पंजाबी कहानी : आज तक
>> रविवार, 19 जून 2011
पंजाबी कहानी : आज तक(4)
कुल्फ़ी
सुजान सिंह
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
महीना खत्म होने पर था, पर खत्म होने में नहीं आता था। सोच रहा था कि महीने के प्रथम पन्द्रह दिन कैसे झटपट खत्म हो जाते हैं और तनख्वाह भी उन्हीं पन्द्रह दिनों के साथ ही कैसे गायब हो जाती है। मुझे पट्ठे की चटाई चुभ रही थी। करवट बदलकर पीठ पर हाथ फेरा तो चटाई के निशान पीठ पर उभर आए थे।
''मलाई वाली कुल्फ़ी !'' ठंडी-सर्द आवाज़ में कुल्फ़ी वाले ने हाँक लगाई। उसकी आवाज़ कितनी ही देर मेरे कानों में गूँजती रही। दूध जैसी सफ़ेद कुल्फ़ी साकार मेरी आँखों के सामने नाचने लगी। मेरे मुँह में पानी आ गया। लेकिन मैं बेबस था। पैसे की तंगी हवालात की तंगी से भी बड़ी होती है। अपने दिल की चाह से बचने के लिए मैंने 'कुल्फ़ी' शब्द की उत्पत्ति पर विचार करने की आड़ ले ली। 'कुल्फ़' का अर्थ होता है- ताला, सुनारों ने गहनों में इसको लगाकर 'कुल्फ़' से 'कुल्फ़ी' बना दिया। कुल्फ़ी को भी टीन के सांचों में बन्द करके जमाया जाता है, इसलिए कुल्फ़ी। और इस प्रकार धीरे-धीरे पता नहीं कब, नींद ने इस कुल्फ़ी से मुझे मुक्ति दिला दी।
मेरी दोपहर की नींद अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि मेरे छोटे बेटे ने मुझे झंझोड़कर जगा ही दिया। मैं खीझा हुआ था, पर बेटे की तोतली आवाज़ ने मुझे शान्त कर दिया।
''दा जी, कितनी आवाज़ें लगाईं, तुम जागते ई नहीं।''
''हाँ-हाँ, तू क्या कहता है, बता भी।'' मैंने कुछ उतावला होकर पूछा।
''एक तका दे दो, दा जी!''
पर टका मेरे पास था ही नहीं। मेरे पास आज कुछ भी नहीं था। जून माह की छब्बीस तारीख़ थी। घर का खर्च, बाज़ार की उधार की साख पर बमुश्किल चल रहा था।
''तका दो भी न दा जी।''
बाहर मुरमुरे वाला ऊँची आवाज़ में हमारे दरवाजे के आगे हाँक लगा रहा था।
कोई उत्तर सोचने की खातिर समय निकालने के लिए मैंने कहा, ''काका, तू टके का क्या करेगा ?''
''खर्चूंगा, और मैंने क्या करना है तके का ?''
मुझे पता है, पहली जंग के बाद बहुत मंहगाई हो गई थी, हमे धेला खर्च करने के लिए मिलता था और धेले के मसद्दी राम से लाए हुए छोले खत्म होने में ही नहीं आते थे। अब तो एक आना में भी उतने छोले नहीं मिल सकते थे और मेरी आमदनी, मेरे पिता की आमदनी के पासंग भी नहीं थी, हालांकि मेरी पढ़ाई मेरे पिता से कई गुणा अधिक थी। मैं दुनिया की आर्थिक स्थिति और इस स्थिति को बनाये रखने वाले धन-कुबेरों पर विचार करने लग पड़ा।
बाहर से पुन: 'मुरमुरा छोले' की हाँक गूँजी और साथ ही बेटे ने कहा, ''तका दो भी न, दा जी।''
''टका खराब होता है।'' मैंने हालात से पैदा हुई बदहवासी में कहा।
''हूँ, तका भी कहीं खलाब होता है, दा जी ? तके का मुलमु्ला आता है।''
''मुरमुरा खराब होता है।'' मैंने कहा और बाकी की बात अभी मेरे मुँह में ही थी कि बेटे ने कहा, ''मुलमुला तो मीता होता है।''
इस दलील का मेरे पास कोई उत्तर नहीं था। मैं भी मीठे का लोभी हूँ। पर फिर भी मैंने अपनी कोरी होशियारी जताते हुए कहा, ''मुरमुरे से खाँसी लग जाती है, बच्चू।''
''तुम तका दे दो। मुझे नहीं लगती खाँसी।''
लड़का मचलता प्रतीत होता था। टका मेरे पास था ही नहीं। मैंने बेटे को टालने के लिए पता नहीं क्यों उसको कह दिया, शायद बड़ा लालच देकर भुलाने के लिए -
''मुरमुरा गन्दा होता है ! हम शाम को बाज़ार से कुल्फ़ी खाएँगे।''
मुरमुरे-छोले वाला अब टल चुका था। बेटा मेरी आशा के विपरीत कुल्फ़ी खाने के लिए मान गया था। समझा, बला टली। मैंने सोचा, कहीं कोई और छाबड़ीवाला न आ जाए। सो, मैं कपड़े पहनकर कड़कती धूप में बाहर निकल गया और सड़कों पर समय क़त्ल करता रहा। कीमती समय मैं एक टके की मांग से बचने के लिए नष्ट करता रहा था।
मैं अपने मालिक से क्यों नहीं कहता कि मेरा इतने में गुजारा नहीं होता। पर सुनेगा कौन ? अकेले व्यक्ति की आवाज़ चाहे कितनी ही ऊँची क्यों न हो, सुनी नहीं जाती। ज़रूरतमंद इकट्ठे हो नहीं सकते। अगर हो जाएँ तो उन्हें इकट्ठा रहने नहीं दिया जाता ताकि सब मिलकर मांग न करें। मांग करने पर कई बार नौकरी से जवाब मिल जाता है। मैं डर गया। बेरोजगारी के भयानक भविष्य ने मुझे कंपा दिया। कायरों की भाँति मैं सदैव चुप रहा था और अब भी चुप रहने का ही मैंने फैसला किया।
शाम को यह समझकर कि बेटा जल्दी सो जाता है, मैं दबे पांव घर पहुँचा। आवाज़ नहीं लगाई, केवल कुण्डा ही खटखटाया। ऊपर से आवाज़ आई, ''दा जी, आ लहा हूँ।'' और कुछ ही देर में बेटे ने आकर दरवाज़ा खोला।
''दा जी, कुल्फी खाने जाओगे ?'' उसने आशा भरी आवाज़ में पूछा।
''ऊपर चल, ऊपर।'' मैंने कहा।
बेटा निराश होकर आगे आगे चल पड़ा। चारपाई पर बैठकर बेटे को गोद में लेकर मैंने प्यार से कहा, ''अब तो रात हो गई है, कुल्फ़ी कल खाएंगे।''
आशा के विपरीत बेटा चुप रहा। कितनी ही देर आसमान की ओर देखता कुछ सोचता रहा। फिर बोला, ''दा जी... ताले(तारे) लुपये(रुपये) होते हैं न, बला(बड़ा) भाई कहता था, ताले लुपये होते हैं, तो दा जी साले(सारे) लुपये हमाले कोठे पे क्यों नहीं गिल पड़ते ?''
मैंने यह कहकर कि 'तारे रुपये नहीं होते' मानो उसके स्वर्ग को ढाह दिया। वह चारपाई पर लेट गया और आसमान की ओर देखते देखते आख़िर सो ही गया।
दूसरे दिन काम पर मैं अपने साथियों से कुछ मांगने की कोशिश करता रहा, पर हिम्मत नहीं हो रही थी। मांगना बहुत ही कठिन काम है। मौत जितना दु:ख होता है मांगने में।
आख़िर एक साथी से मैंने तीन रुपये ले ही लिए। जब घर आया तो बेटा दोपहर की नींद ले रहा था। रोटी खिलाते समय पत्नी ने तीन रुपये झटक लिए। आधा मन लकड़ियाँ, शाम की सब्ज़ी, नमक, तेल आदि में बेटे के जागने से पहले तीन रुपये खत्म हो गए। मैंने कहा कि बेटे को कुल्फ़ी खिलानी है, पर उसने कह दिया, ''इसे बड़ा याद रहता है। मैं टका दे दूँगी मुरमुरे के लिए।''
बेटे ने जागते ही कुल्फ़ी मांगी। चीख़-पुकार मच गई। कल वाला मुरमुरा और टका मंजूर नहीं था। आख़िर शाम को कुल्फ़ी खिलाने का वायदा करके छुटकारा पाया और बेटे ने टका मेरे से जमा करवा दिया। शाम से पहले ही मैं किसी से मिलने का बहाना करके बाहर निकल गया और फिर देर रात घर में घुसा। बेटे को सोया देख मैंने राहत की साँस ली। रोटी खिलाते हुए पत्नी ने बताया कि बेटा बहुत देर तक मेरा इंतज़ार करता रहा था। मैं बेटे के संग लेटकर बहुत बेचैन रहा। नींद आ ही नहीं रही थी, पर आख़िर पता नहीं कब आ गई। नींद तो कहते हैं कि कांटों पर भी आ जाती है।
आधी रात के बाद का समय था। बेटा सोया हुआ कुछ बेचैन प्रतीत होता था। उसने दो तीन बार पेट पर टांगें मारी थीं। अब उसने बांह उलटाकर मेरे मुँह पर मारी। जाग तो मैं पहले ही रहा था, अब चेतन हो गया। बेटा कुछ बुदबुदाया। मेरी समझ में कुछ न आया। फिर वह ज़ोर-ज़ोर से बुदबुदाया 'कुल्फ़ी... कुल्फी दा... जी, कुल्फी।'' मैं विह्वल हो उठा। ''जाग रहे हो,'' पत्नी ने कहा और यह जानकर कि मैं जाग रहा हूँ, उसने कहना जारी रखा, ''कमबख्त, सोये सोये भी कुल्फ़ी मांगता है।'' मेरे ऊपर मानो बिजली गिर पड़ी थी। मैं चुप रहा और बेटा भी चुप हो गया।
सुबह उठकर बेटे ने कुल्फ़ी की कोई मांग नहीं की। मेरे काम से लौटकर आने पर भी उसने मुझसे कुछ नहीं मांगा। रोटी खाकर मैं दोपहर की नींद लेने के लिए लेट गया, उसी चुभने वाली चटाई पर और उधार न ले सकने की असफलता पर झुंझलाता रहा।
फिर मुझे नींद आ गई। मैं अभी अर्द्धनिद्रा में ही था कि गली में किसी कुल्फ़ी वाले ने हाँक लगाई, ''ठंडी कुल्फ़ी ! मज़ेदार कुल्फ़ी!'' मैं जाग गया। बेटा मेरे करीब रबड़ की फटी हुई बत्तख से खेल रहा था। दूसरी आवाज़ पर उसके कान ख़ड़े हो गए। बत्तख को फेंक कर वह दौड़ पड़ा। दरवाज़े के पास जाकर वह खड़े होकर बाहर देखने लगा। मैंने सोचा, अब वह मुझे जगाने आएगा, पर वह वहीं खड़ा रहा। फिर वह बाहर की ओर चल दिया। मैं चुपचाप उठकर दरवाज़े की ओट में जा खड़ा हुआ। कुल्फ़ी वाला सामने शाह जी के लड़के को कुल्फ़ी निकालकर देने के काम में लगा था। यह लड़का गली का बलवान लड़का था और अपने से छोटे लड़कों को हमेशा पीटा करता था। यह कोई आठ बरस का था और हमारे बेटे से करीब तीन साल बड़ा था। मेरा बेटा सिपाहियों की तरह टांगे फैलाये कमर के पीछे हाथ बांधे खड़ा था। कुल्फ़ी की तरफ वह गौर से देख रहा था। लेकिन उसने कुल्फीवाले से कुल्फ़ी नहीं मांगी थी। जैसे ही कुल्फ़ीवाले ने शाह के लड़के के हाथ में कुल्फ़ी की प्लेट रखी, मेरा बेटा झपटकर उस पर पड़ा। वो गिरी प्लेट, वो गई कुल्फ़ी, फलूदा और चम्मच और नाली में गिरा शाह का लड़का। किसी विजेता की तरह मेरा बेटा उसकी ओर देखता रहा। शाह का लड़का गुस्से में उठा, कुल्फ़ी का हुआ नुकसान और अपनी हेठी जैसे उसमें नया जोश भर रही थी। जैसे ही वह उठा, मेरे बेटे ने फिर उसको ऐसी ठोकर मारी कि वह फिर मोरी में जा गिरा और चीखने-चिल्लाने लगा। कुल्फ़ी वाला बेटे की ओर चांटा मारने के लिए बढ़ा। मैंने दौड़कर बेटे को उठा लिया। कुल्फ़ी वाले ने शाह के लड़के को उठाया। शाहनी जो किसी का उलाहना नहीं सुनती थी, आज हमारे घर उलाहना देने आई। मेरे बेटे का शरीर तप रहा था। पत्नी ने कहा, ''आ गया कमबख्त ! तू अब उलाहने भी लाने लगा ?'' और मारने के लिए उसने चांटा उठाया। मैंने कहा, ''कुछ बाँट पगली ! कायर बाप के घर बहादुर बेटा पैदा हुआ है !''
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सुजान सिंह (1903 - 1993)
पंजाबी के विख्यात और अग्रणी कथाकार।
कहानी संग्रह - 'दुख सुख तों पिछों', 'सभ रंग', 'नरकां दे देवते', 'मनुख ते पशु', 'डेढ़ आदमी', 'सवाल जवाब', 'पत्तण ते सरां, शहर ते गरां'।
2 टिप्पणियाँ:
चित्र खींचती बेहतरीन रचना
नीरव जी धन्यवाद इतनी अच्छी रचना पढवाने के लिये
झकझोरने वाली रचना है.वास्तव में उम्दा और दबंग नेतृतव ऐसे ही बनते हैं.
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