पंजाबी कहानी : आज तक

>> मंगलवार, 3 अप्रैल 2012



पंजाबी कहानी : आज तक(8)


कष्ट निवारक
कुलवंत सिंह विर्क
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


बस जल्दी जल्दी भर रही थी, इस बात से मैं खुश था। अगर जल्दी भर जाए तो कुछ मिनट पहले ही चल पड़ेगी। और फिर, भरी हुई बस को रास्ते की सवारियाँ उठाने के लिए नहीं रुकना पड़ता। मैं जल्द से जल्द दिल्ली पहुँचना चाहता था। करनाल से दिल्ली के लिए यह पहली बस थी। दुकानों और दफ्तरों के खुलने से पहले यह पहुँचा देती थी। दूसरी सवारियाँ भी मेरी जितनी ही उतावली लग रही थीं।
मेरे साथ वाली सीट पर एक ढली उम्र का किसान बैठा था। मेरा ध्यान बस के दरवाजे के साथ-साथ बाहर वाली रौनक पर भी था। मैंने उसकी ओर तभी ध्यान दिया जब उसने मुझे पढ़ा-लिखा समझकर पूछना शुरू कर दिया-
''यह बस कितने बजे चलेगी यहाँ से ?''
''छह बजे।''
''अब कितने बजे हैं ?''
''बस, छह बजने ही वाले हैं।''
''पानीपत कितनी देर में पहुँच जाएगी ?''
''पौने घंटे में।''
''अड्डे से अफ़सरों के रहने की जगह कितनी दूर होगी ? मिल जाएगी मुझे ?''
''नज़दीक ही है। मैं तुम्हें वहाँ बता दूँगा।''
''उन्होंने मुझे सात बजे बुलाया है। पहुँच ही जाऊँगा तेरी दया से। मैं तो रात को ही अड्डे पर आ गया था। कहते थे- सवेरे बस जाएगी, तू उस पर चले जाना, वक्त से पहुँचा देगी।''
उसने बताया कि पानीपत में उसकी तारीख़ थी। चकबंदी के बड़े अफ़सर के आगे उसने अपील कर रखी थी। अफ़सर रहता तो अम्बाला में था, पर दौरे पर पानीपत आया हुआ था। उस इलाके में जिन-जिन लोगों ने अपील कर रखी थी, उन सबको उसने वहीं पर बुला रखा था।
''खराब ज़मीन मेरे हिस्से में डाल दी,'' उसने कहा, ''कहते हैं, तेरा हिस्सा यहीं पर आता है। और किसे यहाँ पर फेंके। बेकार ज़मीन सस्ती मिलती है, तुझे ज्यादा दे दी है। और क्या चाहिए तुझे ? पर वहाँ तो होता ही कुछ नहीं। मैं ज्यादा का क्या करूँ ? मैं गाँव में गरीब हूँ। लड़का भी अभी छोटा है। पहले बेटियाँ ही हुईं। अब इस ढलती उम्र में लड़का हुआ है। अभी बच्चा ही है। गाँव में मेरा कोई साथ नहीं देता। इसीलिए मुझे रगड़ा लग गया है। अब देखो, यह अफ़सर क्या फ़ैसला सुनाता है। इससे ऊपर, कहते हैं, कोई अपील नहीं।''
''पर चकबंदी का तो सुना है, यह कानून होता है कि जहाँ जिसका बड़ा टुकड़ा हो, वहीं पर उसकी सारी ज़मीन को इकट्ठा करना होता है।''
''वो तो ठीक है। पर मेरे चार जगहों पर छोटे-छोटे टुकड़े थे। जहाँ सबसे खराब टुकड़ा था, उसके साथ वाली सारी ज़मीन मुझे दे डाली। गाँव वाले कहते हैं - चैन से बैठा रह। अब फिर से सारा गाँव तुड़वाएगा क्या। सबको नये सिरे से मुसीबत में डालेगा। पहले ही बड़ी मुश्किल से काम खत्म हुआ है। लोगों को ठीक से जोतने-बोने दे। तू भी कुएँ में मिट्टी डाल। दाँतों तले जीभ दबा। संवारेगा तो खुद धीरे-धीरे संवर जाएगी ज़मीन ! बहुत मिल गई है तुझे। और क्या चाहिए ? पर मुझे तो वह ज़मीन काटने को दौड़ती है। वकील किया हुआ है। देखो, क्या होता है।''
''ठीक ही होगा।'' मैं झूठी तसल्ली देता हूँ।

बस में अब बहुत भीड़ हो गई थी। मगर भीड़ से अधिक अफरा-तफरी मची थी। आज सोमवार था। इतवार की छुट्टी होने के कारण बहुत से लोग दिल्ली से बाहर आए हुए थे जो अब जल्दी लौटना चाहते थे। बस के दोनों दरवाजों में से कई सवारियाँ अन्दर आने की कोशिश कर रही थीं। लेकिन अन्दर सारी सीटें पहले ही भरी हुई थीं। फिर भी, सवारियाँ दरवाजे पर से हटती नहीं थीं। कोई तगड़ा आदमी धक्का देकर अन्दर घुस आता लेकिन बस में कोई जगह न पाकर फिर पीछे हट जाता।
जितने उतावले दरवाजे पर खड़े लोग अन्दर आने के लिए थे, उतने ही अन्दर बैठे लोग बस के चलने के लिए थे। वे कंडक्टर को बस चलाने के लिए आवाज़ें लगा रहा थे।
''बस, और कोई सीट नहीं,'' कंडक्टर ने चलने की तैयारी कर दरवाजे में खड़े लोगों से कहा।
''सीट क्यों नहीं ?... हमने टिकटें ले रखी हैं।''
''अरे, टिकटें ज्यादा काट दी क्या आज ?'' कंडक्टर ने टिकट काटने वाले मुंशी को आवाज़ दी, ''सोमवार है, अगर चैकिंग हो गई तो जुर्माना कौन भरेगा ?''
''नहीं, पूरी हैं। एक चिड़िया का बच्चा भी फालतू नहीं।'' बाहर बैठा मुंशी कागज-पत्र उसके हाथ में थमाते हुए बोला।
''तो फिर बिना टिकट सवारियाँ अन्दर आ गई होंगी।'' कंडक्टर ने जैसे माफी मांगी और फिर ऊँची आवाज़ में जैसे बस की दीवारों को सुनाते हुए बोला, ''जो भी बिना टिकट बैठे हैं, नीचे उतर जाएँ। टिकटवाले बेचारे बाहर खड़े हैं।''
कोई सवारी न हिली। अगर टिकट वाली सवारियाँ बाहर न भी खड़ी होतीं तब भी बस का चलना मुश्किल था। सीटों के बीच वाला रास्ता सामान से भरा पड़ा था। एक बुढ़िया इस रास्ते में नीचे ही बैठ गई थी।
''माई, उठकर सीट पर तो हो जा।'' कंडक्टर ने उसे ऐसे बैठा देखकर खीझते हुए कहा।
''भाई सीट हो तो पैरों में बैठने का भला मुझे कोई शौक चढ़ा है।''
एक स्त्री ने अपने तीन बच्चों समेत दो सवारियों वाली सीट घेर रखी थी। दो बच्चे तीन साल से छोटे थे इसलिए टिकट एक की ही थी।
''बच्चों को गोद में ले लो। आधी टिकट के लिए कोई सीट नहीं।'' कंडक्टर ने कहा।
एक बच्चे को बुढ़िया ने गोद में ले लिया और दो को उनकी माँ ने और इस प्रकार रास्ते में से उठकर बुढ़िया सीट पर हो गई।
लेकिन बस चलने के अभी भी कोई आसार नज़र नहीं आते थे। बेटिकट लोग सीटों पर से उठने का नाम ही नहीं लेते थे।
''अपनी अपनी टिकटें निकालो,'' कंडक्टर ने आवाज़ दी और आगे बैठी एक सवारी की ओर हाथ बढ़ाया।
''टिकट तो अभी लेनी है।'' सवारी ने धीमे से कहा।
''नीचे उतर कर लो फिर पिछली गाड़ी की। बस को यूँ ही लेट कर रहे हो। किसी किनारे भी लगाना है बस को कि झगड़े में ही दिन बिता देना है।'' कंडक्टर गुस्से में बोला।
''जल्दी पहुँचना था, सामान ऊपर पड़ा है।''
''नीचे उतर कर जल्दी उतार लो, नहीं तो दिल्ली पहुँच जाएगा। टिकट ली नहीं, कुछ किया नहीं, सामान ऊपर टिका दिया।''
बेटिकट सवारियों के कान खड़े हो गए। एक-एक करके सब खिसकने लगीं। छत पर से सामान के उतरने का शोर सुनाई देने लगा। सीटों के बीच वाले रास्ते से पड़ा सामान कुछ सीटों के नीचे और कुछ-कुछ छत पर पहुँचा दिया गया। बस, एक सवारी का फ़र्क़ रह गया।
एक नई बैठी सवारी से कंडक्टर बोला, ''तुम अपना टिकट दिखाओ।''
टिकट पिछली बस का था।
''लो, हमें क्या मालूम।'' सवारी बोली।
''टिकट के ऊपर बस का नंबर लिखा हुआ है। नीचे उतर कर उसमें बैठ जा। वो पीछे खड़ी है।'' फिर उसने खिड़की के पीछे बैठे मुंशी से कहा, ''अभी से नई टिकटें काटनी शुरू कर दीं ? सवारियाँ इधर घुसी आ रही हैं।''
''तूने तो लगता है आज बस अड्डे में से निकालनी ही नहीं। हम क्या सारा काम ठप्प कर दें। पाँच मिनट लेट हो गया तू।''
''बस हो गया हिसाब। चल रहे हैं अब।'' कंडक्टर ने मुँह बनाते हुए कहा और बस के चलने के लिए सीटी बजा दी।
''रोक के....रोक के...'' एक सूट-बूट धारी आदमी ज़ोर से चीख उठा और उछलकर अपनी सीट पर से दूर हटकर खड़ा हो गया।
''क्या बात हो गई ?'' कंडक्टर ने हैरान होकर पूछा।
''यहाँ पर किसी ने उल्टी कर रखी है। मैं नहीं बैठ सकता यहाँ। पहले इसे साफ करवाओ।''
''उल्टी किसने कर दी ?'' कंडक्टर ने अविश्वास में भरकर कहा। शायद किसी मुसाफिर ने रात को की थी या फिर सुबह-सुबह डीज़ल की बदबू के कारण कोई बैठते ही कर-कराकर एक ओर हो गया था। मुँह बाहर निकालकर कंडक्टर ने मुंशी से पूछा, ''स्वीपर खड़ा है क्या यहाँ कहीं ?''
''नहीं, दिखाई तो नहीं दे रहा। आता ही होगा।''
स्वीपर की प्रतीक्षा में एक अनिश्चित समय के लिए बस को कैसे रोका जा सकता था ? पर एक पढ़ी-लिखी सूटेड-बूटेड सवारी को सीट दिए बिना कंडेक्टर बस को चला भी कैसे सकता था ? अधिक देर हो जाने के डर से वह घबरा उठा था। सारी सवारियाँ अधीर हो रही थीं। पर किसी को कोई राह नहीं सूझ रहा थी।
मेरे पास बैठा किसान यह तो समझ गया कि अब और देर लगेगी, लेकिन उसे यह मालूम नहीं था- क्यों ?
''अब चलाते क्यों नही ? क्या अड़चन पड़ गई अब ?'' उसने मुझसे पूछा।
मेरे कुछ बताने से पहले ही कंडक्टर ने उसके पास आकर कहा, ''भाऊ, जरा उठना यहाँ से।''
''क्यों क्या बात है ?'' किसान ने सीट पर से उठते हुए पूछा।
''आ, तुझे आगे सीट देता हूँ।'' वह उसे पकड़कर आगे ले गया और इशारे से उस सूट-बूट धारी आदमी को उस किसान की सीट पर बैठने के लिए कहा।
उल्टी वाली सीट के पास ले जाकर कंडक्टर ने कहा, ''ले, बैठ जा यहाँ।''
फिर उसने खुशी में ज़ोरदार सीटी बजाई और बस चल पड़ी।

''यह सीट तो गन्दी है, मैं नहीं बैठूँगा यहाँ।'' किसान चिल्ला उठा।
''थोड़ी देर दाँतों तले जीभ रख। अगले अड्डे पर दूसरी सीट दे देंगे।'' कंडेक्टर ने हल्की-सी शरारत के साथ मुस्कराते हुए कहा।
किसी ने भी कंडेक्टर को नहीं टोका। बल्कि सभी ने राहत की साँस ली। बस लेट न होने देने के कारण हम सब उस पर खुश थे। मुश्किल से तो कष्ट-निवारक मिला था एक!

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कुलवंत सिंह विर्क
जन्म : 20 मई 1920, निधन 24 दिसम्बर 1987
पंजाबी की प्रथम कथापीढ़ी के एक सशक्त लेखक। विर्क ने पंजाबी साहित्य की झोली में कई यादगार कहानियाँ डाली हैं -'धरती हेठला बल्द', 'छाहवेला', 'दुध दा छप्पड़', 'कष्ट निवारक', 'खब्बल' 'तूड़ी दी पंड' 'दो आने दा घा' 'शेरनियाँ' आदि कभी न भुलाई जाने वाली कहानियाँ हैं। 'छाहवेला', 'धरती ते आकाश', 'तूड़ी दी पंड', 'दुध दा छप्पड़', 'गोहलां' और 'नवें लोक' उनके कहानी संग्रह हैं। वर्ष 1968 में साहित्य अकादमी, पुरस्कार से सम्मानित।

1 टिप्पणियाँ:

डॉ. जेन्नी शबनम 5 अप्रैल 2012 को 9:47 pm बजे  

सच है कितना फर्क पड़ जाता है अमीर और गरीब में. और ये असामनता हमारी मानसिकता का परिचायक है. पहनावे के कारण सम्मान पाने से वंचित हो जाता है गरीब आदमी. बहुत अच्छी कहानी. इस कथा के हिंदी रूपांतरण के लिए बहुत आभार.

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ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

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