पंजाबी कहानी : आज तक

>> बुधवार, 11 जनवरी 2012




पंजाबी कहानी : आज तक(5)


आग
जसवंत सिंह विरदी
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

जब मैं रात में शहर पहुँचा तो शहर वीरान था। कहीं भी रोशनी नहीं थी। मैंने बिना रोशनी की रात की कल्पना भी नहीं की जा थी। रोशनी रहित रात को देखकर मुझे रात की विपन्नता पर बहुत तरस आया।
'रात फिर भी रात है।' मैंने सोचा, 'पर रात उजली तो हो।'
लेकिन नहीं। शहर का पूरा शरीर रात की गहरी काली चादर में छिपा हुआ था। मेरा सांस घुटने लगा। पर रात से बचकर मैं कहाँ जा सकता था ?... कहाँ जाता?

मेरे सामने सारे शहर की सुनसान काली सड़कें खुली हुई थीं और दरवाजे बन्द थे। शहर भर के दरवाजे बन्द। सड़कों पर चलकर मैं चाहे जहाँ भी जा सकता था, पर मैंने देखा कि हर सड़क एक दूरी तक जाकर किसी एक दरवाजे के सामने दम तोड़ देती है। इस शहर में सड़कों की मंज़िलें भी निश्चित हो गई थीं। मैं चकित हो गया।
मैं बहुत दूर से इस शहर की ख्याति सुनकर आया था। लेकिन अब मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मैंने व्यर्थ में यह सफ़र तय किया।
लेकिन, अब मैं कहाँ जाऊँ ?
रात गहरी हो रही थी और अकेलेपन का सन्नाटा, ठंडी हवा की भाँति मेरे शरीर को बेंधे जा रहा था।
'मुझे कहीं न कहीं जाना चाहिए,' मैंने सोचा, 'सड़क तो मेरी मंज़िल नहीं है।' और मैं तेजी से आगे बढ़कर एक मुहल्ले में दाख़िल हो गया। मेरा ख़याल था कि मैं किसी एक घर के दरवाजे पर दस्तक दूँगा और अतिथि बनने का गौरव प्राप्त करूँगा। पर मेरे सामने जो मुहल्ला सांस ले रहा था, उसमें दरवाजे वाला कोई मकान नहीं था।
''इन मकानों के दरवाजे कहाँ गए ?'' मैंने एक बुजुर्ग़ से पूछा।
''दरवाजों वाले मकान शहर के दूसरी तरफ हैं,'' बूढ़े व्यक्ति ने मुस्करा कर कहा और मुझे अपनी झुग्गी में ले गया। यह झुग्गी एक कमरे का ही सैट थी और बूढ़े ने अपना बिस्तर धरती पर ही बिछाया हुआ था। मुझे यह जगह और मकानों से अधिक सुरक्षित प्रतीत हुई, क्योंकि मैं वहाँ फैल कर बैठ सकता था और जहाँ जी चाहता, सो सकता था, लेट सकता था। किन्तु यदि घर में स्त्रियाँ होंती, बेटियाँ होंती तो हर समय स्कैंडल बनने का खतरा बना रहता।
जवान लड़कियों के बीच उठ-बैठ कर आदमी अपनी मंज़िल भी तो भूल जाता है... पर मेरी मंज़िल ही कहाँ है ? क्या बेकार आदमी की भी कोई मंज़िल होती है ?
बुजुर्ग व्यकित ने झुग्गी के बाहर सरकंडों की बाड़ लगा रखी थी और उसका माल-असबाब कुछ झुग्गी के बाहर और कुछ अन्दर बिखरा पड़ा था। मैंने अंधेरे में दूर तक गौर से देखा। यह स्थान किसी महाराजा का कोई पुराना बाग था, उजड़ा हुआ। इस उजड़े हुए बाग को इन लोगों ने अब आबाद करने का प्रयत्न किया था, निष्फल प्रयत्न। 'कभी यह बाग महाराजा के हास-विलास का क्रीड़ा-स्थल रहा होगा, पर अब यहाँ रोशनी तक नहीं है' - मैंने सोचा।
मुझे इधर-उधर देखते हुए देखकर उस वृद्ध ने कहा, ''इस घर में न आग है, और न औरत।''
''क्यों ?'' मैंने अकस्मात पूछ लिया, आश्चर्य से।
''जिन घरों में आग न जलती हो, उनमें औरत नहीं रह सकती।'' वृद्ध ने सरगोशी में कहा, जैसे कोई तिलस्मी भेद खोल रहा हो...
''इसमें क्या भेद है ?'' मैंने कुछ भी न समझते हुए मूर्खों की भाँति सहज भाव से पूछा।
उसने कहा, ''इसमें भेद की कोई बात नहीं है।''
''कोई भेद तो होगा ही।''
''भेद काहे का ? जिस घर में आग नहीं जलती, उस घर में औरत कैसे रह सकती है ?'' (यह किसने कहा था कि औरत भी एक आग ही है, पर यह आग घर की आग से ही कायम रह सकती है।) आग के बिना घर कैसे उजड़ जाते हैं... इसके बारे में मुझे अधिक सोचने की आवश्यकता नहीं थी।
अगले ही क्षण मैं उससे पूछ रहा था, ''आप गुजारा कैसे करते हैं ?''
''मांग-तांग कर,'' उसने बेझिझक कहा।
''गुजारा कर लेते हैं ?''
''बड़े मजे से,'' बूढ़े ने कहा, ''बल्कि कोई चिन्ता ही नहीं रही।'' और वह मुस्करा उठा। मुझे लगा जैसे उसके स्वर में व्यंग का तीखापन हो। मैंने सोचा, इसके घर में नहीं तो इसके अन्तर में अवश्य कोई आग जलती होगी - पर उसका सेंक कैसे अनुभव किया जाए।
इस शहर के संबंध में मेरे मन में बहुत उम्दा छवि बनी हुई थी, पर अब मैं इस शहर के संबंध में कुछ और ही शब्दों में सोच रहा था। किसी भी शहर में पहुँचने पर सबसे पहले उसकी रौनक और रोशनी का अहसास होता है। पर कहाँ ?
अगले कुछ पल हम बिलकुल खामोश रहे। उसके बाद के कुछ क्षणों में मैंने महसूस किया कि उस ठिठुरती हुई रात के कंधों पर सवार होकर कुछ स्त्रियों के गीतों का स्वर हमारे पास पहुँच रहा था। गीत के बोल स्पष्ट नहीं थे, पर जब ध्यान से सुना तो एक एक शब्द स्पष्ट हो गया।

''ये औरतें कहाँ गा रही हैं ?'' मैंने बूढ़े से पूछा।
''परले घरों में... एक लड़की की शादी है।''
''उस घर में भी आग नहीं है ?''
बुजुर्ग ने कोई उत्तर नहीं दिया। मेरी ओर एकटक देखता रहा। न जाने क्या सोच रहा था। मैं भी तो उसके संबंध में बहुत कुछ सोच रहा था।
''क्या सोच रहे हो ?'' मैंने पूछा।
''गाना सुनो।'' वह बोला और उसने बाहर की ओर इशारा किया। उसके इशारे के साथ ही गीत के शब्द दुबारा स्पष्ट होकर थिरकने लगे-
''दईं दईं वे बाबला ओस घरे, जित्थे अग्ग होवे, शहर रोशन होवे
तेरा पुन्न होवे, तेरा दान होवे...''
(बेटियाँ बाबुल से कह रही हैं कि हमें उस घर में ब्याहना, जहाँ आग हो, शहर में रोशनी हो, तुम्हारा पुन्न होगा, तुम्हारा दान होगा)
''गीत में भी आग की बात ?'' मैंने कहा। परन्तु उसने उत्तर नहीं दिया, सुन्न सा बैठा रहा, आग से रहित।
गायन के स्वर फिर थिरक उठो-
''दिने चानण होवे, रात रोशन होवे...
दईं दईं वे बाबला, ओस घरे
तेरा पुन्न होवे, तेरा दान होवे''

बूढ़ा मुस्कराया। न जाने क्या सोचकर मुस्कराया होगा। और मुस्कराकर उसने न जाने क्या सोचा होगा। मैं भी मुस्कराया, पर मैंने कुछ सोचा नहीं, केवल इतना ही कहा, ''इस शहर वाले आप को आग नहीं देते ?''
''आग केवल बड़े लोगों के घरों में होती है।''
''और रोशनी ?''
''रोशनी पैसे से मिलती है।''
''फिर आप ले क्यों नहीं लेते ?''
''हम छोटे लोग हैं, हमें नहीं मिल सकती।'' और उसने घबरा कर चारों ओर ऐसे देखा जैसे अपने आपको नगण महसूस कर रहा हो। जो व्यक्ति अपने आपको नगण्य महसूस करता है, उसे और कोई यातना नहीं दी जा सकती।
''अब तो देश में लोकतंत्र है और हम सब बराबर हैं,'' मैंने कहा, मानो मैं उसे कोई भेद की बात बता रहा था।
उसने कटुता से उत्तर दिया, ''लोग कहते तो हैं, पर हमें दिखाई नहीं देता... हमारे घरों में ज्यादा अंधेरा है, शायद इसलिए...।''
''आप कोई काम क्यों नहीं करते ?''
''मांगना काम नहीं है क्या ?''
''नहीं।''
''फिर और क्या किया जाए ?'' बूढ़े ने मुझे घूर कर देखा। मैं क्या उत्तर देता।
रात घनी अंधकारपूर्ण थी और वातावरण में अब फिर बोझिल निस्तब्धता फैल गई थी। मैं चाहता था कि उस बुजुर्ग को अपनी योग्यता का प्रमाण दूँ। फिर बातचीत में रात बिता देने का प्रश्न भी था।
मैंने कहा, ''कहते हैं, पिछले जमाने में भी आग सिर्फ़ देवताओं के पास होती थी। केवल देवता ही आग की गरमाहट ले सकते थे और घरों में प्रकाश कर सकते थे।''
''अब भी देवताओं के पास ही है।'' बुजुर्ग ने हामी-सी भरी, तल्ख़ लहजे में।
''पर आग सदा देवताओं के पास नहीं रही,'' मैंने कहा, ''लोगों के एक हितैषी शूरवीर ने आग को देवताओं से छीन कर लोगों में बांट दिया था।''
''उसका क्या नाम था ?''
''प्रोमिथिअस।''
''अपने देश का था ?''
''नहीं, किसी और देश का था, पर उसने आग धरती के लोगों को बांट दी थी।''
''क्या कहने, वाह !'' बूढ़े की आँखों में चमक आ गई, आग जैसी चमक।
''बाद में देवताओं ने उसे पत्थरों और जंजीरों से बांधकर बहुत यातनाएँ दीं।''
''चंडाल कहीं के।'' बूढ़े को प्रचंड ज्वाला की भाँति गुस्सा आ गया।
''पर प्रोमिथिअस आग को तो लोगों में बांट ही चुका था।''
''फिर उसका क्या हुआ ?'' निश्चिंत रहने वाला बूढ़ा अब चिंतित था।
''दिन भर गिद्ध उसका मांस खाते, पर रात को उसके ज़ख्म भर जाते।''
''रात में बड़ी ताकत है।''
''आखिर हरक्यूलीज नाम के एक बलवान व्यक्ति ने उसे देवताओं की कैद से छुड़ा दिया।''
''वाह वाह, भई, वाह वाह !'' बूढ़ा भावातिरेक में उछल-सा पड़ा और लगा जैसे उसकी आँखों की रोशनी से वातावरण चमक उठा हो। उसकी आँखों की इस चमक में मैंने देखा - झुग्गी के एक कोने में एक कपड़े में लपेटी हुई कुछ पोथियाँ रखी हुई थीं। मुझे उस बूढ़े के भिखारी होने पर शक होने लगा।
''तुम्हारे पास कोई बीड़ी-सिगरेट हो तो पिलाओ।'' उसने चैन का सांस लेते हुए कहा।
''मैं नहीं पीता।''
''क्यों ?''
''यों ही... जी नहीं करता।''
''फिर भी...''
''मेरे गुरू ने मना किया है।'' मैंने कहा, ''बल्कि प्रण करवाया है।''
''हूँ...।'' वह उठकर खड़ा हो गया। ''जब हम अपनी धरती छोड़कर आए थे, तब हमने भी प्रण किया था कि जब तक उस धरती को आजाद नहीं करा लेंगे, आग नहीं जलाएँगे।''
''तो यह बात है ?''
''हाँ, पर हम आग का त्याग करके ठंडे हो गए... और धरती बैरियों के पास ही रही। अब भी बैरियों के पास ही है।'' और वह बेचैनी से कहीं दूर एकटक देखने लगा।
मैंने बहुत ही सहज भाव से कहा, ''आपको अपनी धरती छोड़नी नहीं चाहिए थी... वहीं लड़कर मर जाना चाहिए था।''
''हाँ...।'' उसने तेजी से कहा, ''पर हमारे बुजुर्गों ने यह बात नहीं सोची थी।''
''धरती लोगों के पास तभी रह सकती है, जब वह उसकी रक्षा कर सकें।''
''हाँ...आं...'' बूढ़े ने स्वर दीर्घ करते हुए कहा, ''पर अब तो हम बड़े निस्तेज हो गए हैं, भिखमंगे। भिखमंगे को तो कोई एक मुट्ठी अनाज देने को भी तैयार नहीं है, धरती कौन देगा।''
''यह सूरमाओं का काम है।''
''हाँ...आं...'' बूढ़े ने फिर हामी-सी भरी।
''और आपके पास तो आग भी नहीं है।'' मैंने उसे चुनौती दी।
डस समय मुझे उन लड़कियों का गीत याद हो आया जो गीतों में भी आग की, रोशनी की कल्पना कर रही थीं। पर आग थी कहाँ ?
''हाँ...आं...'' वह फिर बोल उठा, ''पर हमारा ख़याल था कि हम अपने अन्दर आग जलाएँगे और सामन्तशाही को उसकी ज्वाला के हवाले कर देंगे।'' उसने एक लम्बा सांस लिया और खामोश होकर बैठ गया।
उस समय वह जो कुछ सोच गया होगा, उसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। मैं तो केवल इतना ही देख रहा था कि वह कहीं और पहुँच गया था - उस धरती पर जो उसकी अपनी थी, जहाँ रोशनी थी, जहाँ घरों में आग जला करती थी।
मैं चाहता था कि उसे झंझोड़ दूँ, पर मैं चुप ही रहा।
गीत के बोल अभी भी रात की खामोशी के कंधे पर सवार होकर हम तक पहुँच रहे थे।
''दईं वे दईं बाबला ओस घरे
जित्थे अग्ग होवे, शहर रोशन होवे
तेरा पुन्न होवे, तेरा दान होवे...।''

''यह गीत हमारी लड़कियों ने गढ़े हैं।'' बूढ़े ने कहा। वह बहुत परेशान था। कितना ? मैं बयान नहीं कर सकता।
इस समय वह न जाने क्या सोच रहा था। पर मैं सोच रहा था कि वह बूढ़ा जमाने से बहुत पीछे रह गया है। इसके पास न कोई हुनर है, न ज्ञान का विरसा, न ही कोई घर-बार। यह सारी उम्र मांग कर खाने के सिवा और कोई काम नहीं कर सकता। रात में उस समय ठंड बहुत ज्यादा थी और मैं यह भी सोच रहा था कि अगर मैं शहर की दूसरी ओर, बड़े मकान वालों के पास पहुँच गया होता तो रात आराम से बिता सकता था। पर फिर यह विचार आया कि शायद वे लोग मेरी खूसट शक्ल-सूरत देखकर दरवाजा ही न खोलते... आजकल मुझ पर कई प्रकार के अपराध भी तो लग रहे हैं।
फिर अगले ही क्षण मैं यह सोच रहा था कि आधे शहर में उजाला है तो आधा शहर क्यों वीरान है ? आखिर क्यों ?
मैं उस बुजुर्ग से कहना चाहता था कि मांग-मांग कर निर्वाह करना तो जीवन का कोई उद्देश्य नहीं है। या है ?
बुजुर्ग कोई पल भर के लिए आँखें खोलकर मुझे एकटक देखता था और मुस्करा कर फिर आँखें बन्द कर लेता था, मानो वह मेरी बात का भेद पा गया हो।

रात आधी से ज्यादा बीत गई थी और उस जाड़े की रात में वह बुजुर्ग मेरे सामने बैठा हुआ था... उसके सांसों की गर्मी मैं महसूस ही नहीं कर रहा था, बल्कि वह मुझे गरमाहट भी दे रही थी। बुजुर्ग की आँखें कभी खुल जाती थीं और कभी बन्द हो जाती थीं। जब उसकी आँखें बन्द होतीं तो मुझे रात की वीरानी का अहसास होता। पर जब खुली होतीं तो ऐसा लगता कि उनकी चमक से कमरे का वातावरण रोशन हो उठा है।
फिर न जाने कब मेरी आँख लग गई।
मैं प्रकाश की एक किरण और आग की एक चिंगारी के लिए तरस गया था और प्रकाश रहित रात की विपन्नता पर मुझे बहुत तरस आ रहा था, इसलिए रात को सपनों में मैंने सब झुग्गियों में तेज लपलपाती लपटें देखीं। मैंने यह भी देखा कि ये लपटें समूचे शहर को अपनी लपेट में ले रही हैं ।
सवेरे जब मैं जागा तो मुझे मालूम हुआ कि मैं शहर के हाकिमों की हिरासत में हूँ, और रात को सपनों में सब झुग्गियों में लपटों का उठना देखने के अपराध में मुझे सश्रम कैद की सज़ा दी गई है।
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जसवंत सिंह विरदी
जन्म : 7 मई 1934, निधन : 2011
पंजाबी और हिंदी में समान रूप से पढ़े जाने वाले पंजाबी के चर्चित कथाकार। कहानियों के साथ साथ लेख, फीचर, नाटक, उपन्यास और बाल साहित्य में भी भरपूर लेखन। पंजाबी में पहले ऐसा कथाकार जिसने पंजाबी में फैंटेंसी विधि से कहानियाँ लिखने का चलन चलाया।
इनकी कहानियों में गाँव, कस्बे और शहर के साधारण लेकिन परिश्रमी लोग तथा निम्न मध्यवर्गीय लोग दृष्टिगोचर होते हैं जो रोज के हालात से लड़ते हैं, गिरते हैं पर हार नहीं मारते। पीड़ पराई(1960), अपणी अपणी सीमा(1968), ग़म का साक(1971), पावर हाउस(1974), नुक्कर वाली गली(1075),ज़िन्दगी(1976), नदी का पाणी(1977), सीस भेट(1977), सड़कां दा दर्द(1971), ख़ून के हस्ताक्षर(1982), बदतमीज लोक(1982), खुल्ले आकाश विच(1986), मेरीयां प्रतिनिधि कहाणियाँ(1987), रब्ब दे पहिये(1988), अध्दी सदी दा फर्क(1990), मेरीयां श्रेष्ठ कहाणियाँ(1990), हमवतनी(1995), तपदी मिट्टी(1995), पुल, तारे तोड़ना, सीस भेट आदि उसकी शाहकार कहानियाँ हैं।

1 टिप्पणियाँ:

रूपसिंह चन्देल 14 जनवरी 2012 को 8:18 pm बजे  

भाई नीरव,

विरदी की यह ’आग’ कहानी तो वाकई में आग है. अद्भुत कहानी. इतनी सुन्दर कहानी के अनुवाद और पढ़वाने के लिए धन्यवाद.

चन्देल

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‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

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कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह)  संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव
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प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, वर्ष 1998, 2004, मूल्य :35 रुपये

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-1100-6, मूल्य : 125 रुपये

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

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'अनुवाद घर'

समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

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