पंजाबी उपन्यास

>> शनिवार, 12 मई 2012


बलबीर मोमी अक्तूबर 1982 से कैनेडा में प्रवास कर रहे हैं। वह बेहद सज्जन और मिलनसार इंसान ही नहीं, एक सुलझे हुए समर्थ लेखक भी हैं। प्रवास में रहकर पिछले 19-20 वर्षों से वह निरंतर अपनी माँ-बोली पंजाबी की सेवा, साहित्य सृजन और पत्रकारिता के माध्यम से कर रहे हैं। पाँच कहानी संग्रह [मसालेवाला घोड़ा(1959,1973), जे मैं मर जावां(1965), शीशे दा समुंदर(1968), फुल्ल खिड़े हन(1971)(संपादन), सर दा बुझा(1973)],तीन उपन्यास [जीजा जी(1961), पीला गुलाब(1975) और इक फुल्ल मेरा वी(1986)], दो नाटक [नौकरियाँ ही नौकरियाँ(1960), लौढ़ा वेला (1961) तथा कुछ एकांकी नाटक], एक आत्मकथा - किहो जिहा सी जीवन के अलावा अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मौलिक लेखन के साथ-साथ मोमी जी ने पंजाबी में अनेक पुस्तकों का अनुवाद भी किया है जिनमे प्रमुख हैं सआदत हसन मंटो की उर्दू कहानियाँ- टोभा  टेक सिंह(1975), नंगियाँ आवाज़ां(1980), अंग्रेज़ी नावल इमिग्रेंट का पंजाबी अनुवाद आवासी(1986), फ़ख्र जमाल के उपन्यास सत गवाचे लोक का लिपियंतर(1975), जयकांतन की तमिल कहानियों का हिन्दी से पंजाबी में अनुवाद।
देश विदेश के अनेक सम्मानों से सम्मानित बलबीर मोमी ब्रैम्पटन (कैनेडा) से प्रकाशित होने वाले पंजाबी अख़बारख़बरनामा (प्रिंट व नेट एडीशन) के संपादक हैं।

आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास पीला गुलाब भारत-पाक विभाजन की कड़वी यादों को समेटे हुए है। विस्थापितों द्बारा नई धरती पर अपनी जड़ें जमाने का संघर्ष तो है ही, निष्फल प्रेम की कहानी भी कहता है। कथा पंजाब में इसका धारावाहिक प्रकाशन करके हम प्रसन्नता अनुभव कर रहे हैं। प्रस्तुत है इस उपन्यास की पाँचवीं किस्त…
- सुभाष नीरव

पीला गुलाब
बलबीर सिंह मोमी

हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव

5

चिड़ियों की चहचहाट ने गुलाब को जगा दिया। घने नीम के पत्तों में से सूरज की किरणें झांक रही थीं। उसने उठकर, मुस्कराकर सुबह का स्वागत करना चाहा, परन्तु भूख से निढाल होने के कारण उसके होंठों पर मुस्कान नहीं आई। रहट के टिंडों के पानी में से ही उसने मुँह पर दो छींटे मारे और अपनी मंज़िल की ओर धीमे-धीमे चलते हुए वह अपने अतीत के दिन याद करने लगा...
      मास्टर के रेडियो ने ऐलान कर दिया कि हमारा गाँव पाकिस्तान में आ गया था। उसके बाद महात्मा गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू और मुहम्मद अली जिन्नाह की तकरीरें हुईं। लोगों के रंग उड़ गए। परन्तु कई अपने घरों को छोड़कर जाने के लिए तैयार नहीं थे। ''यारो, चिड़ियाँ इतनी जल्दी अपना घोंसला नहीं छोड़ा करतीं, फिर हम अपने घरों को कैसे छोड़ जाएँगे।''
      सदियों से बने हुए घर जिनके साथ उनकी असंख्य सांझें थीं। जिन घरों में जन्म, मरण, ब्याह-शादियाँ और गौने हुए थे। जिनकी दहलीज पर अभी तक चुआए गए तेल की चिकनाई मौजूद थी। लोग उन घरों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे, जहाँ एक ही बिरादरी में रहते हुए उनके सैकड़ों लेन-देन के दु:ख-सुख साझे थे। लोग वे घर कैसे छोड़ते जहाँ उनकी बेटियों-बहनों की इज्ज़त सांझी थी।
      दिन चढ़ता था तो घरो के आगे के चबूतरों पर चढ़ती धूप में जट्ट गरने(सन के पूले) लेकर आ जाते। इधर निकाली हुई तीलियों की धूनी जलती रहती, उधर सन डिब्बों में इकट्ठी होती रहती। लोग उस धरती को कैसे छोड़ सकते थे जहाँ उनके बड़े-बुजुर्गों की मढ़ियाँ थीं और उनकी राख मिट्टी में मिली हुई थी।
      मुझे याद है, मेरा छोटा भाई मोहन था। बस, करीब दो वर्ष का होगा और मैं पाँचेक बरस का। खेत में रोटी देने के लिए माँ उसको तो गोद में उठा लेती और मेरी उंगली पकड़ कर मुझे अपने संग पैदल ले जाती। हमारा खेत सारे गाँव से दूर था और मुझे यह पैदल चलना बहुत कठिन लगता और मैं सोचा करता कि मेरा यह छोटा भाई मर जाए, जिसने मेरी जगह पर कब्जा किया हुआ है और माँ ने मुझे गोद में उठाना छोड़ दिया है। जब मोहन सो रहा होता तो मैं जिद्द करके माँ का दूध चूँघने लगता। जो भी देखता, वह मेरी माँ और मुझ पर मजाक करता। मोहन के पैदा होने से पहले भी माँ अपने स्तनों पर रस घोलकर लगा लेती थी और मुझे चूँघने के लिए कहा करती थी। पर मैं कड़वे स्तन चूँघ न पाता। और फिर माँ के स्तनों में से दूध सूख गया था। उसके बाद मोहन पैदा हुआ। अब मैं फिर दूध पीने के लिए जिद्द किया करता और मोहन के मर जाने की इच्छा रखता। फिर, मोहन बीमार हो गया। उसे निमोनिया हो गया और बिगड़ कर डबल निमोनिया हो गया। माँ के कहे अनुसार वह ठंड के घर में चला गया था। मेरी समझ में कुछ न आता कि यह ठंड का घर क्या होता है ? कहाँ होता है ? और फिर मोहन मर गया। माँ खूब रोई-चिल्लाई। बापू भी गर्दन झुकाए बैठा था।
      फिर, औरतें और मर्द इकट्ठा हुए। मोहन को एक सफ़ेद कपड़े में लपेट कर श्मशान में ले गए। मैं भी पीछ-पीछे चल पड़ा और सबसे छिपकर सब कुछ देखता रहा। पहले मोहन को चिता में जलाने की सलाह हुई। माँ ने रोते-चिल्लाते कहा कि वह अपने फूल जैसे बच्चे को आग के हवाले नहीं करेगी। फिर, कुछ लोगों की सलाह पर एक गहरा गड्ढ़ा खोदा जाने लगा। माँ कहे, ''गड्ढ़ा शीशम के नीचे खोदना, मेरे बेटे को छाया रहेगी।'' और गड्ढ़ा शीशम के नीचे खोदा जाने लगा। गड्ढ़ा खोदे जाने के बाद गुरुद्वारे के भाई ने अरदास की और मोहन को उस गड्ढ़े में लिटाकर ऊपर से मिट्टी डाल दी गई। गङ्ढा भर जाने के बाद उसके ऊपर मिट्टी की ढेरी लगा दी गई। फिर, धीरे-धीर सब लोग लौटने लगे और गुरुद्वारे में स्नान करके अपने-अपने घरों को चले गए।
      रात हुई तो मैं घर में नहीं था। मेरी खोज शुरू हुई। कहीं से पता चला कि मुझे श्मशान की ओर जाते देखा गया था। रोती-धोती माँ बापू को संग लेकर श्मशान में पहुँच गई। मैं वहाँ उस मिट्टी की ढेरी पर बैठा रो रहा था और उंगलियों से मिट्टी खोद रहा था।
      माँ ने मुझे उठा कर पता नहीं कितनी बार अपनी छाती से लगाया। बड़ी मुश्किल से मुझे वहाँ से लाया गया। उसके बाद भी कई बार घरवाले मुझे श्मशान से उठाकर लाए।
      और, ये लोग उन मढ़ियों को छोड़कर जाने को तैयार नहीं थे, जहाँ उनके मासूम बेटियों-बेटों, बहनों-भाइयों, बुजुर्ग़ों की मढ़ियाँ थीं।
      मैंने कहा, ''मैं यहाँ से नहीं जाऊँगा। इस धरती के चप्पे-चप्पे पर मेरे कदमों के निशान हैं। ये निशान मुझे जाने नहीं देते। गाँव का यह पोखर जिसके बीचोबीच जाकर हमारी भैंस बैठी रहती है और जिस पोखर पर मैं ठीकरे फेंकने की शर्तें अपने हमउम्रों से लगाकर जीतता रहा हूँ, उसे कैसे छोड़कर जा सकता हूँ।
      यह मेरे गाँव की धरती जिसके पूर्व में बाग और पश्चिम में नहर, उत्तर दिशा में पोखर और दक्खिन में हाई-स्कूल है, मैं कैसे छोड़कर जा सकता हूँ। इस स्कूल में मेरा सर्टिफिकेट पड़ा है और रजिस्टर में मेरी उपस्थितियाँ दर्ज़ हैं। नहर में मैंने तैरना सीखा था और यहाँ मैंने त्यौहार-मेले, गिद्धे-बोलियाँ, कुश्ती, कबड्डी और दौड़ें देखी थीं। इस नहर के खुले मैदान में लगे तम्बुओं में से मैं एक अंग्रेज लड़की को अंग्रेजी के दो फ़िकरे लिख कर अपने घर ले आया था। इसी नहर के अगले पुल पर पक्के डले के जंगल में हर वर्ष मेला लगा करता था और रासधारिये और कव्वाल मस्तियाँ करते और कव्वालियाँ गाते थे।
      मैं यह सब कुछ छोड़कर कहाँ जा सकता हूँ, जहाँ पूरब वाले बाग में से मैं अपने हमउम्रों के साथ चोरी से अमरूद तोड़ा करता था और माली मुझे इसलिए छोड़ देता था कि मैं जत्थेदार का पुत्र था। मैं अपना खेत, खतान और फ़सलें छोड़कर कैसे जा सकता था, जहाँ हमारी खड़ी ईंख, मिरचों के बूटे, घनी मक्की और हाथी जितनी ऊँची ज्वार थी और खतानों में शहद के छत्ते लगे हुए थे। मैं यह सब छोड़कर कैसे जा सकता था और अब तो लोग रात में तीन-तीन कुरते पहनकर सोते थे। कुछ पता नहीं था कि रात को किस वक्त भागना पड़ सकता था।
      फिर, एक रात हमारे गाँव में आधी रात के समय मुसलमानों का हमला हो गया। मैं उस समय कोठे पर सो रहा था।
      एकाएक गोलियाँ चलने की आवाज़ें आने लगीं। शोर तेलियों के घरों की तरफ़ से आ रहा था। मैं और बापू झट से कोठे से उतर कर नीचे आ गए। मैंने समझा, भागने का समय आ गया था और मैंने सबसे पहले अपनी किताबों वाला थैला उठाया और कमानी वाला चाकू जिसे भागो ने मुझे पशौरे से लाकर दिया था। बापू ने बांहों पर चक्र लपेटे और दायें हाथ में बरछा पकड़कर बायें हाथ में ढाल थामे जैकारे छोड़ता बाहर निकल गया। गाँव में से भी गोलियों के चलने की आवाज़ें आने लगीं और नारे गूंजने लगे। गाँव के बाज़ार में लोग भागने-दौड़ने लगे। कई 'अल्लाह-हू-अकबरकी आवाजें भी तेज़ होतीं, पर वे 'बोले सो निहाल, सति श्री अकाल...' की गूंज में दबकर रह जातीं।
      करीब दो घंटे गोली चलती रही। आकाश खालसों के जैकारों से गूंजता रहा और मुसलमानों में से गुंडा तत्व जो गाँव को लूटने और आग लगाने के लिए आया था, भाग गया।
      अगली सुबह से भीतर-खाने चोरी-चोरी होने वाला काम खुलेआम होने लग पड़ा। लोग अवैध हथियार खुलेआम लिए फिरते और कहते, ''मिलिट्री आ जाए तो अलग बात है, लुटेरों से हम नहीं डरते।'' परन्तु रात के भय ने लोगों के बचे-खुचे हौसले भी डिगा दिए थे। अन्दर ही अन्दर वे घरबार छोड़कर हिंदुस्तान जाने का विचार बना रहे थे और अमन-शांति हो जाने पर फिर वापस लौट आना चाहते थे।
      ''अमृतसर में सिक्खों ने मुसलमानों को लेकर पाकिस्तान आ रही रेल गाड़ी काट दी और इधर मुसलमानों ने हिंदू, सिक्खों की गाड़ियाँ काट डालीं और उन्हें लूट लिया।'' इस तरह की बातें अब आम-सी होकर रह गई थीं।
(जारी…)

0 टिप्पणियाँ:

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव
वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, मूल्य : 300 रुपये

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
शुभम प्रकाशन, एन-10, उलधनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032, मूल्य : 120 रुपये

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव
यूनीस्टार बुक्स प्रायवेट लि0, एस सी ओ, 26-27, सेक्टर 31-ए, चण्डीगढ़-160022, मूल्य : 400 रुपये

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव
नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्या नगर सोसायटी, पटपड़गंज, दिल्ली-110032, मूल्य : 150 रुपये

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह) संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह)  संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नेहरू भवन, 5, इंस्टीट्यूशनल एरिया, वसंत कुंज, फेज-2, नई दिल्ली-110070, मूल्य :60 रुपये।

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, वर्ष 1998, 2004, मूल्य :35 रुपये

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-1100-6, मूल्य : 125 रुपये

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

व्यवस्थापक
'अनुवाद घर'

समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

सर्वाधिकार सुरक्षित

'कथा पंजाब' में प्रकाशित सामग्री का सर्वाधिकार सुरक्षित है। इसमें प्रकाशित किसी भी रचना का पुनर्प्रकाशन, रेडियो-रूपान्तरण, फिल्मांकन अथवा अनुवाद के लिए 'कथा पंजाब' के सम्पादक और संबंधित लेखक की अनुमति लेना आवश्यक है।

  © Free Blogger Templates Wild Birds by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP