक कहानी संग्रह 'डेड लाइन' हिंदी में तथा एक कहानी संग्रह अंग्रेजी
में 'द शॉल्डर बैग एंड अदर स्टोरीज़' (2005)भी प्रकाशित। इसके अतिरिक्त एक उपन्यास 'दस्तावेज़'
1990 में। आत्मकथा 'बंदे अंदर बंदे'
(1993) तथा 'आत्ममाया'( 2005) में प्रकाशित। कई पुस्तकों का संपादन जिनमें 'चौथी
कूट'(1996), 'नाग लोक'(1998),'दास्तान'(1999),
'मुहब्बतां'(2002), 'गंढां'(2003) तथा 'जुगलबंदियां'(2005) प्रमुख
हैं। पंजाबी में मौलिक लेखक के साथ साथ ढेरों पुस्तकों का अन्य भाषाओं से पंजाबी
में अनुवाद भी किया जिनमें उर्दू के कहानीकार सुरेन्द्र प्रकाश का कहानी संग्रह 'बाज़गोई' का अनुवाद 'मुड़ उही
कहाणी', बंगला कहानीकार महाश्वेता देवी की चुनिंदा कहानियाँ,
हिंदी से 'बंदी जीवन'- क्रांतिकारी
शुचिंदर नाथ सानियाल की आत्मकथा, प्रेमचन्द का उपन्यास 'गोदान', 'निर्मला', सुरेन्द्र
वर्मा का उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' तथा
काशीनाथ सिंह की चुनिंदा कहानियाँ आदि प्रमुख अनुवाद कृतियाँ हैं।
सम्मान : पंजाब साहित्य अकादमी(1982),
गुरूनानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर द्वारा भाई
वीर सिंह वारतक पुरस्कार(1986), साहित्य अकादमी, दिल्ली(1992), पंजाबी अकादमी, दिल्ली(1994),
पंजाबी साहित्य अकादमी, लुधियाना(1996),
कथा सम्मान,कथा संस्थान, दिल्ली(1996-97), सिरोमणि साहित्यकार, भाषा विभाग, पंजाब(2002) तथा
साहित्य रत्न, भाषा विभाग, पंजाब(2011)
सम्पर्क : 593, मोता
सिंह नगर, जालंधर-144001(पंजाब)
फोन : 0181-2231941
ई मेल : prem_lakeer@yahoo.com
आत्म माया
प्रेम प्रकाश
हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव
खन्ने की गलियाँ
खन्ना से जब
मैं भादसों पढ़ने गया था तो मुझे अपने नए घर के आसपास की अधिक जानकारी नहीं थी। जब
लौटकर आया तो देखा कि हमारा घर तरखानों(बढइयों) के मुहल्ले के करीब बीचोबीच बड़े दरवाज़े वाला घर था।
उस मुहल्ले में बहुत से बढ़ई
रहा करते थे। कुछ घर सैनियों, मालियों के थे। एक बड़ा-सा खोला
था। उसके सिरे पर जीवी कंजरी का घर था।
पता नहीं, उस कंजरी को मुहल्ले में कैसे बसने दिया गया था। वह बड़ी उम्र की थी।
इज्ज़तदार औरतों वाले कपड़े पहनकर वह मुहल्ले में निकलती भी थी। सियाने लोग उसके साथ
बातें भी कर लेते थे। उसकी कई दुकानें थीं जो किराये पर दी हुई थीं। उसकी जवान
बेटी पटियाला में रहती थी। उसकी दो जवान बेटियाँ जब अपनी नानी के पास जातीं तो
जवान लड़के उनके घर के चक्कर लगाते रहते थे। बड़ी का नाम प्रेम था। वह बेहद सुन्दर
थी। मैं उसको सिर्फ़ देख ही सकता था।
उनके घर के सामने सजादे
कुम्हार का घर था। उसके साथ कुम्हारों का मुहल्ला था। उससे आगे रंगरेजों की गली थी,
जहाँ मेरा सहपाठी बशीर रहता था। मैं उसके घर अक्सर जाता रहता था।
उनके घर से पहले झीवर भी रहते थे। उसके आगे धोबियों की गली थी। यह सारा इलाका
मुसलमानों का था जो गरीब ही थे। धोबियों के मुहल्ले में मैं कपड़े लेने जाता था।
कूब(याकूब) धोबी हमारे पुश्तैनी गाँव बदीनपुर का था। मेरे पिता जी 'खद्दर भंडार' के कपड़े उसी से धुलवाते थे।
हमारे मुहल्ले के पूरब में एक
गुरद्वारा था। बाहर को निकलो तो 'पीर भोले की मज़ार' और 'देवी दुआरा' या 'शिवाला' आता था। शहर के अन्दर घुसो तो पक्के दरवाज़े
के अन्दर घुसकर सामने 'गौड़ों की गली' थी।
सिरे पर बाज़ार की ओर मुड़ती थी - कलालों की गली। बीच में अन्य जातियों के लोग भी
रहते थे। यदि दरवाजे से मोरी मुहल्ले की तरफ़ जाएँ तो पहले जट्टों के घर आते थे।
बीच में सैनी, बौरिये, खत्री और
ब्राह्मण भी रहते थे। सुनारों के भी घर थे।
हमारे घर के पिछवाड़े सुथरों
का मंदिर था। जहाँ एक तरफ़ गुरू ग्रंथ साहिब का प्रकाश होता और रहिरास की आवाज़ हर
दिन सुनाई देती थी और दूसरी तरफ़ शिवों की धूनी के इर्दगिर्द बैठे भगत चिलमें भर कर
सुल्फ़ा पीते थे। उससे आगे जाकर करमी वाला कृष्ण मंदिर था। ये सभी धार्मिक स्थान और
गलियाँ मेरे खेलने के स्थान थे। गरमी होती थी तो हम पक्के दरवाज़े में जाकर
गुरद्वारे के आगे नीम की छाया तले खेलते थे। दिन खुले होते थे तो 'चौणे वाले टोभे(पोखर)' से चलते हुए गौंसू की कुइया
तक चले जाते थे। कभी छोटे खन्ने के राह में मंढ़ियों (श्मसान) तक निकल जाते।
शहर भर के लड़के टोलियाँ बनाकर खेलते और लड़ते-झगड़ते रहते थे, पर मैं किसी टोली में नहीं होता था। मैं लड़ने में डरपोक था। मुझे कोई
मारता इसलिए नहीं था कि इस काम में मेरा भाई और चाचा शेर थे। चाचा के साथ मेरी
बहुत छनती थी। वह मुझे रिश्वत देकर अपना झूठा गवाह बनाए रखता था। जब वह चाट खाने
बाज़ार में जाता, मैं उसकी पूँछ बनकर साथ-साथ रहता था। खन्ना
में आकर दो सालों में ही मैं साइकिल चलाना, फिल्में देखना और
बाज़ार में जाकर पैसे खर्च करना आदि सीख गया था। बड़े लड़कों की बातें छिपकर सुनना
मुझे अच्छा लगता था। जीवी कंजरी के घर का चक्कर भी मैं छिपकर ही लगाता था। मुझे
अपने बाप और दादा की इज्ज़त के साथ साथ अपनी इज्ज़त का अहसास भी होने लग पड़ा था। लोग
कहा करते थे कि यह लाला नुराता राम बदीनपुरिये का पोता है।
हमारे घर में घुसते ही चौकोर
ड़्यौढ़ी थी। आगे बड़ा-सा छतना था, जहाँ एक कोने में चूल्हा भी
था। आगे आँगन था। बायें हाथ पर सामने दो दालान या बरामदे थे। दायें हाथ पर रसोई थी
जिसके एक तरफ़ औरतों के नहाने के लिए खुरा (गुसलखाना) था। नलका आँगन में था। ऊपर दो
चौबारे थे। एक पिछले बरामदे पर और दूसरा ड्यौढ़ी पर। इस घर के सामने ढोर-डंगरों
वाला और चारे-भूसे वाला घर था। जिसका एक दरवाज़ा हमारे उस घर के सामने था जिसमें हम
रहा करते थे और दूसरा बाहर की ओर खुलता था। उस ढोर-डंगरों वाले घर की बड़ी बैठक में
बिछे फर्श (लम्बी-चौड़ी दरी) पर मेरे दादा जी मोटे सिरहाने रखकर बैठा
करते थे। वहाँ बिछे बड़े फर्शों पर आगे की तरफ़ पल्लियाँ बिछी होती थीं जिन पर बैठकर
मुहल्ले वाले हुक्के पीते और ताश खेलते थे।
हम मौसम के हिसाब से कभी
पिछले चौबारे में पढ़ते, सोते थे और कभी पशुओं वाले कोठे पर।
रातों में स्वाँग, रासलीलाएँ या फिल्में आदि चोरी से देखने का काम वहीं पर
होता था। हम लकड़ियों के ढेर या बाँस की खड़ी सीढ़ी पर से पड़ोसियों के खोले में उतर
जाते। दबे पाँव सिनेमा देखने चले जाते थे और वैसे ही आकर सो जाते थे। साइकिल चलाना
भी मैंने घरवालों से चोरी चाँदनी रातों में सीखा था। और भी कई वर्जित खेल खेला
करते थे जिन पर पैसे खर्च नहीं होते थे। रुपये-पैसे के हिसाब से हमारा घर शहर के
तगड़े घरों में से था, पर मेरे दादा जी शहर में कंजूस के तौर
पर मशहूर थे। वे दूध, घी और अन्य खुराकों से तो हमें गले तक
भरा रखते, पर खर्च करने के लिए पैसे नहीं देते थे। मेरा चाचा
दादी के इधर-उधर रखे पैसे चोरी कर लाता था। वह मुझे चुप रहने का हिस्सा देता था।
मुझमें तो घर में से चोरी करने की हिम्मत ही नहीं थी।
मैं जितना समय घर रहा,
घर के अनुशासन से परेशान रहा। हमें बहुत तड़के ही उठा दिया जाता था
जब गुरद्वारे का नगाड़ा बजता था। कुम्हारों के गधों और बैलों के गलों में बँधी
घंटियाँ खनकतीं और सुथरों के मंदिर के कुएँ का डोल खड़कता। मेरी पिता जी डंगरों (दो
भैंसें और एक गाय) का गोबर हटाकर सानी करते। दादा जी दूध रिड़कते। चाचा धारें
निकालता। मैं और बुआ का बेटा जोग ध्यान गोबर उठाकर पथवाड़े में फेंकते। हाथ धोते-धोते छाछ तैयार होता। दादा जी घूरते हुए इतना पिला देते कि साँस लेना कठिन
हो जाता। बाहर निकलते तो अच्छा-खासा अँधेरा होता। गौंसू की
कुइया की ओर जाता कोई एक आदमी ही मिलता। बहुत दूर जाकर टीलों से परे जंगल-पानी के
लिए जाते। मालिशें, व्यायाम करते। कुइया पर
नहाते। घर लौटकर भजन गाते और मिस्सी रोटियाँ खाकर स्कूल चले जाते। नहाये और भजन
किए बिना रोटी नहीं मिलती थी।
स्कूल में कोई भी विद्यार्थी
और अध्यापक नंगे सिर नहीं जा सकता था। पगड़ी बाँधनी पड़ती थी। नंगे सिर वालों को
कतार में खड़े करके सज़ा मिलती थी। सवेर की प्रार्थना में शामिल होना ज़रूरी था।
छुट्टी वाले दिन पेट साफ़ करने
के लिए बेहद कड़वी दवाइयाँ रगड़नी और पीनी पड़ती थीं। दादा जी अपने आप को हकीम समझते
थे। ख़ून साफ़ करने के लिए चरैते, चुअरके, जंग-हरड़ा तथा और पता नहीं क्या-क्या पीना-खाना पड़ता था। रात में हम पेट
दुखने का बहाना करके माँ से पैसे लेकर प्रकाश अत्तार की हट्टी से मुरब्बे वाली
हरड़ें लेकर खाते थे। मुझे सवेरे आँवले का मुरब्बा भी मिलता था। मुझे नक्सीर फूटने
की बीमारी छोटी उम्र से लेकर मेरे विवाह होने तक रही थी। बैठे-बैठे ही नाक में से लहू बहने लग पड़ता था। मुझे वर्ष भर ठंडी तासीर की
चीज़ें और दवाइयाँ खिलाई जाती रही थीं। डॉक्टरों के पास इसका इलाज नहीं था।
नक्सीर चलने के कारण ही मैं
धूप में चल-फिर नहीं सकता था। गर्मियों में खेलना कठिन होता था। नाक को चोट से
बचाकर रखता था। मेरे नाक में से लहू बहता देखकर दूसरे डर जाते थे। पर मुझे आदत-सी
हो गई थी। मुझे कुश्ती और अखाड़े में जाकर ज़ोर करने का शौक था। पर बात इसलिए आगे
नहीं बढ़ी कि एक धौल पड़ने पर मेरे नक्सीर फूट पड़ती थी। गर्मियों में मैं ताश या
बारां-गीटी खेलता था। अखरोटों या कंचों के साथ गुरद्वारे के पास पक्के दरवाजे में
बैठकर खेलता था। पतंग लूट कर उड़ाता था। घरवाले किसी खेल के लिए पैसे नहीं देते थे।
पतंगों से इसलिए रोकते थे कि लड़के कोठों पर से गिर पड़ते हैं। मैं एक बार पड़ोसियों
के कोठे पर डोर लूटता मोघे में से होकर उनके घर के अन्दर जा गिरा था। उन्होंने
अपना लम्बा-चौड़ा मोघा हरे चारे की पूलियाँ से ढका हुआ था।
मुझे ज्यादा बच्चों में खेलना
अच्छा नहीं लगता था। मेरे दोस्त एक-दो ही होते थे। दोस्ती
डालने में भी संकोची था। मुसलमान दोस्त हमारे घर के बहुत अन्दर तक नहीं जा सकते
थे। हमारे घर के चौके की सीमा में मेरी दादी सैनियों के बच्चों को भी नहीं घुसने
देती थी। मैं अपने सैनी माली दोस्त भाग सिंह के साथ खाने वाली चीज़ें चोरी-छिपे
बाँटकर खाता था।
मैंने अपने सहपाठी मुसलमान
लड़के शमीम जो शहर के खाते-पीते मौलवियों का लड़का था, के साथ
इसलिए मित्रता की थी कि वह बहुत सुन्दर था। बहुत साफ़-सुथरा रहता था। पर उसके हाथों
से मुझे मीट के मसालों की बू आया करती थी। पर वो बू खटीकों के हुसैन के हाथों में
से नहीं आती थी।
जब भी कोई लड़का घर आता था तो
दादी पूछती थी, ''यह किनका लड़का है ?'' उसकी जाति से उसकी सीमा निश्चित होती थी। कुछ ऐसे संस्कार मेरे पर पड़े थे
कि मैं बड़ी उम्र तक किसी के घर की कोई चीज़ नहीं खाता था। लस्सी तो मैं किसी के घर
की पी ही नहीं सकता था। मुझे उसमें किसी बूढ़ी के फेरे हुए हाथ दिखाई देते थे।
रोटियों से गूंधे जाते आटे का ख़याल आता था। यह बंदिशें तब टूटीं जब मुझे जालंधर
आने का अवसर मिला। और कई बरस होटलों-ढाबों में रोटी खानी पड़ी।
धार्मिक संस्कार
मेरे दादा जी
और दादी सनातन धर्मी हिंदू थे। पर मेरे पिता जी के विचार आर्य स्कूल में पढ़ते हुए
बदल गए थे। वह आर्य समाजी बन गए थे। इस हद तक कट्टर कि मेरी दादी अपना सनातनी धर्म
निभाते हुए जो भी धर्म-कर्म करती थी, मेरे
पिता जी उसमें विघ्न डालकर खुश होते थे। माँ अधबीच में थी। आधी पति के साथ और
चोरी-चोरी सास के साथ। मेरी ननिहाल वाले भी आर्य समाजी थे। पर स्त्रियाँ जब माँएँ
बनती हैं तो मोह की मारी वहमों-भरमों को अधिक मानने लग पड़ती हैं।
मेरे पिता जी ने आरंभ से ही
मुझे घर में हिंदी पढ़ाई थी। स्कूल में हिंदी और संस्कृत के विषय लेकर दिए थे। मुझ
पर भी आर्य समाज और देश के स्वतंत्रता-संग्राम और हिंदूवाद का रंग चढ़ा हुआ था।
काफ़ी प्रभाव मुझ पर इस बात का भी था कि हमारा घर गुरद्वारे के करीब था। बढ़इयों के
उस मुहल्ले में अधिकांश बुज़ुर्ग मिस्त्री मोने थे और हुक्का पीते थे और उनके लड़के
सिंह सज जाते थे। गुरद्वारे के प्रबंध में ज़ोर जट्टों के हाथ में था, परन्तु भाइयों वाली सेवा बढ़ई करते थे। रसद भी वही एकत्र करते थे। दालें,
आटा हमारे घर से भी जाता था। यह श्रद्धा मेरी दादी की थी जो 'सरहंद' का नाम नहीं लेती थी। कहती - 'ये वो कमबख्त शहर है जिसका नाम नहीं लेना।' नाम न
लेने के कारण मैं गुरद्वारे के ढाडियों से सुनी 'वारें'
और 'साका सरहिंद' सुनता
रहता था। जिनमें गुरूओं और साहिबजादों पर किए सूबा सरहिंद के जुल्मों की कहानियाँ
गाई जाती थीं। जिससे मेरे मन में मुसलमानों के लिए ज़हर भर गया था और बदला लेने की
भावना बढ़ गई थी। आर्य समाज मंदिर में उपदेशकों से सुने व्याख्यानों से भी दूसरे
धर्म वाले लोगों से नफ़रत की भावनाएँ ही पैदा होती थीं।
यह धर्म मेरे पिता जी मेरे पर
जबरन लादते रहे थे। मुझे आदेश होता था कि प्रत्येक रविवार को मैं देशी घी और हवन
की लकड़ियाँ लेकर आर्य समाज मंदिर जाऊँ। जहाँ पहुँचकर मुझे हवन करने वालों के संग
बैठना होता था। सभा समाप्त होने पर ही मैं घर लौट सकता था। तब तक यार-दोस्त खेलों
की कितनी ही बाजियाँ लगा चुके होते थे।
आर्य समाजी, सनातनी अंध-विश्वासों को तोड़ने के लिए तर्क बहुत करते थे। मैं उन्हीं
तर्कों को उन पर लागू करता कहने लग पड़ा था कि हवन के मंत्रों को हम पंजाबी में
क्यों बोलते हैं ? क्या परमात्मा को यही भाषा समझ में आती है
? यह विद्रोह उस भावना ने पैदा किया था जब पिता जी ने 'हवन मंत्राहि' को याद न करने की वजह से मुझे डंडों
से पीटा था। मैंने आर्य समाज मंदिर जाने से इन्कार कर दिया था। पिता जी ने ज़ोर से
मेरे सिर के बाल खींचकर स्टालिन को बुरा-भला कहा था। वे मेरे सहित सभी नास्तिकों
से नफ़रत करते थे।
जब 1947
के भारत-पाक विभाजन के समय पश्चिमी पंजाब से लहूलुहान और रोते-बिलखते हिंदू-सिक्ख
इधर आए तो मेरे मन में बड़ा रोष था, पर जब खन्ना और आसपास के
गाँवों में मुसलमानों की मार-काट शुरू हुई और जगह-जगह
मुसलमान काटे जाने लगे तो मेरा मन यह सोचकर परिवर्तित होने लग पड़ा कि इन्होंने ने
पश्चिमी पंजाब जाकर किसी को नहीं मारा। मेरा बड़ा भाई अम्बाला में पढ़ता था। वह घर
आया तो उसके हाथ में छुरा था। उसने बताया कि वह रेलगाड़ी में दो मुसलमानों को मार
कर आया है। फिर तो लोगों के हाथ लहू से सन गए और चारों तरफ़ लाशें ही लाशें थीं।
तीन तीन सौ आदमियों को इकट्ठा करके मिट्टी का तेल डालकर फूंका गया था। चारों तरफ़
सड़ांध फैल गई थी। उस साल बरसात ज़ोरों की हुई थी। लाशें, आगज़नी
और राख, ये सब दूसरे-तीसरे दिन बारिश में धुल जाती थीं।
स्कूल बन्द हो गए थे। मैं तीन महीने पशु चराता रहा था। मेरे आसपास जले और ढहे घर,
उजड़ी फसलें और इन्सानों के पिंजर होते थे। हम चरवाहे उनकी यह पहचान
करके खेला करते थे कि यह लाश औरत की है या मर्द की। या इसकी उम्र कितनी होगी ?
हम उन्हें बालों, जबाड़ों और गुप्त अंगों वाली
हड्डियों के ढांचे और नाक की हड्डी से पहचानते थे। औरत की ये हड्डियाँ हमें छोटी
लगतीं। हो सकता था कि बच्चे या तगड़े-कमज़ोर आदमी का भी फ़र्क़ हो।... पर इसके साथ यह
बात तो दृढ़ हो गई थी कि हमारे मन के अन्दर हड्डियाँ देखकर जो डर या तरस पैदा हुआ
करता था, वह गुम हो चुका था। हम उन हड्डियों या सूखी लाशों
के पास बैठकर रोटी खा लिया करते थे।
एक दिन हम पशु चरा रहे थे तो
एक कुत्ता हमारे पीछे-पीछे आ रहा था। उसको शायद रोटी की गंध आ रही थी। हम उससे खीझ
गए थे। मेरे साथ का जट्टों का लड़कों बोला, ''इसको सोध दूँ ?''
मेरे कुछ कहने से पूर्व ही उसने अपनी बरछी फेंक कर मारी, जिसका फल कुत्ते का पेट फाड़कर दूसरी तरफ़ निकल गया। बरछी सहित तड़फता और
पलटे खाता वह दम तोड़ गया। इस घटना से मैं बहुत दु:खी हो गया था और दूसरे दिन पशु
चराने अकेला ही दूसरी तरफ़ निकल गया था।
हमारे पुश्तैनी गाँव बदीनपुर
में मुसलमानों की लाशों का ढेर दो कोठों जितना ऊँचा था। जिसे फूँकने के लिए
लकड़ियाँ कहाँ से मिलतीं ? सारे गाँव के उजड़े घरों में से एक
भी लकड़ी ढूँढ़े नहीं मिल रही थी जो फूँकने के काम आती। साथ वाले गाँवों के लोग सब
कुछ उतार कर ले गए थे। लाशों के ढेर पर मिट्टी का तेल डालकर आग लगा दी गई थी। जलती
हुई लाशें कई दिनों तक बदबू छोड़ती रही थीं। इसी प्रकार का एक ढेर खन्ना के पड़ाव पर
फूँका गया था। जिसे जलता हुआ मैं देख नहीं सका था। लुधियाना की ओर जाती हरेक गाड़ी दोराहे
की नहर के पुल के पास रोक ली जाती थी और बरछे-गंडासों वाले जवान, पाकिस्तान जा रहे मुसलमानों को चुन-चुन कर यह कहकर
नीचे उतार लेते थे कि चलो, तुम्हें पाकिस्तान पहुँचा दें...
और उनके टुकड़े करके नहर में फेंक दिया जाता था। जिससे नहर का पानी कितनी ही देर तक
लाल रहा था।
हमारे मुहल्ले में और उसके
आसपास के मुहल्लों में शरणार्थी आकर बस गए थे। उनके साथ सांझ पैदा हो गई थी। कुछ
लड़के मेरे साथ पढ़ते थे। उनसे जब पश्चिमी पंजाब में हुए जुल्मों की बातें सुनता था
तो मन पागल हो उठता था। मुझे न तो धार्मिक तौर पर यह बात समझ में आती थी और न ही
मानवीय रवैये से। तब मेरी समझ भी सीमित ही थी। मैं कुछ और तो करने योग्य नहीं था,
सिर्फ़ इतना कर सका कि मैंने परमात्मा और हिंदू धर्म को अपने जीवन
में से निकाल दिया था। जो आज भी बाहर ही है। मुझे अब भी किसी भी धार्मिक विश्वास
पर भरोसा नहीं।
कुछ घर के और कुछ बाहर के
बुरे हालातों के कारण मेरा स्वभाव चिड़चिड़ा और जिद्दी हो गया था। मुझे स्कूल की
पढ़ाई, स्कूल टीचर और अपने घर वाले अच्छे नहीं लगते थे। मुझे
किसी भी काम से तसल्ली नहीं होती थी। दिल करता था कि कुछ और किया जाए। मैं इस
स्कूल, घर और शहर में से निकलकर कहीं भाग जाऊँ। जहाँ मैं
आज़ादी की साँस ले सकूँ। घर में मुझे अपना साँस घुटता हुआ महसूस होता था।
अंधी-बहरी उम्र
1. मर्द
होना : मैं बहुत समय क्या, कई साल अपने अन्दर ही अन्दर उखड़ा-उखड़ा रहा था। जिसके पीछे,
अब मुझे लगता है, कुछ तो मेरे घर के कठिन
हालात रहे थे और कुछ मेरा बुरा स्वभाव था, जो कुछ अपने जीन्ज़
की वजह से, कुछ उनके विरोधी दबावों से बना था और कुछ मेरी
उलझी उम्र के कारण, उलझी उम्र जो कुछ अजीब-सा मांग कर रही
थी। मेरी मूंछों के रोम काले होने लग पड़े थे। मेरे दिमाग में गुबार-सा रहने लग पड़ा
था। मेरी सोच और हरकतें मेरे वश से बाहर होने लग पड़ी थीं। लगता था कि मैं अपने
अन्दर ही किसी से लड़े जा रहा होऊँ। मुझे किसी ओट में अकेले या किसी दोस्त के साथ
बैठना अच्छा लगता था। धूप में घूमते धूप नहीं लगती थी। कभी छाँव में बैठे बदन जलता
महसूस होता था।
एक दिन तीसरे पहर मेरा दोस्त
भाग सिंह पीर भोले की मज़ार के आगे मिला। बड़े गर्व से बोला, ''मैं पास हो गया।... मैं उस खोले में जा घुसा... मेरा
हाथ भर गया... दिल बागोबाग हो गया।''
मैंने उसकी बात पर विश्वास
नहीं कर रहा था। वह मुझे अपने मर्द होने की बात तुरत मनवा लेना चाहता था। वह जोश
में दुबारा खोले में जा घुसा। कुछ मिनट बाद फिर बाहर आया तो उसके हाथ में आक का
पत्ता था। वह मुझे पत्ते पर पड़ा कुछ हिलता हुआ दिखा रहा था और विजयी भावना से हँस
रहा था। वह मेरी नज़र में बड़ा हो गया था। मैं खुद ज़मीन में धंस गया था। और तब तक
धंसा रहा था जब तक यह करिश्मा मैंने स्वयं करके न देख लिया। फिर, उसे बताने पर मेरा कद एक इंच एकदम बढ़ गया था। फिर, ऐसी
ही ओट के ये तजुर्बे ज़िन्दगी की जान लगते थे। पर हिंदू धर्म या आर्य समाज साहित्य
ने इस सारी सुखद खेल को ज़हर बना दिया था। फिर मेरे कुआँरे होने का सारा जीवन संताप
ही भोगता रहा था। बांध एक बार अपने हाथों टूट गया था। फिर खाल खुद-ब-खुद बहता रहा
था। कभी सुख और कभी संताप। फिर तो 'सुख-संताप' ने हमेशा के लिए ग्रस लिया था। किसी रिश्तेदार के घर रात काटने पर डर लगता
था। सवेरे इस बात की मायूसी होती थी कि अपने कपड़े तो अपने होते हैं, दूसरों की चादर भी गन्दी हो जाती थी। दुबारा उस घर में जाने को दिल नहीं
करता था। इस शर्मसारी से बचने के लिए पहले जांघिया, उसके ऊपर
कच्छा और फिर पायजामा पहनकर रखना पड़ता था।
अकेले एकान्त में बैठे जब कभी
दिमाग में कोई जिन्न-भूत चढ़ता था तो अन्दर-बाहर आग लगती थी। पागल की भाँति उतावला
हुआ मन चीजें तलाशता था। चीजें ज़ो मन को धोखा दे सकें। बेज़बान जानवरों के पीछे पड़ा
रहता। उन्हें क्या पता था कि उन्हें प्यार करने वाला बन्दा उनके साथ क्या-क्या किए
जाता था। यह सब कुछ इतने परदे और अँधेरे में होता था कि किसी को पता ही नहीं लगता
था। शायद, यह सुख-स्वाद भी चोरी और अँधेरे का ही था। इस काम
के लिए घर के पशुओं के अलावा, मुहल्ले के कुत्तों को भी मैं
बहुत प्यार दिखलाता रहता था। वे मुझे सचमुच में प्यारे लगते थे। एक कुत्ता पशु
चराते समय भी मेरे साथ जाता था और जंगल-पानी जाते समय भी। मैं एक भट्ठे के खतानों
में कितने-कितनी देर उसके साथ लाड करता रहता था। फिर, मैं
भट्ठे की ऊँची जगह पर आकर बैठा रहता। मुझे उस कुत्ते से बहुत प्रेम हो गया था।
देश विभाजन से पहले जब यहाँ
मुसलमानों का ज़ोर था, लौंडेबाज़ी आम थी। गरीब, मजबूर और छोटे वर्गों या जातियों के लोगों में इसको बुरा नहीं समझा जाता
था। हिंदुओं और विशेषकर महाजनों में यह बहुत बड़ी बुराई मानी जाती थी। मेरे दिल में
भी इससे सख्त नफ़रत थी। सामाजिक बुराई जो थी। पर उस समय में मेरे मन के बहुत
अन्दरूनी हिस्से में कहीं औरत को प्राप्त करने की इच्छा जागती थी। यह काम असंभव
था। इसके एवज में लौंडेबाज़ी की ख्वाहिश पैदा होती थी। स्कूल पढ़ते हुए इसी बात के
चर्चे आम हुआ करते थे। हमारी पीढ़ी पर कुछ उर्दू शायरी का भी असर था। उर्दू शायर भी
लौंडों के हुस्न का चर्चा करते रहते थे। स्कूल में पढ़ते सुन्दर लड़के आम तौर पर बख्शे
नहीं जाते थे। कोई टीचर भी नज़र रखा करता था। स्कूल का हैड मास्टर स्वयं लौंडा रखने
के लिए बदनाम था। उसकी कोठी पर मेरा एक जमाती रविंदर जाया करता था। वह लड़का सबसे
सुन्दर हुआ करता था। वह राम लीला के दिनों में खेले जाने वाले नाटकों में सीता और
अन्य स्त्री पात्रों का रोल किया करता था। तगड़े एक्टर भी परदे में उसको चूमते रहते
थे। वह हमेशा हँसता रहता था। यदि कोई उसकी गाल को हाथ लगा देता था तो गुस्सा नहीं
करता था। उसका जिस्म अच्छा पला हुआ था। मैं भी उसकी ओर एक खिंचाव महसूस किया
करता था।
मेरी दोस्ती कई मुसलमान लड़कों
से थी। उनमें से एक 'शमीम' नाम का
खाते-पीते मौलवी घराने का लड़का था। उसके पीछे तगड़े लड़के लड़ते रहते थे। हम जब भी
मिलते थे, मेरे मन में उसको चूमने की इच्छा पैदा होती थी।
मैं उसको बाहों में कस लेता था। उसके लिबास और चेहरे में से खुशबू आती थी, पर हाथों में से बदबू आया करती थी। मुझे लगा करता था कि वो बदबू मीट के
भुनते मसाले की होती थी, जो मुझे उससे दूर कर दिया करती थी।
जो नौजवान लेखक मुझे सुन्दर लगते, मैं उनको 'शमीम' कहकर खुश होता रहता था। अमितोज का मैंने यही
नाम रखा था।
एक दिन सुबह-सुबह हमारे घर
में एक दूर की रिश्तेदार औरत अपने लड़के के साथ आई। वह उस गोरे और चर्बी चढ़े लड़के
को छोड़कर किसी अन्य शहर चली गई। उन्हें शाम को लौट जाना था। हम दोनों जने पशुओं
वाले घर के अन्दर जाकर बातें करने लग पड़े। वह मुझसे एक कक्षा पीछे पढ़ता था। उसका
कद तो मुझसे छोटा था, पर जिस्म भारी था। हल्की गरमी थी। उसने
पायजामा उतार कर मेरी धोती पहन ली थी। हम चारपाई पर बैठे पहले बातें करते रहे,
फिर ताश खेलने लग पड़े। वह दो बार 'भाभी'
बन गया तो मैंने उसे छेड़ते हुए दो बार उसकी गालों पर हाथ लगा दिया।
वह हँसता रहा। फिर जवाबी कार्रवाई करने लगा। हम आपस में गुत्थमगुथा होने लगे तो
पता चला कि वह मुझसे कमज़ोर था।... लिपटते-चिपटते मेरे अन्दर एक आग-सी उठने लग पड़ी।
वही जिन्न-भूत चिपटने लग पड़ा। मैं उसके संग वो सलूक करने लग पड़ा जिसके करने पर
दूसरे लड़के लड़ पड़ते थे। पर वह हँसता रहा। मैं सौदाई हो गया। मुझे खुले दरवाज़े का
भी ख़याल न रहा। वह बीच में छोड़कर हँसता-हँसता हमारे घर की ओर अपनी मौसी (हमारी
चाची) के पास चला गया। इस असफलता का पछतावा मुझे बड़ी उम्र तक रहा। एक साल के
अन्दर-अन्दर वह लड़का फौज़ में भर्ती हो गया। पर मैं न हो सका। मेरी बायीं आँख की
नज़र कमज़ोर निकली। वह एक बार फिर मिला। वह बहुत सेहतमंद जवान था और मैं उसके सामने
मरियल-सा लड़का लगता था।
आने वाले समय में मुझे क्या
बनना है, इससे अधिक मुझे इस बात का ख़याल रहता था कि कैसे न
कैसे कहीं इश्क हो जाए। ये सुनी-सुनाई बातें और किस्से-कहानियों ने मेरा दिमाग
खराब किया हुआ था। पर हौसला किसी लड़की को नज़रें उठाकर देखने का भी नहीं था। एक बार
मैं घर से भाग कर अपनी बुआ के पास सन्नौर चला गया। जिस कोठे पर मैं बैठा गुनगुनी
धूप सेका करता था, उसके सामने एक मंदिर था। उसकी कुइया हमारी
तरफ़ थी। एक लड़की रोज़ पानी खींचती। वह जब रस्सी खींचती हुई आगे से पीछे की ओर हटती
तो मुझे देख लेती। मैं नज़रें टिकाये बैठा रहता। बीसेक दिनों का 'चिल्ला' काटकर मैं खन्ना लौट आया।
कुछ समय बाद मैं फिर गया तो
पता चला कि वह लड़की ब्याही गई है। मैं लौट आया। फिर जब भी मैं कभी ऊब जाता या घर
में झगड़ा हो जाता, मैं साइकिल उठाकर पटियाला की ओर चल पड़ता।
शाम को थककर गाँव लौट आता। एक दिन पटियाला में काली माता के मंदिर से अगले चौक पर
खड़ा था कि वही लड़की मेरे करीब से गुज़री। उसने कंधे से छोटा बच्चा लगा रखा था। मुझे
देखकर वह दरख्त की छाया में रुक गई। उसने दो-तीन बातें पूछ लीं -क्या हाल है ?...यहाँ क्यों खड़ा है ?... क्या करता हूँ ?
मैं बड़ी कठिनाई से उसकी ओर
देख पाया। मैं तीन बार 'कुछ नहीं, कुछ
नहीं' कह पाया। तभी उसका पति आ गया। उसके पास दो थैले थे। वे
रिक्शे में बैठकर अड्डे की तरफ़ चले गए। मैं भट्ठी के भुजे चने चबाता गाँव लौट गया।
उस जलती-झुलसती उम्र में जो
कुछ होता था या जैसी हरकतें और दृश्य देखकर कर मन खुश होता था, वह मैंने किसी भी भाषा के साहित्य में नहीं पढ़ा। यह बात नहीं कि दूसरे
साहित्यकारों का उनसे वास्ता न पड़ा हो। सच्चाई यह है कि हम जो सच जीते हैं,
वह बता नहीं सकते। लिखना तो बहुत ही दूर की बात है। उम्र गुज़रने के
साथ हम अपनी सारी सोच और कल्पनाओं पर छननी लगा लेते हैं। जैसे अब मेरी छननी बातें
गुज़ारने पर रुक गई है।
2. पड़ोसिन
भाभी : मेरा विवाह 1957 में हो गया था। इससे पहले स्त्रियों के बारे में मेरा अनुभव बहुत ही कम
था। मैंने किसी लड़की या औरत को अच्छी तरही छुआ भी नहीं था। फिल्मी और कविताओं की
नायिकाओं की भाँति लड़कियाँ और स्त्रियाँ मेरे मन में बसती और बातें करती थीं।
मैंने अपना कल्पित संसार बसा रखा था। खन्ना में हमारे घर के साथ एक छोटा-सा घर
बढ़इयों का था। उसमें एक विधवा औरत किसी गाँव से आकर रहने लगी थी। वह हमारे घर से
लस्सी और अन्य ज़रूरत की वस्तुएँ लेने आ जाती थी। मेरी दादी उसको पसन्द नहीं करती
थी। पर यह कहकर चीज़ें दे देती थी, ''चलो होगी, गरीब ब्राह्मणी है।... पता नहीं किन दुखों की मारी है।''
वह जवान थी। सुन्दर थी। बाद
में पता चला कि वह विधवा नहीं, पति द्वारा छोड़ी हुई थी। उसके
साथ उसकी जवान और उससे कहीं सुन्दर बेटी थी। एक बार मैंने उसे अपने घर से दूध का
गिलास दादी से छिपाकर ला दिया था और उसने मुझे अपनी बगल में कसकर लगाते हुए कहा था,
''यह है मेरा देवर लाडला।'' बस, इसी बात ने मुझे पागल कर दिया था। मैं उसके काम करता रहता था। पर मेरा
दोस्त भाग सिंह जब भी मिलता उसकी लड़की की बात करता था। जिसको लेकर मेरे मन में
बुरे विचार आते ही नहीं थे।
रात के समय गरमी होती। हम गली
में चारपाइयाँ बिछा कर सोते। दरवाज़े के आगे दादा की खाट होती। मेरी चारपाई
कहानियाँ सुनाने वाले राजा(नाई) बाबा के पास होती। मुझसे आगे भाग सिंह पड़ा होता।
पंडिताइन अपने दरवाज़े के आगे होती और उसकी बेटी की चारपाई आधी दरवाज़े के अन्दर और
आधी बाहर होती। जब गरमी बढ़ जाती तो वह भी चारपाई बाहर निकाल लेती। सब लोग हाथों
में पकड़े पंखे झुलाते-झुलाते सो जाया करते थे। एक रात वह औरत हड़बड़ाई-सी उठकर बोलने
लग पड़ी, ''सैनियों का लड़का आया। मेरी चारपाई की बाही पर बैठ
गया।'' पर जब मैं जागा तो सैनियों का भाग सिंह अपनी चारपाई
पर था। मेरा दादा कह रहा था, ''यूँ ही भरम पड़ गया। सपने में
डर गई। कोई बात नहीं। सो जाओ।'' सभी फिर लेट गए।
सवेरे भाग मिला। बोला,
''मैं उसकी लड़की की चारपाई की बाही पर जा बैठा था। उसने शाम के समय
मेरे इशारे का जवाब दिया था।''
फिर, बड़ों
की बातों से पता चला कि सच्चाई का पता मेरे दादा को भी था। वह बात पर मिट्टी डालना
चाहता था। यह भाग सिंह की दूसरी बात थी जिसने मुझे तंग कर दिया था। पहली वही आक के
पत्ते पर पड़ा कुछ दिखाने वाली बात थी। मुझे लगा कि मैं जवान होने में उससे बहुत
पीछे रह गया हूँ। यह बात गाँठ बनकर मेरे मन में बैठ गई थी। मेरे देखते-देखते भाग
सिंह का जिस्म भर गया। उसके दाढ़ी दिखाई देने लगी थी। वह खेती करता था। फिर,
फौज़ में भर्ती होकर कहीं चला गया था।
एक शाम मैं अपने घर के आगे
वाले चौबारे में बैठा उर्दू कहानियों की किताब पढ़ रहा था। एक कहानी की कल्पना के
साथ मेरे अन्दर भोली मिरासन के दोहते ताज द्वारा बहुत पहले सुनाई गई बात चलचित्र की तरह मुझे दिखाई देने लगी।... उसने एक रात के अँधेरे में अपने हमउम्र दोस्तों
को यह बात पीपल की जड़ पर बैठकर सुनाई थी। मैं थोड़ा हटकर पुलिया पर बैठा सुनता रहा
था। वह किसी लड़की से अपने प्रेम की बातें सुना रहा था। जब वे दोनों कहीं रात में
इकट्ठा हुए तो वह पाँच मिनट की बात को पन्द्रह मिनट तक घसीटता रहा
था।... अँधेरी कोठरी में चारपाई पर वे दोनों थे। पास ही दीवट पर सरसों के तेल का
दीया जलता था। दीये की लौ, दीवार पर दोनों के सायों का
नाटक, आवाज़ें - अन्दर की कुछ और बाहर की कुछ। जिस्म के
अंगों और बालों के रंगों का ज़िक्र। कभी धीमी और कभी तीखी होती आवाज़ का
वार्तालाप।... उस मिरासी के बेटे ने पूरा नाटक खेल दिया था। हरेक पात्र की आवाज़
अलग-अलग अंदाज़ और सुर में निकालता रहा
था। वह 'हाय-हाय' कहकर तो हमारी जान ही
निकाल लेता था। फिर जनेन्द्रियों के कामों का वर्णन अभ्यस्त कथावाचकों से भी बढ़िया
ढंग से करता था। वह उनके बदलते आकारों, रंगों और आवाज़ों का
ज़िक्र करता था।...वह ‘लाल रंग' वाली
बात मेरे अन्दर अड़ कर बैठ गई थी।
कभी-कभी रात में वह नाटक मुझे
फिर दिखाई देने लग पड़ता था। मैं तंग आकर अपने आप को थप्पड़ मारता था। उस दिन मेरा
थप्पड़ मारने को मन नहीं किया। चौबारे में एक छोटी-सी हुक्की पड़ी थी। मैंने नीचे से
आग लाकर चिलम सुलगाई और दो सुट्टे मारे। धुआँ निकला तो मेरा शरीर तड़पने लग पड़ा।
मानो कपड़ों में आग लग गई हो। मैंने अन्दर से कुंडी लगाकर आक के पत्ते वाला खेल खेल
लिया। एक बार तो मन शांत हो गया। फिर पश्चाताप से भरने लग पड़ा। हिंदू धर्म ग्रंथों
की शिक्षा याद आई । इसके नुकसान का अहसास हुआ। मैं डर गया। मैं अपने आप को कैसे
तबाह कर रहा था।
काफी समय मैं डरता और पछताता
रहा। फिर, अचानक मुझे भाग सिंह का ख़याल आया। मेरा दिल किया
कि मैं उसे दिल की बात बताऊँ। तभी मुझे अपनी सफलता का ख़याल आया। जब मैं दरवाज़े से
बाहर निकला तो मेरी छाती चौड़ी थी। मेरा कद एक इंच एकदम बढ़ गया था। मैं चाहता था कि
अब भाग सिंह कहीं मिल जाए।... वह अपने घर ही था। मेरी बात सुनकर वह बड़ा खुश हुआ।
फिर, नसीहतें देने लग पड़ा, ''बाद में
एक गिलास गरम-गरम दूध पिया कर। अच्छा हो यदि उसमें एक चम्मच घी डाल लिया करे।''
पर कुछ समय बाद अहसास होने
लगा कि यह कोई अच्छा शगुन नहीं था। यह तो जिन्न था जो मुझे चिपट गया था। जैसे मैं
नाई बाबा से कहानियाँ सुना करता था कि जब वह कोठरी में जाती तो उसके कपड़ों में आग
लग जाती। पहले चुन्नी को लगती। फिर कुरती को। और फिर सलवार को लग जाती। वह चीखती
हुई बाहर को भागती थी। बख्शी बांवरा उसको चिमटे-फुंकने मारकर जिन्न भगाया करता था।
बिल्कुल ऐसा ही होता था जब
मैं अकेला होता था। शाम को अँधेरा गहरा हो जाता था या रात के नौ बजे के करीब जब
मुझे बिस्तर पर पड़े को नींद नहीं आती थी। वह जिन्न मुझे दबोच लेता था। मैं अपने
बचाव के लिए बहुत ज़ोर मारता था। परमात्मा की अदृश्य शक्ति को याद करता था। गायत्री
मंत्र का जाप करता था।... पर बच पाना अक्सर कठिन होता था। आग पहले मन में कहीं
लगती थी। वह शरीर के कई अंगों में चक्कर खाती अन्त में दिमाग को जकड़ लेती थी। फिर,
मेरा अपना आप मेरे वश में नहीं होता था। फिर, बख्शी
बांवरा आता था। वह अंधाधुंध चिमटे-फुंकने मारता था।... फिर मैं बेदम-सा होकर सो
जाता था।
यह काम शायद सारी दुनिया में
इसी तरह होता हो। पर भारत में यह सारी कौम की जान को ग्रसे बैठा है। आदमी सारी
उम्र इसी चक्कर में पड़ा रहता है। अक्सर मर्द दोस्त तो अपनी सच्चाई बता देते हैं,
पर औरतें सब झूठ ही बोलती हैं। जिसका कारण उनके साथ होने वाली
पुरुष-प्रधान समाज की ज्यादती भी है।
ताज की कहानी सुनाने की कला
को इस्तेमाल करके मैं भी उसकी नकल स्कूल में करने लग पड़ा था। पर मेरे पास औरतों के
संग कामुक संबंधों के अनुभव और किस्से तो थे नहीं, मैं जो भी
फिल्म देखता था, उसकी कहानी दोस्तों को सुना देता था। इस काम
में मैं इतना माहिर सिद्ध हुआ था कि मैं फिल्म के सीन-दर-सीन में वार्तालाप डालकर
सुना देता था। जहाँ कहीं भूल जाता था, वहाँ अपनी ओर से घड़ कर
बातें सुना देता था। स्कूल के मेरे साथी मुझे घेर कर एक तरफ़ बैठ जाते थे। मैं
जितनी भी फिल्में देखता था, मुझे उनकी कहानियाँ भूलती नहीं
थीं। इस हुनर ने कहानियाँ लिखने में मेरी बड़ी सहायता की। कई पाठकों और आलोचकों को
यदि मेरी कहानियों में फिल्म के टुकड़े दिखाई देते हैं तो वह फिल्म देखने के मेरे
जुनून का ही नतीजा है।
(जारी)
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