पंजाबी उपन्यास

>> बुधवार, 11 जनवरी 2012




पंजाबी के विद्बान लेखक बलबीर सिंह मोमी के विषय में जानकारी, विदेश यात्रा पर ब्रैम्पटन (कैनेडा) गए हिंदी के प्रख्यात लेखक-कवि रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' द्वारा मुझे दिसम्बर 2011 में मिली। बलबीर मोमी अक्तूबर 1982 से कैनेडा में प्रवास कर रहे हैं। वह बेहद सज्जन और मिलनसार इंसान ही नहीं, एक सुलझे हुए समर्थ लेखक भी हैं। प्रवास में रहकर पिछले 19-20 वर्षों से वह निरंतर अपनी माँ-बोली पंजाबी की सेवा, साहित्य सृजन और पत्रकारिता के माध्यम से कर रहे हैं। पाँच कहानी संग्रह [मसालेवाला घोड़ा(1959,1973), जे मैं मर जावां(1965), शीशे दा समुंदर(1968), फुल्ल खिड़े हन(1971)(संपादन), सर दा बुझा(1973)],तीन उपन्यास [जीजा जी(1961), पीला गुलाब(1975) और इक फुल्ल मेरा वी(1986)], दो नाटक [नौकरियाँ ही नौकरियाँ(1960), लौढ़ा वेला (1961) तथा कुछ एकांकी नाटक], एक आत्मकथा - किहो जिहा सी जीवन के अलावा अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मौलिक लेखन के साथ-साथ बलबीर मोमी ने पंजाबी में अनेक पुस्तकों का अनुवाद भी किया है जिनमे प्रमुख हैं – सआदत हसन मंटो की उर्दू कहानियाँ- टोभा टेक सिंह(1975), नंगियाँ आवाज़ां(1980), अंग्रेज़ी नावल ‘इमिग्रेंट’ का पंजाबी अनुवाद ‘आवासी’(1986), फ़ख्र जमाल के उपन्यास ‘सत गवाचे लोक’ का लिपियंतर(1975), जयकांतन की तमिल कहानियों का हिन्दी से पंजाबी में अनुवाद।
देश –विदेश के अनेक सम्मानों से सम्मानित डॉ. बलबीर मोमी ब्रैम्पटन (कैनेडा) से प्रकाशित होने वाले पंजाबी अख़बार ‘ख़बरनामा’ (प्रिंट व नेट एडीशन) के संपादक हैं।

आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास ‘पीला गुलाब’ भारत-पाक विभाजन की कड़वी यादों को समेटे हुए है। विस्थापितों द्बारा नई धरती पर अपनी जड़ें जमाने का संघर्ष तो है ही, निष्फल प्रेम की कहानी भी कहता है। ‘कथा पंजाब’ में इसका धारावाहिक प्रकाशन करके हम प्रसन्नता अनुभव कर रहे हैं।

- सुभाष नीरव



पीला गुलाब

बलबीर सिंह मोमी

हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव

1

बीते दिनों की शूल तो जनती है शूल ही
बीते दिनों के फूल भी देते हैं ग़म जगा।

जब वह पीला गुलाब तोड़ने लगा तो न जाने उसकी आँखों में क्या आया, जिससे उसकी आँखें परिचित थीं और दोस्त भी। उसका हाथ एकाएक पीछे हट गया। अब अधिक समय नष्ट करने का कोई लाभ नहीं। उसने पुन: एक बार सजी हुई कोठी के ड्राइंग रूम की ओर देखा और फिर तेजी के साथ सड़क पर आ गया। लॉन में अभी भी फूल मुस्करा रहे थे। दिन छिप चला था और धीमे धीमे अँधेरा पसरने लगा था। पंछी अपने सफ़रों से अपने घरों की ओर लौट रहे थे, जहाँ सघन वृक्षों में उनके घोंसले उनका इंतज़ार कर रहे थे। घड़ियाल समय की गति के निरंतर चलते रहने की सूचना दे रहे थे, पर समय तो घड़ी में से निकल चुका था। यादें, फरियादें, परेशानियों के ज्वार-भाटे चढ़ते आ रहे थे। उसका सफ़र करीब पहुँचकर भी अभी लम्बा था।

वह चलता रहा, चलता रहा। कई जंगलों-बियाबानों, नदियों, नहरों, खेतों, चरागाहों, बादल, सूरज और तारों को पार करके वहाँ पहुँचना था। वर्षों का सफ़र था जिसे अब महीनों, दिनों और पलों में खत्म करना था - और गुलाब ने सोचा कि आख़िर ज़िन्दगी का यथार्थ क्या था ? मानवीय सच कहाँ थे ? वफ़ा को जाने वाली सारी पगडंडियाँ क्यों बेवफ़ाई के जंगलों में से गुजर कर जाती थीं। और उसका पिछला सारा जीवन उसकी आँखों के सामने आ गया।

बचपन में मुझे अच्छी जूती और अच्छे बूट पहनने का बहुत शौक था। यह इच्छा इसलिए भी बड़ी तीव्र थी कि अक्सर मुझे नंगे पैर ही रहना पड़ता था, क्योंकि जो जूती या बूट घरवाले लेकर देते, उन्हें मैं प्राय: स्कूल पढ़ने गया अथवा नहर में नहाने गया भूल आता था।
अच्छी जूती के साथ साथ मुझे बढ़िया कपड़े पहनने का भी बहुत शौक था। इकलौता और सुशील बेटा होने के कारण मुझे अच्छे कपड़े पहनने को मिलते रहते थे, पर पुराने कपड़ों से भी मेरा इश्क था। पुराने कपड़े पहनकर मुझे नये कपड़ों से कम खुशी महसूस नहीं होती थी। पुराने कपड़ों की तो शरीर से मित्रता हो जाती थी। मुझे अच्छी तरह याद है कि सर्दियों की ठंड से बचने के लिए मेरी माँ मुझे पलश का लाल कोट कोट ज़रूर पहनवा देती थी जो कि उसने बर्मा से बेघर होकर आए एक परिवार से कपड़ा खरीदकर बनवाया था। पाँचवी जमात तक मुझे 'लूण-मिर्च' का झग्गा और लट्ठे की सलवार ही मिलती रही।
अच्छे सूट-बूट के आलवा, मुझे सैर करने, नहर में नहाने, गुल्ली डंडा खेलने, पशु चराने, बागों में से आड़ू, जामुन, संतरे, अमरूद और आम तोड़ने का भी बहुत शौक था। हमारा अपना भी बाग था जिसमें हमारे अपने ताया से सांझ थी। अंगूरों की बेलें, मिट्ठे, निम्बू और शकरगंदी साझे में बोई जाती थी। जब भी दांव लगता, मैं ये चीज़ें ज़रूर तोड़ लाता।
उन दिनों में ताया को नई नई सब्ज़ियाँ बोने का भी बहुत शौक था जैसे - हल्दी की गांठें, आलू, कचालू और अरबी। मैं तिनकों से ज़मीन खुरच कर हल्की की गांठें ज़रूर उखाड़ता।
हमारे खेतों के समीप सरकारी डाक बंगला था जहाँ कई प्रकार के फूल होते थे। माली की मेरे बापू से यारी थी। इसलिए कुछ फूल मुझे माली स्वयं दे देता और कुछ फूल मैं आँख बचाकर खुद तोड़ लेता।
हमारे गाँव के पास से एक नहर बहती थी। तीजें इस नहर के किनारे ही लगा करती थीं। नहर में मेरे डुबाव पानी था। लेकिन नहाने के लिए मेरा मन बड़ा उतावला रहता। डुबकियाँ मारने, छलांगे लगाने और उल्टा होकर तैरने के लिए मैं मज़बूर था। मुझे तैरना नहीं आता था।
आख़िर मैंने एक दिन अपने बापू से कहा और उसने मुझे कई दिनों की मेहनत के बाद तैरना सिखा दिया और फिर मैं अभ्यास के लिए नहर के किनारे किनारे बहते पानी की दिशा में तैरने लगा। जब साँसें फूलने लगतीं तो किनारे की ओर आ जाता। धीरे धीरे मैं चढ़ते पानियों का तैराक भी बन गया, उल्टे होकर तैरना भी सीख गया। गोता लगाकर कहीं का कहीं जा निकलता। काफी देर तक नाक और मुँह बन्द करके पानी के नीचे बैठा रहता।
और, एक दिन क्या हुआ ?
मैं अपने खेत की ओर जा रहा था। क्या देखा कि कुछ लड़के हमारे तरबूज तोड़ रहे थे। मुझे देखकर वे भागने लगे। किसी ने तरबूज हाथ में पकड़ा और किसी ने पैली में ही फेंक दिया। वे आगे आगे और मैं पीछे पीछे। वे गिनती में अधिक थे और मैं अकेला था। वे कदकाठी और ज़ोर में भी मुझसे तगड़े थे, परन्तु मेरे अन्दर अपने मालिक होने का रौब था, शक्ति भी थी और उनमें अपनी चोरी का भय। उनमें से कुछ मेरे परिचित भी थे और दोस्त भी, परन्तु जब मैं उनके पीछे दौड़ने लगा तो वे उस वक्त मेरे दोस्त नहीं थे।
वे नहर में कूद गए और जैसे तैसे ज़ोर ज़ोर से बांहें मारते दूसरे किनारे जा लगे और नहर के उस पार ढोर चराते अपने साथ के लड़कों में जा मिले। मैं गुस्से में भरा नहर के इस पार खड़ा था। मेरे से दो दो, चार चार साल की बड़ी उम्र के मेरे चोर नहर के उस पार पहुँचकर चरवाहों के साथ जा मिले थे। मैं अभी इस नहर को तैरकर परली पार नहीं पहुँच सकता था। यह नहर अधबीच में जाकर मेरे बापू के कद से भी ज्यादा डुबाऊ थी। इसमें पैर लगने का सवाल ही पैदा नहीं होता था। मैंने इस नहर को भी पार करने का दृढ़ निश्चय कर लिया।
उसी दिन शाम को जब नहर पर गया तो मौसम ठंडा था। आकाश में बादल थे। परले किनारे की हरी घास पर एक पठान नमाज पढ़ रहा था।
मैंने तेजी से कपड़े उतारे और नहर में छलांग लगा दी। छलांग मैंने दूर से दौड़ते हुए आकर लगाई थी ताकि पानी में दूर तक बिना तैरे ही जा सकूँ। और मैं लगा हाथ-पैर मारने। अधबीच में पहुँचते ही मेरे हाथ-पैर फूल गए। साँस चढ़ गया। मुँह और नाक कभी पानी में चले जाते और मैं फिर ज़ोर मारकर साँस लेने के लिए मुँह को बाहर निकालता। दूसरी ओर का किनारा दूर था। इस ओर का किनारा उससे भी दूर। न मैं आगे पहुँच सकता था और न मैं पीछे मुड़ सकता था। मेरी माँ को मेरे डूबने का अक्सर ही भय सताता रहता था। नहर में नहाने मैं चोरी चोरी जाया करता था। परन्तु पिछले साल मेरे हमारे गाँव के नाइयों का लड़का जो मेरी उम्र का ही था, डूबकर मर गया था। मैं अब डूबने भी लगा था और मरने भी। मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा गया और मैं हिम्मत हार बैठा। पानी का एक भंवर-सा आया और फिर मुझे कुछ पता नहीं।
जब होश आया तो मैं परले किनारे पर था और पठान मुझे अपने घुटनों पर पेट के बल उल्टा लिटाकर मेरे मुँह में से पानी निकाल रहा था। काफी देर तक मैं वहाँ पड़ा रहा। मेरे कपड़े अब उस पार पड़े थे जहाँ मैं वापस तैर कर नहीं जा सकता था। पठान की नमाज में जहाँ मेरे डूबने से विघ्न पैदा हुआ था, वहीं उसने मुझे बचाकर अल्ला ताला की दरगाह में एक पुण्य का काम भी किया था।
इतने में हमारे गाँव का चरवाहा नहर के परले वाले किनारे पर आया। मैंने उसको आवाज़ लगाकर मेरे कपड़े लेकर पुल तक लाने के लिए कहा। चरवाहा मेरे कपड़े उठाकर खतानों में से ढोर-डंगरों को हांकता-हांकता पुल तक पहुँच गया। मैं दौड़कर उससे पहले ही पुल पर पहुँच उसकी ओर बढ़ा और अपने कपड़े लेकर उससे मिन्नतें करने लगा कि घर में जाकर वह मेरी माँ को न बताये कि मैं आज नहर में डूब चला था। यदि उसको पता चल गया तो वह मुझे मुर्गों वाले दड़बे में बन्द कर देगी।
हाँ तो, मुझे मुर्गों का भी बहुत शौक था। मुर्गे लड़वाने का नहीं, मुर्गे पालने का, चूजे निकलवाने का। हमारे गाँव में एक मास्टर था जो हमें पढ़ाता भी था और हमारी नज़रों में वह पूरे गाँव से कुछ आगे भी था। एक तो वह कुछ पढ़ा-लिखा था, दूसरा वह हमारा मास्टर था। तीसरा उसके कपड़े धोबी द्वारा धुले और इस्तरी किए होते थे। चौथा, वह कोई न कोई काम ज़रूर करता रहता था जिससे वह गाँव के लोगों की नज़रें अपनी ओर खींचे रखता था।
एक बार वह मिलेट्री में से नीलाम हुआ एक पुराना मोटर साइकिल उठा लाया। वह सारे दिन में मुश्किल से एक बार ही स्टार्ट होता और उसमें से धुआँ निकलता और घर्र...घर्र की आवाज़ आती तो हम इतने में ही बहुत खुश होते। जब मोटर साइकिल स्टार्ट न होता तो मास्टर हमें धक्के लगाने के लिए कहता। हम कई बार घंटों उसके मोटर साइकिल को धक्के मारते रहते। वह मौज से ऊपर बैठा रहता। हम इतनी बात पर ही खुश होते रहते और इस तरह वह हमें पूरे गाँव से अनौखा, बड़ा और सयाना लगता रहता।
फिर वह तवे वाला बाजा ले आया। सारा गाँव तो रहा एक तरफ, आसपास के गाँवों में से भी लोग तवे सुनने के लिए उसके घर आधी-आधी रात तक बैठे रहते। गर्मियों में वह बाजा कोठे पर लगाता और हम नीचे बाज़ार में जाकर सुनते। मुझे यह बाजा सुनने का भी बहुत शौक था।
'कंध टप्प के गुलाबी फुल्ल तोड़िया
आश्कां के बाग विचों...'
यह रिकार्ड वह बहुत बजाता और मुझे यह पूरा का पूरा जबानी याद हो गया। फिर इस मास्टर ने डेयरी खोल ली। एक मशीन में दूध डालकर मशीन को चारा काटने वाली मशीन की तरह घूमाता तो झट से मक्खन बाहर आ जाता। मुझे यह मशीन देखने का भी बहुत शौक था। अपितु मैं चाहता था कि ऐसी मशीन हमारे घर में भी हो और मेरी माँ को सवेरे-सवेरे उठकर देर तक भैंसों का दूध चाटी में न बिलौना पड़े।
अब यह मास्टर कहीं से तिलोरें ले आया था। ये बहुत सुन्दर थीं। इनका कद तो मुर्गी जितना था, चाल तीतरों जैसी और चित-कबरे रंग में बहुत ही सुन्दर लगती थीं। मास्टर कहता था कि यदि ये अंडे देने पर आएँ तो दिए ही जाती हैं। मैं अक्सर सवेरे ये तिलोरें देखने के लिए उसके घर जा पहुँचता।
हाँ, मुझे मुर्गे रखने और अंडों से चूजे निकलवाने का शौक तो बहुत ही ज्यादा था। मुझे चूजे मुर्गों से भी अधिक प्यारे लगे थे। एक बार मेरी माँ ने मुर्गी के नीचे अंडे रख दिए। मैं माँ से छिपकर रोज अंडे उठा उठाकर देखता कि इनमें अभी चूजा बोलने लगा था कि नहीं।
मुझे बिल्लियाँ पालने का शौक मुर्गों से भी अधिक था। मुझे अधिक रंगों वाली बिल्ली बहुत पसंद थी। बिल्ली भी वह जो मेरे साथ सोये और मेरी गोद में बैठे। मेरे इस शौक को पूरा करने के लिए बापू ने जब मंडी में आढतियों के घर बिल्ली ब्याई तो एक बच्चा लाकर दिया। बिल्ली का यह खूबसूरत बच्चा मेरा सबसे बड़ा दोस्त था। मैं स्कूल जाता पर मेरा ध्यान उस बिल्ली के बच्चे में होता। मैं दूध पिला कर उसका पेट भरे रखता। मेरा मन करता कि जल्दी से जल्दी यह बड़ा हो जाए। इतना बड़ा कि सारी दुनिया के बिल्लियों-बिल्लों का मुकाबला किया जाए और यह बिल्ला उनमें पहले नंबर पर आए।
मैंने एक छोटी-सी ढोलकी भी घर में रखी हुई थी। यह ढोलकी मुझे बापू ने 'सच्चे सौदे' की अमावस पर लाकर दी थी। हर अमावस पर ढाडी आते थे और मैं अपने बापू के साथ जब अमावस नहाने जाता तो दीवान में ढाडियों को बड़े शौक से सुनता और फिर वही 'शबद' अपनी ढोलकी पर गा गाकर अपने बिल्ले को गोद में बिठाकर सुनाता। एक बार दीवान में ढाडियों ने शबद सुनाया –

'चलो सिंघो रल दरशन करिये
गुरू गोबिन्द सिंघ आए ने...।'
(चलो सिंहों, मिलकर दर्शन करें, गुरू गोबिन्दर सिंह आए हैं)

मैं घर आकर बिल्ले को गोद में बिठाकर कहा-
'नीला घोड़ा,बांका जोड़ा,
हथ विच बाज सुहाए ने।
चल बिलिया रल दर्शन करिये
गुरू गोबिन्द सिंह आए ने।'

फिर मेरी माँ का ख़याल था कि यह बिल्ला जैसे-जैसे बड़ा होता जा रहा है, हमारी मुर्गियों और चूजों की खैर नहीं। मैं चूजों को बिल्ले पर चढ़ाकर सवारी कराता।
चूजों और बिल्ले की दोस्ती इतनी बढ़ गई कि मजाल थी कि कोई बाहर का बिल्ला या कुत्ता चूजों की ओर झपटता। हाँ, एक बार चील अवश्य हमारे चूजों को उठाकर ले गई थी। तब से बिल्ला अब आसमान की ओर भी ध्यान रखता।
एक हमारा डब्बू था। इस बिल्ले की डब्बू के साथ भी गहरी दोस्ती थी। डब्बू बापू का कुत्ता था। मैं डब्बू को इतना पसंद नहीं करता था। डब्बू को हर चीज़ मुँह में डालने की आदत थी। एक बार डब्बू ने मेरी रोटी जूठी कर दी। मैं डंगरों वाली कोठरी में से फावड़ा उठा लाया और जब वह आराम से सो रहा था, मैंने डब्बू के सिर में वह फावड़ा दे मारा। डब्बू मर गया था और मैं डरकर घर से भाग गया। डब्बू के मरने पर बापू की पिटाई का भय मुझे बहुत परेशान कर रहा था।
रात को अँधेरे में मैं घर लौटा तो डब्बू अच्छा-भला था, पर कुछ सुस्त था।
मैं माँ से छिपाकर डब्बू को बहुत सारी रोटियाँ डालीं और हाथ जोड़कर उससे अपनी गलती और ज्यादती की माफ़ी मांगी। मुझे घरवालों ने बहुत डरा रखा था कि बेजबान पशु को मारने का बहुत ही पाप लगता है।
डब्बू बापू का कुत्ता था और मेरा मन करता था, पतली कमर और पतली टांगों वाले शिकारी कुत्तों के लिए।
हमारे गाँव में मेहरों के पास ऐसे कुत्ते थे जिनसे वह अक्सर खरगोश का शिकार किया करते। मैं कई बार माँ से चोरी इन शिकारियों के साथ शिकार खेलने गया था। तीतरों, बटेरों, रोड़ुओं और भट्टिरों का शिकार वे भगवे से करते या फिर उन बटेरों और तीतरों से जो उन्होंने पाल रखे थे। पैली के एक तरफ जाल लगाकर और फिर भगवे डालकर या बटेरे बुलाकर वे शिकार को फंसा लेते।
मैं दिनभर उनके साथ दिहाड़ी तोड़ता परन्तु मुझे ये महरे पता नहीं बच्चा समझकर शिकार में से कोई हिस्सा न देते, और मैं लौटते हुए छोटी नहर के घाट पर से छोटी छोटी मछलियाँ पकड़कर झोली भर लाता और माँ उनको देखकर गालियाँ निकालती, पाप का भय दिखाती और बाहर बाज़ार या पोखर में ये छोटी छोटी मछलियाँ फिकवा देती।
डब्बू बाप का कुत्ता था और बापू ने मुझे समझाया था कि शिकारी कुत्ते पालना नीची जाति के लोगों का काम था और मुझे इस तरह के ख़याल छोड़ देने चाहिएँ।
मुझे ये ख़याल छोड़ देने चाहिएँ या नहीं, इस बात का पता मुझे काफी समय तक नहीं लगा। पर मुझे शिकार के ख़याल से, कुत्ते, बिल्ले और चूजों को प्यार करने से, नहर में गोते लगाने, ताया के खेत में से हल्दी के बूटे उखाड़ने, बाग में से चोरी से आड़ू तोड़ने से कोई भी न रोक सका। और एक दिन स्कूल से छुट्टी होते ही हम बहुत सारे लड़के बाग में आड़ू तोड़ने चल गए। कुछ लड़के बड़े गेट की ओर से गए जहाँ से उन्होंने माली से कुछ आड़ू पैसे देकर खरीदने थे।
हम उस पाड़ की तरफ चले गए जहाँ बाग को पानी लगाने के लिए खाल अन्दर आता था। वहाँ से अन्दर घुसकर हमने कुछ नीचे गिरे आड़ू उठाए और कुछ पेड़ों से लगे आड़ू तोड़कर जेबें भर लीं।
पता उस समय ही चला जब माली ने आकर रंगे हाथ हमें पकड़ लिया। सभी को डांटा-फटकारा।
मुझसे पूछा, ''तू किसका लड़का है ?''
''जत्थेदार का।'' मैंने कहा।
उसने मुझे भविष्य में यह काम न करने की चेतावनी देकर छोड़ दिया और मेरे पास से आड़ू भी नहीं छीने। मैंने वे आड़ू बाग में ही फेंक दिए। मारे डर के मेरी जान काँप रही थी कि माली बापू को इस चोरी के बारे में अवश्य बताएगा।
जब मैं घर पहुँचा तो माँ ने हुक्म दिया-
''जा, अपने बापू की रोटी खेत में दे आ। कामगर कहीं भाग गया है और तेरे बापू को रात में पानी भी लगाना है। तू अपने बापू के साथ नाके पक्के करवाने में हाथ भी बंटाना।''
हमारा खेत नहर के साथ लगता होने के कारण मोघे के पानी के तेज़ बहाव से कोई-कोई रोक बह जाती या नाली टूट जाती तो अकेले आदमी के लिए दोबारा रोक को पक्का करना आसान काम नहीं था। मुझे याद है कि कई बार बहती जाती रोक में बापू मुझे बिठाकर फावड़े से आसपास की खाल की मिट्टी निकालकर डाले जाता था और जब मुँह पूरी तरह बन्द हो जाता तो मैं बीच में से उठ खड़ा होता। इसलिए पानी लगाना, नाके पक्के करना और मोघे तक चक्कर लगाना, ये सभी काम कठिन थे। मुझे पानी मोड़ने के काम से अधिक प्यार नहीं था। मैं जानता था कि बापू की खेत में रोटी ले जाने का अर्थ था, सारी रात बापू के साथ पानी लगवाना। मैं रूठ गया और जिद्द पकड़ बैठा कि मैं बापू की रोटी खेत में लेकर नहीं जाऊँगा।
मेरी माँ ने मुझे बहुत समझाया, बहुत मिन्नतें कीं, कई लालच दिए, पर मैं कहाँ मानने वाला था। जब मिन्नतें कर करके माँ हार गई तो मैंने कहा-
''एक शर्त पर मैं बापू की रोटी खेत में ले जाऊँगा।''
''वो क्या ?'' माँ ने पूछा।
''मुझे कुम्हारों का गधा ला दे, उस पर चढ़कर रोटी लेकर जाऊँगा।''
''मरजाणे, मिरासियों के यहाँ पैदा होना था, रे कामचोर ! घोड़ी से गिरा बंदा तो बच जाता है, खोती से गिरा नहीं बचता।''
पता नहीं, माँ ने मुझे कितनी गालियाँ दीं। वह कब मान सकती थी कि मैं कुम्हारों के गधे पर चढ़कर रोटी लेकर खेत में जाऊँ।
दरअसल, कुम्हारों का बशीरा मेरा यार था और उसके साथ मिलकर मुझे गधे की सवारी करना आ गया था। बग़ैर काठी वाले गधे पर चढ़ना, ऊँठ, घोड़ी, हाथी या पहाड़ पर चढ़ने से भी कठिन था। यह बात केवल उस पर चढ़ने वाला ही जान सकता है।
कुछ देर बाद माँ का गुस्सा कुछ कम हो गया तो वह कहने लगी, ''खोते पर चढ़कर रोटी तो तू दे आएगा, पर तुझे पता नहीं रोटियाँ अपवित्तर हो जाएँगी।''
''मैं रोटियों वाला कपड़ा एक हाथ में पकड़कर ऊँचा करके रखूँगा, खोते के साथ लगने नहीं दूँगा।''
''अच्छा, फिर जा, खोता मांग ला।''
माँ के कहने भर की देर थी कि मैं कुम्हारों के घर से गधा खोलकर उसके मुँह में झब्बू देकर अपने घर ले आया।
माँ ने रोटियाँ कपड़े में बाँधीं। मेरे हाथ धुलाए और मैं उछलकर गधे पर चढ़ बैठा और रोटियों वाला कपड़ा एक हाथ से ऊँचा करके पकड़ लिया और दूसरे हाथ से झब्बू वाला रस्सा और गधे की बगलों में ऐड़ियाँ मारकर उसे भगा लिया।
जब गाँव की सीमा पार कर गधा बड़े अस्तबल के पास से गुजरा तो आगे बड़ा खाल पानी से भरा बह रहा था। यह खाल इतना चौड़ा ज़रूर था कि यदि आदमी खाली हाथ हो तो छलांग लगा कर उसे पार कर सकता था और छलांग भी पीछे से दौड़ते हुए आकर लगानी पड़ती थी।
मैं मुश्किल में फंस गया। गधे को बहुत ऐड़ियाँ मारीं, झब्बू वाला रस्सा भी खींचा, पर गधा था कि खाल में घुसने का नाम ही नहीं लेता था। यूँ तो नहीं कहावत बनी थी कि गधे का अड़ियलपन बुरा होता है। दूसरा हाथ ऊँचा उठाकर मैंने रोटियों वाला कपड़ा पकड़ा हुआ था कि कहीं रोटियाँ गधे की कमर से लग कर अपवित्र न हो जाएँ।
फिर गधे को पीछे से भगाकर खाल को फाँदने के बारे में मैंने सोचा। मुझे उम्मीद थी कि एक ही छलांग में गधा खाल पार कर जाएगा। यदि मैं गधे पर से उतर कर खाल पार करता तो एक तो दुबारा गधे पर एक हाथ में रोटी वाला कपड़ा पकड़े उस पर चढ़ना कठिन था और दूसरा गधे के भाग जाने पर दुबारा बैठने न देने तथा रोटियों का गधे से छूकर अपवित्र होने का बड़ा डर था।
ख़ैर ! मैं गधे को पीछे से भगाकर लाया और रोटियों वाला कपड़ा हाथ में ऊपर उठाए रखा। दूसरे हाथ से झब्बू को थोड़ा सा खुला छोड़ते हुए गधे द्वारा खाल फाँद जाने की आस रख मैंने उसकी कमर में ज़ोर से ऐड़ी मारी। गधा तो छलांग लगाकर खाल पार कर गया, पर मेरे हाथ से झब्बू वाला रस्सा छूट गया और मैं भरे हुए खाल में जा गिरा। मैंने रोटी वाला कपड़ा अभी भी दायें हाथ में ऊपर उठा रखा था।
(जारी…)

1 टिप्पणियाँ:

सहज साहित्य 11 जनवरी 2012 को 1:18 pm बजे  

उपन्यास का प्रारम्भ अत्यन्त रोचक है । हिन्दी पाठकों को यह उपन्यास बहुत भाएगा

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

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पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

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पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

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काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

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ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

व्यवस्थापक
'अनुवाद घर'

समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

सर्वाधिकार सुरक्षित

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