पंजाबी लघुकथा : आज तक

>> गुरुवार, 11 मार्च 2010

पंजाबी लघुकथा : आज तक(4)
'पंजाबी लघुकथा : आज तक' के अन्तर्गत पंजाबी लघुकथा की अग्रज पीढ़ी के कथाकार भूपिंदर सिंह, हमदर्दवीर नौशहरवी और दर्शन मितवा की चुनिंदा लघुकथाएं आप पढ़ चुके हैं। इसी कड़ी में प्रस्तुत हैं- पंजाबी लघुकथा की अग्रज पीढ़ी की सशक्त लेखिका (स्व.)शरन मक्कड़ (मार्च, 1939- 10 नवम्बर, 2009) की पाँच चुनिंदा लघुकथाएं... शरन मक्कड़ जी ने अपनी मौलिक रचनात्मकता और सम्पादन कार्य के जरिये पंजाबी लघुकथा के विकास में बहुत बड़ा और उल्लेखनीय योगदान दिया। उन्होंने अनवंत कौर के साथ मिलकर पंजाबी लघुकथा की एक बहुत ही महत्वपूर्ण पुस्तक ''अब जूझन के दाव'' सन् 1975 में सम्पादित की थी। यह वह दौर था जब पंजाबी लघुकथा में हमें उंगलियों पर गिने जाने वाले मौलिक और सम्पादित संग्रह दिखाई देते थे। लघुकथाओं के अलावा शरन जी ने पंजाबी में अनेक कहानियाँ लिखीं। 'न दिन, न रात', 'दूसरा हादसा', 'टहनी से टूटा हुआ मनुष्य', 'धुआं और धूल', 'कच्ची ईंटों का पुल' उनके प्रमुख कहानी-संग्रह हैं। 'खुंडी धार' शीर्षक से उनका चर्चित लघुकथा-संग्रह है। इसके अतिरिक्त चार कविता संग्रह उन्होंने पंजाबी साहित्य की झोली में डाले।
सुभाष नीरव
संपादक : कथा पंजाब



शरन मक्कड़ की पाँच लघुकथाएं
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

(1) शेर और शे'र

माँ रोज रात को बच्चों को कहानी सुनाती थी। एक दिन उसकी बेटी ने कहा, ''माँ, आज मैं कहानी सुनाऊँगी। बिलकुल नई। तुमने ऐसी कहानी कभी नहीं सुनी होगी।''
''अच्छा, सुना। पर बेटा, यह तो बता, यह कहानी तूने सुनी किससे है ?''
''माँ, तुम नहीं जानतीं। वह जो शायर अंकल हैं, जीत की कोठी में जो रहते हैं, वह बहुत अच्छे हैं। सब बच्चों को कहानियाँ सुनाते हैं। माँ, हमारे बापू भी तो शेर लिखते थे। है न, माँ ?''
''माँ, ये शायर कौन होते हैं ?'' इससे पहले कि उसकी बहन शायर अंकल से सुनी कहानी सुनाती या उसकी माँ उसके शायर बापू के बारे में कुछ बताती, छोटी बेटी पूछने लगी।
''शायर वे होते हैं जो और कुछ नहीं करते। शे'र लिखते हैं और समझते हैं कि उनके कागजी शेरों की दहाड़ सुनकर सब डर जाएंगे।''
''माँ, उनको शेरों से डर नहीं लगता ?'' छोटी बेटी की सोच भी छोटी थी, जो शेर और शे'र को एक समझती थी।
''सच माँ, तुम भी शायर बन जाओ। फिर तुमसे सब डरेंगे। फिर मकान मालिक तंग नहीं करेगा। बनिया उधार भी देगा और रात को हमको भूखे नहीं सोना पड़ेगा। माँ, फिर तुम भी शेर लिखा करोगी न ?''
''ऐ, चुप कर ! तुझे क्या पता...? चली है माँ को शायर बनाने ! अरे, जो मेहनत-मजदूरी करके रूखी-सूखी नसीब हो जाती है, वह भी नहीं मिलेगी। अरे, तुम्हें क्या पता, आजकल तो कागज भी रोटी से मंहगे हो गए हैं। तुम्हारे बापू को चढ़ा था शौक शायर बनने का। जो कच्चा कोठा था, वह भी उसने बेच दिया। किताब छपवाने के शौक में हमारे सिर पर से छत भी छीन ली। किताब छपवाकर जैसे उसने रातोंरात अमीर बन जाना था।'' माँ बड़बड़ा रही थी। स्कूल की कॉपी-किताबें खरीदने की सामर्थ्य नहीं थी इसलिए उसने दोनों लड़कियों को स्कूल से उठा लिया था और तीसरी को तो स्कूल में डाला ही नहीं था। माँ के सामने उसकी और अपनी बेटियों के जीवन की अधूरी कहानी के दुखांत का शेर दहाड़ रहा था !
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(2) पुरस्कार

''मैंने तो हमेशा तुझे खुशी-खुशी नाचते देखा है। सब तेरे नृत्य की प्रशंसा करते हैं। फिर भी तू इतना उदास क्यों है ?'' मोर को उदास देखकर एक दिन कोयल ने प्रश्न किया।
''देख न, बहन कोयल ! जिस डांसर को राष्ट्र्पति पुरस्कार मिला है, वह तो मेरे पासंग भर भी नहीं।''
''और जिस गायिका को पुरस्कार मिला है, वह...'' इतना कहते हुए कोयल ने आह भरी और अपनी मीठी आवाज़ में 'कू... कू...' बोल उठी।
''हम हर समय नाचते हैं इतना सुंदर नृत्य किसी और का नहीं। फिर भी, हमें तो कभी कोई पुरस्कार नहीं मिला। किसी ने कभी सम्मानित नहीं किया। उलटा हमें मार कर हमारे सुंदर पंखों को नोच लेते हैं।'' उदासी मोर की आँखों में से आँसू बन कर टपक रही थी। उसके आँसू ज़मीन पर गिर कर व्यर्थ जाते, इससे पहले ही मोरनी आयी और उसने मोर की आँखों में से गिर रहे आँसुओं को अपनी चोंच से पी लिया। मोरनी को आँसुओं के मोती चुगते देखकर मोर खिल उठा।
''मैं भी कितना पागल हूँ ! आदमियों की नकल करके, उनकी तरह झूठे इनामों के पीछे दौड़ रहा था। सबसे बड़ा सम्मान तो मेरे पास है।'' और वह मोरनी की ओर देखकर मुस्करा उठा। कोयल 'कू... कू...' कर गीत गाने लगी थी।
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(3) होम-वर्क

''रचना, अभी खत्म नहीं हुआ तेरा होम-वर्क ?'' बड़े से बस्ते में से बहुत-सी किताबें फैलाये बैठी होम-वर्क करती छोटी-सी रचना से मैंने पूछा।
''नहीं आंटी, अभी तो सवाल करने हैं, हिंदी का होम वर्क भी करना है। इंग्लिश की डिक्टेशन लर्न करनी है।'' छोटी-सी लड़की के सिर पर होम वर्क की बड़ी-सी गठरी थी।
''किस क्लास में पढ़ती है रचना ?''
''थर्ड बी में, आंटी !'' उसकी किताबों-कापियों से ठुंसे हुए बस्ते की ओर देखकर मुझे हैरानी हो रही थी।
''ये सारी किताबें तेरी हैं ?'' मेरे सवाल पर वह हँस रही थी। मुझे अपना जमाना याद आया रहा था। हमारे वक्त में तो बस थोड़ी-सी किताबें होती थीं। वे भी खरीदकर देते वक्त माँ बड़-बड़ करती थी।
''अच्छा रचना ! तेरा भाई भी तेरे स्कूल में ही पढ़ता है ?''
''नहीं आंटी, वह हाई स्कूल में जाता है। आंटी, जब मैं हाई स्कूल में जाऊँगी तो डैडी मुझे भी साइकिल ले देंगे। फिर मैं अपना बस्ता साइकिल के कैरिअर पर रखकर जाया करूँगी।''
''अच्छा, हाई स्कूल पास करके फिर क्या करोगी ?''
''फिर मैं कालेज जाऊँगी। रीतू बुआ की तरह।''
''कालेज के बाद क्या करोगी ?'' मेरा ख़याल था कि वह झट कह देगी, फिर मेरी शादी हो जाएगी। पर, मेरी सोच के उलट रचना के अंदर दबी-छिपी ख्वाहिश सहज भाव से प्रगट हो गई- ''फिर ... फिर... आंटी, मैं खूब खेलूँगी।''
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(4) रोबोट

दो मित्र आपस में बातें कर रहे थे। उनमें एक वैज्ञानिक था, दूसरा इतिहास का अध्यापक। वैज्ञानिक कह रहा था, ''देखो, साइंस ने कितनी तरक्की कर ली है। जानवर के दिमाग में यंत्र फिट करके, उसका रिमोट हाथ में लेकर जैसे चाहो जानवर को नचाया जा सकता है।''
अपनी बात को सिद्ध करने के लिए वह एक गधा लेकर आया। रिमोट कंट्रोल हाथ में पकड़कर वह जैसे-जैसे आदेश देता, गधा वैसा-वैसा ही करता। वह कहता, ''पूंछ हिला'', गधा पूंछ हिलाने लगता। वह कहता, ''सिर'', गधा सिर हिलाने लगता। इसी प्रकार, वह दुलत्तियाँ मारता, 'ढेंचू...ढेंचू...' करता। लोटपोट हो जाता। जिस तरह का उसे हुक्म मिलता, गधा उसी तरह उसकी तामील करता। वैज्ञानिक अपनी इस उपलब्धि पर बहुत खुश था।
वैज्ञानिक का मित्र जो बहुत देर से उसकी बातें सुन रहा था, गधे के करतब देख रहा था, चुप था। उसके मुँह से प्रशंसा का एक शब्द भी न सुनकर वैज्ञानिक को गुस्सा आ रहा था कि उसका मित्र इतनी बड़ी अचीवमेंट पर भी चुप था। आखिर उसने झुंझलाकर जब उसकी चुप्पी के बारे में पूछा तो इतिहास का अध्यापक कहने लगा, ''इसमें भला ऐसी कौन-सी बड़ी बात है ? एक गधे के दिमाग में यंत्र फिट कर देना... मैं तो जानता हूँ, हजारों सालों से आदमी को मशीन बनाया जाता रहा है। आदमी के दिमाग में यंत्र फिट करना कौन-सा मुश्किल काम है ?''
वैज्ञानिक हैरान था कि एक साधारण आदमी इतनी अद्भुत बातें कर रहा था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि हजारों साल से आदमी का दिमाग कैसे मशीन बनाया जाता रहा है। अपने मित्र की हैरानी को देखकर इतिहास का अध्यापक बोला, ''आ, मैं तुझे एक झलक दिखलाता हूँ।''
वे दोनों सड़क पर चलने लगे। अध्यापक ने देखा, एक फौजी अंडों की ट्रे उठाये जा रहा था। उसने उसके पीछे जाकर एकाएक 'अटेंशन' कहा। 'अटेंशन' शब्द सुनते ही फौजी के दिमाग में भरी हुई मशीन घूम गई जो न जाने कितने ही साल उसके दिमाग में घूमती रही थी। वह भूल गया कि अब वह फौज में नहीं था, सड़क पर अंडों की ट्रे ले जा रहा था। 'अटेंशन' सुनते ही वह सावधान की मुद्रा में आ गया। अंडे हाथों से गिरकर टूट गए।
इतिहास का अध्यापक ठंडी साँस भरकर बोला, ''यह है आदमी के दिमाग में भरा हुआ अनुशासन का यंत्र। इसी तरह धर्म का, सियासत का, परम्परा का, सत्ता का रिमोट कंट्रोल हाथ में पकड़कर आदमी दूसरे आदमियों को 'रोबोट' बना देता है।'' उसकी आँखों के सामने जख्मी इतिहास के पन्ने फड़फड़ा रहे थे।
''तुमने तो एक गधे को नचाया है। क्या तुम मुझे बता सकते हो कि हिटलर के हाथ में कौन-सा रिमोट कंट्रोल था जिससे उसने एक करोड़ बेगुनाह यहुदियों को मरवा दिया था !''
अब वैज्ञानिक चुप था।
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(5) हरा चश्मा

गऊ दान की महत्ता सुनकर एक सेठ ने गाय दान की। जिसको गाय दान में मिली, वह शहर की गंदी-सी बस्ती में रहनेवाला बहुत गरीब मजदूर था। उसकी कौन-सी ज़मीन थी, जहाँ हरा-भरा घास होता। उसकी बस्ती के आसपास कहीं भी हरियाली का नामोनिशान न था। गाय उसे दान में मिली थी, घास नहीं। उसने गाय को खिलाने के लिए उसके आगे सूखा घास रखा। अमीर की गाय ने सूखा घास देखकर मुँह फेर लिया। गाय किसी भी हालत में सूखा घास खाने के लिए तैयार नहीं थी। आदमी ने उसकी पीठ पर प्यार से हाथ फेरा और मिन्नत भरे स्वर में बोला, ''हे गाय, तू तो गऊ माता है। मैं तेरी पूजा करूँगा।'' पर गाय थी कि टस से मस नहीं हुई। वह दो दिनों से भूख-हड़ताल पर डटी हुई थी। आदमी डर रहा था कि अगर गाय को कुछ हो गया तो गौ-हत्या का पाप उसके सिर लगेगा। उसके भीतर के संस्कार उसे डरा रहे थे।
उस आदमी को इस प्रकार परेशान और गाय की मिन्नत-चिरौरी करते देखकर किसी ने उसे गाय की आँखों पर हरा चश्मा बांधने की सलाह दी। उसने ऐसा ही किया। हरे कागज की ऐनक बनाकर उसने गाय की आँखों पर लगा दी। अब गाय की आँखों के आगे सूखे घास की जगह हरा घास था। गाय खुश थी, आदमी खुश था, पर उस गरीब आदमी का पढ़ा-लिखा बेरोजगार बेटा उदास था। जब उससे उसकी उदासी का कारण पूछा गया तो वह रुआंसा -सा होकर बोला, ''मुझे तो जी सचमुच ऐसा लगता है कि हम लोकतंत्रीय गायें हैं। वे हमारी आँखों पर उम्मीदों का हरा चश्मा लगाकर हमसे वोट ले जाते हैं और हम सूखे को हरियाली समझ लेते हैं।''
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2 टिप्पणियाँ:

रूपसिंह चन्देल 12 मार्च 2010 को 8:31 pm बजे  

भई वाह.

अद्भुत लघुकथाएं. जितनी प्रशंसा की जाए कम है. अंतर्तम में छा गयीं है. बार बार पढ़ने का मन करने लगा.

हार्दिक बधाई.

चन्देल

सुधाकल्प 13 मार्च 2010 को 12:24 am बजे  

समस्त लघुकथाएँ प्रभाव शाली एवं अपनी अमिट छाप छोड़ने वाली हैं I
सुधा भार्गव

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ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

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'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

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